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________________ जैनहितैषी [भाग १३ अपने बनाये हुए नवीन ब्राह्मणोंको पुराने दिनोंमें मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंका विद्यमान होना, ब्राह्मणोंके आक्षेपोंसे बचाने और पुराने ब्राह्म- उनका इतना भारी प्रभाव होना, और उनमें णोंकी जातिके घमंडको तोड़नेके लिए भरत- अपनी जातिका इतना भारी घमंड होना, महाराजको यह भी सिद्ध करना पड़ा कि वर्ण किसी तरह भी सम्भव नहीं हो सकता है और या जाति जन्मसे नहीं है, किन्तु कर्मसे है। न ये बातें जो उक्त श्लोकोंमें कहलाई गई हैं, अर्थात् किसीको उच्च या नीच माननेके वास्ते किसी तरह ३२ हजार राजाओंके आधिपति यह नहीं देखना चाहिए कि उसके बाप दादा भरत चक्रवर्तीके द्वारा कही जानेके योग्य पड़दादा आदि कौन थे, किन्तु यह देखना जान पड़ती हैं। चाहिए कि वह स्वयं कैसे कर्म करता है । उपर्युक्त श्लोकोंमें बार बार यह भी कहा यदि वह उत्तम कर्म करता है तो उत्तम है। ९ गया है कि जैनी 'वर्णान्तः पाती' अर्थात् वर्णोसे और नीच कर्म करता है तो नीच है । ' गिरे हुए नहीं हैं, जिससे सिद्ध है कि जिस तब ही तो भरत महाराजने कहा है कि मनुष्य समयका यह कथन है उस समय जैनी लोग की शुद्धि अशुद्धि हिंसा और अहिंसासे माननी " सर्वसाधारणमें ऐसे ही माने जाते थे, अर्थात् चाहिए, अर्थात् जो हिंसा करता है उसका कुल । उस समय अन्य मतका बड़ा भारी प्राबल्य था और जाति कैसी ही उच्च हो; परन्तु वह नीच ही और जैनी लोग घृणाकी दृष्टि से देखे जाते थे, में है और जो दया करता है उसका कुल और परन्तु यह अवस्था किसी तरह भी भरत महाजाति कुछ ही हो, परन्तु वह उच्च ही है। इस राजके समयकी नहीं हो सकती है; किन्तु ही सिद्धान्तसे भरत महाराजने यह नतीजा नि यह सारा कथन आचार्य महाराजके ही समयके काल दिया कि जो कोई भी मनुष्य जैनधर्मको अनुकूल पड़ता है। धारण करके दया धर्मका पालन करता है वह ही उत्तम है और ये प्राचीन ब्राह्मण पशुधात कुछ भी हो, अर्थात् चाहे यह कथन भरत करनेसे नीच हैं। महाराजके समयका हो और चाहे आचार्य ___ महाराजके समयका; किन्तु इसमें कोई संदेह '' इन श्लोकोंसे यह भी मालूम होता है कि, क, नहीं है कि आदिपुराणके कर्तीने इन मिथ्यात्वी भरत महाराजको इन पशुघाती ब्राह्मणोंकी । । ब्राह्मणोंका कथन करके भरत महाराजके द्वारा मान्यता होनेका बड़ा भारी दुःख था और इन इन ब्राह्मण वर्ण स्थापन होनेकी बातको असत्य ब्राह्मणोंकी इस पापरूप प्रवृत्तिका दूर होना सिद्ध कर दिया और स्वयं ही यह स्वीकार वे बहुत ही कठिन समझते थे; तबही तो उन्होंने " | कर लिया कि, भरत महाराजके ब्राह्मण बनानेके अपने इस दुःखको वर्णन करते हुए अपने हि करत हुए अपन दिन भी ब्राह्मण मौजूद थे और ऐसे ब्राह्मणचित्तकी अति प्रबल कषायको यह कहकर हकर मौजूद थे, जिनको अपनी जातिका घमंड था शांत किया है कि इन लोगोंको राजाआके द्वारा और जिनके विषयमें भरत महाराजको ब्राह्मण दंड मिलना चाहिए। वर्ण स्थापन करनेके दिन ही यह भय हो गया परन्तु आदिपुराणके ही दूसरे कथनोंके था कि वे हमारे बनाये हुए ब्राह्मणों पर क्रोध अनुसार भरत महाराजके समयमें और विशेष- करेंगे। (अपूर्ण ।) कर उनके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना होनेके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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