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________________ तेरहवाँ भाग । अंक ९-१० sam) हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । Jain Education International जैनहितैषी न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ ब्राह्मणोकी उत्पत्ति | [ लेखक, श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील । ] जनसमाजका विश्वास है कि, जब भागभूमि नहीं रही और कर्मभूमिका प्रारंभ हुआ, तब भगवान् आदिनाथने उस समय के सभी मनुष्योंको क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों में विभा जित कर दिया था । इसके बाद भरतमहाराजने अपनी दिग्विजययात्राके पश्चात् इन्हीं तीनों वर्णों के लोगोंमेंसे कुछ धर्मात्माओंको छाँटा और उन्हें ब्रह्मण करार दिया । तबसे चौथा वर्ण भी हो गया । इसके पहले न तो ब्राह्मण वर्ण ही था और न कोई ब्राह्मण ही था । इसके अनुसार हमारे भाइयों की यह भी श्रद्धा है कि, इस समय जितने भी वेदपाठी ब्राह्मण मौजूद हैं, वे सब भरतमहाराजके बनाये हुए ब्राह्मणों की ही सन्ता नमें से हैं जो चौथे कालमें तो जैनधर्म के अनुयायी थे; पर पीछे पंचमकाल में श्रद्धा भ्रष्ट होकर जैनधर्मके द्वेषी बन गये हैं । परन्तु आदिपुराणके ३८ वैसे लेकर ४२ वें तक पाँच पर्वो का स्वाध्याय करने से यह विश्वास ठीक नहीं मालूम होता है और एक बहुत ही विलक्षण बातका पता लगता है यह भाद्र, आश्विन २४४३. सितम्बर, अक्टू० १९१७. लेख उसी विलक्षणताको प्रकट करने के लिए लिखा जाता है । पाठकों को चाहिए कि, वे इसे खूब एकाग्र होकर पढ़ें । जब भरत महाराज ब्राह्मण वर्ण निर्माण कर चुके थे, तब उन्होंने अपने दरबारमें आये समस्त राजाओंको एक लम्बा चौड़ा उपदेश हुए था । उसका अभिप्राय यह है कि- “ जो अक्षरम्लेच्छ देशमें रहते हों, राजाओंको चाहिए कि उनपर सामान्य किसानों के समान कर लगावें । जो वेदों के द्वारा अपनी आजीविका करते हैं और अवर्मरूप अक्षरोंको सुनासुना कर लोगोंको ठगा करते हैं वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं । पापसूत्रोंसे जीविका करनेवाले अक्षरम्लेच्छ हैं । क्यों कि वे अपने अज्ञानके बलसे अक्षरों से उत्पन्न हुए अभिमानको धारण करते हैं । हिंसा में प्रेम मानना, मांस खानेमें प्रेम मानना, जबर्दस्ती दूसरोंका धन हरण करना और भ्रष्ट होना यही म्लेच्छों का आचरण है और ये ही सब आचरण इनमें मौजूद हैं । ये अधम द्विज ( ब्राह्मण ) अपनी जातिके अभिमान से हिंसा करने और मांस खाने आदिको पुष्ट करनेवाले वेदशास्त्र के अर्थको बहुत कुछ मानते हैं । अतः इनको For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522836
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
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