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________________ अङ्क ९-१०] ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। वर्ष आदि जैन राजाओंको आदिपुराणमें उक्त है, तब फिर तू आज किस कारणसे ऊँची नाक प्रसंगकी अवतारणा करके दे डाला है। करके मेरे जैसे द्विजोंका आदरसत्कार किये 'आदिपुराणके विषयमें यह अनोखा विचार- बिना ही जा रहा है ? तेरी जाति वही है, जो कि इसमें श्री आदिनाथस्वामीके समयका कथन पहले थी; तेरा कुल वही है, जो पहले था; और नहीं है; किन्तु उस समयके पुरुषोंके नामसे तू भी वही है, जो पहले था; तो भी तू आज ग्रन्थकर्ताके ही समयका कथन है--केवल अपनेको देवस्वरूप मानता है । देवता, अतिथि, उपर्युक्त उपदेशसे ही सिद्ध नहीं होता है; किन्तु पितृ और अग्निसम्बन्धी कार्य करनेमें तत्पर होभरतमहाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाका कर भी तू गुरु-द्विज-देवोंको प्रणाम करनेसे कथन पढ़नेसे भी यही फल निकलता है। विमुख है । जिनेंद्रदेवकी दीक्षा धारण करनेसे क्योंकि भरत महाराजने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना अर्थात् जैनी बननेसे तुझको ऐसा कौनसा अतिशय करते समय अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंको जो प्राप्त हो गया है ? तू अब भी मनुष्य है और उपदेश दिया था, उसमें सद्गृहस्थपनेकी क्रि- पृथिवीको पैरोंसे स्पर्श करता हुआ ही चलता याका उपदेश देते हुए कहा था कि सत्य, शौच, है।' इस प्रकार अत्यन्त क्रोध करता हुआ यदि क्षम, दम आदि उत्तम आचरणोंको धारण कर- कोई द्विज उलाहना दे तो उसको इस प्रकार नेवाले सद्गृहस्थको चाहिए कि वह अपनेको युक्तिसे भरा हुआ उत्तर देना चाहिए । ” मूल देवब्राह्मण माने । यथाः-- श्लोक ये हैं:धराचरितैः सत्यशौचशांतिदमादिभिः । अथ जातिमदावेशात्कश्चिदेनं द्विजब्रुवः। देवब्राह्मणतां श्वाभ्यां स्वस्मिन्संभावयत्यसौ ॥ १०७॥ ब्रूयादेवं किमद्यैव देवभूयं गतो भवान् ॥ १० ॥ -पर्व ३९। त्वमामुष्यायणः किंन किं तेऽम्बाऽमुष्यपुत्रिका।। भरत महाराज यह कह तो गये कि ऐसा ऐसा येनैवमुन्नसोभूत्वा यास्यसत्कृत्यमाद्वधान् ॥३०९ ॥ करनेसे वह जैनी अपनेको देवब्राह्मण माने; जातिः सैव कुलं तच्च सोऽसि योऽसि प्रमेतनः । परन्तु उसही समय उनको इस बातका तथापि देवतात्मानमात्मानं मन्यते भवान् ॥१.१०॥ भय भी उत्पन्न हो गया कि ब्राह्मण जातिके लोग देवताऽतिथिपित्रग्निकार्येष्वप्राकृतो भवान् । अर्थात् ते लोग जो अनेक पीढ़ियोंसे ब्राह्मण . गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामाच्च पराङ्मुखः ॥११॥ माने जा रहे हैं और सब लोग जिनका आदर दीक्षां जैनी प्रपन्नस्य जातः कोऽतिशयस्तव। . सत्कार करते हैं, इन हमारे नवीन बनाये हुए यतोऽद्यापि मनुष्यस्त्वं पादचारी महीं स्पृशन् ॥११२ इत्युपारूढसंरंभमुपालब्धः स केनचित् । देवब्राह्मणों पर क्रोध करके नानाप्रकारके आक्षेप ददात्युत्तरमित्यस्मै वचोभियुक्तिपेशलैः ॥ ११३ ॥ करेंगे, इस कारण उन्होंने अपने बनाये हुए -पर्व ३९। ब्राह्मणोंको इसके आगे निम्न लिखित शिक्षा दी। उपर्युक्त श्लोकोंके पढ़नेसे साफ मालूम होता देखिए: है कि, जिन द्विजोंके क्रोध करनेका भय भरत ___“ यदि अपनेको झूठमूठ द्विज माननेवाला महाराजको हुआ उनको इस बातका मारी घमंड कोई पुरुष अपनी जातिके अहंकारमें इस नवीन था कि हम जातिके द्विज हैं, अर्थात् हम परदेवब्राह्मणको कहने लगे कि 'क्या तू आज ही म्परासे द्विजोंकी संतानमें चले आते हैं और देव बन गया है, क्या तू अमुक आदमीका बेटा जैनी नवीन द्विज बनते हैं, और यह कि वे नहीं है, और क्या तेरी माता अमुककी बेटी नहीं लोग यह भी श्रद्धा रखते थे कि कोई मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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