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________________ ३८२ जैनहितैषी [भाग अपने गुणोंसे द्विज नहीं हो सकता है; किन्तु वर्णन अपनी भविष्यवाणीमें किया था वह भी। जो परम्परासे द्विजोंकी संतानमें चला आता हो भरत महाराजके ब्राह्मण बनानसे बहुत समय वह ही द्विज है । तबही तो भरत महाराजको यह पीछे किया था; अर्थात् अभी तो भरत महाराजखयाल हुआ कि वे मेरे बनाये हुए देव ब्राह्मणों- को ऐसे ब्राह्मणोंका स्वप्न भी नहीं आया था । पर यह आक्षेप करेंगे कि अनेक गुण प्राप्त करने इस वास्ते इस बातको तो अन्धी श्रद्धावाले भी और अनेक उत्तम क्रियाओंके करने पर भी तू माननेको तैयार नही हो सकते हैं कि भरतद्विज नहीं हो सकता है; क्योंकि तू अमुक माता महाराजके द्वारा ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होते समय पिताका बेटा है, अर्थात् द्विजकी सन्तान न ब्राह्मण विद्यमान थे और ऐसे ब्राह्मण विद्यमान होनेसे तू किसी प्रकार भी द्विज नहीं माना जा थे, जिनका कथन उक्त श्लोकोंके द्वारा भरत सकता । इन श्लोकोंसे यह भी स्पष्ट सिद्ध है महाराज अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंसे कर रहे हैं। कि, जिस समयका यह कथन है, उस समय हाँ, आदिपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन महाजातिका अभिमान करनेवाले इन मिथ्यात्वी राजके समयकी अवस्था बिलकुल इस कथनके द्विजोंका इतना भारी प्रभाव था कि, यदि कोई अनुकूल पड़ती है; क्योंकि उस समय ब्राह्मणोंका इनको प्रणाम न करता था तो उसपर ये लोग ऐसा ही प्राबल्यथा। क्रोध करके अनेक प्रकारके आक्षेप करते थे; मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके द्वारा किये गये आक्षेअर्थात् सबसे प्रणाम करानेको वे अपना ऐसा पोंका वर्णन करके भरत महाराजने उसका जबर्दस्त अधिकार समझते थे जिसको कोई भी जो कळ उत्तर अपने बनाये हा ब्राह्मणों को उल्लंधन नहीं कर सकता था, यहाँतक कि उनके सिखाया है, उससे भी इसही बातकी पुष्टि होती खालमें ऊँचे दर्जेकी क्रिया करनेवाला जैनी भी है कि, यह कथन भरत महाराजके समयका उनको प्रणाम करनेसे इंकार नहीं कर सकता था। नहीं हो सकता है । क्यों कि इस उत्तरमें परन्तु क्या यह दशा भरत महाराजके समयमें उन्होंने इस बातके सिद्ध करनेकी कोशिश की सम्भव हो सकती है ? क्या कोई इस बात पर है कि. मनष्यकी उच्चता जन्मसे नहीं है, किन्त विश्वास कर सकता है कि, भरत महाराजके कर्मसे है। अर्थात् उच्च कुल और उच्च जातिमें ब्राह्मण बनानेसे पहले ही या ब्राह्मणवर्ण स्थापन जन्म लेनेसे मनुष्य बड़ा नहीं होता है, किन्तु करनेके दिन ही ऐसी ब्राह्मण जाति मौजूद थी दर्शन-ज्ञानचारित्रकी प्राप्तिसे ही वह उच्च जिसको अपनी जातिका घमंड हो और जिसका होता है। अभिप्राय इसका यह है कि हे ऐसा भारी प्रभाव हो जैसा कि ऊपर वर्णन किया जातिका अभिमान करनेवाले ब्राह्मणो, यद्यपि गया है । आदिपुराणके अन्य कथनोंसे तो यही तम जातिमें ऊँचे हो; परन्तु हम सम्यक्दर्शनसिद्ध होता है कि, उस समय ऐसे. ब्राह्मणांका ज्ञानचारित्रकी प्राप्तिसे ऊँचे हो गये हैं, इस विद्यमान होना तो दूर रहा, किन्तु उस समय वास्ते वास्तवमें हम ही ऊँचे हैं। उस उत्तरका उनका स्वप्नमें भी खयाल नहीं हो सकता अनवाद पह है:था । क्योंक भरत महाराजको तो पंचम कालमें "हे अपनेको द्विज माननेवाले, तू आज होनेवाले ऐसे ब्राह्मणोंका स्वप्न भी इस कथनके मेरा देवपनेका जन्म सुन-श्रीजिनेन्द्रदेव ही बहुत वर्ष पीछे आया था और श्री भगवान्ने मेरे पिता हैं, और ज्ञान ही मेरा निमेल गर्भ है। पंचम कालमें हो जानेवाले ऐसे ब्राह्मणोंका जो उस गर्भमें अरहंतदेवसम्बंधी तीन भिन्न भिन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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