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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला
[ देवनागरी]
सुत्तपिटके
दीघनिकायो
पठमो भागो
सीलक्खन्धवग्गपाळि
विपश्यना विशोधन विन्यास
इगतपुरी १९९८
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धम्मगिरि-पालि-गन्थमाला-१ [देवनागरी] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है।
प्रथम आवृत्तिः १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां
मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं। सर्वाधिकार मुक्त। पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं। ISBN 81-7414-050-6
यह ग्रंथ छट्ठ संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है। इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में हुआ।
प्रकाशक: विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२४०३. भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स : (९१-२५५३)८४१७६
सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर.ओ. सी. फोन : (८८६-२)२३९५-११९८, फैक्स : (८८६-२)२३९१-३४१५
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā
[Devanāgari]
Suttapiţake
Dīghanikāyo
Pathamo Bhāgo
Sīlakkhandhavaggapāli
Devanāgari edition of the Pāli text of the Chattha Sangāyana
Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri - 422403, India
Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C.
Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā-1 [Devanāgari].
The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes.
First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies
Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission.
ISBN 81-7414-050-6
This volume is prepared from the Pali text of the Chattha Sangāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanāgari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India.
Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176
Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415
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विसय-सूची
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प्राक्कथन प्रस्तावना प्रकाशकीय सुत्त-सार Foreword Preface Publisher's Note
[i [xi] [xxi]
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१. ब्रह्मजालसुत्तं
परिब्बाजककथा चूळसीलं मज्झिमसीलं महासीलं पुब्बन्तकप्पिका सस्सतवादो एकच्चसस्सतवादो अन्तानन्तवादो अमराविक्खेपवादो अधिच्चसमुप्पन्नवादो अपरन्तकप्पिका सञ्जीवादो असञ्जीवादो
नेवसञ्जीनासञ्जीवादो उच्छेदवादो दिठ्ठधम्मनिब्बानवादो परितस्सितविप्फन्दितवारो फस्सपच्चयावारो नेतंठानविज्जतिवारो दिह्रिगतिकाधिट्ठानवट्टकथा विवट्टकथादि २. सामञफलसुत्तं
राजामच्चकथा कोमारभच्चजीवककथा सामञफलपुच्छा पूरणकस्सपवादो मक्खलिगोसालवादो अजितकेसकम्बलवादो पकुधकच्चायनवादो निगण्ठनाटपुत्तवादो सञ्चयबेलट्ठपुत्तवादो पठमसन्दिट्ठिकसामञफलं दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलं पणीततरसामञफलं चूळसीलं मज्झिमसीलं महासीलं
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६२
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पोक्खरसातिबुद्धुपसङ्कमनं ६२ पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदना ९५ ६३ ४. सोणदण्डत्तं
९७
चम्पेय्यक ब्राह्मणगहपतिका
इन्द्रियसंव सतिसम्प सन्तोसो नीवरणप्पानं पठमज्झानं दुतियज्ज्ञानं ततियज्झानं चतुत्थज्ज्ञानं विपस्सनाञाणं मनोमयद्धिञाणं
६३ ६५ ६५ ६६ ६७ ६७ ६८ ६९
सोणदण्डगुणकथा बुद्धगुणकथा सोणदण्डपरिवितक्को ब्राह्मणपञ्ञत्ति सी पञाकथा सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदना
कूटदन्तसुतं ७० खाणुमतकब्राह्मणगहपतिका
इद्धिविधञाणं दिब्बसोतञाणं चेतोपरियञाणं पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणं दिब्बचक्खाणं आसवक्खयञाणं अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदना
७० ७१
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कूटदन्तगुणकथा बुद्धगुणकथा ७२ महाविजितराजयञ्ञकथा
७३ ७४
चतुपरिक्खारं अट्ठ परिक्खारा
७६ चतुपरिक्खारं
३. अम्बत्तं पोक्खरसातिवत्थु
७६ तिस्सो विधा ७६
अम्बट्टमाणवो पठमइब्भवादो दुतियइब्भवादो ततियइब्भवादो
दस आकारा ७९ सोळस आकारा ७९ निच्चदान अनुकुलय
८०
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदना सोतापत्तिफलसच्छिकिरिया
८०
दासिपुत्तवादो अम्बट्ठवंसकथा खत्तियसे भावो
८३ ६. महालिसुत्तं
८४
विज्जाचरणकथा चतुअपायमुखं
८६ ८८ ९० ९२
ब्राह्मणदूतवत्थु ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थु एकंसभावितसमाधि चतुअरियफलं अरियअट्ठङ्गिकमग्गो
पुब्बकइसिभावानुयोगो लक्खणादस्सनं
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द्वेपब्बजितवत्थु ७. जालियसुत्तं
द्वेपब्बजितवत्थु ८. महासीहनादसुत्तं
अचेलकस्सपवत्थु समनुयुञ्जापनकथा अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो तपोपक्कमकथा तपोपक्कमनिरत्थकथा सीलसमाधिपञ्जासम्पदा सीहनादकथा
तित्थियपरिवासकथा ९. पोट्ठपादसुत्तं पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थु अभिसञानिरोधकथा सहेतुकसअप्पादनिरोधकथा सञ्जाअत्तकथा चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थु एकंसिकधम्मो तयो अत्तपटिलाभा
चित्तहत्थिसारिपुत्तउपसम्पदा १०. सुभसुत्तं
सुभमाणववत्थु सीलक्खन्धो समाधिक्खन्धो पञाक्खन्धो ११. केवट्टसुत्तं
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थु इद्धिपाटिहारियं
आदेसनापाटिहारियं १४३ अनुसासनीपाटिहारियं १४३
भूतनिरोधेसकभिक्खुवत्थु १४६
तीरदस्सिसकुणुपमा
१२. लोहिच्चसुत्तं १४७
लोहिच्चब्राह्मणवत्थु १४९
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगो १४९
तयो चोदनारहा १५१
नचोदनारहसत्थु १५५ १३. तेविज्जसुत्तं १५७ मग्गामग्गकथा १५८ वासेठ्ठमाणवानुयोगो १६० जनपदकल्याणीउपमा १६०
निस्सेणीउपमा १६१
अचिरवतीनदीउपमा १६२
संसन्दनकथा
ब्रह्मलोकमग्गदेसना १६८
तस्सुद्दानं १६९ | सद्दानुक्कमणिका १७३ | गाथानुक्कमणिका १७८ | संदर्भ-सूची १८० १८० १८२
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चिरं तितु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म !
बेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे द्वे ? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग
भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें ? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय
और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जाय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं।
...ये वो मया धम्मा अभिञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यजनेन ब्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितबं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अद्धनियं अस्स चिरद्वितिकं...।
दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त
...जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जल कर. बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...।
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प्राक्कथन
सद्धर्म को चिरायु बनाये रखने के लिए भगवान ने एक आवश्यकता यह बतायी कि धम्मवाणी को शुद्ध, सुव्यवस्थित रूप में सुरक्षित रखा जाय | इससे उसके अर्थ भी सही रह पायेंगे । दूसरी आवश्यकता यह बतायी कि “मैंने स्वयं अभिज्ञात करके जो धर्म सिखाया है- सब मिल-जुल कर, बिना विवाद के, उसका सामूहिक संगायन करें।"
भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात महास्थविर काश्यप के नेतृत्व में भगवान के ५०० प्रमुख शिष्यों ने इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने का पहला कदम उठाया और सारी भगवद्वाणी
को सुव्यवस्थित रूप में संकलित और संपादित करने के लिए प्रथम सामूहिक संगायन का आयोजन किया। सारी वाणी को विनय, सुत्त और अभिधम्म इन तीन भागों में बांटा गया । भगवान के समय से ही वाणी कंठस्थ करने की परंपरा चल पडी थी। यथा विनयधर, सत्तधर और मातिकाधर भिक्षओं का उल्लेख इस ओर संकेत करता है | कष्टसाध्य होने के कारण उन दिनों लिखित साहित्य का बहुत प्रचलन नहीं था । धम्म-साहित्य कंठस्थ करने का ही प्रचलन था । अतः ये भिक्षु अवश्य ही भगवान की वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने वाले होंगे। यथा विनयधर विनय को, सुत्तधर सुत्तों को और मातिकाधर मातिकाओं को | सारे साहित्य को कंठस्थ कर, याद रखने वाले महास्थविर आनन्द भी थे ही । एक ओर सारी वाणी को शुद्ध और सुव्यवस्थित रखने के लिए समय समय पर ऐतिहासिक संगीतियां होती रहीं, जिसका नवीनतम संयोजन छट्ठ संगायन के रूप में सन १९५४-५६ में ब्रह्मदेश में हुआ; दूसरी ओर वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने की एक स्वस्थ परंपरा भी कायम रही । प्रथम संगीति के बाद संभवतः मातिकाधर ही अभिधम्मधर कहलाये और आनन्द की भांति सारी वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने वाले तिपिटकधर कहलाये ।
जैसे आनन्द बहुस्सुतो धम्मधरो कोसारक्खो महेसिनो... सद्धम्मधारको थेरो आनन्दो रतनाकरो कहलाये, वैसे ही परवर्ती तिपिटकधर धम्मभंडागारिक याने धर्म के भंडार को सुरक्षित रखने वाले धर्म के भंडारी के नाम से विख्यात हुए। जब तक धम्मवाणी लिखित रूप में नहीं आयी, केवल तब तक ही कंठस्थ करने की यह प्रथा कायम नहीं रही बल्कि उसके बाद आज तक भी यह परंपरा कायम
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है। अब जबकि धम्मवाणी ताड़पत्रों पर हस्तलिखित अथवा संगमरमर की पट्टियों पर टंकित ही नहीं है बल्कि मुद्रणालयों में पुस्तकाकार मुद्रित कर दी गयी है और अब तो कंप्यूटर में भी निवेशित कर दी गयी है तो भी कंठस्थ करने की यह परंपरा आज तक कायम है और इस स्वस्थ परातन । को कायम रखना भी चाहिए । पिछले दिनों तक इस परंपरा का प्रतिनिधित्व ब्रह्मदेश के परम पूज्य महास्थविर विचित्तसाराभिवंस करते रहे। जिन्हें केवल संपूर्ण तिपिटक का ही विशाल वाङ्मय नहीं बल्कि अट्ठकथाओं का भी एक बड़ा भाग कंठस्थ था। आज भी उनके चार अन्य साथी सारे तिपिटक को कंठस्थ कर रखने के कारण तिपिटकधर हैं । उपरोक्त संगीतियों के साथ-साथ इन विनयधरों, सुत्तधरों और अभिधम्मधरों तथा तिपिटकधरों की स्वस्थ परंपरा ने २५०० वर्षों के लंबे इतिहास में धम्मवाणी को शुद्ध और सुव्यवस्थित रूप में कायम रखने की महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
भारत ने धम्मवाणी पूर्णतया खो दी, शायद इसीलिए भारत से सद्धर्म भी लुप्त हुआ । परंतु ब्रह्मदेश, श्रीलंका, थाईलैंड और कंपूचिया ने धम्मवाणी सुरक्षित रखी। इन सभी देशों में सुरक्षित तिपिटिक उनकी अलग-अलग लिपियों में लिखा गया और उनके द्वारा उसका अलग-अलग उच्चारण में पाठ किया जाता रहा । परंतु मूल कलेवर में कोई अंतर नहीं आया । छठे संगायन में जब इन सभी देशों के ग्रंथ इकट्ठे किये गये और इनके तिपिटक आचार्य एकत्रित हुए तो देखा गया कि कहीं-कहीं पाठक अथवा लिपिक की असावधानी के कारण कुछ शब्दों की वर्तनी में ही अंतर आया था परंतु यह बहुत नगण्य था । सभी लिपियों का मूल कलेवर लगभग एक जैसा ही था । एतदर्थ हम इन संगीतिकारकों और धम्म-भंडागारिकों के अत्यंत आभारी हैं। जैसे भगवान बुद्ध पौराणिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक महापुरुष हैं, वैसे ही यह धम्मवाणी किसी कवि की कल्पनाजन्य रचना नहीं, बल्कि बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्यों की अपनी अनुभवजन्य वाणी है । यह तथ्य इस सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखे गए वाङ्मय से स्वतः सिद्ध होता है। पड़ोसी देशों ने भारत की इस अनमोल निधि को कुशलतापूर्वक संभाल कर रखा, इस निमित्त सारा भारत इन देशों का आभारी है।
पड़ोसी ब्रह्मदेश ने तो केवल धम्मवाणी ही सुरक्षित नहीं रखी बल्कि इसमें समायी हुई विपश्यना साधना-विधि के सक्रिय अभ्यास को भी कायम रखा । सौभाग्य से मुझे यह विद्या परंपरागत आचार्य सयाजी ऊ बा खिन से वहीं प्राप्त हुई । सन १९६९ में जब यह विद्या लेकर मैं भारत आया और विपश्यना साधना के शिविर लगाने लगा तो यह देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि भारत के प्रबुद्ध लोगों ने अपनी इस पुरातन विद्या को कितने हर्ष के साथ अपना लिया । १५-२० वर्ष होते-होते विपश्यी साधकों की संख्या काफी बढ़ गयी । विपश्यना साधना से प्रभावित और लाभान्वित होने वाले साधक-साधिकाओं में से अनेकों ने मूल बुद्धवाणी और उसके अनुवाद की मांग करनी शुरू की ताकि इस विषय में उनकी सैद्धांतिक जानकारी बढ़े और साधना के क्षेत्र में उन्हें प्रभूत प्रेरणा और समुचित मार्गदर्शन मिले । तब तक नालंदा द्वारा नागरी लिपि में प्रकाशित तिपिटक भी अप्राप्य हो चुका था ।
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अतः विपश्यना विशोधन विन्यास ने निर्णय किया कि तिपिटक सहित तत्संबंधी सारे पालि साहित्य को मूल पालि और देवनागरी लिपि में प्रकाशित किया जाय और तदनंतर उसका हिंदी अनुवाद करके साधकों को और शोध पंडितों को सुविधा प्रदान की जाय ।
कंप्यूटर जैसे आधुनिक उपकरणों के उपलब्ध हो जाने से इस कार्य के तीव्र गति से पूरा हो सकने की संभावना बनी । उत्साही साधकों ने हर प्रकार से सहयोग देना आरंभ किया । बहुत कम समय में ही पालि के सारे साहित्य का प्रेमी से नागरीकरण हुआ और उसे कंप्यूटर में निवेशित कर दिया गया । इस निवेशन तथा छपे हुए साहित्य के अंतिम प्रूफ पठन के काम में ब्रह्मदेश के विपश्यी साधक और अन्य मूर्धन्य विद्वानों ने अत्यंत मनोयोगपूर्ण सहयोग दिया है ताकि छट्ठ संगायन के प्रेमी वाङ्मय का यह देवनागरी संस्करण पूर्णतया निर्दोष हो, प्रामाणिक हो।
क्या है तिपिटक में ?
तिपिटक में सर्वत्र महाकारुणिक भगवान बुद्ध का दिव्य, भव्य व्यक्तित्व छाया हुआ है । एक है भगवान की भौतिक रूपकाया का मनोहारी व्यक्तित्व जो महापुरुषों के बत्तीस शारीरिक लक्षणों की परिपूर्णता के साथ-साथ अप्रतिम रूप-सौंदर्य लिए हुए है, जिसे देख कर दर्शक देखता ही रह जाय । उनके चेहरे पर सदा बनी रहने वाली शांति, कांति और प्रसन्नता देखने वाले के मन में भी प्रसन्नता भर दे। दूसरा है उनकी अनुपम धर्मकाया का व्यक्तित्व जो सम्यक सम्बोधि से, विद्या और सदाचरण से. प्रज्ञा और करुणा से ओतप्रोत है। तथागत विकार रूपी अरियों का याने शत्रओं का हनन कर देने वाले अरहंत हैं; सम्यक सम्बोधि प्राप्त सम्यक सम्बुद्ध हैं; मोह-विच्छेदनी विद्या और शील समाधि के आचरण में प्रतिष्ठित विद्याचरण संपन्न हैं; सुष्टु कायिक, वाचिक और चैतसिक गति वाले सुगत हैं, तथागत हैं; समग्र लोक और लोकोत्तर निर्वाण के जाननहार लोकज्ञ हैं; अद्वितीय हैं अतः अनुत्तर हैं; बिगड़े घोड़ों जैसे पथभ्रष्ट लोगों को ठीक रास्ते पर ले आने वाले कुशल सारथी हैं; देव और मनुष्यों के शिक्षक हैं, शास्ता हैं और राग, द्वेष तथा मोह को भग्न किये हुए बोधि प्राप्त बुद्ध भगवान हैं। उनके इन विशिष्ट सद्गुणों के कारण ही वह औरों से भिन्न हैं और प्रभूत लोक-मंगल के सृजक हैं। उनकी इस धर्मकाया की कल्याणी मेघमाला के अमृत वर्षण से सारा तिपिटक अभिसिंचित है।
तिपिटक में भगवान की धर्मकाया से निकली पावन धर्म-गंगा का कल-कल निनाद है, मुक्ति प्रदायक अमृत-प्रवाह है। इसमें हमें पग-पग पर ऐसे धर्म का दर्शन होता है जो कि अच्छी प्रकार से समझाया हुआ, सुआख्यात है; जो हमें परोक्ष कल्पनाओं में न भरमा कर, प्रत्यक्ष, सांदृष्टिक सत्य का दर्शन कराता है। जिसके धारण करने से तत्काल सुफल मिलना आरंभ हो जाता है, इस
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माने में अकालिक है; जो हमें सत्य का स्वयं साक्षात्कार करने के लिए आमंत्रित करता है; जो कदम-कदम अंतिम लक्ष्य निर्वाण के समीप ले जाने वाला है और जो समझदार लोगों के लिए स्वयं अनुभव किये जाने योग्य है। यह ऐसा सांप्रदायिकता-विहीन, सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सनातन आर्यधर्म है जो कि सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। सारा तिपिटक हमें इस धर्म-सुधा का रसपान कराता है।
_ और है तिपिटक में भगवद्वाणी के अमृतपायी साधक संघ का प्रेरक दर्शन जो कि यह सिद्ध करता है कि भगवान के सिखाये हुए धर्म में अंध-श्रद्धाजन्य भक्ति-भावावेश के लिए कोई स्थान नहीं है; बाल की खाल खींचने वाले तार्किक बुद्धिवादियों के बुद्धि-किलोल के लिए कोई अवकाश नहीं है। धर्म अत्यंत व्यावहारिक है । इसे धारण करने वाला व्यक्ति मुक्ति के मार्ग पर सुप्रतिपन्न हो जाता है, ऋजु-प्रतिपन्न हो जाता है, न्याय-प्रतिपन्न हो जाता है, समीचीन रूप से प्रतिपन्न हो जाता है और सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी, अरहंत में से किसी एक आर्य अवस्था को अवश्य प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति सबके लिए पूज्य है, प्रणम्य है, वरेण्य है, दक्षिणेय्य है । तिपिटक में ऐसे गृही और गृहत्यागी संतों का दर्शन करके हमारे मन में धर्म-मार्गी होने के लिए प्रभूत, पावन प्रेरणा जागती है। उनकी आश्वासन-भरी स्वानुभूत वाणी हमारे भीतर पुलक-रोमांच जगाती है और हमारी साधना को अनुप्राणित करती है।
तिपिटक में २५०० वर्ष पूर्व के भारत का आध्यात्मिक और दार्शनिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यापारिक, औद्योगिक, पारिवारिक, नागरिक, ग्रामिक आदि सभी विषयों का बहुरंगी दर्शन निहित है। तिपिटक में २५०० वर्ष पुराना भारत जीवंत हो उठा है । तिपिटक एक ऐसा महासागर है जिसमें कल्याणकारी सुभाषितों का अतुल भंडार भरा पड़ा है।
पिटक का एक अर्थ पेटी या पिटारी भी होता है। परंतु उन दिनों वस्तुतः पिटक शब्द धम्म-साहित्य के अर्थ में बहुप्रचलित था । लेकिन यदि इसका अर्थ पेटी या पिटारी भी लें तो यह तीन पिटारियां ऐसी हैं जिनमें भारत की महान सभ्यता, संस्कृति, धर्म और दर्शन का अनमोल खजाना सुरक्षित रखा हुआ है। विशोधकर्ता देखेंगे कि यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से भगवान बुद्ध की सिखायी हुई विद्या भारत से लुप्त हो गयी परंतु वास्तविकता यह है कि वह परोक्ष रूप से सारे परवर्ती साहित्य में समा गयी । परवर्ती संस्कृत साहित्य ही नहीं बल्कि हिंदी सहित सभी प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य बुद्ध-मंतव्य से ओतप्रोत है। संत-साहित्य पर बुद्धवाणी की कितनी गहरी छाप है। अब यही वाणी अपने मूल रूप में हमारे सामने प्रत्यक्ष आ रही है जिसका विश्लेषणात्मक और तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखेंगे कि सारा भारत भगवान बुद्ध की मौलिक विचारधाराओं का और साधना विधियों
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का कितना ऋणी है | भारत ही नहीं समूचे विश्व की चिंतनधारा पर और आध्यात्मिक साहित्य पर भगवान बुद्ध की शिक्षा का गहरा प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। यही कारण है कि आज भी मानव-जाति के लिए बुद्धवाणी का विशिष्ट महत्व है। बुद्धवाणी की मंगलमयी गरिमा चिर-नवीन है। गिरे हुए मानवी मूल्यों को ऊपर उठाने में यह सदा अग्रणी रही है । घोर नैतिक अधःपतन से संत्रस्त, संतापित आधुनिक युग के लिए भगवद्वाणी की उपादेयता और अधिक प्रासंगिक हो उठी है।
___ इस साहित्य के अध्ययन से अनजान लोगों में भगवान बुद्ध के बारे में फैली हुई कुछ भ्रांतियों का निराकरण होगा । एक भ्रांति तो यह है कि भगवान बुद्ध स्वयं गृहत्यागी होने के कारण उनके शिष्य केवल गृहत्यागी भिक्षु ही थे, अतः उनकी शिक्षा केवल गृहत्यागी भिक्षुओं के लिए है, गृहस्थों के लिए नहीं । इस साहित्य से इस मिथ्या भ्रांति का सर्वथा निराकरण होगा । वास्तविकता यह है कि गृहत्यागी भिक्षु और भिक्षुणियों के मुकाबले भगवान के गृही-शिष्यों की संख्या कहीं अधिक थी। भगवान बुद्ध अपने जीवनकाल में ही बहुत लोक-विश्रुत हुए। उनकी यह प्रसिद्धि केवल गृहत्यागी संन्यासियों में ही नहीं थी, बल्कि गृहस्थों में भी उनकी कीर्ति खूब फैल गयी थी।
वे प्रत्येक वर्षावास के तीन महीने किसी एक स्थान पर टिकते थे । अधिकतर श्रावस्ती या राजगृह जैसे घनी आबादी वाले नगरों में टिकते थे ताकि नगर के अधिक से अधिक लोग उनके सान्निध्य का लाभ उठा सकें, उनके उपदेशों से लाभान्वित हो सकें । वर्षावास के बाद वे अपना सारा समय उत्तर भारत के गंगा-जमुनी दोआबे के गांव-गांव, निगम-निगम, नगर-नगर में धर्मचारिका करने में लगाते थे । लाखों-करोड़ों लोगों को विकार-विमुक्ति के लिए विपश्यना-विधि का संदेश और उचित मार्ग-निर्देशन देते थे। इस साहित्य में हम इसका विशद विवरण पायेंगे । वे जहां जाते, समूह के समूह लोग उनके दर्शन के लिए उनके पास आते और उनका धर्म-उपदेश सुनते थे। कई लोग उनसे अकेले एकांत में भी मिलने आते थे। उनकी मंगल-वाणी से प्रभावित होकर स्थानीय गृहस्थ उन्हें भिक्षु-संघ सहित अपने घर भोजन-दान के लिए आमंत्रित करते और उनके आशीर्वादमय उपदेशों से लाभान्वित होते थे। देश का गृहत्यागी-वर्ग तो उनसे धार्मिक वार्तालाप करने और कभी-कभी वाद-विवाद करने के लिए भी आता ही रहता था परंतु उनसे मिलने वालों में अधिक संख्या गृहस्थों की ही होती थी।
सम्बोधि प्राप्ति से लेकर महापरिनिर्वाण तक जीवन के ४५ वर्षों में भगवान ने हजारों सदुपदेश दिये । इनसे प्रभावित होकर केवल संन्यासी ही नहीं बल्कि समाज के हर संप्रदाय के, हर मान्यता के, हर पेशे के, हर वर्ग के गृहस्थ भगवान के संपर्क में आये और उनके बताये मार्ग पर चल कर मंगल-लाभी हुए । चाहे मगध-नरेश बिंबिसार हो या कोसल-नरेश प्रसेनजित, चाहे महारानी मल्लिका हो या महारानी खेमा, चाहे अभय राजकुमार हो या बोधि राजकुमार, चाहे सेनापति बंधुल हो या
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सेनापति सिंह, चाहे राजमहिषी श्यामावती हो या दासी खुज्जुत्तरा, चाहे राजपुरोहित पुत्र कात्यायन हो या राजवैद्य जीवक, चाहे दानवीर श्रेष्ठि अनाथपिंडिक हो या भिखमंगा कोढ़ी सुप्पबुद्ध, चाहे जटिल काश्यप बंधु हों या परिव्राजक दारुचीरिय, चाहे सद्गृहिणी विसाखा हो या नगरवधू अम्बपाली, चाहे ब्राह्मण महाकाश्यप हो या भंगी सुनीत, चाहे ब्राह्मण सारिपुत्र हो या चांडालपुत्र सोपाक, चाहे सदाचारी सीलवा या हत्यारा अंगुलिमाल - भगवान के संपर्क में जो आया, जिसने भी धर्म - गंगा में डुबकी लगायी, जिसने भी विपश्यना साधना का अभ्यास किया, वही बदल गया, वही सुधर गया, वही दुःख - मुक्त हो गया ।
कुछ अनजान लोगों में भगवान बुद्ध के प्रति एक भ्रम यह भी है कि वह जन्म-मरण के भवचक्र से मुक्त होने का उपदेश देते थे, अतः रोजमर्रा की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं के प्रति नितांत उदासीन और अन्यमनस्क थे । इस साहित्य का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वे लोकीय समस्याओं के प्रति भी कितने सजग और संवेदनशील थे । यह सच है कि उनके द्वारा भिक्षुओं को दिये गये लोकोत्तर परम सत्य से संबंधित उपदेशों की संख्या बहुत बड़ी है परंतु गृही-शिष्यों के लिए श्रेष्ठ लोकीय जीवन जीने के सदुपदेश कम नहीं हैं । उन्होंने गृहस्थ जीवन के हर पहलू पर उपदेश दिये हैं। माता-पिता और संतान, पत्नी और पति, मालिक और नौकर, गुरु और शिष्य, मित्र और मित्र, राजा और प्रजा के पारस्परिक संबंधों को लेकर दिये गये उनके उपदेश आज भी उतने ही तरोताजा हैं, उतने ही प्रासंगिक हैं, उतने ही उपादेय हैं । स्वदेश की समुचित सुरक्षा के लिए लिच्छवी प्रजातंत्रवादियों को दिया गया उनका उपदेश आज की किसी भी लोकतंत्रीय सरकार के लिए आदर्शरूप से अपनाया जा सकने योग्य है । इसी प्रकार अन्य शासकों के लिए भी उनकी शिक्षा अनमोल है । राजा रक्खतु धम्मेन अत्तनो व पजं पजं - शासक अपनी प्रजा की रक्षा वैसे ही करे जैसे कि वह अपनी संतान की करता है । उनकी शिक्षा की इस परंपरा से प्रभावित होकर धर्मराज सम्राट अशोक ने जिस लोक मंगलकारी शासन व्यवस्था का आदर्श उपस्थित किया वह समस्त मानवी इतिहास में अनूठा है, अनुपम है, अद्वितीय है, अनुकरणीय है । भारत ही नहीं अपितु समग्र विश्व के प्रशासकीय इतिहास का जाज्वल्यमान प्रकाश स्तंभ है |
भगवान बुद्ध के बारे में एक और बड़ी भ्रांति यह है कि उन्होंने अपने उपदेशों में दुःख को महत्व दिया, अतः उनकी शिक्षा दुःखप्रधान है और निराशाजनक उदासी लिए हुए है । इस साहित्य के प्रकाश में आने से इस सर्वथा मिथ्या मान्यता का निराकरण होगा और यह तथ्य उजागर होगा कि दुःखी और निराश मानव के लिए आशा और विश्वास का आश्वासन लिए हुए, इसकी तुलना का अन्य कोई साहित्य कहीं उपलब्ध नहीं है। रोग को असाध्य बता देना रोगी के लिए अवश्य ही निराशाजनक बात होती है । परंतु रोगी को उसके रोग से आगाह कर के रोग के सही कारण को खोज बताना और इतना ही नहीं, उस कारण का निवारण कर रोगी को सर्वथा रोगमुक्त हो जाने
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की औषधि प्रदान कर देना तो रोगी के लिए वरदान है। उसके लिए इससे बढ़ कर आशा और विश्वासभरी बात और क्या हो सकती है भला ? यही बात दुःख की व्याख्या पर लागू होती है, कितनी ही कटु क्यों न हो, पर दुःख जीवन-जगत की एक ऐसी सार्वजनीन सच्चाई है जिसे नकारा नहीं जा सकता । भगवान ने दुःख का मात्र उद्घाटन ही नहीं किया, बल्कि उसके मूलभूत कारण को प्रकाश में ला कर उसे जड़ से उखाड़ फेंकने वाली आर्य-अष्टांगिक-मार्गजन्य विपश्यना की सहज, सुगम, सुग्राह्य साधना-विधि प्रदान की। यह किसी बुद्धिवादी दार्शनिक की महज सैद्धांतिक व्याख्या नहीं है, बल्कि सर्वथा व्यावहारिक है, प्रायोगिक है, चिर-परीक्षित है और प्रत्यक्ष फलदायिनी है। उदासी और कुंठाओं से भरे हुए दुखियारे व्यक्ति को अभी, यहीं आशाभरे परिणाम प्रदान करती है | लोकीय और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों की सुख-शांति उपलब्ध कराती है |
व्यक्ति-व्यक्ति की सुख-शांति के साथ-साथ, जात-पांत के भेदभाव और संप्रदायवाद के विषैले दूषण को दूर कर सारे समाज और राष्ट्र की सुख-शांति और समृद्धि के हितार्थ उनके शाश्वत उपदेश देश के लिए ही नहीं वरन सारे विश्व के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। केसमुत्त के कालामों को दिया हुआ उनका प्रसिद्ध उपदेश मानव-जाति के लिए विचार-स्वातंत्र्य का प्रथम प्रभावशाली घोषणापत्र है । उनकी सारी शिक्षा कट्टरपंथी अंधमान्यताओं से विमुक्त, पुरोहितगिरी के दूषित समाज-शोषण से दूर, पूर्णतया वैज्ञानिक और बुद्धिसंगत है, न्यायसंगत है। इसीलिए लोकमान्य है। जिस व्यक्ति के सदुपदेशों के कारण भारत विश्व-गुरु बना उसकी वाणी का पुनः प्रकाशित होना देश के लिए कल्याणकारी ही नहीं, गौरवपूर्ण भी है।
विपश्यी साधकों के लिए तो तिपिटक एक अतुलित ज्ञान-कोष है | यद्यपि विपश्यना का थोड़ा बहुत उल्लेख ऋग्वेद से लेकर महावीर स्वामी तथा कबीर और नानक जैसे साधक संतों की वाणी तथा भारत की सभी परंपराओं के धर्मशास्त्रों में यत्र-तत्र बिखरा हुआ मिलता है, परंतु व्यावहारिक विपश्यना का प्रामाणिक विशद वर्णन और उसकी सूक्ष्म बारीकियों की अभिव्यंजना तिपिटक छोड़ अन्यत्र कहां मिल सकती है भला ? भगवद्वाणी पढ़ते हुए सुधी साधक को अनेक जगह यों लगता है जैसे भगवान ने उसकी साधना-संबंधी कठिनाइयां जान ली हैं और अमुक उपदेश मानो उसी के लिए दिया गया है। मानो भगवान असीम आश्वासन-भरी वाणी में बड़े प्यार से उसे ही समझा रहे हैं। ऐसी सुधावर्षिणी वाणी का प्रकाशन साधकों के लिए सचमुच वरदान सिद्ध होगा।
भगवान की कल्याणी वाणी का प्रकाशन और गंभीर अध्ययन विदेशों के कतिपय विद्वानों ने किया है । ब्रह्मदेश की बुद्ध शासन समिति, लंदन की पालि टेक्स्ट सोसायटी और श्रीलंका की बुद्धिस्ट टेक्स्ट सोसायटी इस कार्य में अग्रणी रही हैं। भदंत जगदीश काश्यपजी के नेतृत्व में भारत के नव-नालंदा महाविहार ने भी प्रकाशन के महत्वपूर्ण काम की शुरुआत की | अब उसे आगे बढ़ाने
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की आवश्यकता है। विपश्यना विशोधन विन्यास का इस दिशा में क्रियाशील होना प्रशंसनीय है, श्लाघनीय है, अभिनंदनीय है |
ऐसे विशद, बृहद तथा अत्यंत महत्वपूर्ण साहित्य की भमिका लिखने का दायित्व मैंने स्वयं अपने ऊपर लिया । सोचा था चालीस-पचास पन्नों में सांगोपांग भूमिका तैयार हो जायेगी । परंतु जब इस साहित्य का पुनः अवलोकन करते हुए उद्धरण एकत्र करने लगा तो सद्धर्म के इस विशाल रत्नाकर में डुबकियां लगाते हुए एक से बढ़कर एक प्रेरक प्रसंगों तथा एक से बढ़कर एक अनमोल उद्धरणों के रत्नों से झोली भरती ही गयी। सभी अनमोल रत्न कितने आकर्षक ! कितने कल्याणकारी ! कितने प्रेरक ! दुविधा थी किसे लूं, किसे छोडूं । न चाहते हुए भी अनेकों को छोड़ना पड़ा । छोड़ते-छोड़ते भी सहस्राधिक उद्धरण बच गये जिन सभी का प्रयोग करने में भूमिका का कलेवर बढ़ता ही गया । अतः भूमिका के इस बृहद ग्रंथ को अलग पुस्तकाकार प्रकाशित करना समीचीन समझा । विश्वास है तिपिटक-प्रेमी, हिंदी-भाषी साधकों के लिए यह अत्यंत उपादेय सिद्ध होगा।
भगवद्वाणी तथा तत्संबंधित पालि-साहित्य का प्रकाशन सर्वजनहितकारी हो, सर्वविधि मंगलकारी
हो!
सभी पाठकों का मंगल हो ! कल्याण हो !
सब की स्वस्ति-मुक्ति हो !!
बुद्धपूर्णिमा, १९९३
स. ना. गोयन्का
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प्रस्तावना
पालि तिपिटक का संक्षिप्त परिचय
भगवान बुद्ध • समस्त संसार को शुद्ध धर्म के आधार पर सुख-शांतिमय जीवन जीने के लिए एक पावन पथ का प्रज्ञापन किया। इससे तत्कालीन भारत के इतिहास पर भी प्रचुर प्रकाश पड़ा और इसी से पालि साहित्य का उषाकाल भी प्रारंभ हुआ । भगवान ने जिस दिन बुद्धत्व प्राप्त किया तथा जिस दिन महापरिनिर्वाण प्राप्त किया, उसके मध्य पैंतालीस वर्षों तक जहां कहीं, जिस किसी को, जो भी उपदेश दिया, उन समस्त बुद्ध वचनों का संग्रह तिपिटक कहलाया । तिपिटक का अर्थ है - तीन पिटक या पिटारियां या धर्म साहित्य-संग्रह । इन तीन पिटकों में बुद्ध वाणी का संग्रह किया गया है । तीन पिटकों के नाम हैं- विनय-पिटक, सुत्त-पिटक और अभिधम्मपिटक ।
बुद्ध वचनों को संकलित करने हेतु छः ऐतिहासिक धम्म संगीतियों का आयोजन किया गया । इन्हें धम्म-संगीति इसलिए कहा गया क्योंकि इनमें धम्म के मूल पाठ की प्रत्येक पंक्ति का पाठ एक ज्येष्ठ थेर या अग्रज भिक्षु द्वारा किया जाता था तथा उसके बाद सभा में उपस्थित सभी अन्य भिक्षुगण इसका संगायन करते थे । संगायन को प्रामाणिक तभी मानते थे जबकि सभी उपस्थित भिक्षु एकमत हो उसे स्वीकृत करते थे ।
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धम्म ( शुद्ध धर्म) के दो प्रमुख पक्ष हैं- पहला सैद्धांतिक पक्ष यानि मूल पाठ जिसे परियत्ति कहते हैं और दूसरा व्यावहारिक यानि प्रायोगिक पक्ष जिसे पटिपत्ति कहते हैं । इन संगीतियों का आयोजन धम्म के परियत्ति पक्ष को शुद्ध रूप में सुरक्षित रखने के लिए हुआ | बुद्ध वचनों का दैनिक जीवन में अभ्यास ही पटिपत्ति है । यही धम्म का वास्तविक प्रचार वाहन है । धम्म की वास्तविक लोकप्रियता राजकीय संरक्षण या लोगों द्वारा सैद्धांतिक पक्ष की स्वीकृति मात्र से नहीं थी, बल्कि इसलिए थी कि भगवान बुद्ध ने मन को शुद्ध करने की विद्या - विपस्सना साधना के अभ्यास की विधा स्पष्ट रूप से सिखायी । उन्होंने हमारे दुःख का कारण बताया तथा कारण को मिटा कर
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वास्तविक शांति की अनुभूति करने का मार्ग दिखाया | धम्म के सुस्पष्ट, सुनिश्चित, हितकारी, सहज ज्ञात होने वाले, यहीं और अभी फल देने वाले, क्रमशः मुक्ति के लक्ष्य की ओर ले जाने वाले पहलू ने विभिन्न वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया, जिसके फलस्वरूप धम्म विश्वव्यापी हुआ |
इन संगीतियों के आयोजन का मुख्य उद्देश्य बुद्ध-वचनों को अपने शुद्ध रूप में सुरक्षित रखना था जिससे कि किन्हीं अज्ञानी लोगों द्वारा इसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ कर इसे दूषित न कर दिया जाय । इन संगीतियों की आवश्यकता इसलिए भी पड़ी क्योंकि तीसरी संगीति तक भी बुद्ध-वचन लिखे नहीं जा सके थे, केवल स्मृतिबद्ध किये जाते रहे । संघ-विषयक अनुशासन को शुद्ध रूप में बनाये रखने तथा उसमें किसी प्रकार के विवाद के खड़े होने पर ये संगीतियां एक मंच का भी कार्य करती थीं। अब तक आयोजित हुई छः संगीतियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :
पहली धम्म-संगीति राजगीर (राजगृह) में राजा अजातसत्तु (अजातशत्रु) के संरक्षण में भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तीन माह के पश्चात ५४४ ईसा पूर्व में संपन्न हुई। इसी धम्म संगीति में प्रथम बार समस्त बुद्धवाणी को एकत्रित किया गया । इस संगीति की अध्यक्षता महाकस्सप थेर ने की, उपालि ने विनय का पाठ किया तथा आनन्द ने धम्म का । इसमें पांच सौ अरहतों ने भाग लिया तथा यह संगीति सात महीनों तक चली। इस प्रकार विनय और धम्म का संग्रह किया गया । दीघनिकाय अट्ठकथा की निदान कथा से यह ज्ञात होता है कि 'धम्म' शब्द का प्रयोग सुत्त तथा अभिधम्म के लिए किया गया।
दूसरी धम्म-संगीति पहली संगीति के सौ वर्ष बाद वेसाली (वैशाली) के वाळुकाराम में राजा काळासोक के संरक्षण में आयोजित की गई। विनय के नियमों को लेकर एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ था, जिसका निर्णय करने के लिए इस संगीति का आयोजन हुआ। इसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया तथा इसकी अध्यक्षता रेवत थेर ने की । इसमें बुद्ध-वचन का पुनः संगायन किया गया ।
तीसरी धम्म-संगीति ३२६ ईसा पूर्व पाटलिपुत्त (पाटलिपुत्र) के असोकाराम नामक विहार में राजा धम्मासोक (सम्राट अशोक) के संरक्षण में हुई। थेर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने इसकी अध्यक्षता की तथा एक हजार स्थविर भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया । यह संगीति नौ मास तक चली । इस संगीति के दौरान थेर मोग्गलिपुत्त तिस्स ने मिथ्या मतों का खंडन करते हुए पुनः शुद्ध धम्म के स्वरूप का प्रतिपादन कर कथावत्थु नामक ग्रंथ का संकलन किया। यह ग्रंथ तिपिटक परंपरा के अंतर्गत अभिधम्म-पिटक का एक अभिन्न अंग माना जाने लगा। बुद्ध-वचन के संगायन के पश्चात सम्राट अशोक ने सुदूर देशों में धम्म प्रचार हेतु नौ धम्मदूतों की परिषदें भेजी। इन थेरों ने धम्म के ‘पटिपत्ति' पक्ष पर बल देते हुए धम्म को विश्वव्यापी बनाया ।
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चौथी धम्म संगीति श्रीलंका में २९ वर्ष ईसा पूर्व, राजा वट्टगामिनी के समय में आयोजित की गई। इसमें पांच सौ विद्वान थेरों ने भाग लिया तथा इसकी अध्यक्षता महाथेर रक्खित ने की। इसमें सारे तिपिटक का संगायन किया गया तथा उसे प्रथम बार लिपिबद्ध कर लिया गया ।
पांचवीं धम्म संगीति सन १८७१ में ब्रह्मदेश के मांडले शहर में राजा मिं डों मिं के संरक्षण में बुलाई गयी । इसमें दो हजार चार सौ विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया । इस संगीति की अध्यक्षता बारी-बारी से श्रद्धेय महाथेर जागराभिवंस, महाथेर नरिंदभिधज तथा महाथेर सुमंगल सामी ने की । तिपिटक का संगायन और उसे संगमरमर की पट्टियों पर लिखने का कार्य पांच मास तक चलता रहा ।
छठी धम्म-संगीति मई, १९५४ में ब्रह्मदेश के प्रधानमंत्री ऊ नू द्वारा रंगून में आयोजित की गई। श्रद्धेय अभिधज महारट्ठगुरु भदंत रेवत ने इसकी अध्यक्षता की तथा इसमें दो हजार पांच सौ विद्वान भिक्षुओं ने भाग लिया, जो ब्रह्मदेश, श्रीलंका, थाईलैंड, कंपूचिया, भारत आदि देशों से आये थे। उन्होंने तिपिटक तथा इसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को पुनः जांचा और इनके प्रामाणिक संस्करण का प्रेम लिपि में मुद्रण करवाया। इस संगीति का समापन सन १९५६ की वैशाख पूर्णिमा के दिन भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के २५०० वर्ष पूरे होने पर हुआ ।
इन छः ऐतिहासिक संगीतियों में पहली तीन भारत में, चौथी श्रीलंका में तथा पांचवीं व छठी ब्रह्मदेश में हुई, जो कि धम्म को शुद्ध रूप से सुरक्षित रखने में सफल हुई । इन छः संगीतियों के कारण ही भगवान बुद्ध के २५०० वर्ष बाद भी धम्म अपने शुद्ध रूप जीवित है और निरंतर विकसित एवं प्रसारित हो रहा है ।
पालि तिपिटक, अट्ठकथाओं आदि का प्रकाशन विभिन्न लिपियों में उपलब्ध है; जैसे कि सिंहली, म, थाई, कंबोजी, रोमन तथा देवनागरी आदि । भारतवर्ष में सर्वप्रथम नागरी लिपि में तिपिटक तथा कुछ अट्ठकथाओं का प्रकाशन नव-नालंदा महाविहार, नालंदा ने किया। किंतु अभी तक संपूर्ण अट्ठकथाएं तथा टीकाएं नागरी में उपलब्ध नहीं हैं । नागरी लिपि में प्रकाशित तिपिटक भी आजकल अप्राप्य है । इस अभाव की पूर्ति हेतु विपश्यना विशोधन विन्यास संपूर्ण पालि तिपिटक, अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि को देवनागरी लिपि में संपादित कर, प्रकाशित कर रहा है। इस प्रकाशन का मूल उद्देश्य साधकों तथा विद्वानों को परियत्ति ज्ञान के आधार पर विपश्यना द्वारा शुद्ध धर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देना है तथा भगवान की वाणी को घर-घर तक पहुँचाना है ।
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छट्ठ संगायन के अनुसार 'तिपिटक', 'अट्ठकथाओं', 'टीकाओं-अनुटीकाओं के ग्रंथों का विभाजन इस प्रकार है :
तिपिटक
विनय-पिटक
१. पाराजिक २. पाचित्तिय ३. महावग्ग ४. चूळवग्ग ५. परिवार ।
सुत्त-पिटक
१. दीघनिकाय २. मज्झिमनिकाय ३. संयुत्तनिकाय ४. अङ्गुत्तरनिकाय ५. खुद्दकनिकाय |
खुद्दकनिकाय के अंतर्गत ग्रंथ हैं- खुद्दकपाठ, धम्मपद, उदान, इतिवुत्तक, सुत्तनिपात, विमानवत्थु, पेतवत्थु, थेरगाथा, थेरीगाथा, अपदान, बुद्धवंस, चरियापिटक, जातक, महानिद्देस, चूळनिद्देस, पटिसम्भिदामग्ग, नेत्तिपकरण, पेटकोपदेस*, मिलिन्दपज्ह । ..
(*ब्रह्मदेश की परंपरा के अनुसार उक्त तीनों ग्रंथ अपनी महत्ता के कारण तिपिटक के अभिन्न अंग मान लिये गये हैं।
अभिधम्म-पिटक
१. धम्मसङ्गणि २. विभङ्ग ३. धातुकथा ४. पुग्गलपञत्ति ५. कथावत्थु ६. यमक ७. पट्ठान ।
अट्ठकथा
विनय-पिटक अट्ठकथा (समन्तपासादिका)
१. पाराजिक अट्ठकथा २. पाचित्तिय अट्ठकथा ३. महावग्ग अट्ठकथा ४. चूळवग्ग अट्ठकथा ५. परिवार अट्ठकथा ६. कजावितरणी (पातिमोक्ख) अट्ठकथा ।
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__ [१३]
सुत्त-पिटक अट्ठकथा
१. दीघनिकाय अट्ठकथा (सुमङ्गलविलासिनी) २. मज्झिमनिकाय अट्ठकथा (पपञ्चसूदनी) ३. संयुत्तनिकाय अट्ठकथा (सारत्थप्पकासिनी) ४. अङ्गुत्तरनिकाय अट्ठकथा (मनोरथपूरणी) ५. खुद्दकनिकाय अट्ठकथा ।
खुद्दकनिकाय अट्ठकथा के अंतर्गत ग्रंथ हैं - खुद्दकपाठ अट्ठकथा (परमत्थजोतिका), धम्मपद अट्ठकथा, उदान अट्ठकथा (परमत्थदीपनी), इतिवुत्तक अट्ठकथा (परमत्थदीपनी), सुत्तनिपात अट्ठकथा (परमत्थजोतिका),विमानवत्युअट्ठकथा (परमत्थदीपनी),पेतवत्थुअट्ठकथा (परमत्थदीपनी), थेरगाथा अट्ठकथा (परमत्थदीपनी), थेरीगाथा अट्ठकथा (परमत्थदीपनी), अपदान अट्ठकथा (विसुद्धजनविलासिनी), बुद्धवंस अट्ठकथा (मधुरत्थविलासिनी), चरियापिटक अट्ठकथा (परमत्थदीपनी), जातक अट्ठकथा, महानिद्देस अट्ठकथा (सद्धम्मप्पज्जोतिका), चूळनिद्देस अट्ठकथा (सद्धम्मप्पज्जोतिका), पटिसम्भिदामग्ग अट्ठकथा (सद्धम्मप्पकासिनी), नेत्तिप्पकरण अट्ठकथा, पेटकोपदेस अट्ठकथा, मिलिन्दपज्ह अट्ठकथा ।
अभिधम्म-पिटक अट्ठकथा
१. धम्मसङ्गणि अट्ठकथा (अट्ठसालिनी) २. विभङ्ग अट्ठकथा (सम्मोहविनोदनी) ३. पञ्चप्पकरण अट्ठकथा (धातुकथा, पुग्गलपञत्ति, कथावत्थु, यमक एवं पट्टान की अट्ठकथा)।
टीका
विनय-पिटक टीका -
१. वजिरबुद्धि टीका २. सारत्थदीपनी टीका ३. विमतिविनोदनी टीका ४. विनयालङ्कार टीका ५. कावितरणी पुराण टीका ६. कलावितरणी अभिनव टीका ।
सुत्त-पिटक टीका
१. दीघनिकाय टीका (लीनत्थप्पकासना) २. दीघनिकाय सीलक्खन्धवग्ग अभिनव टीका (साधुविलासिनी) ३. मज्झिमनिकाय टीका (लीनत्थप्पकासना) ४. संयुत्तनिकाय टीका
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[१४]
(लीनत्थप्पकासना) ५. अङ्गुत्तरनिकाय टीका ( सारत्थमञ्जूसा) ६. नेत्तिप्पकरण टीका (लीनत्थवण्णना) ७. नेत्तिविभाविनी टीका ।
अभिधम्मपिटक टीका -
१. धम्मसङ्गणि मूलटीका २. धम्मसङ्गणि अनुटीका ३. विभङ्ग मूलटीका ४. विभङ्ग अनुटीका ५. पञ्चप्पकरण मूलटीका ६. पञ्चप्पकरण अनुटीका ।
उपरोक्त ग्रंथों के अतिरिक्त ब्रह्मदेश में प्राप्य अन्य टीकाओं- अनुटीकाओं तथा इतिहास, नीति, छंद, पिंगल, व्याकरणादि विषयों पर उपलब्ध साहित्य को भी प्रकाशित करने की योजना है ।
प्रस्तुत प्रकाशन
छट्ठ संगायन का समस्त साहित्य ग्रंम लिपि में अवश्य संपादित हुआ परंतु इसी कारण उसे ब्रह्मदेशीय संस्करण नहीं कह सकते । छट्ठ संगायन में ब्रह्मदेशीय विद्वान भिक्षुओं के अतिरिक्त श्रीलंका, थाईलैंड और कंपूचिया के ही नहीं बल्कि भारत भी पालि भाषा के कुछ मूर्धन्य विद्वान सम्मिलित हुए थे। सबकी सहमति से ही यह पाठ स्वीकृत हुआ था । अतः जब तक भविष्य में कभी आवश्यकता पड़ने पर सप्तम संगायन का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजन न हो, तब तक इस ऐतिहासिक छट्ठ संगायन द्वारा स्वीकृत तिपिटक, उसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं और अनुटीकाओं का समग्र वाङ्मय ही प्रामाणिक माना जाएगा। अतएव विपश्यना विशोधन विन्यास उसी के कलेवर को स्वीकार कर प्रथमतः उसे देवनागरी लिपि में प्रकाशित कर रहा है ।
इस प्रकाशन की कुछ अन्य विशेषताएं
(१) आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति का पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए विपश्यना विशोधन विन्यास ने समस्त प्रकाशनीय साहित्य को कंप्यूटर में निवेशित करवाया है। इससे इस अनमोल संपदा के चिर-स्थाई बने रहने की संभावना दृढ़ हुई है। साथ ही भविष्य में इस संपूर्ण साहित्य अथवा इसके किसी भी अंश के पुनर्मुद्रण की सहज सहूलियत उपलब्ध हुई है ।
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(२) विपश्यना विशोधन विन्यास की यह योजना है कि इस संपूर्ण साहित्य को CD-ROM सिस्टम में भी निवेशित कर दिया जाय, ताकी यह अनमोल संपदा सदियों तक सुरक्षित रह सके ।
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(३) कंप्यूटर के लिए ऐसे प्रोग्राम तैयार किये जा रहे हैं जिनसे कि बँगला, गुजराती आदि
भारत की अनेक लिपियों में तथा भ्रम, सिंहली, थाई और रोमन लिपियों में भी इस संस्करण का सारा साहित्य सरलता से लिप्यंतरित हो कर प्रकाशित किया जा सकेगा। इन प्रोग्रामों के कारण कंप्यूटर द्वारा स्वतः ही लिप्यंतर हो जाएगा। कठिन मानवी लेखन-श्रम की आवश्यकता नहीं होगी।
(४) शोध-पंडितों के लाभार्थ विन्यास ने कंप्यूटर के ऐसे प्रोग्राम भी तैयार करवाये हैं जिनसे
कंप्यूटर द्वारा अनुसंधान-कार्य में अपूर्व सहायता मिल सकती है जैसे कि इस संस्करण के किसी भी ग्रंथ अथवा सारे वाङ्मय में किसी भी उद्धरण की त्वरित गति से खोज करना सरल हो गया है। यह खोज केवल शब्दों की ही नहीं बल्कि गाथाओं, वाक्यों अथवा वाक्यांशों की भी हो सकती है। इन प्रोग्रामों के कारण शोध-पंडितों को इस संस्करण के आधार पर शोध कर सकने के अनेक नये आयाम खुल गये हैं । जो काम अनेक लोगों के मानवी श्रम से भी शुद्ध रूप में कर पाना कठिन था, वह अब आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों द्वारा द्रुत गति से नितांत निर्दोष रूप में किया जा सकना सहज हो गया है। ऐसे अनेक विशिष्ट प्रोग्राम बनवा सकने में 'विपश्यना विशोधन विन्यास' को आशातीत सफलता मिली है।
(५) शब्दानुक्रमणिका विशोधन के लिए अत्यंत आवश्यक है । कंप्यूटर के ही कारण इसे अत्यंत
बहद रूप में सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है।
(६) शब्दानुक्रमणिका के अतिरिक्त गाथाओं की सूची भी दी जा रही है, जो कि शोधकों के
लिए लाभदायक सिद्ध होगी।
(७) लंदन की पालि टेक्स्ट सोसायटी ने जो ग्रंथ प्रकाशित किये हैं उनके संदर्भ-विलोकन की
समुचित सुविधा भी अलग से प्रदान की गयी है।
(८) तिपिटक में विपश्यना, प्रज्ञा, निरोध आदि से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध रखने वाले
अंशों को अलग टाईप के अक्षरों में दर्शाया गया है, जिससे साधकों का ध्यान उनकी ओर सहज ही आकृष्ट हो सके और इसके फलस्वरूप वे साधना के क्षेत्र में अधिक उत्साहित हो आगे बढ़ सकें और विशोधक इस पर सरलतापूर्वक विशेष विशोधन कार्य कर सकें।
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[१६]
(९) ऐसे ही ‘पेय्यालों' के अंतर्गत पाए जाने वाले उक्त प्रकार के अंशों को सविस्तार दिया
गया है, जिससे साधक जान पाएं कि भगवान बुद्ध साधना-संबंधी किन बातों पर बल दिया करते थे।
(१०) तिपिटक के प्रत्येक ग्रंथ में समाविष्ट बुद्ध-वचनों का संक्षिप्त सार हिंदी पाठकों के लाभार्थ
दिया जा रहा है।
(११) इसके अतिरिक्त संपूर्ण तिपिटक की विस्तृत भूमिका हिंदी भाषा में प्रकाशित की जा
रही है जिसमें पालि के सहस्राधिक उद्धरण और उनका अनुवाद उद्धरित, संकलित है। इससे हिंदी-भाषी पाठक इस अमूल्य साहित्य का एक विस्तृत विहंगावलोकन कर सकेंगे। इसका अंग्रेजी संस्करण भी यथाशीघ्र प्रकाशित किया जायेगा ।
(१२) अट्ठकथा तथा टीकाओं की वर्णना-संवर्णना शैली को उजागर करने वाली एक पुस्तिका
का भी प्रकाशन किया जायेगा । इससे पालि भाषा का विशेष ज्ञान न रखने वाले पाठकों को इन ग्रंथों को समझने में सुविधा होगी।
(१३) भविष्य में जब कभी विन्यास द्वारा यह पालि साहित्य अन्यान्य भाषाओं की लिपियों में
प्रकाशित किया जायेगा तब ग्रंथवार बुद्ध-वचनों का सार तथा भूमिकाएं तत्संबंधित भाषाओं में प्रकाशित की जायेंगी।
(१४) पहले संपूर्ण तिपिटक और तत्पश्चात क्रमानुसार इसकी अट्ठकथाओं तथा टीकाओं के
प्रकाशन के स्थान पर पिटकीय ग्रंथों के एक-एक समूह का एक साथ प्रकाशन उचित समझा गया है | जैसे कि दीघनिकाय के तीनों भागों के साथ उन्हीं की तीनों अट्ठकथाओं (सुमङ्गलविलासिनी के तीन भाग) और टीकाओं (लीनत्थप्पकासना के तीन भाग और सीलक्खन्धवग्ग अभिनवटीका के दो भाग) के ग्यारह ग्रंथ एक साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं। इससे शोधकर्ताओं को दीघनिकाय से संबंधित पालि का सारा साहित्य एक साथ उपलब्ध हो जायेगा और उन्हें शोध-कार्य में सुविधा होगी । इसी प्रकार आगे के प्रकाशन होंगे।
(१५) समस्त संदर्भ विपश्यना विशोधन विन्यास संस्करण के दिये जा रहे हैं। संदर्भ में सर्व
प्रथम ग्रंथ का संक्षिप्त नाम यथा दीघनिकाय के लिये दी० नि०, भाग, उसके बाद पैरा (अनुच्छेद) संख्या दिये गये हैं। जहां पैरा संख्या निरंतर नहीं है वहां शीर्षक उपशीर्षक
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या उनकी संख्या इत्यादि पैरा संख्या से पहले दिये गये हैं । जैसे कि संयुत्तनिकाय के लिये - पहले ग्रंथ का नाम, भाग, वग्ग की संख्या या शीर्षक तथा पैरा संख्या । इसी तरह अङ्गुत्तरनिकाय के लिये ग्रंथ का नाम, भाग, निपात तथा अनुच्छेद संख्या दिये गये हैं । जहां प्रमुख रूप से गाथाएं हैं, जैसे कि धम्मपद इत्यादि में, वहां पैरा संख्या की जगह गाथा संख्या दी गयी है ।
प्रस्तुत ग्रंथ
प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय, भाग-१ ( सीलक्खन्धवग्गपाळि ) सुत्तपिटक के प्रथम निकाय, दीघनिकाय के तीन खंडों में से प्रथम खंड है ।
हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा ।
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निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास
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प्रकाशकीय
हमें प्रसन्नता कि भारत की इस पुरातन धरोहर को आपके हाथों तक पहुँचाने के प्रयास में विपश्यना विशोधन विन्यास सफल हुआ है ।
विपश्यना साधना विधि की मूल उद्गम सामग्री पालि साहित्य में उपलब्ध बुद्धवाणी में ही मिलती है जो कि भारतीय संस्कृति एवं अध्यात्म- ज्ञान की एक अमूल्य विरासत है । पालि साहित्य के अंतर्गत पालि तिपिटक तथा उसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि में इस विधि का विशद विश्लेषणात्मक विवरण मिलता है। दुर्भाग्य से यह संपूर्ण साहित्य इस समय देवनागरी लिपि में उपलब्ध नहीं है । इसीलिए विशोधन विन्यास, सन १९५४-५६ में ब्रह्मदेश में आयोजित छट्ट संगायन द्वारा प्रमाणित सामग्री को प्रामाणिक मानते हुए, प्रंम लिपि में उपलब्ध सभी ग्रंथों को आधार मान कर तिपिटक तथा उसकी अट्ठकथाओं, टीकाओं आदि के प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य संपादन कर रहा है।
प्रस्तुत साहित्य के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य विपश्यना साधना विधि पर अनुसंधान करना तथा साधकों और विद्वानों के लिए पालि साहित्य के अध्ययन के साथ-साथ विपश्यना विधि के व्यावहारिक पहलू का कल्याणकारी समन्वय करना है । तिपिटक ग्रंथों में विपश्यना, प्रज्ञा, निरोध आदि से संबंध रखने वाले प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संदर्भों को विशिष्ट रूप से दर्शाया गया है जो इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होगा।
विशोधन विन्यास भारत सरकार के उन सभी अधिकारियों के प्रति आभार प्रकट करता है, जिन्होंने इस ऐतिहासिक कार्य के प्रति अपना योगदान दिया है और दे रहे हैं । ब्रह्मदेश, भारत, नेपाल और श्रीलंका के सहयोगी विद्वानों के प्रति तथा इस कार्य में निष्ठाभाव से सेवारत रहने वाले समस्त साधक, साधिकाओं के प्रति भी विशोधन विन्यास हार्दिक आभार प्रकट करता है ।
साधकों ने विभिन्न प्रकार से योगदान दिया । बीसियों ने प्रेम लिपि सीख कर इस विशाल साहित्य को नागरी में लिप्यंतरित करने में हाथ बटाया है । बहुतों ने इसे जांचने का काम किया है ।
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पालि-पंडितों ने अंतिम प्रूफ देख जाने का महत्वपूर्ण कार्य संपादन किया है। सबसे कठिन काम था इस बृहद साहित्य को कंप्यूटर में निवेशित करना, प्रूफ पढ़ने में आयी भूलों को सुधारना और पेज सेटिंग करना। इस कार्य में भी अपना हाथ बटा कर साधकों ने इसे बड़ी दक्षतापूर्वक संपन्न किया है। इसी प्रकार किसी योग्य साधक ने इस ग्रंथ के प्रत्येक सूत्र का सार सरल हिंदी में लिखा है तथा विपश्यना, आदि से संबंधित पेय्यालों तथा अन्य महत्वपूर्ण अंगों का अनुसंधानात्मक चयन किया है।
विपश्यना साधना की विलुप्त धर्म-गंगा को भगीरथ सदृश पुनः भारत में लाने वाले विश्व विपश्यी परिवार के कुल-प्रमुख परम पूज्य गुरुदेव श्री सत्यनारायणजी गोयन्का के प्रेरक सान्निध्य तथा मंगलमय मार्गदर्शन के फलस्वरूप ही यह पालि प्रकाशन का कार्य संभव हो सका है। उन्होंने प्राक्कथन तथा बृहद भूमिका लिख कर विपश्यी साधकों, शोधकों और सामान्य पाठकों का बड़ा उपकार किया है। हम उनके प्रति सादर नत-मस्तक हैं।
मानद मंत्री, विपश्यना विशोधन विन्यास
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सुत्त-सार
१. ब्रह्मजालसुत्त
इस सुत्त का आरंभ राजगह और नाळन्दा के बीच के रास्ते पर भिक्षु-संघ के साथ भगवान बुद्ध की यात्रा के साथ होता है।
सुप्पिय परिव्राजक और उसके शिष्य ब्रह्मदत्त में बुद्ध, धर्म और संघ को लेकर वाद-विवाद चल रहा है। एक इनकी निंदा करता है तो दूसरा प्रशंसा।
इस प्रसंग को लेकर भगवान भिक्षुओं को समझाते हैं कि यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की निंदा करे तो उससे न तो वैर, न असंतोष और न चित्त में कोप करे । ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है । बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं। ऐसे ही यदि कोई व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की प्रशंसा करे तो उससे न तो
दित न प्रसन्न और न हर्षोत्फल्ल होना चाहिए। ऐसा करने से अपनी ही हानि होती है। बल्कि सच्चाई का पता लगाना चाहिए कि जो कुछ कहा जा रहा है वह ठीक है या नहीं।
तदुपरांत भगवान यह समझाते हैं कि अज्ञानी लोग तथागत की प्रशंसा छोटे या बड़े गौण शीलों के लिए करते हैं जब कि उनकी प्रशंसा उन गूढ धर्मों के लिए की जानी चाहिए जिन्हें वे स्वयं जान कर और साक्षात्कार कर प्रज्ञप्त किया करते हैं। इस प्रसंग में वे अपने समय में प्रचलित बासठ प्रकार की मिथ्या धारणाओं (दार्शनिक मतों) पर प्रकाश डालते हैं। इनमें से कुछ तो आत्मा
और लोक के 'आदि' को और अन्य इनके 'अंत' को लेकर प्रचलित थीं। इनको उन्होंने क्रमशः 'पूर्वांतकल्पिक' और 'अपरांतकल्पिक' की संज्ञा दी है।
'पूर्वांतकल्पिक' धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलायी गयी हैं जैसे आत्मा और लोक
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नित्य हैं, आत्मा और लोक अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य हैं, लोक अंतवान अथवा अनंत हैं, आत्मा और लोक बिना कारण उत्पन्न होते हैं, इत्यादि । इन वादों को प्रज्ञप्त करने वाले लोग इन्हें या तो अपनी अधूरी चित्त-समाधि के बल पर अथवा केवल तर्कों के आधार पर प्रज्ञप्त किया करते
हैं।
'अपरांतकल्पिक' धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलाई गई हैं जैसे मरने के बाद भी आत्मा संज्ञी (अर्थात, होश वाला) बना रहता है, मरने के बाद आत्मा अ-संज्ञी (अर्थात, बिना होश वाला) हो जाता है, मरने के बाद आत्मा न संज्ञी रहता है न अ-संज्ञी, आत्मा का पूर्ण उच्छेद हो जाता है, इत्यादि।
भगवान ने स्पष्ट किया है कि मिथ्या धारणाओं का पोषण करने वाले व्यक्ति सदा इंद्रिय-क्षेत्र में बने रहते हैं। इनकी छहों इंद्रियों पर उनके विषयों का स्पर्श होते रहने से वे वेदनाओं को अनुभव करते रहते हैं और इन वेदनाओं के कारण तष्णा. तष्णा के कारण आसक्ति. आसक्ति के का भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और क्षोभ की अवस्थाओं में से गुजरते रहते हैं। ये इंद्रिय-क्षेत्र से परे की बात नहीं जानते।
केवल वही व्यक्ति जो वेदनाओं के उदय-व्यय, आस्वाद, दुष्परिणाम और इनके चंगुल से बाहर निकलने के उपाय को प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानते हैं, निर्वाण-लाभ कर मिथ्या धारणाओं से परे की बात को जान पाते हैं।
यही कारण है कि नाना प्रकार के वाद स्थापित करने वाले लोग वेदनाओं की यथाभूत जानकारी न होने से हमेशा इंद्रिय-क्षेत्र में बने रहने के कारण तालाब की मछलियों के समान मानों एक बृहज्जाल (ब्रह्मजाल) में फँसे रहते हैं।
२. सामञफलसुत्त
रहे थे। उन्हीं दिनों मगध
एक समय भगवान जीवक कोमारभच्च के आम्रवन में एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ विहार कर
थे। उन्हीं दिनों मगध-नरेश अजातसत्त ने वहां आकर भगवान से यह प्रश्न किया कि जैसे भिन्न-भिन्न कलाओं से लोग इसी जीवन में प्रत्यक्ष जीविका कमा कर अपने आप को सुखी करते हैं, क्या इसी प्रकार श्रामण्य (अर्थात, भिक्षु होने) का फल भी प्रत्यक्ष फलदायक बतलाया जा सकता
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यह सुन कर भगवान ने सर्वप्रथम राजा से ही पूछ लिया कि यदि कोई आपके प्रजा-जन अपनी पुण्य-पारमी बढ़ाने के लिए घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जायें तो उनके प्रति आपकी धारणा कैसी होगी ? इस पर राजा ने कहा कि हम उनका अभिवादन करेंगे, उनकी सेवा करेंगे, उनको आसन देंगे।
यह सुन कर भगवान ने कहा कि श्रामण्य का यह फल तो प्रत्यक्ष हुआ । परंतु इससे भी कहीं सुंदर और उत्तम सांदृष्टिक (अर्थात, आंखो-देखे) फल हुआ करते हैं ।
तब भगवान ने उन्हें विस्तार से समझाया कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है तब वह अरहंत अवस्था पर पहँचा हआ, सम्यक सम्बद्ध, विद्या और आचरण में संपन्न. अच्छी गति वाला, लोकों का जानकार, श्रेष्ठ, लोगों को रास्ते पर लाने वाला, देवों और मनुष्यों का शास्ता होकर अपने ही प्रयत्नों से सारे लोकों का साक्षात्कार कर ऐसे धर्म का उपदेश देता है जो आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अंत में कल्याणकारी होता है। ऐसे धर्म को सुन कर कोई भी गृहपति श्रद्धावान हो घर-बार त्याग कर प्रव्रजित हो जाता है और उनके द्वारा उपदिष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने में जुट जाता है। इसमें पुष्ट होने के लिए वह शील पालन करता है, इंद्रियों को वश में करता है, स्मृति और संप्रज्ञान बनाये रखता है और मात्र चीवर तथा पिंडपात से संतुष्ट रहता है । तत्पश्चात वह किसी निर्जन स्थान पर जा कर पालथी मार, शरीर को सीधा रख, मुख के इर्द-गिर्द जागरूक हो ध्यानावस्थित होने का उपक्रम करता है और ऐसा करता हुआ अपने चित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर लेता है। यह नीवरण दूर होते ही उसे अपने भीतर उत्तरोत्तर प्रमोद, प्रीति, प्रश्रब्धि और सुख की अनुभूति होने लगती है। इसके फलस्वरूप उसका चित्त समाहित होने लगता है।
यह स्थिति आने पर नाना प्रकार के श्रामण्य-फल प्रकट होने लगते हैं जो पूर्व में कहे गए श्रामण्य-फल से कहीं बढ़-चढ़ कर होते हैं । इस प्रकार श्रमण प्रथम ध्यान से लेकर चतुर्थ ध्यान को, उत्तरोत्तर, प्राप्त कर इनमें विहार करने लगता है। इस अवस्था पर पहुँच कर उसका चित्त नितांत शुद्ध, निष्पाप, क्लेश-रहित, मृदु, मनोरम और निश्चल हो जाता है । तब यह भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए नवाने योग्य हो जाता है जिससे इन ध्यानों से भी बढ़ कर श्रामण्य-फल अनुभव में आने लगते
हैं।
चित्त को ज्ञान-दर्शन के लिए नवाने पर प्रज्ञापूर्वक यह जानकारी होने लगती है कि चार महाभूतों से बना हुआ यह शरीर पूरी तरह अनित्यता से ग्रस्त है, यह विज्ञान उससे आबद्ध है। ऐसे ही इसे मनोमय शरीर के निर्माण, ऋद्धियों की प्राप्ति, दिव्य श्रोत्र, परचित्तज्ञान, पूर्वजन्मों की
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स्मृति तथा प्राणियों की च्युति और उत्पाद को जानने के लिए भी नवाया जा सकता है । परंतु जब इसे आस्रवों (चित्त-मलों) के क्षय के ज्ञान के लिए नवाया जाता है तब श्रमण यह प्रज्ञापूर्वक जानने लगता है कि यह दुःख है, यह दुःख का समुदय है, यह दुःख का निरोध है और यह दुःख का निरोध कराने वाला मार्ग है । वह यह भी प्रज्ञापूर्वक जानने लगता है कि यह आस्रव हैं, यह आनवों का समुदय है, यह आनवों का निरोध है और यह आस्रवों का निरोध करवाने वाला मार्ग है। इस प्रकार जानते-देखते उसका चित्त कामानवों से भी मुक्त हो जाता है, भवानवों से भी, अविद्यास्रवों से भी । तब उसे यह प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है- 'मैं मुक्त हो गया ! मैं मुक्त हो गया !!' वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।'
भगवान ने कहा कि इससे बढ़ कर और कोई श्रामण्य फल होता नहीं है ।
३.
अम्बट्ठसुत्त
एक समय भगवान एक बड़े भिक्षु संघ के साथ कोसल देश के इच्छानंगल ब्राह्मणग्राम में विहार करते थे | उस समय पोक्खरसाति नाम के धनाढ्य ब्राह्मण को यह जानने की इच्छा हुई कि उनके बारे में जो यह ख्याति फैल रही है कि वे अरहंत, सम्यक सम्बुद्ध, विद्याचरणसंपन्न, अच्छी गति वाले, लोकों के जानकार, सर्वश्रेष्ठ, लोगों को राह पर लाने वाले सारथि, देवों और मनुष्यों के शास्ता, बुद्ध भगवान हैं, इत्यादि - यह कहां तक सही है ।
इस कार्य के लिए पोक्खरसाति ने विद्वत्ता में अपने समान अम्बठ्ठ नाम के अपने शिष्य को भेजा । शिष्य द्वारा यह पूछे जाने पर कि मुझे यह कैसे मालूम होगा कि भगवान की ख्याति सही है अथवा नहीं, उसने बतलाया कि मंत्रों के अनुसार महापुरुषों के बत्तीस शरीर लक्षण होते हैं । यदि वे घर में रहते हैं तो चक्रवर्ती राजा बनते हैं और घर त्याग दें तो सम्यक सम्बुद्ध होते हैं ।
तब अम्बट्ठ अन्य बहुत से माणवकों के साथ जहां भगवान बुद्ध थे वहां गया और वहां पहुँच कर उनसे अशिष्टतापूर्ण बातें करने लगा और शाक्यों पर भी अनुचित आक्षेप करने लगा । जब भगवान ने उसका ध्यान उसके अशिष्ट व्यवहार की ओर आकर्षित किया, तब वह बोला- 'हे गौतम ! जो मुंडक, श्रमण, इभ्य (नीच), काले, ब्रह्मा के पैर की संतान हैं, उनके साथ ऐसे ही कथा-संलाप किया जाता है जैसा कि मेरा आप गौतम के साथ हुआ है ।'
इस पर भगवान ने अम्बट्ट को उसके अपने गोत्र ' कण्हायन' का इतिहास बतलाते हुए यह
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सिद्ध कर दिया कि वह शाक्यों के पूर्व-पुरुष राजा ओक्काक के दासी - पुत्र ' कण्ह' का वंशज है । यह जान कर अम्बट्ठ के साथ आए हुए माणवक कोलाहल करने लगे - 'अम्बट्ठ दुर्जात है, अकुलीन है, शाक्यों का दासी - पुत्र है, शाक्य अम्बट्ठ के आर्यपुत्र होते हैं, इत्यादि ।'
जब भगवान ने देखा कि माणवक अम्बट्ट को 'दासीपुत्र, दासीपुत्र' कह कर बहुत जा रहे हैं तब उन्होंने उसको इससे छुड़ाने के लिए माणवकों से कहा कि अम्बट्ट को अधिक मत लजाओ, यह ‘कण्ह’ एक ऋद्धि-संपन्न महान ऋषि थे । उन्होंने उनको इसकी कथा भी सुनायी ।
तत्पश्चात भगवान ने अम्बट्ट को जातिवाद के मिथ्या अभिमान को छोड़ देने का परामर्श देते हुए कहा ‘“अम्बट्ठ! जहां आवाह-विवाह होता है वहीं पर यह कहा जाता है 'तू मेरे योग्य है', 'तू मेरे योग्य नहीं है ' । वहीं यह जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद भी चलता है 'तू मेरे योग्य है', 'तू मेरे योग्य नहीं है' । अम्बट्ट ! जो कोई जातिवाद में फँसे हैं, गोत्रवाद में फँसे हैं, मानवाद में फँसे हैं, आवाह-विवाह में फँसे हैं, वे अनुपम 'विद्या' और 'चरण' की संपदा दूर हैं । अम्बट्ट ! जातिवाद, गोत्रवाद, मानवाद और आवाह - विवाह के बन्धन छोड़ कर ही अनुपम 'विद्या' और 'चरण ' की संपदा का साक्षात्कार किया जाता है ।"
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अम्बट्ट द्वारा यह पूछे जाने पर कि 'विद्या' और 'चरण' क्या होते हैं, भगवान ने उसे समझाया कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है तब उसके द्वारा प्रतिपादित धर्म को सुन कर कोई गृहपति श्रद्धावान हो, घर-बार त्याग, प्रव्रज्या ग्रहण कर, शील-पालन, इंद्रियों के वशीकरण और स्मृति-संप्रज्ञान के सतत अभ्यास में लगा रह कर संतुष्टि को प्राप्त होता है और तत्पश्चात नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है तो यह 'चरण' के अंतर्गत आता है । ऐसे ही द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ ध्यान । इनमें से भी प्रत्येक 'चरण' के अंतर्गत आता है ।
फिर जब वह गृहपति समाहित, शुद्ध तथा क्लेश-रहित चित्त से विपश्यना का ज्ञान प्राप्त कर है, वह 'विद्या' के अंतर्गत आता है। ऐसे ही चित्त से मनोमय शरीर का निर्माण करना, ऋद्धियों को अनुभव करना, दिव्य श्रोत्र प्राप्त करना, परचित्तज्ञान, पूर्वजन्मों की स्मृति, प्राणियों की च्युति और उत्पाद का ज्ञान तथा आस्रवों के क्षय का ज्ञान - ये सब के सब एक-एक करके 'विद्या' के अंतर्गत आते हैं ।
ऐसा भिक्षु 'विद्यासंपन्न' भी कहलाता है, 'चरणसंपन्न' भी, और 'विद्याचरणसंपन्न' भी । इस ‘विद्यासंपदा' और 'चरणसंपदा' से बढ़ कर कोई 'विद्या - संपदा' अथवा 'चरण - संपदा' नहीं होती है ।
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[२६]
इधर अम्बठ्ठ माणवक ने भगवान के चंक्रमण करते हुए उनके शरीर पर महापुरुषों के बत्तीसों लक्षण देख लिये । तत्पश्चात वह भगवान की अनुमति प्राप्त कर अपने आचार्य पोक्खरसाति के पास
चला आया ।
पोक्खरसाति को उसने भगवान के साथ हुए अपने संलाप का ब्यौरा दिया और यह भी कहा कि भगवान की जो ख्याति फैल रही है वह सही है क्योंकि मैंने उनके शरीर पर विद्यमान बत्तीसों महापुरुष - लक्षण देख लिये हैं ।
पोक्खरसाति ने अम्बट्ट माणवक को भगवान के साथ अभद्रतापूर्ण आचरण करने के लिए बुरा-भला कहा और उसे अपने पास से दूर हटाया ।
अगले दिन पोक्खरसाति स्वयं भगवान के दर्शनार्थ गया और अम्बट्ट के बाल-व्यवहार के लिए उनसे क्षमा-याचना की। भगवान ने अम्बट्ट के सुखी होने का आशीर्वचन कहा ।
पोक्खरसाति ने भी भगवान के शरीर पर बत्तीसों महापुरुष - लक्षण देख लिये । तत्पश्चात उसने भिक्षु संघ सहित भगवान को भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन करवा चुकने के पश्चात वह भगवान के पास एक नीचे आसन पर बैठ गया ।
तब भगवान ने उसे आनुपूर्वी कथा कही जैसे कि दान-कथा, शील-कथा, स्वर्ग-कथा; भोगों के दुष्परिणाम; अपकार, मलिनकरण; और गृह त्यागने के माहात्म्य को प्रकाशित किया । जब भगवान ने पोक्खरसाति को उपयुक्त-चित्त, मृदु-चित्त, आवरणरहित-चित्त, उद्गत-चित्त ( प्रसन्न - चित्त) जान लिया तब उसे बुद्धों का स्वयं जाना हुआ धर्मोपदेश - दुःख-कारण- विनाश-मार्ग - प्रकाशित किया । तत्पश्चात जैसे शुद्ध, निर्मल वस्त्र को रंग अच्छी तरह पकड़ लेता है, वैसे ही पोक्खरसाति को उसी आसन पर बैठे-बैठे विरज, विमल, धर्मचक्षु - 'जो कुछ उत्पन्न होने वाला ( समुदयधर्मा) है, वह सब कुछ नाशवान (निरोधधर्मा) है' - उत्पन्न हुआ ।
तदुपरांत पोक्खरसाति ब्राह्मण ने अपने पुत्र, भार्या, परिषद तथा अमात्यों के साथ भगवान की शरण ग्रहण की, और धर्म तथा भिक्षु संघ की भी ।
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४. सोणदण्डसुत्त
एक समय भगवान एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ अङ्ग देश में विचरते हुए चम्पा पहुँचे और वहां गग्गरा पुष्करिणी के तीर पर विहार करने लगे।
उस समय सोणदण्ड नाम का ब्राह्मण मगधराज बिम्बिसार द्वारा प्रदत्त चम्पा का स्वामी हो कर रहता था । अन्य ब्राह्मणों के साथ भगवान के दर्शनार्थ जाने का उसका मन हुआ परंतु कुछ एक ब्राह्मणों ने उसे वहां जाने के लिए हतोत्साहित किया और अनेक प्रकार की युक्तियां देते हुए कहा कि श्रमण गौतम को ही उसके दर्शनार्थ आना चाहिए। इस पर सोणदण्ड ने उनकी युक्तियों का खंडन करते हुए, भगवान के कितने ही अन्य गुणों का बखान करते हुए यह भी कहा कि वे आर्यशीलयुक्त, काम-राग-रहित, महापुरुष के शरीर लक्षणों से युक्त, चारों परिषदों से सम्मानित, अनुपम विद्या और आचरण के कारण यशस्वी और चम्पा में आने के कारण हमारे अतिथि हैं । उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, वह कम है । अतः मुझे ही भगवान के दर्शनार्थ जाना चाहिए ।
तत्पश्चात वह ब्राह्मण-जन के साथ गग्गरा पुष्करिणी गया । वहां भगवान ने उससे यह प्रश्न पूछा कि ब्राह्मण लोग कितने अंगों से युक्त पुरुष को 'ब्राह्मण' कहते हैं । इस पर सोणदण्ड ने उत्तर दिया कि ब्राह्मण लोग पांच अंगों से युक्त पुरुष को 'ब्राह्मण' कहते हैं । ये अंग हैं - (१) वह माता
और पिता – दोनों ओर से सुजात, सात पीढ़ी तक संशुद्ध, और जाति के मामले में सर्वथा दोषरहित हो । (२) वह वेदपाठी; मंत्रधर; निघंटु; कैटभ, शिक्षा, अक्षरप्रभेद एवं इतिहास-सहित तीनों वेदों में पारंगत; पदक; वैयाकरण तथा लोकायत एवं महापुरुष-लक्षणों का जानकार हो । (३) गौर-वर्ण, सुंदर एवं दर्शनीय हो । (४) शील में खूब पुष्ट हो । (५) पंडित, मेधावी, यज्ञ-दक्षिणा ग्रहण करने वालों में प्रथम या द्वितीय हो।
तब भगवान द्वारा यह पूछा गया कि क्या इन पांच अंगों में से किन्हीं अंगों को छोड़ देने पर भी कोई पुरुष 'ब्राह्मण' कहला सकता है ? इस पर सोणदण्ड ने एक-एक करके वर्ण, मंत्र और जाति को नकारते हुए कहा कि शील और मेधा (याने प्रज्ञा) इन दो अंगों से युक्त पुरुष को भी 'ब्राह्मण' कह सकते हैं। अपने इस कथन की पुष्टि में उसने अपने भांजे अंगक का उदाहरण देते हुए कहा कि वह वर्णवान, मंत्रधर और जाति के मामले में सर्वथा दोषरहित है; परंतु यदि वह हिंसा, चोरी, परस्त्रीगमन, असत्यभाषण और मद्यपान - यह सभी कुछ करता हो तो ऐसे में वर्ण, मंत्र और जाति का क्या महत्व है ?
भगवान द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या उपरोक्त दो अंगों में से किसी एक को छोड़ देने
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पर भी कोई पुरुष ‘ब्राह्मण' कहला सकता है, सोणदण्ड ने कहा- नहीं । प्रज्ञा शील से प्रक्षालित है और शील प्रज्ञा से । जहां शील है वहां प्रज्ञा है; जहां प्रज्ञा है वहां शील है । शीलवान को प्रज्ञा होती है, प्रज्ञावान को शील । शील और प्रज्ञा को संसार में अगुआ बतलाया जाता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई हाथ से हाथ धोए, पैर से पैर ।
भगवान ने इसका अनुमोदन किया पर यह पूछ लिया कि 'शील' क्या होता है और 'प्रज्ञा' क्या होती है । इस पर सोणदण्ड ने कहा कि हम तो इतना भर ही जानते हैं । अच्छा हो यदि भगवान ही इस पर प्रकाश डालें ।
तब भगवान ने कहा कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है और कोई व्यक्ति उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर तीनों प्रकार के शीलों का पालन करने लगता है, तब वह ' शीलसंपन्न' हो जाता । फिर इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृतिमान और संप्रज्ञानी रह, संतुष्ट हुआ हुआ, अपने चित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर समाहित चित्त से उत्तरोत्तर चारों ध्यानों का अभ्यास कर (विपश्यना ) ज्ञान के लिए अपने चित्त को नवाता है, तो यह 'प्रज्ञा' होती है। ऐसे ही जब वह चित्त को आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है और इसके फलस्वरूप यह जान लेता है कि 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं', तो यह 'प्रज्ञा' ही है ।
यह सुन कर भाव-विभोर हो सोणदण्ड ने भगवान से कहा कि आप मुझे अपना अंजलिबद्ध शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें और भिक्षु संघ सहित मेरे यहां कल का भोजन स्वीकार करें ।
अगले दिन भोजन हो चुकने पर सोणदण्ड ने भगवान से कहा कि यदि मैं परिषद में बैठे हुए आसन से उठ कर आपका अभिवादन करूं तो परिषद मेरा तिरस्कार करेगी जिससे मेरा यश क्षीण होगा और यश क्षीण होने से भोग क्षीण होगा । हमें यश से ही भोग मिलते हैं । अतः यदि मैं परिषद में बैठे हुए हाथ जोडूं तो इसे आप मेरा खड़ा होना जानें। यदि मैं परिषद में बैठा हुआ अपना साफा हटाऊं तो उसे आप मेरा सिर से किया गया अभिवादन मानें। ऐसे ही यदि यान में बैठे हुए मैं कोड़ा ऊपर उठाऊं तो उसे आप मेरा यान से उतरना मानें और यदि मैं यान में बैठा हुआ हाथ उठाऊं तो उसे आप मेरा सिर से किया गया अभिवादन स्वीकार करें ।
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[२९]
५. कूटदन्तसुत्त एक समय भगवान भिक्षुओं के एक बड़े संघ के साथ मगध देश के खाणुमत ब्राह्मणग्राम में अम्बलविका में विहार करते थे। उस समय कटदन्त नाम का ब्राह्मण मगधराज बिम्बिसार द्वारा प्रदत्त खाणुमत का स्वामी होकर रहता था। भगवान के पास जा कर उसने कहा कि मैं एक महायज्ञ करना चाहता हूं, मैं सोलह परिष्कार-सहित त्रिविध यज्ञ-संपदा को नहीं जानता, मुझे इसका उपदेश करें ।
इस पर भगवान ने कहा कि पूर्वकाल में महाविजित नाम का एक अत्यंत वैभवशाली राजा था । वह भी पृथ्वीमंडल का शासक होकर एक महायज्ञ करना चाहता था। उसने अपने पुरोहित ब्राह्मण को बुलाया और उसे इस बारे में सीख देने के लिए कहा।
पुरोहित ने राजा से कहा आपके राज्य में बहुत लूटमार होती है। पहले इसे शांत करना चाहिए। इसके लिए आप को कृषि एवं गो-रक्षा में उत्साह रखने वालों को बीज-भोजन, वाणिज्य में उत्साह रखने वालों को पूंजी, राजकार्य में उत्साह रखने वालों को भत्ता-वेतन देना चाहिए। इससे ये लोग अपने-अपने काम में लगे हुए आपके जनपद को सतायेंगे नहीं । आपको भी विपुल राशि प्राप्त होगी। आपका देश कंटक-रहित और क्षेम-युक्त हो जायेगा। राजा ने ऐसा ही किया और कालांतर में पुरोहित को बुला कर कहा कि मेरा देश कंटक-रहित और क्षेम-युक्त हो गया है।
तब पुरोहित ने राजा को यज्ञ-संपदा के सोलह परिष्कारों के बारे में बतलाया -
१.चार अनुमति-पक्ष : यज्ञ करने के बारे में राज्य के क्षत्रियों, अमात्यों, ब्राह्मण महाशालों तथा धनी वैश्यों की अनुमति प्राप्त करना ।
२.राजा के आठ गुण : सुजात, अभिरूप, शीलवान, सु-संपन्न, चतुरंगिणी सेना से युक्त, दानपति, बहुश्रुत तथा मेधावी होना ।
३.पुरोहित के चार गुण : सुजात, त्रैविद्य, शीलवान तथा मेधावी होना ।
तत्पश्चात पुरोहित ने राजा को तीन विधियों का उपदेश दिया। उसने कहा कि यज्ञ करने से पहले, यज्ञ करते समय और यज्ञ कर चुकने पर यह ग्लानि नहीं होनी चाहिए कि एक बड़ी धनराशि व्यय हो जायेगी, व्यय हो रही है अथवा व्यय हो गयी।
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[३०]
तदनंतर पुरोहित ने यज्ञ करने से पूर्व ही राजा के हृदय से दान लेने वालों के प्रति उत्पन्न होने वाले दस प्रकार के चित्त-विकारों को दूर किया और यज्ञ करते समय उसके चित्त का सोलह प्रकार से समुत्तेजन-संप्रहर्षण किया।
उस यज्ञ में न तो गायें मारी गयीं, न बकरे-भेड़े, न मुर्गे सूअर, न नाना प्रकार के प्राणी । न यूप के लिए वृक्ष काटे गये, न वेदी पर बिछाने के लिए दर्भ | जो काम करने वाले नौकर-चाकर थे उन्होंने भी दंड-तर्जित, भय-तर्जित हो, आंसू बहाते, रोते हुए सेवा नहीं की। जिसने जो चाहा वही किया, जो नहीं चाहा वह नहीं किया । घी, तेल, मक्खन, दही, मधु, खांड से वह यज्ञ संपन्न हुआ।
भगवान ने यह भी बतलाया कि उस यज्ञ का याजयिता पुरोहित मैं ही था ।
कूटदन्त द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या इस सोलह परिष्कार वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा से कम सामग्री और कम क्रिया वाला, किन्तु महाफलदायी, कोई यज्ञ होता है, भगवान ने कहा- हां ।
तत्पश्चात उन्होंने उसे एक-से-एक उत्तम, प्रणीततर यज्ञों के बारे में बतलाया -
१. दान-यज्ञ - वे नित्य-दान जो प्रत्येक कुल में सदाचारी प्रव्रजितों को दिये जाते हैं।
२. त्रिशरण-यज्ञ - यह जो प्रसन्नचित्त हो बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाना है।
३. शिक्षापद-यज्ञ – यह जो प्रसन्नचित्त हो शिक्षापदों का ग्रहण करना है (अर्थात, जीवों की
अ-हिंसा, अ-स्तेय, अ-व्यभिचार, अ-मृषावाद, नशे-पते से विरति)।
४. शील-यज्ञ - जब संसार में तथागत के उत्पन्न होने पर उनके द्वारा साक्षात्कार किये गये
धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई व्यक्ति चूळ, मज्झिम और महा इन तीनों प्रकार के शीलों का पालन करके शीलसंपन्न हो जाता है।
५. समाधि-यज्ञ - जब कोई व्यक्ति इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृतिमान और
संप्रज्ञानी बना रह, संतुष्ट हुआ, अपने चित्त से नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से उत्तरोत्तर प्रथम से चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है।
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६. प्रज्ञा-यज्ञ- जब कोई व्यक्ति अपने समाहित हुए मृदु, निर्मल चित्त को (विपश्यना) ज्ञान
के लिए तथा आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जिससे वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कछ रहा नहीं।' इस यज्ञ-संपदा से बढ कर कोई दूसरी यज्ञ-संपदा नहीं है।
यह सुन कर कूटदन्त ब्राह्मण ने भगवान से कहा आप मुझे अंजलिबद्ध शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें । भगवान ने उसे आनुपूर्वी कथा कही जैसे कि दान कथा, शील-कथा, स्वर्ग-कथा; भोगों के दुष्परिणाम, अपकार, मलिनकरण; और गृह त्यागने के माहात्म्य को प्रकाशित किया । जब उन्होंने उसे उपयुक्त-चित्त, मृदु-चित्त, आवरणरहित-चित्त, उद्गत-चित्त जाना तब जो बुद्धों का स्वयं अनुभूत धर्मोपदेश है - दुःख, समुदय, निरोध, मार्ग- उसे प्रकाशित किया । जैसे शुद्ध, निर्मल वस्त्र को रंग अच्छी तरह पकड़ लेता है वैसे ही कूटदन्त ब्राह्मण को उसी आसन पर, यह विरज, विमल धर्मचक्षु प्राप्त हुआ कि जो कुछ उत्पन्न होने वाला है, वह नाशवान है।
६. महालिसुत्त
एक समय वेसाली में महावन की कूटागारशाला में भगवान विहार करते थे। उस समय लिच्छवी सरदार ओट्टद्ध ने उनसे कहा कि सुनक्खत्त नाम के लिच्छवि-पुत्र ने मुझे बतलाया था कि में लगभग तीन वर्ष तक भगवान के पास रहा जिससे मैं मन को लुभाने वाले दिव्य शब्द सुन पाऊं परंतु मैं इन्हें नहीं सुन पाया। तो क्या लिच्छवि-पुत्र ने दिव्य शब्दों के होते हुए भी इन्हें नहीं सुना अथवा इनका अस्तित्व नहीं होने से इन्हें नहीं सुना ?
इस पर भगवान ने कहा कि दिव्य शब्दों के होते हुए भी लिच्छवि-पुत्र ने इन्हें नहीं सुना । इसका कारण यह है कि किसी-किसी को दिव्य रूपों के दर्शनार्थ एकांश (एकतरफ़ा) समाधि प्राप्त होती है, परंतु दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ नहीं । ऐसे ही किसी-किसी को दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ एकांश समाधि प्राप्त होती है परंतु दिव्य रूपों के दर्शनार्थ नहीं । और किसी-किसी को दिव्य रूपों के दर्शनार्थ और दिव्य शब्दों के श्रवणार्थ उभयांश (दोतरफ़ा) समाधि प्राप्त हो जाती है।
भगवान ने ओट्ठद्ध के इस संशय को भी दूर किया कि भिक्षुगण उनके पास इन समाधि-भावनाओं के साक्षात्कार हेतु ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि इनसे बढ़-चढ़ कर और इनसे अधिक उत्तम दूसरे ही धर्म हैं जिनके साक्षात्कार के लिए भिक्षुगण उनके पास ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। और वे हैं
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[३२]
* तीन संयोजनों (बंधनों) का समूल नाश हो जाने से 'सोतापन्न' हो जाना, जिससे उस व्यक्ति का अधःपतन नहीं होता और उसका संबोधि (परम ज्ञान) प्राप्त कर लेना सुनिश्चित हो जाता है;
* तीन संयोजनों (बंधनों) का समूल नाश हो जाने और राग, द्वेष तथा मोह के निर्बल पड़ जाने से 'सकदागामी' हो जाना, जिससे वह व्यक्ति एक ही बार इस संसार में आकर अपने दुःखों का अंत कर लेता है;
* पांच अवरभागीय (यहीं आवागमन में अवरुद्ध रखने वाले) संयोजनों का समूल नाश हो जाने से 'ओपपातिक' अनागामी हो जाना, जिससे वह व्यक्ति इस लोक में लौट कर नहीं आता और उच्च लोक में ही निर्वाण-लाभ कर लेता है; और
___ * आप्नवों (चित्त-मलों) का नाश हो जाने से इसी संसार में आनव-रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति का स्वयं साक्षात्कार कर विहार करने लगता है |
भगवान ने यह भी दर्शाया कि इन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए जो मार्ग है वह यही है जिसे 'आर्य अष्टांगिक मार्ग' कहते हैं, अर्थात -
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि ।
७. जालियसुत्त भगवान के कोसम्बी के घोसिताराम में विहार करते समय मुण्डिय परिव्राजक और दारुपत्तिक के शिष्य जालिय ने भगवान से प्रश्न किया- 'आवुस ! गौतम ! जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ?'
भगवान ने उन्हें समझाया कि संसार में जब कोई व्यक्ति तथागत के बतलाये हुए मार्ग पर चल कर शील में प्रतिष्ठित हुआ, अपने वित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है तब उसके लिए यह प्रश्न अ-प्रासंगिक हो जाता है- 'जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ?'
ऐसे ही यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए अ-प्रासंगिक हो जाता है जो द्वितीय, तृतीय अथवा
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चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है। ऐसे ही उस व्यक्ति के लिए जो अपने चित्त को ज्ञान-दर्शन के लिए, मनोमय शरीर के निर्माण के लिए, ऋद्धियों के लिए, दिव्य श्रोत्र - धातु प्राप्त करने के लिए, परचित्तज्ञान के लिए, पूर्वजन्मों को स्मरण करने के लिए, प्राणियों की च्युति और उत्पाद को जानने के लिए अथवा आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है । इस अंतिम अवस्था के प्राप्त होने पर तो वह अपनी प्रज्ञा से जानने लगता है कि यह दुःख है, यह दुःख का समुदय है, यह दुःख का निरोध है, यह दुःख का निरोध कराने वाला मार्ग है । वह इसे भी प्रज्ञा से जानने लगता है कि यह आस्रव हैं, यह आस्रवों का समुदय है, यह आम्रवों का निरोध है, यह आनवों का निरोध कराने वाला मार्ग है। उसके इस प्रकार जानते, देखते उसका चित्त कामानवों से भी मुक्त हो जाता है, भवानवों से भी, अविद्यानवों से भी । तब उसे यह ज्ञान होता है- 'मैं मुक्त हो गया ! मैं मुक्त हो गया !!' वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है- 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।' जब कोई व्यक्ति इसे इस प्रकार जान लेता है, देख लेता है तब वह ऐसा नहीं कह सकता- 'जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ।'
भगवान ने कहा मैं स्वयं इसे इस प्रकार जानता हूं, देखता हूं और यह नहीं कहता - 'जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा
८. महासीहनादत्त
एक समय भगवान उरुञ्ञा के पास कण्णकत्थल नाम के मृगदाव में विहार करते थे । उस समय अचेल कस्सप ने उनके पास जा कर पूछा क्या यह सही है कि आप सभी प्रकार की तपश्चर्या की निंदा करते हैं और कठोर तपस्या को अनुचित बतलाते हैं ।
ין
इस पर भगवान ने कहा कि ऐसा कहने वाले मेरे बारे में ठीक से नहीं कहते हैं। मैं कठोर जीवन बिताने वाले और कम कठोर जीवन बिताने वाले- दोनों प्रकार के तपस्वियों की गति को जानता हूं । शरीर छोड़ने के पश्चात इनमें से नरक में भी पैदा होते हैं, स्वर्ग में भी । अतः मैं सभी की निंदा कैसे कर सकता हूं ? जो कोई आर्य अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करेगा वह कहने ही लगेगा कि श्रमण गौतम समयोचित बात बोलने वाला, सच्ची बात बोलने वाला, सार्थक बात बोलने वाला, धर्म की बात बोलने वाला और विनय की बात बोलने वाला है ।
तब अचेल कस्सप ने कहा कि अनेक श्रमणों और ब्राह्मणों के तप ऐसे होते हैं जैसे नग्न रहना, आचार-विचार छोड़ देना, व्रत करना, भिक्षा वा खान-पान के बारे में तरह-तरह के माप दंड
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अपनाना, बाहरी वेषभूषा, उठने-बैठने-सोने के तौर-तरीके, इत्यादि । यह सुन कर भगवान ने कहा कि इस प्रकार का तप करने वाला व्यक्ति शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति और प्रज्ञा-संपत्ति की भावना नहीं कर सकता और न ही इनका साक्षात्कार कर सकता है । वह श्रामण्य और ब्राह्मण्य से दूर रह जाता है। श्रमण अथवा ब्राह्मण तो वही कहलाता है जो वैर और द्रोह-रहित हो कर मैत्री-भावना करता है और चित्त-मलों का क्षय हो जाने से निर्मल चित्त की मुक्ति और प्रज्ञा द्वारा मुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करता है।
तत्पश्चात अचेल कस्सप द्वारा शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति और प्रज्ञा-संपत्ति के बारे में जानकारी चाहे जाने पर भगवान ने कहा कि जब संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर कोई व्यक्ति हिंसा को छोड़ हिंसा से विरत रहता है, दंड और शस्त्र को छोड़ देता है, संकोच-शील, दयावान और सभी जीवों का हितानुकंपी हो विहार करता है, यह उसकी शील-संपत्ति होती है । बुरी आजीविका से विरत रहना भी शील-संपत्ति होती है। ऐसा शील-संपन्न हुआ व्यक्ति कहीं से भय नहीं देखता और अपने भीतर निर्दोष सुख को अनुभव करता है। यह होती है 'शील-संपत्ति'।
जब वह व्यक्ति अपनी इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, संतुष्ट हुआ, चित्त के नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है, यह उसकी चित्त-संपत्ति होती है। इसी प्रकार जब वह द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है, यह भी होती है उसकी 'चित्त-संपत्ति' !
इसी प्रकार समाहित-चित्त होकर जब वह व्यक्ति (विपश्यना) ज्ञान के लिए अपने चित्त को नवाता है, यह उसकी प्रज्ञा-संपत्ति होती है। ऐसे ही जब वह अपने चित्त को आम्नवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जिसके फलस्वरूप यह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है – 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं' - यह भी होती है 'प्रज्ञा-संपत्ति'!
इस 'शील-संपत्ति', 'चित्त-संपत्ति', 'प्रज्ञा-संपत्ति' से बढ़ कर कोई अन्य शील-संपत्ति, चित्त-संपत्ति, प्रज्ञा-संपत्ति नहीं होती है।
भगवान ने अन्य आचार्यों के मन में अपने बारे में होने वाली अनेक भ्रांतियों को भी यह कह कर दूर किया कि श्रमण गौतम सिंह-गर्जना करता है, परिषदों में गर्जना करता है, बड़ी कुशलता के साथ गर्जना करता है, लोग उससे प्रश्न पूछते हैं, वह लोगों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देता
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है, प्रश्नों के उत्तर से चित्त प्रसन्न करता है, लोग इसे सुनने योग्य मानते हैं, सुन कर प्रसन्न होते हैं, प्रसन्नता प्रकट करते हैं, सच्चाई का प्रतिपादन करने लगते हैं और इसके प्रतिपादन में लगे हुए उसे प्राप्त कर लेते हैं।
कालांतर में अचेल कस्सप ने भगवान के पास प्रव्रज्या पायी, उपसंपदा पायी और साधनाभ्यास करते हुए अरहंतों में से एक हुआ !
९. पोट्टपादसुत्त एक समय सावत्थी में भिक्षाटन के लिए जाते-जाते भगवान तिन्दुकाचीर के वाद-भवन पर चले गये । वहां पोट्टपाद नाम का परिव्राजक तीन सौ साधुओं को निरर्थक कथा-कहानियां सुना रहा था। भगवान को आते देख वे सब चुप हो गये।
भगवान का स्वागत कर पोट्टपाद ने उनसे यह जानना चाहा कि अभिसंज्ञा-निरोध कैसे होता है। इस पर उन्होंने कहा कि पुरुष की संज्ञाएं स-कारण, स-प्रत्यय उत्पन्न भी होती हैं और निरुद्ध भी होती हैं । कोई-कोई संज्ञा शिक्षा से उत्पन्न होती है, कोई-कोई शिक्षा से निरुद्ध हो जाती है।
तत्पश्चात भगवान ने 'शिक्षा' के बारे में समझाया कि जब कोई व्यक्ति तथागत द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर शीलों का पालन करता हुआ; इंद्रिय-संवर, स्मृति-संप्रज्ञान और संतोष का आश्रय लेता हुआ; अपने चित्त से नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से, एक से एक ऊंचा ध्यान करता है तब इन ध्यानों के समय शिक्षा से उत्पन्न और निरुद्ध होने वाली संज्ञाओं की स्थिति इस प्रकार रहती है -
ध्यान
उत्पन्न होने वाली संज्ञा
निरुद्ध होने वाली संज्ञा
प्रथम
द्वितीय तृतीय चतुर्थ
विवेकज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा समाधिज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा उपेक्षासुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा अदुःखअसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा आकाश-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा विज्ञान-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा आकिञ्चन्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा
काम-संज्ञा विवेकज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा समाधिज-प्रीतिसुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा उपेक्षासुख-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा रूप-संज्ञा आकाश-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा विज्ञान-आनन्त्य-आयतन-सूक्ष्मसत्यसंज्ञा
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चूंकि साधक अपनी ही संज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अतः वह वहां से वहां, वहां से वहां, क्रमशः श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर संज्ञा को प्राप्त करता जाता है। उसके चिंतन न करने, अभिसंस्करण न करने से सूक्ष्म संज्ञाएं नष्ट हो जाती हैं और उदार संज्ञाएं उत्पन्न होती नहीं । इस प्रकार, क्रमशः, अभिसंज्ञा-निरोध की स्थिति आ जाती है।
तब पोट्ठपाद ने यह जानना चाहा कि संज्ञा पुरुष की आत्मा होती है, या संज्ञा और आत्मा अलग-अलग होते हैं। इस पर भगवान ने कहा कि तुम जैसे भिन्न दृष्टि वाले, भिन्न चाह वाले, भिन्न रुचि वाले, भिन्न आयोग वाले, भिन्न आचार्य वाले के लिए यह जान लेना दुष्कर है।
तब पोट्ठपाद ने एक-एक करके यह जानना चाहा कि क्या लोक शाश्वत है; अशाश्वत है; अंतवान है; अनंत है; जीव ही शरीर है; जीव और शरीर अलग-अलग हैं; मरने के बाद तथागत फिर पैदा होता है, या नहीं होता है, या होता है और नहीं भी होता है, या न होता है होता है । इन प्रश्नों को भगवान ने 'अव्याकृत' (अनिर्वचनीय) कहा क्योंकि ये न तो अर्थयुक्त हैं, न धर्मयुक्त, न आदि-ब्रह्मचर्य के उपयुक्त और न ही ये निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, अभिज्ञा, संबोधि अथवा निर्वाण के लिए उपयोगी हैं।
तब पोट्टपाद द्वारा यह पूछे जाने पर कि भगवान ने क्या-क्या 'व्याकृत' किया है, उन्होंने
कहा -
'यह दुःख है'; 'यह दुःख का हेतु है'; 'यह दुःख का निरोध है'; 'यह दुःख के निरोध का उपाय है।'
दो तीन दिन बीतने पर चित्त हत्थिसारिपुत्त और पोट्ठपाद भगवान के पास गये । उस अवसर पर चर्चा के दौरान भगवान ने कहा कि कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण ऐसी दृष्टि रखते हैं कि 'मरने के बाद आत्मा अ-रोग, एकांत-सुखी होती है।' यह पूछे जाने पर ये कहते हैं कि हम न तो इस एकांत सुख वाले लोक अथवा आत्मा को जानते हैं; न वहां ले जाने वाले मार्ग को जानते हैं और न ही उस लोक में उत्पन्न हुए देवताओं के शब्द सुन पाते हैं कि ऐसे ही मार्ग पर आरूढ़ होकर हम यहां पर पैदा हुए हैं। इससे उनका कथन वैसे ही प्रमाणरहित हो जाता है जैसे किसी जनपदकल्याणी की कामना करने वाले व्यक्ति ने न तो उसे देखा हो और न उसके बारे में कुछ जानता हो, या किसी महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी बनाने वाले व्यक्ति ने न तो महल को देखा हो और न उसके बारे में कुछ जानता हो।
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तत्पश्चात भगवान ने तीन प्रकार के आत्म-प्रतिलाभ (जन्म-ग्रहण) की जानकारी दी - स्थूल, मनोमय तथा अ-रूप (अ-भौतिक) । चार महाभूतों से बना हुआ, ग्रास-ग्रास करके आहार करने वाला 'स्थूल' जन्म-ग्रहण होता है। रूपी, मनोमय, सब अंग-प्रत्यंग वाला, इंद्रियों से परिपूर्ण 'मनोमय' जन्म-ग्रहण होता है । अ-रूप (देवलोक में) संज्ञामय होना 'अ-रूप' जन्म-ग्रहण होता है।
भगवान ने कहा मैं तीनों प्रकार के जन्म-ग्रहण से छूटने के लिए धर्मोपदेश करता हूं। इससे चित्त-मल उत्पन्न करने वाले (संक्लेशिक) धर्म छूट जाते हैं, शोधक धर्म बढ़ते हैं, प्रज्ञा की परिपूर्णता वा विपुलता को इसी जीवन में अपनी अभिज्ञा से साक्षात जान कर, प्राप्त कर, विहार करने लगते हैं। इससे प्रमोद भी होता है और प्रीति, प्रश्रब्धि, स्मृति, संप्रज्ञान तथा सुख-विहार भी होता है ।
तत्पश्चात भगवान ने वर्तमान शरीर की सत्यता को प्रज्ञप्त किया। उन्होंने कहा कि जिस समय जैसा जन्म-ग्रहण होता है- स्थूल, मनोमय अथवा अ-रूप- उस समय उसी को स्वीकार करना होता है, अन्य को नहीं । जैसे गाय से दूध, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी, घी से घी का सार तैयार होता है परन्तु इन पदार्थों में से जिस समय जो पदार्थ विद्यमान होता है, उसी को यथार्थतः स्वीकार करना होता है, अन्य को नहीं।
भगवान के उपदेश से प्रभावित हो पोठ्ठपाद परिव्राजक भगवान का शरणागत उपासक हुआ और चित्त हत्थिसारिपुत्त भगवान के पास प्रव्रज्या, उपसंपदा पा अरहंतों में से एक हुआ ।
१०. सुभसुत्त
भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के कुछ ही दिन बाद आयुष्मान आनन्द सावत्थी में अनाथपिण्डिक के जेतवन आराम में विहार कर रहे थे। उस समय तोदेय्यपुत्र सुभ नाम के माणवक ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर उनसे कहा - 'आप भगवान गौतम के बहुत दिनों तक सेवक तथा समीपचारी रहे । कृपया यह बतलायें कि भगवान किन धर्मों की प्रशंसा किया करते थे, किन धर्मों को वे जनता को सिखाते और उनमें प्रवेशित-प्रतिष्ठित करते थे ?'
इस पर आयुष्मान आनन्द ने उसे भगवान द्वारा प्रशंसित तीन स्कंधों की जानकारी दी
(१) आर्य शील-स्कंध, (२) आर्य समाधि-स्कंध, तथा (३) आर्य प्रज्ञा-स्कंध ।
तत्पश्चात इनके बारे में विस्तार से समझाया कि संसार में तथागत के उत्पन्न होने पर उनके
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द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई गृहपति कैसे विविध प्रकार के शीलों का पालन कर 'शीलसंपन्न' हो जाता है ।
फिर इंद्रियों को वश में करता हुआ, हर अवस्था में स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, संतुष्ट रह कर, पांचों नीवरणों का प्रहाण कर, एक-के-बाद-एक चारों ध्यान करके 'समाधिसंपन्न' हो जाता है ।
और तदनंतर अपने चित्त में विपश्यना - ज्ञान लेकर आम्रवक्षय-ज्ञान तक विविध प्रकार के ज्ञान जगा कर 'प्रज्ञासंपन्न' हो जाता है। आस्रवक्षय-ज्ञान होने के साथ ही उस व्यक्ति को यह अभिज्ञान हो जाता है - 'मैं मुक्त हो गया ! मैं मुक्त हो गया !'
आर्य प्रज्ञा-स्कंध से परे करने को कुछ शेष नहीं रह जाता है ।
सुभ माणवक ने भी 'आर्य प्रज्ञा- स्कंध' की परिपूर्णता को जान कर आश्चर्य व्यक्त किया और शरण-त्रय ग्रहण करते हुए आयुष्मान आनन्द से याचना की कि वे उसे जीवन भर के लिए अपनी शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें ।
११.
केवट्टसुत्त
एक समय भगवान नालन्दा के निकट पावारिक आम्रवन में विहार कर रहे थे। उस समय गृहपतिपुत्र केवट्ट ने उनसे अनुरोध किया कि आप समृद्ध एवं घनी आबादी वाले नालन्दा नगर में अपने किसी भिक्षु को भेज कर वहां अलौकिक ऋद्धियों का प्रदर्शन करावें। इससे नालन्दा-वासी आप के प्रति और अधिक श्रद्धालु हो जायेंगे |
इस पर भगवान ने कहा मैं अपने भिक्षुओं को ऐसा धर्मोपदेश नहीं देता कि तुम गृहस्थों को अपनी ऋद्धियों का प्रदर्शन करो । ऋद्धि-बल तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें मैंने स्वयं जान कर और साक्षात्कार कर बतलाया है । ये हैं- (१) ऋद्धि-प्रातिहार्य, (२) आदेशना - प्रातिहार्य, (३) अनुशासनी - प्रातिहार्य |
तथा
तब भगवान ने इन तीनों के गुण-दोष बतलाये । उन्होंने कहा 'ऋद्धि- प्रातिहार्य' में भिक्षु अपने ऋद्धि-बल से अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन करता है, परंतु गन्धारी नाम की विद्या द्वारा भी ऐसा किया जा सकता है। ऐसे ही 'आदेशना - प्रातिहार्य' में भिक्षु दूसरों के चित्त को जान
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लेता है, परंतु मणिका नाम की विद्या द्वारा भी ऐसा किया जाना संभव है। इन दोनों के इन दोषों को देख कर मुझे इनके प्रदर्शन से संकोच होता है।
'अनुशासनी-प्रातिहार्य' में भिक्षु ऐसा अनुशासन करता है - ‘ऐसा विचारो, ऐसा मत विचारो; ऐसा मन में करो, ऐसा मन में मत करो; इसे छोड़ दो, इसे स्वीकार कर लो।' और फिर जब इस संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर कोई गृहपति शीलसंपन्न हो जाता है और तदुपरांत इंद्रियों को वश में कर, स्मृति और संप्रज्ञान का अभ्यासी हो, संतुष्ट हुआ, चित्त के नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहरता है तो यह भी 'अनुशासनी-प्रातिहार्य' है । और इसी प्रकार द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थ ध्यान को प्राप्त होकर विहरना अथवा चित्त को (विपश्यना) ज्ञान से लेकर आस्रवक्षय-ज्ञान तक नवाते जाना 'अनुशासनी-प्रातिहार्य' ही हैं। आम्रवक्षय-ज्ञान की अंतिम अवस्था पर तो भिक्षु प्रज्ञापूर्वक यह जान लेता है कि 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।'
एक बार एक भिक्षु के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि ये चार महाभूत – पृथ्वीधातु, जलधातु, तेजोधातु तथा वायुधातु - कहां जाकर बिल्कुल निरुद्ध हो जाते हैं । तब उस भिक्षु ने अपने समाहित चित्त से पहले देवलोक और फिर ब्रह्मलोक में जाकर इस प्रश्न का समाधान चाहा परंतु न तो कोई देव और न ही ब्रह्मा स्वयं इसका समाधान कर पाये।
तब उस भिक्षु ने भगवान बुद्ध से यही प्रश्न किया । इस पर उन्होंने कहा कि यह प्रश्न ऐसे पूछना चाहिए - 'कहां पर जल, पृथ्वी, तेज तथा वायु स्थित नहीं रहते हैं ? कहां दीर्घ, ह्रस्व, अणु, स्थूल, शुभ, अशुभ, नाम और रूप बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं ?'
उन्होंने इसका उत्तर इस प्रकार दिया - ‘अनिदर्शन (अर्थात, जहां उत्पत्ति, स्थिति और लय की बात नहीं है), अनंत और अत्यंत प्रभायुक्त निर्वाण जहां है, वहां जल, पृथ्वी, तेज और वायु स्थित नहीं रहते । वहां दीर्घ-ह्रस्व, अणु-स्थूल, शुभ-अशुभ, नाम और रूप बिल्कुल समाप्त हो जाते हैं । विज्ञान के निरोध से वहां सभी का अवसान हो जाता है।'
१२. लोहिच्चसुत्त
एक समय भगवान कोसल देश में चारिका करते हुए सालवतिका पहुँचे । वहां पर लोहिच्च नाम का ब्राह्मण रहता था । उसके मन में यह पाप-दृष्टि पैदा हुई कि कोई श्रमण या ब्राह्मण कुशल
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धर्म को जान कर इसे किसी दूसरे को न बताये, क्योंकि कोई किसी दूसरे के लिए कर ही क्या सकता है ?
भगवान ने उसकी इस पाप-दृष्टि को दूर करने के लिए उसे कहा कि यदि कोई व्यक्ति अपनी समूची आय का अकेला ही उपभोग करे, किसी को कुछ न दे, तो वह उसके आश्रितों के लिए हानिकारक होगा, अहित-कारक होगा, उनके मन में शत्रुता जगाने वाला होगा जिससे मिथ्या दृष्टि पैदा होगी। और मिथ्या-दृष्टि रखने वाले की दो ही गतियां होती हैं - नरक या नीच योनि में जन्म!
__ ऐसी पाप-दृष्टि वाला व्यक्ति उन कुलपुत्रों के लिए भी हानि-कारक सिद्ध होगा जो भव से निवृत्त होने के लिए तथागत के बताये धर्म में आकर ऐसी विदग्धता हासिल कर लेते हैं जिससे सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी अथवा अरहंत हो जाते हैं अथवा दिव्यगर्भ का परिपाक करते हैं। वह हानिकारक होने से अहित-कारक, शत्रुता जगाने वाला और मिथ्या-दृष्टि पैदा करने वाला होगा जिसकी दो ही गतियां होती हैं - नरक या नीच योनि में जन्म !
तत्पश्चात भगवान ने उसे समझाया कि तीन प्रकार के गुरु सचमुच आक्षेप के योग्य होते हैं : (१) जो श्रमणभाव को प्राप्त किये बिना ही श्रावकों को धर्म सिखाते हैं और श्रावक उनकी बात सुनते नहीं हैं। (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों मुँह फेरे हुए का आलिंगन करना चाहते हों।) (२) जो श्रमणभाव को प्राप्त किए बिना ही श्रावकों को धर्म सिखाते हैं और श्रावक उनकी बात सुनते हैं। (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों अपने खेत की सफाई को छोड़ कर दूसरे के खेत की सफाई करना चाहते हों ।) (३) जो श्रमणभाव को प्राप्त कर श्रावकों को धर्म सिखाते हैं परंतु श्रावक उनकी बात को नहीं सुनते । (इन गुरुओं का यह कृत्य ऐसा लगता है मानों किसी पुराने बंधन को काट कर नया बंधन खड़ा करना चाहते हों।)
संसार में ऐसे भी गुरु होते हैं जिन पर आक्षेप नहीं किया जा सकता । जब संसार में कोई तथागत उत्पन्न होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई व्यक्ति शीलसंपन्न हो, समाधि का अभ्यास करता हुआ प्रथम से लेकर चतुर्थ ध्यान को क्रमशः प्राप्त कर इनमें विहार करते हुए इसमें विदग्धता हासिल कर लेता है, ऐसा गुरु आक्षेप के योग्य नहीं होता । ऐसे ही जब कोई व्यक्ति निर्मल किये हुए समाहित चित्त को (विपश्यना) ज्ञान के लिए अथवा आनवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है जबकि वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता है - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं' - ऐसा गुरु भी आक्षेप के योग्य नहीं होता।
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भगवान का यह धर्मोपदेश सुन लोहिच्च को ऐसे लगा मानों नरक के गड्ढे में गिरते हुए उसे ऊपर खींच कर धरती पर रख दिया गया हो । भाव-विभोर होकर उसने भगवान से याचना की कि आप मुझे जीवन भर के लिए उपासक स्वीकार करें ।
१३. तेविज्जसुत्त
एक समय भगवान कोसल देश के मनसाकट ग्राम के उत्तर की ओर अचिरवती नदी के तीर पर आम्रवन में विहार कर रहे थे। उस समय वासेट्ठ और भारद्वाज नाम के दो ब्राह्मण माणवक उनके पास गये और उनसे अपना यह विवाद सुलझाने के लिए कहा कि ब्रह्मा की सलोकता के लिए सही वा सीधा मार्ग कौन सा है। ये दोनों ही अपने-अपने आचार्य के बतलाये हुए मार्ग को सही वा सीधा बतला रहे थे।
इस पर भगवान द्वारा अलग-अलग प्रश्न पूछे जाने पर वासेट्ठ माणवक ने स्वीकार किया कि विद्य ब्राह्मणों में एक भी ब्राह्मण ऐसा नहीं है जिसने ब्रह्मा को अपनी आंख से देखा हो, इनके एक भी आचार्य-प्राचार्य ने सात पीढ़ी तक ब्रह्मा को आंख से नहीं देखा। यही नहीं, जो त्रैविद्य ब्राह्मणों के पूर्वज, मंत्रों के प्रवक्ता ऋषि थे उन्होंने भी कहीं पर यह नहीं कहा - 'जहां ब्रह्मा है, जिससे ब्रह्मा है, जहां से ब्रह्मा है हम उसे जानते हैं, हम उसे देखते हैं।'
इस पर भगवान ने कहा कि ऐसा होने पर तो त्रैविद्य ब्राह्मणों का यह कथन सर्वथा अ-प्रामाणिक हो जाता है कि ब्रह्मा की सलोकता के लिए 'अमुक' मार्ग है क्योंकि उनमें से, पहले-पीछे. न इसे किसी ने जाना. न देखा- जैसे अंधों की पंक्ति में पहले वाला भी नहीं
वाला भी नहीं देखता, बीच वाला भी नहीं देखता, पीछे वाला भी नहीं देखता ।
इसके अतिरिक्त जब ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को छोड़ कर और अ-ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को अपना कर त्रैविद्य ब्राह्मण ब्रह्मा-सहित विभिन्न देवताओं का आह्वान करते हैं, तब ऐसा नहीं हो सकता कि वे मृत्यु के पश्चात ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त करें- जैसे नदी के इस तीर पर खड़े व्यक्ति के आह्वान करते रहने से नदी का दूसरा तीर इस ओर नहीं आ जाता।
___ ऐसे ही ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को छोड़ कर और अ-ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को अपना कर पांच कामभोगों में डूबे हुए विद्य ब्राह्मण मृत्यु के पश्चात ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त करें, ऐसा नहीं हो सकता - जैसे नदी के इस पार दृढ़ सांकल से पीछे बांह करके मज़बूत बंधन से बँधा हुआ
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व्यक्ति नदी के उस पार जाने की इच्छा होने पर भी उस पार नहीं जा सकता । (ये पांच 'कामभोग' आर्य-विनय में 'सांकल' अथवा 'बंधन' कहलाते हैं ।)
_ऐसे ही ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को छोड़ कर और अ-ब्राह्मण बनाने वाले धर्मों को अपना कर पांच नीवरणों से ढंके हुए विद्य ब्राह्मण मृत्यु के पश्चात ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त करें, ऐसा नहीं हो सकता - जैसे नदी के इस पार अपने आप को सिर तक ढांपे हुऐ कोई व्यक्ति नदी के उस पार जाने की इच्छा होने पर भी उस पार नहीं जा सकता । (ये पांच 'नीवरण' आर्य-विनय में 'आवरण' अथवा 'अवनाहन', अर्थात, बंधन कहलाते हैं ।)
तदनंतर भगवान ने यह भी स्पष्ट किया कि ब्रह्मा और विद्य ब्राह्मणों के गुण एक दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं । ब्रह्मा अ-परिग्रही, अ-वैरी, अ-द्रोही, संक्लेश-रहित और वशवर्ती है जबकि ब्राह्मण परिग्रही, वैरी, द्रोही, संक्लेश-युक्त और अ-वशवर्ती हैं । उपास्य और उपासक के गुणों में इतना अंतर होने पर किसी त्रैविद्य ब्राह्मण का मृत्यु के पश्चात ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त करना संभव नहीं हो सकता।
तब वासेट्ठ माणवक ने भगवान से प्रार्थना की कि आप ही ब्रह्मा की सलोकता के मार्ग का उपदेश करें।
इस पर भगवान ने कहा कि जब संसार में कोई तथागत पैदा होता है और उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान हो कर कोई व्यक्ति शीलसंपन्न हो जाता है और अपने चित्त से नीवरण दूर कर अपने भीतर उत्तरोत्तर प्रमोद, प्रीति, प्रश्रब्धि और सुख अनुभव करने लगता है, इससे उसका चित्त खूब समाहित हो जाता है। ऐसे समाहित चित्त से जैसे-जैसे मैत्री, करुणा, मुदिता अथवा उपेक्षा को भावित किया जाता है वैसे-वैसे ब्रह्मा की सलोकता का मार्ग खुलता जाता
इस प्रकार ब्रह्म-विहार करने वाला व्यक्ति अ-परिग्रही. अ-वैरी, अ-द्रोही, संक्लेश-रहित और वशवर्ती होता है। ब्रह्मा के भी यही गुण हैं । अतः ब्रह्म-विहार करने वाला व्यक्ति ब्रह्मा के समान गुणों वाला हो कर मृत्यु के उपरांत ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त कर लेता है।
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Suttapitake
Dīghanikāyo
Pathamo Bhāgo
Silakkhandhavaggapāli
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Ciram Titthatu Saddhammo!
May the Truth-based Dhamma
Endure for A Long Time !
“Doeme, Bbikebabe, Dhamma saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyañjanam attho ca sunito. Sunikkbittassa, Bbikebabe, padabyañjanassa atthopi sunayo hoti.”
"There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaraṇavagga make the Truth-based Dhamma endure
for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation.”
...ye vo mayā dhammā abbiññā desitā, tattha sabbeheva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byañjanam sargāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam...
...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsädikasutta
taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time...
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Foreword
The Buddha clearly stated two essentials needed to keep the pure Dhamma long-lived. First, the Dhamma-vacana (words of the Buddha) should be preserved in their original form in a well-organised manner. This helps ensure that the meanings remain intact. Second, his devoted followers should assemble in concord and collectively recite the Dhamma, which the Enlightened One had taught through self-realisation.
Soon after the mahāparinibbāna of the Buddha, five hundred of his chief disciples assembled under the aegis of Mahāthera Mahā Kassapa. Together they took the first step of fulfilling these two requirements. They organised the first collective recitation for collating the entire teachings of the Lord in a systematic manner. The entire body of his teaching was divided into three Pitakas (lit. baskets): the Vinaya Pitaka (the monastic discipline), Sutta Pițaka (the popular discourses), and Abhidhamma Pitaka (a compendium of profound teachings elucidating the functioning and interrelationships of mind, mental factors, matter and the phenomenon transcending all of these).
The tradition of memorizing the words of the Buddha had already begun in his own lifetime. We note that some of the monks were known as Vinayadhara, Suttadhara and Mātikādhara (lit. a holder of the Vinaya, Sutta, etc.). Due to various inconveniences, the people of that time did not record important teachings in written form; the tradition was to memorize the Dhamma lore. The monks who memorized it were the custodians of the words of the Master. The Vinaya was memorized by the Vinayadharas, the Suttas by the Suttadharas and the Mātikās by the Mātikādharas. Ven. Ananda was the one who had complete recall of the lore in its entirety. It seems that after the First Dhamma Council, the Mātikādharas began to be called Abhidhammadharas, and those who had full recall of the three Pițakas, such as Ananda, came to be known as Tipitakadharas.
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The tradition continued of organizing the historical Dhamma councils, the last of which, the Chattha-Sangāyana (Sixth Dhamma Council), took place in Myanmar (Burma) in 1954-56 A.D., while simultaneously the healthy tradition of memorizing the words of the Buddha was also maintained.
Just as Ananda was designated as Erudite (Bahussuto), Keeper of the Dhamma (Dhammadharo), Protector of the Treasure of the Great Sage (Kosārakkho mahesino), Preserver of the Truth-based Dhamma (Saddhammadhārako), a Mine of Gems (Ratanākaro), etc., in the same way, at a later time, the Tipitakadharas were called Dhamma-bhandāgārikas (Treasurers of the Dhamma) because they guarded the storehouse of the Dhamma. The tradition of memorizing the Buddha's words was not discontinued even after they were committed to writing; it is continuing even now. The words of Dhamma have been inscribed on palm leaves and marble slabs, printed in book form and even entered into computers—yet the tradition of memorizing and reciting the words continues to this day. This is a healthy tradition which should be perpetuated.
Untill recent times this tradition was represented by Mahāthera Vicittasārābhivamsa of Myanmar, who retained in his memory not only the entire Tipitaka, but also a large portion of the Ațshakathā. Even today four of his colleagues maintain the practice of memorizing the Tipitaka, and are entitled Tipitakadharas. Along with the afore-mentioned Dhamma councils, the healthy tradition of the Vinayadharas, Suttadharas, Abhidhammadharas and Tipitakadharas has played a crucial role in preserving the words of the Buddha in their pure form, during this long history of more than 2,500 years.
India has entirely lost the Dhamma-vacana (words of Dhamma). Perhaps that is why the practice of Dhamma also disappeared from this land. But Myanmar, Sri Lanka, Thailand and Kampuchea have preserved the words of the Dhamma. The Tipitaka has been preserved in each of these countries, written in different scripts and pronounced somewhat differently, but there is no difference in the underlying text. The books of the Tipitaka in the various scripts were collected on the occasion of the Chattha-Sangāyana and the scholarly monks assembled to review them. They found that a few very nominal differences had developed, perhaps due to carelessness on the part of the reciters or the scribes. But the original form in all the scripts was essentially the same. Therefore, we are greatly indebted to the convenors of these councils and to the Dhamma-bhandāgārikas. Just as the Buddha is a historical person rather than a mythical figure, similarly, the Dhamma-vacana are
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composed of his own statements of experience or those of his disciples and not merely flights of imagination of a poet. We can be confident of this because of the careful, systematic way that the Dhamma Literature has been preserved. The neighbouring countries of India have very conscientiously safeguarded this valuable treasure and, therefore not only India, but all of humanity is grateful to them.
Myanmar preserved not only the words of Dhamma but also the practical technique of Vipassana which is inherent in them. Fortunately, I received the wisdom of the Vipassana practice there in Myanmar from the traditional teacher Sayagyi U Ba Khin, of Yangon (Rangoon). In 1969, when I came to India with this teaching and started organizing meditation camps, I was pleasantly surprised to find that intelligent people in this country accepted their ancient wisdom with great delight. The number of practitioners of Vipassana has substantially increased during the last fifteen to twenty years. Many of the meditation students, who were benefited by their practice of Vipassana, began asking for the Buddha-vacana and translations of the original Pāli in order to augment their theoretical understanding and to take inspiration and guidance from the Buddha's noble words.
The Tipitaka which was published in Devanagari script by Nava Nālandā Mahāvihāra (Nalanda, India) in the 1960's has been long out of print and is currently unavailable. Therefore, the Vipassana Research Institute in Igatpuri, India, decided to publish the Tipitaka and its allied literature in the original Pāli language in Devanāgari script and, later on, to make the texts more accessible to meditators, as well as scholars, by offering these in Hindi translation.
The availability of modern equipment, such as computers and laser printers, has made it possible to quickly fulfill the demand for this literature. Meditators have come forward to help with great enthusiasm and cooperation. The Pāli literature was transcribed from Burmese script into Devanāgari script in a very short time and was then entered into the computer. Practitioners of Vipassana as well as some of the great scholars of Myanmar have given devoted service in computer entry and final proofreading so that the entire authentic literature of the Chattha-Sangāyana might emerge as faultlessly as possible, in the present publication.
What does the Tipitaka contain?
All of the Tipitaka is saturated with the noble and sacred personality of the Buddha. The Rūpakāya (material body) of the Buddha was one aspect of his personality and was very appealing; it possessed the thirty-two signs of a great man and radiated incomparable peace and beauty, pleasing all who beheld it. But the
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other aspect of his personality was the unparalleled Dhammakāya (body of the Dhamma) which was suffused with perfect enlightenment, wisdom, moral behaviour, right understanding, and compassion.
A Tathāgata (the Buddha) is arahata (a fully liberated being) because he has destroyed all the enemies or impurities. He is the perfectly Enlightened One because he has attained sammā-sambodhi. He is full of wisdom (viijā) and well-established in the practice of morality and concentration (caraṇa). He is sugato because of his pleasant physical, vocal and mental activities. He is the knower of the entire universe (lokavidū) because he knows completely the mundane as well as the supramundane, i.e., nibbāna. He is peerless because there is no one who compares with him, nor surpasses him (anuttaro). He directs untrained people to the right path in the same way as a skilled charioteer manages untrained horses (purisa-damma-sārathī). He is the Teacher of gods and humans (satthā devamanussānam). He is the Lord (bhagavā) because he has destroyed attachment, antipathy and ignorance. Because of all these special qualities, he is different from others. He provides enormous welfare for the world. The entire Tipitaka is permeated with the ambrosial nectar of his Dhammakāya.
The Tipitaka contains the mellifluous sound of the Ganges of Dhamma arising from the Dhammakāya. It is infused with the invaluable flow of emancipation. At every turn the Dhamma is illuminated, the Dhamma which is clearly expounded (svākkhāto), which takes us directly to the truth, helping us to leave behind all illusory imaginations (sandițfhiko). It gives concrete, visible fruits here and now to those who follow the path (akāliko). It summons us to realize the truth (ehi-passiko). With every step, it takes us to the highest goal of nibbāna (opanayiko), and it is worth experiencing personally by every intelligent person (paccattam veditabbo viññühi'ti). Such is the noble Dhamma: universally beneficial to all; free from sectarianism; acceptable to all people, from all countries, in any age. The entire Tipitaka helps us to savour this sweet nectar of Dhamma.
The Tipitaka also illumines the inspiring Sāvaka-sangha (community of accomplished disciples), who drank deeply of the ambrosial words of the Buddha. The Sangha clearly demonstrates that in Dhamma there is no place for blind faith, emotional devotion, or the logician's hair-splitting intellectual acrobatics. The Dhamma is immensely practical. He who follows it becomes a righteous practitioner (supațipanno), upright practitioner (ujupațipanno), wise practitioner (ñāyapațipanno) and proper practitioner (sāmicipațipanno) on the way to liberation.
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He becomes a noble one (ariyo) by attaining any one of the four stages of liberation: stream-winner (sotāpanna), once-returner (sakadāgāmī), non-returner (anāgāmi), or the stage of full liberation (arahata). Such a noble person is worthy of devotion, reverent salutation, honour, and offerings of the requisites. We are inspired to follow the path of Dhamma by beholding in the Tipitaka the Sāvaka-sangha, saintly persons who included both householders and renunciates. Their pronouncements about their practical realizations hearten and thrill us, raising goose bumps at times, and electrifying our practice of Vipassana.
Not only is the ancient spiritual and philosophical landscape of the India of twenty-five centuries ago brought to light in the Tipitaka, but a colourful spectrum of the historical, geographical, political, and cultural conditions of the times is also provided. The Tipitaka opens a window onto the administrative, educational, commercial and industrial customs of the Buddha's times. It sheds light on both social and individual conditions, in the urban as well as rural life of ancient India. The India of 2,500 years ago comes alive in the Tipitaka. Tipitaka is also a vast ocean overflowing with the peerless, wholesome benedictions of the Enlightened One.
One meaning of the word pitaka is "basket". But the term pitaka was actually used in those days to denote the literature of Dhamma. Even if we take the literal meaning of "basket", Tipitaka refers to the three baskets which contain the invaluable treasures of Indian civilization, culture, religion and philosophy. Scholars will find that although, apparently it seems that the wisdom expounded by the Buddha disappeared from India, in reality, it has flowed through the subsequent Indian literature. The Sanskrit literature which followed, as well as writings in Hindi and other regional languages, are full of the benevolent teachings. The literature of medieval saints of India is suffused with the wisdom of the Buddha. When they are made available in their authentic form, an analytical and comparative study of the Buddha's words will show that India is so greatly indebted to the Buddha for his original thought as well as for the practice of meditation.
The influence of the Buddha's contribution is not confined to Indian thought; the deep impact of his teaching is also visible in the spiritual thought and literature of the rest of the world. Therefore, the Buddha's words have a special significance for the human race even today. The stately grandeur of the Buddha's teaching is verdant forever. It is the perennial forerunner of the resurrection of fallen
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human values. What could be more relevant in this age of moral degradation, with its inevitable result of down-trodden people afflicted with terror?
A study of the literature presented here will correct some of the prevalent misconceptions about the Buddha held by uninformed people. One misconception is that, since the Buddha was a recluse, his followers were also recluses, and his teachings were therefore meant for recluses only, not for householders. Examination of the Dhamma literature will totally dispel such misconceptions. The reality is that the Buddha was very popular among the masses in his lifetime; his lay devotees outnumbered monks and nuns. He was nearly as popular among the recluses and ascetics of his day as he was with the lay men of northern India.
During the rainy season the Buddha used to stay for three months in one place. He often spent these rainy season retreats in densely populated towns such as Sāvatthi or Rājagaha, so that more people might take advantage of his presence and teachings. After these retreats, he would undertake Dhamma wanderings (cărikā) in the villages, towns and cities situated in the area of the Ganges and Yamuna rivers in northern India. He disseminated the Dhamma and gave guidance in the technique of Vipassana to hundreds of thousands of people. Wherever he went, crowds of people gathered to see him and listen to his discourses. At the same time, many people would come to meet him alone. Impressed by his benevolent speech, householders would invite the Buddha and his monks to accept their offerings of meals at their residences, again they were benefitted by his blessed teachings. The recluses of the day used to come to him for religious discussions and sometimes for holding debates but the majority of his visitors were householders. A detailed account of his relationship to the people is conspicuous in this literature.
The Buddha delivered thousands of Dhamma discourses for forty-five years, from the time he attained enlightenment until he passed into mahāparinibbāna. Inspired by the pure Dhamma, not only recluses and ascetics, but lay people from every tradition, every belief, every profession, every class came to him and profited by walking on the path of Dhamma. Whether the king of Magadha, Bimbisāra or the king of Kosala, Pasenadi; Queen Mallikā or Queen Khemā; Prince Abhaya or Prince Bodhi; General Bandhula or General Singha; Queen Shyāmāvati or the royal maid Khujjuttarā; Kaccāyana, the son of the royal priest or the royal physician Jivaka; the great philanthropist Anāthapiņdika or the leprous beggar Suppabuddha; the Jațila brothers or the wanderer Dārucīriya; the wealthy housewife Visākhā or the courtesan Ambapālī; the Brahmin Mahākassapa or the sweeper Sunīta; the Brahmin
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Sāriputta or the lowly-born Sopaka; the righteous Silava or the highwayman Angulimāla-whoever came into contact with the Buddha and took a dip in the Ganges of Dhamma by practising Vipassana, was totally changed, totally rectified. Their suffering was eradicated.
Another prevalent misconception about the Buddha is that he taught how to gain release from the cycle of repeated existences, but he ignored the everyday concerns of the individual and the family. It is held that he was indifferent to political and social problems. But it is clear from the study of this literature that he was also quite cognizant of and sensitive to worldly problems. While it is true that he gave the majority of his discourses to the monks, addressing the topic of the ultimate truth, nevertheless he delivered numerous discourses to his lay followers addressing mundane concerns. He dealt with all aspects of the householder's life. He gave instructions concerning the mutual duties of parents and children, wives and husbands, masters and servants, teachers and students, friends and friends, kings and subjects. They are refreshing, relevant and beneficial even today.
The instructions given to the Licchavis, for the maintenance of adequate protection of their republic, are acceptable as a model for any republican government of modern times. Similarly, his teachings are equally valuable for other administrators. In the tradition of his teachings it is said: Rājā rakkhatu dhammena attano va pajam pajam (The king should protect his subjects in the same way as he protects his own children). Inspired by such teachings, the emperor Dhammarāja Asoka established a righteous administration which was unique and unparalleled in human history and worthy of emulation. His reign shines like a luminous pillar of light in the administrative history of India, nay of the entire world.
Yet another major misconception about the Buddha is that he lays undue emphasis on suffering in his discourses. Some people have commented that his teaching is primarily about suffering and it is therefore, negative and pessimistic, full of despair and inclining towards apathy. With the publication of this literature, these misconceptions will be corrected. It will become evident that there is no comparable literature which inspires confidence in, and provides solace to, people who are sunk in abject suffering and despair. Truly a patient is discouraged when told that his or her disease is incurable. But, if someone makes the patient aware of the disease, discovers its primary cause and offers a way of removing the cause by pointing out a medicine which can totally eradicate the disease, this serves as a boon
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for the patient. What could possibly be a source of greater hope and solace for the patient than this?
It is exactly the same with the Buddha's explanation of suffering. However bitter it may be, suffering is a universal truth in the lives of beings. It cannot be denied. The Buddha not only revealed the fundamental truth of suffering, he made its cause crystal-clear and he thoroughly delineated the simple, easily acceptable art of living of Vipassana, consisting of the Eightfold Noble Path. This art of living is not merely a philosopher's theoretical or intellectual exposition; it is an entirely pragmatic, proven path, which gives visible results here and now to those who practise it. It gives hope to those who are discouraged and mired in suffering. It grants peace and happiness in both the mundane and supramundane fields of life.
The teachings of the Buddha completely uproot the discriminations of caste and the pollution of communalism. Relief from these poisons is the pressing need of India as well as the rest of the world today. Their removal will help to bring much longed for peace and happiness. The Buddha's discourse to the Kālāmas of Kesamutta is the first declaration of human rights and is a beacon to all mankind of the freedom of thought. All his teaching is free from blind faith and corrupt clericalism. It is completely empirical, impartial and dedicated to intellectual rigour. Therefore, it is universally acceptable. The teachings of the Buddha made the country of India the World Teacher. Their current publication is not only beneficial for humanity but also a source of pride for India.
The Tipitaka is an unparalleled lexicon of wisdom for the practitioner of Vipassana. Although stray references pertaining to Vipassana are available right from the Rg-Veda down to the teachings of Māhavīra, Kabir, Nanak, and other Indian saints, the authentic, elaborate and subtle description of Vipassana is available only in the Tipitaka.
Practitioners of Vipassana who read these texts may feel as if the Exalted One has understood their difficulties and has given instructions which are for them alone—as if the Buddha is personally exhorting them with deep understanding and love. The publication of such ambrosial words will prove a great boon to them.
Extensive study of the words of the Buddha has been undertaken by some international scholars. The Buddha Sāsana Council of Myanmar, the Pali Text Society of London, and the Buddhist Publication Society of Sri Lanka have been the forerunners in this field. Nava Nālanda Mahāvihāra, Nalanda, India, began the publication of the Pāli literature under the leadership of Bhikkhu J. Kāshyapa. This
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effort needs to be augmented. The active efforts of the Vipassana Research Institute in this direction are admirable.
Initially, when I undertook the responsibility of writing an introduction to this profound and important literature, I thought that it could be accomplished in forty to fifty pages. As I started collecting references from the texts, I found each one superior to the last, each one more inspiring and sublime. These gems radiated with beauty, beneficence and inspiration. Which ones should be included and which ones should be left out? This was my problem. I had to leave many out, though I regretted doing so. After the selection process was complete, over a thousand important passages remained. To do them justice would naturally require a considerably expanded volume. I therefore felt it proper to publish this detailed introduction in the form of a separate book. I hope its publication will prove helpful to the admirers of the Tipitaka and to the meditators.
May the publication of the words of the Buddha and the other Pāli texts be helpful and beneficial to all. May the dawn of peace, happiness and liberation arise for all the readers.
Buddha Pūrnimā 1993.
S. N. Goenka
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Preface A Brief Introduction to the Pāli Tipitaka The Buddha rediscovered for the entire world the noble liberating path of pure Dhamma which enables all who walk on it to lead a peaceful and happy life. This shed a flood of light on the Indian history of those days, besides ushering in the dawn of Pāli literature. For forty-five years--from the time of his enlightenment until his Mahāparinibbāna—the Buddha taught the Dhamma to diverse people in the various places where he wandered. The collection of these teachings is called the Tipitaka. The meaning of the word "Tipitaka" is: the "three baskets" of Dhamma literature. The words of the Buddha are collected in these three baskets. The three Pițakas are the Vinaya-Pitaka, the Sutta-Pitaka and the Abhidhamma-Pitaka.
In order to collect and preserve the words of the Buddha, six historical Dhamma councils or Dhamma-Sangitis were convened. The term means literally "Dhamma recitations". They are called so because the basic teachings of the Buddha (i.e., the Dhamma) were first recited by an elder monk and then chanted after him in chorus by the whole assembly. The recitation was considered to be authentic when it was unanimously approved by all of the monks in attendance. There are two important aspects of the Dhamma—the theoretical, textual aspect, known as pariyatti; and the practical, applied aspect which is called pațipatti. These councils were organized to preserve the pariyatti, or theoretical, aspect of the Dhamma in its pristine purity. The pațipatti aspect of Dhamma is the real vehicle for the transmission of the Buddha's teachings: it is communicated by the actual practice of Dhamma in daily life.
The popularity and acceptance of the Dhamma by so many people was not due merely to its theoretical exposition or to royal patronage, but rather to the fact that the Buddha explained a way to purify the mind through the practice of Vipassana. He pointed out the cause of our suffering and also the path of realizing
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peace by the removal of suffering. What attracted people was the very practical nature of the Path-that it is clear, tangible, beneficial, easily understandable, yielding fruit here and now, in this very life, and that it leads one step-by-step towards the final goal of liberation. Because it is characterized by these qualities, it is a universal path.
The purpose of the Dhamma councils was to preserve the words of the Buddha in their pure form so that the Dhamma might not become polluted through interpolation by unscrupulous elements. The councils were necessary to safeguard and accurately preserve the teachings because the words of the Buddha were not committed to writing until the Fourth Council, more than 500 years after the Buddha's Mahāparinibbāna. When the monks joined together in these councils, they tried to maintain the purity of the monastic discipline and, in the event of disagreement, acted sincerely, in concert, to resolve it.
The following is a brief description of each of the six councils :
The First Dhamma Council was convened three months after the Mahāparinibbana of the Buddha at Rājagaha (Rajgir) under the patronage of King Ajātasattu (544 B.C.). All of the Buddha's words were collected for the first time in this Council. Ven. Mahākassapa Thera presided over the council. Ven. Upāli recited the Vinaya and Ven. Ananda recited the Dhamma. Five hundred fully enlightened, arahat-monks participated and the Council continued for seven months. In this way, the first collection of the Vinaya and Dhamma took place. It is evident from the Nidana-Katha of the Digha-Nikaya's Commentary that the term "Dhamma" has been used to denote Sutta and Abhidhamma.
The Second Dhamma Council was convened 100 years after the first one at Vāļukārāma in Vesāli under the patronage of King Kāļasoka. A major disagreement related to the Vinaya rules had arisen and the Council was convened specifically to settle it. Seven hundred monks participated and Ven. Revata Thera presided. The words of the Buddha were again recited and approved by all the participants.
The Third Dhamma Council was convened in 326 B.C. at Asokārāma at Pataliputta (Patna) under the patronage of King Dhammāsoka (better known as King Asoka). It was presided over by Thera Moggaliputta Tissa and 1,000 monks well-versed in Buddha-vacana (the words of the Buddha) participated for nine
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months. Thera Moggaliputta Tissa condemned certain heretical views, established the pure Dhamma and compiled a text called Kathāvatthu, which came to be accepted as an integral part of the Abhidhamma Pitaka. After this council, King Asoka sent nine missions of Dhamma dūtas (Dhamma messengers) to far off countries for the propagation of Dhamma. These monks emphasized the practical aspect of the Dhamma in its pure universal form.
onins,
The Fourth Dhamma Council was convened in Sri Lanka in 29 B.C. during the reign of King Vattagāmini. It was presided over by Mahā Thera Rakkhita and 500 monks participated. The entire Tipitaka was recited and committed to writing for the first time.
The Fifth Dhamma Council took place at Mandalay, in Myanmar in 1871 A.D. under the patronage of the King Min Don Min. It was presided over respectively by Mahā Thera Jāgarābhivamsa, Mahā Thera Narindabhidhaja, and Mahā Thera Sumangala Sāmi. Two thousand four hundred monks participated in it. The recitation and the inscription of the Tipitaka onto marble slabs continued for five months.
The Sixth Council was convened in May, 1954 at Yangon (Rangoon) in Myanmar on the initiation of Prime Minister U Nu. Two thousand five hundred learned monks from Myanmar, Sri Lanka, Thailand, Kampuchea, India, etc., took part in it. The Tipitaka and its allied literature was again examined and their authentic version printed in the Burmese script. The work of the Council was completed on the full moon day of Vesākha, the auspicious occasion of the 2,500th anniversary of the Buddha's Mahāparinibbāna.
These six historical councils--the first three in India, the fourth in Sri Lanka, and the fifth and sixth in Myanmar-served the invaluable purpose of helping to maintain the purity of the teaching, which continues to survive and flourish even today.
Printed publications of the Pāli Tipitaka and Athakathā are available in various scripts, such as Sinhalese, Burmese, Thai, Kampuchean, Roman, Devanāgarī, etc. The Tipitaka and some volumes of the Atthakathā were published for the first time in Devanāgari in the middle of the twentieth century by Nava Nalandā Mahāvihāra, Nalanda, in India. But the entire collection of Atthakathā and Tīkā are not available in Devanāgari script. With a view to removing
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this hiatus, the Vipassana Research Institute is publishing this complete edition of the Tipitaka and its allied literature in Devanāgari.
The main purpose of this publication is to inspire practitioners and scholars to make a smooth journey on the path of pure Dhamma, by means of Vipassana meditation, aided by an understanding of the theoretical knowledge of the words of the Buddha. We hope the teachings of the Buddha will become known and popular in every household.
The division of the Tipitaka according to the Chattha-Sangāyana (Sixth Council) is as follows:
(a) Vinaya-Pitaka
1. Pārājika, 2. Pacittiya, 3. Mahāvagga, 4. Cūļavagga,
5. Parivāra. (b) Sutta-Pitaka
1. Dĩgha-Nikāya, 2. Majjhima-Nikaya, 3. Samyutta-Nikaya, 4. Anguttara-Nikāya, 5. Khuddaka-Nikāya.
The books under the Khuddaka-Nikāya are: Khuddakapāțha, Dhammapada, Udāna, Itivuttaka, Suttanipāta, Vimānavatthu, Petavatthu, Theragāthā, Therigāthā, Apadāna, Buddhavamsa, Cariyāpitaka, Jātaka, Mahāniddesa, Culaniddesa, Patisambhidāmagga, Nettippakarana, Petakopadesa and Milindapañha.
(c) Abhidhamma-Pitaka
1. Dhammasangani, 2. Vibhanga, 3. Dhātukathā, 4. Puggalapaññatti, 5. Kathāvatthu, 6. Yamaka, 7. Patthāna.
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(d) Atthakathā Literature
1. Vinaya-Pitaka-Atthakathā (Samantapāsādikā) (1) Pārājika-Atthakathā, (2) Pacittiya-Atthakathā, (3) Mahāvagga-Atthakathā, (4) Cūļavagga-Atthakathā, (5) Parivāra-Atthakathā, (6) Pātimokkha-Asthakathā (Kankhāvitarani). 2. Sutta-Pițaka-Atthakathā (1) Digha-Nikāya-Atthakathā (Sumangalavilāsini), (2) Majjhima-Nikaya-Atthakatha (Papañcas@dani), (3) Samyutta-Nikaya-Atthakatha (Saratthappakasini), (4) Anguttara-Nikāya-Atthakatha (Manorathapurapi).
The Commentaries on the Khuddaka-Nikāya are as follows: (1) Khuddakapātha-Asthakathā (Paramatthajotikā), (2) Dhammapada-Atthakatha, (3) Udāna-Athakathā (Paramatthadipani), (4) Itivuttaka-Atthakathā (Paramatthadīpani), (5) Suttanipāta-Atthakathā (Paramatthajotikā), (6) Vimānavatthu-Aţthakatha (Paramatthadīpani), (7) Petavatthu-Aţthakathā (Paramatthadipani), (8) Theragāthā-Atthakathā (Paramatthadīpani), (9) Therigāthā-Aţthakathā (Paramatthadīpani), (10) Apadāna-Atthakatha (Visuddhajanavilasini), (11) Buddhavamsa-Atthakathā (Madhuratthavilāsini), (12) Cariyāpitaka-Atthakathā (Paramatthadīpani), (13) Jataka-Atthakathả, (14) Mahāniddesa-Asthakathā (Saddhammappajjotikā), (15) Cūļaniddesa-Asthakathā (Saddhammappajjotikā), (16) Pațisambhidāmagga-Atthakathā (Saddhammappakāsini), (17) Nettippakarana-Aţthakathā, (18) Petakopadesa-Asthakathā, (19) Milindapañha-Asthakathā. 3. Abhidhamma-Pițaka-Atthakatha (1) Dhammasangani-Atthakathā (Atthasālini), (2) Vibhanga-Athakathā (Sammohavinodani),
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(3) Pañcappakarana-Atthakatha
(Aṭṭhakatha on Dhatukathā, Puggalapaññatti, Kathāvatthu, Yamaka and
Paṭṭhāna).
(e) Tīkā Literature
1. Vinaya-Pitaka-Ṭīkā
(1) Vajirabuddhi-Ṭikā, (2) Sāratthadipani-Ṭikā, (3) Vimativinodani-Țikā, (4) Vinayālankāra-Ṭīkā,
(5) Kankhāvitaraņi-Purāṇa-Tikā,
(6) Kankhävitaraņi-Abhinava-Ţikā.
2. Sutta-Pitaka-Ṭikā
(1) Digha-Nikaya-Ṭīkā (Līnatthappakāsanā),
(2) Digha-Nikaya-Silakkhandhavagga-Abhinava-Ṭīkā (Sadhuvilāsinī),
(3) Majjhima-Nikāya-Tikā (Linatthappakāsanā), (4) Samyutta-Nikāya-Tikā (Linatthappakāsanā), (5) Anguttara-Nikāya-Tikā (Sāratthamañjūsā), (6) Nettippakarana-Tikā (Linatthavanṇanā),
(7) Nettivibhāvini-Ṭīkā.
3. Abhidhamma-Pitaka-Tikā
(1) Dhammasangaṇi-Mūla-Ṭīkā, (2) Dhammasangani-Anu-Țikā, (3) Vibhanga-Mula-Ṭīkā,
(4) Vibhanga-Anu-Țikā,
(5) Pañcappakaraṇa-Mula-Țikā,
(6) Pañcappakaraṇa-Anu-Tikā.
There is an additional plan to publish further commentarial literature as also books on history, polity, metrics, prosody, grammar, etc. available in Myanmar.
PRESENT PUBLICATION
While it is true that the Chattha-Sangayana literature was published in Burmese, it cannot be regarded as merely a Burmese edition. Erudite scholars from Myanmar, Sri Lanka, Thailand, Kampuchea and India participated in the Chattha-Sangayana. All the texts were approved and accepted by all the learned participants. As a result, the entire Tipitaka, Atthakatha, Tikā and Anu-Tikā
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approved by the Chattha-Sangayana must be accepted as authentic until there is, in the future, the need for organizing an international Sattama-Sangayana (Seventh Council). Consequently, the Vipassana Research Institute, accepting it as the most authentic version is publishing the Chattha-Sangayana edition in Devanagari script initially.
Some salient features of this Vipassana Research Institute (V.R.I.) publication include the following:
1. Computer technology. Taking advantage of the versatility of computers, storage and retrieval of the voluminous material has been immensely simplified, making it easy to reprint the entire work or parts thereof, as and when required.
2. Archival value. Once the Pali literature is entered on computer, it is planned to convert it to CD-ROM (Compact Disk-Read Only Memory) storage medium, which will preserve this invaluable legacy indefinitely.
3. Conversion into other scripts. V.R.I. has developed computer programmes to easily render the Devanagari script Pāli texts into Bengali, Gujarati and other Indian scripts as well as into the Burmese, Sinhalese, Thai, and Roman scripts; it is planned to eventually publish the Tipitaka in these other scripts.
4. Information retrieval. Study and research are greatly enhanced by a computer programme capable of locating any word, verse, sentence or phrase in any part of the Tipitaka in a matter of seconds. This feature opens up vast possibilities for students and research scholars. The previously arduous, perhaps impossible, task of comparison and collation of words in all contexts throughout this vast literature is now a simple matter.
5. Indexes:
(a) A word index is an essential tool for research. The V.R.I. edition includes a comprehensive index of relevant words and terms.
(b) An index of verses is also included which is beneficial for research scholars.
6. Cross-referencing. The text has been cross-referenced with the editions published by the Pali Text Society, London.
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7. Highlighting references to Vipassana, etc. Passages making explicit or implicit references to Vipassana, Paññā, Nirodha, etc. in the Tipitaka have been indicated in a different type which, involuntarily, draws the attention of meditators towards such passages. This aspect is bound to prove a very inspiring feature for students of the technique, as well as scholars.
8. Re-inclusion of formerly omitted passages. The Pāli literature stems from an oral tradition where it was very common for the same phrases or passages to be repeated. Most previous printed versions have omitted these repetitions (called peyyālas). V.R.I. has chosen to include peyyālas whenever they are found to elucidate the understanding of Vipassana, Paññā, Nirodha, etc.
9. Summary of 'contents' in Hindi. Every volume of the Tipitaka will contain a brief summary of the contents of that volume in Hindi.
10. Introduction to the Tipitaka. In addition, a detailed introduction to the Tipitaka, with quotations numbering more than one thousand, is being published in Hindi. This will unfold a panoramic view of the entire Tipitaka before its readers. Its English translation will also be published.
11. Booklet on the Style of Exposition of Commentarial Literature. A booklet explaining the style of exposition of commentaries and sub-commentaries of the Tipitaka will be published in Hindi for the benefit of readers having inadequate knowledge of Pāli.
12. Translations of Summaries and Introductions. In future when the Institute publishes the Pāli literature in the scripts of other languages, the summaries of the 'contents' of each volume and introductions will be published in the respective languages.
13. Simultaneous publication of Tipitaka and commentaries. Rather than publish the entire Tipitaka first, with subsequent publication of the Atthakathā and sīkā, the Vipassana Research Institute has undertaken to publish the entire family of the Pitaka volumes simultaneously. For example, the Digha Nikāya family has been published in eleven volumes: Digha Nikāya text in three volumes, the commentary on the Digha Nikāya (Sumangalavilāsinī) in three volumes, the sub-commentary Linatthappakāsanā in three volumes and Abhinava sīkā in two volumes. This simultaneous publication will allow scholars to find the entire material related to the
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Digha Nikāya expeditiously available to them. The rest of the Tipitaka will be published in the same way.
14. References from the V.R.I. edition. All references given are from thetexts of the Vipassana Research Institute edition. First, there is the abridged name of the text (e.g., D.N. for Digha Nikāya); it is followed by the volume number and the paragraph number. Where paragraph numbers are not continuous, there the title/sub-title or their number, etc. are indicated before the paragraph number. For example, in the Samyutta Nikāya, there are the names of the text, volume, the number of the vagga and the number of the paragraph. In the same way, for the Anguttara Nikāya, there are the names of the text, volume, nipāta and paragraph number. In texts (such as the Dhammapada, etc.) which abound in verses, the verse numbers are given instead of paragraph numbers.
Present Text
The present volume is the Sīlakkhandhavagga-pāļi : the first of the three volumes of the Digha Nikāya, the first nikāya of the Sutta Pitaka.
We sincerely hope that this publication will provide immense benefit to the practitioners of Vipassana as well as to research scholars.
Director, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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Publisher's Note
We feel pleasure in presenting before the readers this repository of the ancient Indian heritage.
The only source material of the technique of Vipassana meditation is the Buddha's teaching which forms the core of the Pāli literature—an invaluable legacy of Indian wisdom and culture. Pāli literature, comprising the Pāli Tipitaka and its commentaries, sub-commentaries, etc. contains a detailed analytical account of this technique. Unfortunately, this entire literature is presently not available in the Devanāgari script. It is for this reason that taking the version of the above-cited material approved by the Chattha-Sangāyana (held in Myanmar in 1954-56 A.D.) as the most authentic one, the V.R.I. has undertaken the important task of publishing the Tipitaka and its auxiliaries based on all the texts available in the Burmese script.
The main purpose of publication of this literature is to promote research on the beneficial aspects of the technique of Vipassana and forge a link between the study of this literature and the practical aspects of this technique. The passages making direct or indirect references to Vipassanā, Paññā, Nirodha, etc. have been highlighted in the Tipitaka volumes which will help subserve this purpose.
The Vipassana Research Institute wishes to express a deep gratitude to all the officials of the Indian Government who have given their kind support to this historical work. It also expresses heartfelt gratitude to the erudite scholars of Myanmar, India, Nepal and Sri Lanka, as well as to the devoted sādhakas and sādhikās (meditators), who have so generously dedicated themselves to the Dhamma service.
The meditators have contributed their support in many ways. Many have offered their hand in transcribing the texts from the Burmese to the Devanāgari after learning the Burmese script. Some have taken up the important responsibility of examining and correcting these transcriptions. The Pāli scholars have performed the
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important task of editing and examining the final proofs. And still others have undertaken the most difficult work of entering this vast literature into the computer, the painstaking task of correcting the proofs and the exacting job of page-setting the material for publication. A sādhaka has given the scholarly service of writing the Hindi summaries of the discourses and selecting important passages and peyyālas (repeated passages which are omitted in most editions) related to Vipassana, etc.
And finally, our deep gratitude to the most revered teacher, Shri Satya Narayan Goenka, without whose inspiring presence and noble guidance, this Pāli publication work would not be possible. We are also grateful to him for writing the Foreword and preparing a detailed Introduction for the benefit of Vipassana meditators, research workers and general readers.
Honorary Secretary, Vipassana Research Institute,
Igatpuri, India.
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The Pāli alphabets in Devanāgari and Roman characters: Vowels: 37 a 371 à Ii i Ju J ū I e 310 Consonants with Vowel 37 (a): to ka ख kha ग ga g gha
ca 8 cha ja झ jha & ţa tha 3 da dha a ta ef tha da ध dha 7 na q pa 4 pha aba bha म ma o ya ras la ava sa ha a la One nasal sound (niggahīta): 31 am Vowels in combination with consonants "k" and "kh": (exceptions: 5 ru, rū) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू kā के ke को ko ख kha खा khā खि khi खी khi खु khu खू khā खे khe खो kho Conjunct-consonants: क्क kka क्ख kkha क्य kya क्र kra क्ल kla क्व kva 24 khya akhva
TE ggha ग्य gya
ग्र gra gva nka nikha nikhya nga
ngha cca 23 ccha
ज्ज jja
ज्झ jjha স_ina उह nha ñca छ hcha ज hja ज्झ njha ta & ttha dda
ddha ण्ट nta
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mma म्य mya म्ह mha य्य yya yha mos lla pol lya ल्ह lha व्ह vha
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स्न sna स्य sya
स्स ssa स्म sma स्व sva ह्म hma ह्य hya & hva DE lha P1 P2 3384 45 66 67 68 € 9 00
ग्ग gga
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F R
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Notes on the pronunciation of Pāli Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brāhmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation. The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two
consonants and one nasal sound (niggahīta). Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel):
a - as the "a” in about a - as the “a” in father i - as the “”in mint i - as the "ee" in see u - as the “u” in put ū - as the “oo” in cool e is pronounced as the "ay" in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, mettä; o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants
when it is pronounced slightly shorter: loka, photthabba. Consonants are pronounced mostly as in English.
g - as the “g” in get C - soft like the "ch" in church
v - a very soft -v- or -wAll aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath
following the normal unaspirated sound. th - not as in 'three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath)
ph - not as in ‘photo’; rather 'p' followed by 'h' (outbreath) The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the
tongue turned back; and I is pronounced with the tongue retroflexed,
almost a combined ‘rl sound. The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue
touching the upper front teeth. The nasal sounds:
n - guttural nasal, like-ng- as in singer ñ - as in Spanish señor n - with tongue retroflexed
m - as in hung, ring Double consonants are very frequent in Pāli and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English ‘nn' in "unnecessary”.
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सुत्तपिटके
दीघनिकायो
पठमो भागो सीलक्खन्धवग्गपाळि
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।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।।
दीघनिकायो सीलक्खन्धवग्गपाळि
१. ब्रह्मजालसुत्तं
परिब्बाजककथा १. एवं मे सुतं - एक समयं भगवा अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि | सुप्पियोपि खो परिब्बाजको अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन । तत्र सुदं सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति,
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दीघनिकायो-१
(१.१.२-४)
धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति । इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञमञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्टितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्च ।
२. अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि सद्धिं भिक्खुसङ्घन । सुप्पियोपि खो परिब्बाजको अम्बलट्टिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन । तत्रपि सुदं सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति | इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञमञस्स उजुविपच्चनीकवादा विहरन्ति ।
३. अथ खो सम्बहुलानं भिक्खूनं रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठितानं मण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयं सङ्घियधम्मो उदपादि- “अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्तानं नानाधिमुत्तिकता सुप्पटिविदिता । अयहि सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति । इतिहमे उभो आचरियन्तेवासी अञमञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्टितो पिट्टितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चा''ति ।
४. अथ खो भगवा तेसं भिक्खूनं इमं सङ्घियधम्मं विदित्वा येन मण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि । निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि - “कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना सन्निपतिता, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता''ति? एवं वुत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं- “इध, भन्ते, अम्हाकं रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठितानं मण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयं सङ्घियधम्मो उदपादि - ‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्तानं नानाधिमुत्तिकता सुप्पटिविदिता । अयहि सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति,
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(१.१.५-७)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति । इतिहमे उभो आचरियन्तेवासी अञमञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिद्वितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चा'ति । अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तो''ति ।
५. “ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्यु, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया। ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो । ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्यु, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्यु, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं दुब्भासितं आजानेय्याथाति ? “नो हेतं, भन्ते" । “ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि अभूतं अभूततो निब्बेठेतब्- "इतिपेतं अभूतं, इतिपेतं अतच्छं, नत्थि चेतं अम्हेसु, न च पनेतं अम्हेसु संविज्जतीति ।
६. “ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्यु, तत्र तुम्हेहि न आनन्दो न सोमनस्सं न चेतसो उप्पिलावितत्तं करणीयं । ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्यु, तत्र चे तुम्हे अस्सथ आनन्दिनो सुमना उप्पिलाविता तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो । ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्यु, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि भूतं भूततो पटिजानितब्बं - "इतिपेतं भूतं, इतिपेतं तच्छं, अस्थि चेतं अम्हेसु, संविज्जति च पनेतं अम्हेसूति ।
चूळसीलं
७. “अप्पमत्तकं खो पनेतं, भिक्खवे, ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य, कतमञ्च तं, भिक्खवे, अप्पमत्तकं ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ?
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८.
'पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो समणो गोतमो निहितदण्डो, निहितसत्थो, लज्जी, दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरतीति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
""
'अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो समणो गोतमो दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्क्षी, अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरती 'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
दीघनिकायो-१
'अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी समणो गोतमो आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
९. 'मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो समणो गोतमो सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्सा'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
44
( १.१.८-९)
44
'पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो समणो गोतमो, इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय । इति भिन्नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता 'ति इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वणं वदमानो वदेय्य ।
"
'फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो समणो गोतमो, या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपं वाचं भासिता'ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो समणो गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहित'न्ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
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(१.१.१०-१०)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
१०. "बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो समणो गोतमो"ति- इति वा हि, भिक्खवे...पे०...।
" ‘एकभत्तिको समणो गोतमो रत्तूपरतो विरतो विकालभोजना। नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो समणो गोतमो । मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो समणो गोतमो । उच्चासयनमहासयना पटिविरतो समणो गोतमो । जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । आमकधञ्जपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । हत्थिगवस्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो । दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो । कयविक्कया पटिविरतो समणो गोतमो । तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो समणो गोतमो । उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा पटिविरतो समणो गोतमो ।
छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
चूळसीलं निहितं ।
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दीघनिकायो-१
(१.१.११-१५)
मज्झिमसीलं
११. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेव्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं बीजगामभूतगामसमारम्भं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं; इति एवरूपा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
१२. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं सन्निधिकारपरिभोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं वत्थसन्निधिं यानसन्निधिं सयनसन्निधिं गन्धसन्निधिं आमिससन्निधिं इति वा इति, एवरूपा सन्निधिकारपरिभोगा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
१३. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं विसूकदस्सनं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - नच्चं गीतं वादितं पेक्खं अक्खानं पाणिस्सरं वेताळं कुम्भथूणं सोभनकं चण्डालं वंसं धोवनं हत्थियुद्धं अस्सयुद्धं महिंसयुद्धं उसभयुद्धं अजयुद्धं मेण्डयुद्धं कुक्कुटयुद्धं वट्टकयुद्धं दण्डयुद्धं मुट्ठियुद्धं निब्बुद्धं उय्योधिकं बलग्गं सेनाब्यूहं अनीकदस्सनं इति वा इति, एवरूपा विसूकदस्सना पटिविरतो समणो गोतमो'ति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१४. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठपदं दसपदं आकासं परिहारपथं सन्तिकं खलिकं घटिकं सलाकहत्थं अक्खं पङ्गचीरं वङ्ककं मोक्खचिकं चिङ्गुलिकं पत्ताळ्हकं रथकं धनुकं अखरिकं मनेसिकं यथावज्ज इति वा इति, एवरूपा जूतप्पमादट्टानानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमोति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
१५. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा
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(१.१.१६-१८)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
ते एवरूपं उच्चासयनमहासयनं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - आसन्दिं पल्लङ्कं गोनकं चित्तकं पटिकं पटलिकं तूलिकं विकतिकं उद्दलोमिं एकन्तलोमिं कट्टिस्सं कोसेय्यं कुत्तकं हत्थत्थरं अस्सत्थरं रथत्थरं अजिनप्पवेणिं कदलिमिगपवरपच्चत्थरणं सउत्तरच्छदं उभतोलोहितकूपधानं इति वा इति, एवरूपा उच्चासयनमहासयना पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।।
१६. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - उच्छादनं परिमद्दनं न्हापनं सम्बाहनं आदासं अञ्जनं मालागन्धविलेपनं मुखचुण्णं मुखलेपनं हत्थबन्धं सिखाबन्धं दण्डं नाळिकं असिं छत्तं चित्रुपाहनं उण्हीसं मणिं वालबीजनिं ओदातानि वत्थानि दीघदसानि इति वा इति, एवरूपा मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
१७. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं जातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानकथाय पटिविरतो समणो गोतमो'ति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
१८. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं विग्गाहिककथं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, मिच्छा पटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मा पटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते, पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसीति इति वा इति, एवरूपाय विग्गाहिककथाय पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
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दीघनिकायो-१
(१.१.१९-२२)
१९. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं दूतेय्यपहिणगमनानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं - रञ्ज, राजमहामत्तानं, खत्तियानं, ब्राह्मणानं, गहपतिकानं, कुमारानं 'इध गच्छ, अमुत्रागच्छ, इदं हर, अमुत्र इदं आहरा'ति इति वा इति, एवरूपा दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२०. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते कुहका च होन्ति, लपका च नेमित्तिका च निप्पेसिका च, लाभेन लाभ निजिगींसितारो च इति एवरूपा कुहनलपना पटिविरतो समणो गोतमो'ति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
मज्झिमसीलं निहितं ।
महासीलं २१. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - अङ्गं निमित्तं उप्पातं सुपिनं लक्खणं मूसिकच्छिन्नं अग्गिहोमं दब्बिहोमं थुसहोमं कणहोमं तण्डुलहोमं सप्पिहोमं तेलहोमं मुखहोमं लोहितहोमं अङ्गविज्जा वत्थुविज्जा खत्तविज्जा सिवविज्जा भूतविज्जा भूरिविज्जा अहिविज्जा विसविज्जा विच्छिकविज्जा मूसिकविज्जा सकुणविज्जा वायसविज्जा पक्कज्झानं सरपरित्ताणं मिगचक्कं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२२. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - मणिलक्खणं वत्थलक्खणं दण्डलक्खणं सत्थलक्खणं असिलक्खणं उसुलक्खणं धनुलक्खणं आवुधलक्खणं इथिलक्खणं पुरिसलक्खणं कुमारलक्खणं कुमारिलक्खणं दासलक्खणं दासिलक्खणं
..
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(१.१.२३-२४)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
हत्थिलक्खणं अस्सलक्खणं महिंसलक्खणं उसभलक्खणं गोलक्खणं अजलक्खणं मेण्डलक्खणं कुक्कुटलक्खणं वट्टकलक्खणं गोधालक्खणं कण्णिकालक्खणं कच्छपलक्खणं मिगलक्खणं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२३. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - रजं निय्यानं भविस्सति, रज अनिय्यानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ज उपयानं भविस्सति, बाहिरानं रचं अपयानं भविस्सति, बाहिरानं रजं उपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रलं अपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रजे जयो भविस्सति, बाहिरानं रकं पराजयो भविस्सति, बाहिरानं रज्जं जयो भविस्सति, अब्भन्तरानं रनं पराजयो भविस्सति, इति इमस्स जयो भविस्सति, इमस्स पराजयो भविस्सति इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२४. " 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - चन्दग्गाहो भविस्सति, सूरियग्गाहो भविस्सति, नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, उक्कापातो भविस्सति, दिसाडाहो भविस्सति, भूमिचालो भविस्सति, देवदुद्रभि भविस्सति, चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति, एवंविपाको चन्दग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको सूरियग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाको उक्कापातो भविस्सति, एवंविपाको दिसाडाहो भविस्सति, एवंविपाको भूमिचालो भविस्सति, एवंविपाको देवदुद्रभि भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति- इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
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१०
दीघनिकायो-१
(१.१.२५-२७)
२५. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - सुवुट्ठिका भविस्सति, दुब्बुट्ठिका भविस्सति, सुभिक्खं भविस्सति, दुब्भिक्खं भविस्सति, खेमं भविस्सति, भयं भविस्सति, रोगो भविस्सति, आरोग्यं भविस्सति, मुद्दा, गणना, सङ्खानं, कावेय्यं, लोकायतं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२६. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - आवाहनं विवाहनं संवरणं विवरणं संकिरणं विकिरणं सुभगकरणं दुब्भगकरणं विरुद्धगब्भकरणं जिव्हानिबन्धनं हनुसंहननं हत्थाभिजप्पनं हनुजप्पनं कण्णजप्पनं आदासपऽहं कुमारिकपञ्हं देवपञ्हं आदिच्चुपट्टानं महतुपट्टानं अब्भुज्जलनं सिरिव्हायनं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
२७. “ 'यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं - सन्तिकम्म पणिधिकम्मं भूतकम्मं भूरिकम्मं वस्सकम्मं वोस्सकम्मं वत्थुकम्मं वत्थुपरिकम्मं आचमनं न्हापनं जुहनं वमनं विरेचनं उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं कण्णतेलं नेत्ततप्पनं नत्थुकम्मं अञ्जनं पच्चञ्जनं सालाकियं सल्लकत्तियं दारकतिकिच्छा मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो'ति - इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
"इदं खो, भिक्खवे, अप्पमत्तकं ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य ।
महासीलं निहितं ।
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(१.१.२८-३१)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
पुब्बन्तकप्पिका
२८. “अस्थि, भिक्खवे, अञ्चेव धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं । कतमे च ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ?
२९. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो, पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि ?
सस्सतवादो
३०. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा, सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि ? ।
३१. “इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्जासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानि - 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।
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दीघनिकायो-१
(१.१.३२-३२)
___ “सो एवमाह - 'सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिद्वितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं । तं किस्स हेतु ? अहहि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्जासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानिअमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि ।।
___ "इमिनामहं एतं जानामि ‘यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमन्ति । इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ।
३२. "दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । सेय्यथिदं - एकम्पि संवट्टविवढं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तीणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि- 'अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति ।
“सो एवमाह - ‘सस्सतो अत्ता च लोको च वझो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्टितो; ते
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१. ब्रह्मजासुतं
च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं । तं किस्स हेतु ? अहि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि । सेय्यथिदं - एकम्पि संवट्टविवट्टं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि । अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि ।
( १.१.३३-३३)
‘“इमिनामहं एतं जानामि यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो, ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम'न्ति । इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ।
३३. " ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति ? इध भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति । सेय्यथिदं - दसपि संवट्टविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्प संवट्टविवट्टानि - 'अमुत्रासिं एवं नामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाह एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति ।
१३
" सो एवमाह - 'सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं । तं किस्स हेतु ? अहि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बे निवासं अनुस्तरामि । सेय्यथिदं - दसपि संवट्टविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि
13
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दीघनिकायो-१
तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्पि संवट्टविवट्टानि - 'अमुत्रासि एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनवासं अनुस्मरामि ।
१४
“इमिनामहं एतं जानामि यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्टायिट्ठितो, ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम'न्ति । इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ।
३४. “ चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ? इध भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी, सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयं पटिभानं एवमाह - 'सरसतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमन्ति । इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ।
(१.१.३४-३७)
३५. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा सरसतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा ।
३६. “तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - 'इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवं परामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया 'ति, तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति; तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो ।
३७. “इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता
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(१.१.३८-४१)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
पठमभाणवारो।
एकच्चसस्सतवादो
३८. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि ?
३९. "होति खो सो, भिक्खवे, समयो, यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति । संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति । ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति ।
४०. “होति खो सो, भिक्खवे, समयो, यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको विवति । विवट्टमाने लोके सुझं ब्रह्मविमानं पातुभवति । अथ खो अञतरो सत्तो आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा सुझं ब्रह्मविमानं उपपज्जति । सो तत्थ होति मनोमयो पीतिभक्खो सयंपभो अन्तलिक्खचरो सुभट्ठायी, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठति ।
४१. "तस्स तत्थ एककस्स दीघरत्तं निवुसितत्ता अनभिरति परितस्सना उपपज्जति - 'अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्यु'न्ति । अथ अञपि सत्ता आयुक्खया वा पुञ्जक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा ब्रह्मविमानं उपपज्जन्ति तस्स सत्तस्स सहब्यतं । तेपि तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिठ्ठन्ति ।
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दीघनिकायो-१
(१.१.४२-४५)
४२. “तत्र, भिक्खवे, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो तस्स एवं होति- “अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं । मया इमे सत्ता निम्मिता । तं किस्स हेतु ? ममहि पुब्बे एतदहोसि - ‘अहो वत अञपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्युन्ति । इति मम च मनोपणिधि, इमे च सत्ता इत्थत्तं आगता''ति ।
“येपि ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, तेसम्पि एवं होति- 'अयं खो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं । इमिना मयं भोता ब्रह्मना निम्मिता । तं किस्स हेतु ? इमहि मयं अद्दसाम इध पठमं उपपन्नं, मयं पनम्ह पच्छा उपपन्ना'ति ।
४३. “तत्र, भिक्खवे, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, सो दीघायुकतरो च होति वण्णवन्ततरो च महेसक्खतरो च । ये पन ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, ते अप्पायुकतरा च होन्ति दुब्बण्णतरा च अप्पेसक्खतरा च ।।
४४. "ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति, यं अञ्जतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति ।
“सो एवमाह - 'यो खो सो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं, येन मयं भोता ब्रह्मना निम्मिता, सो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सति । ये पन मयं अहुम्हा तेन भोता ब्रह्मना निम्मिता, ते मयं अनिच्चा अद्धवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता'ति । इदं खो, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ।
४५. “दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका
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(१.१.४६-४८)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ? सन्ति, भिक्खवे, खिड्डापदोसिका नाम देवा, ते अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति । तेसं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति । सतिया सम्मोसा ते देवा तम्हा काया चवन्ति ।
___ ४६. “ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति यं अञ्जतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति ।
___ “सो एवमाह - 'ये खो ते भोन्तो देवा न खिड्डापदोसिका, ते न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति । तेसं न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति न सम्मुस्सति । सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति; निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति । ये पन मयं अहुम्हा खिड्डापदोसिका, ते मयं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरिम्हा । तेसं नो अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति । सतिया सम्मोसा एवं मयं तम्हा काया चुता अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता'ति । इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ।
४७. "ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ? सन्ति, भिक्खवे, मनोपदोसिका नाम देवा, ते अतिवेलं अञमनं उपनिज्झायन्ति । ते अतिवेलं अञमनं उपनिज्झायन्ता अञ्जमझम्हि चित्तानि पदूसेन्ति । ते अञमङ्गं पदुद्दचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा काया चवन्ति ।
४८. “ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति यं अञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय
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दीघनिकायो - १
(१.१.४९-५०)
अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुसरति, ततो परं नानुरसरति ।
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"सो एवमाह - 'ये खो ते भोन्तो देवा न मनोपदोसिका, ते नातिवेलं अञ्ञमञ्जं उपनिज्झायन्ति । ते नातिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि नप्पदूसेन्ति । ते अञ्ञमञ्ञ अप्पदुट्ठचित्ता अकिलन्तकाया अकिलन्तचित्ता । ते देवा तम्हा काया न चवन्ति, निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति । ये पन मयं अहुम्हा मनोपदोसिका, ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायिम्हा । ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञ उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसिम्हा, ते मयं अञ्ञम पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता । एवं मयं तम्हा काया चुता अनिच्चा अद्भुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थतं आगता'ति । इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ।
४९. “ चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी । सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह- 'यं खो इदं वुच्चति चक्खुं इतिप सोतं इतिपि घानं इतिपि जिव्हा इतिपि कायो इतिपि, अयं अत्ता अनिच्चो अद्भुवो असस्तो विपरिणामधम्मो । यञ्च खो इदं वुच्चति चित्तन्ति वा मनोति वा विञ्ञणन्ति वा अयं अत्ता निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सती 'ति । इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसरसतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति ।
५०. "इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा ।
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(१.१.५१-५५)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
५१. “तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिहिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
५२. “इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेव्यु ।
अन्तानन्तवादो
५३. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि ?
५४. “इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अन्तसञी लोकस्मिं विहरति ।
“सो एवमाह - ‘अन्तवा अयं लोको परिवटुमो। तं किस्स हेतु ? अहन्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अन्तसञी लोकस्मिं विहरामि । इमिनामहं एतं जानामि - यथा अन्तवा अयं लोको परिवटुमो ति । इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ।
५५. “दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधि फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनन्तसञ्जी लोकस्मिं विहरति ।
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२०
दीघनिकायो-१
(१.१.५६-५७)
“सो एवमाह - 'अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो। ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु - अन्तवा अयं लोको परिवटुमोति, तेसं मुसा । अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो। तं किस्स हेतु ? अहहि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनन्तसञी लोकस्मिं विहरामि । इमिनामहं एतं जानामि- यथा अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो'ति । इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ।
५६. "ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते उद्धमधो अन्तसञ्जी लोकस्मिं विहरति, तिरियं अनन्तसञ्जी।
“सो एवमाह - ‘अन्तवा च अयं लोको अनन्तो च। ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु - अन्तवा अयं लोको परिवटुमोति, तेसं मुसा। येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु - अनन्तो अयं लोको अपरियन्तोति, तेसम्पि मुसा । अन्तवा च अयं लोको अनन्तो च। तं किस्स हेतु ? अहहि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते उद्धमधो अन्तसञी लोकस्मिं विहरामि, तिरियं अनन्तसञी। इमिनामहं एतं जानामि - यथा अन्तवा च अयं लोको अनन्तो चा'ति । इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ।
५७. “चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी । सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह - "नेवायं लोको अन्तवा, न पनानन्तो । ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु- 'अन्तवा अयं लोको परिवटुमो ति, तेसं मुसा। येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु- 'अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो'ति, तेसम्पि मुसा । येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु- ‘अन्तवा च अयं लोको अनन्तो चा'ति, तेसम्पि मुसा । नेवायं लोको अन्तवा, न पनानन्तो''ति । इदं,
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(१.१.५८-६२)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति ।
५८. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा।
५९. "तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिट्ठिवाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता | वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
६०. “इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
अमराविक्खेपवादो ६१. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका, तत्थ तत्थ पञ्हं पुठ्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि ?
६२. “इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति । 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, तस्स एवं होति – “अहं खो 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, 'इदं अकुसल न्ति यथाभूतं नप्पजानामि । अहञ्चे खो पन 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, 'इदं अकुसल न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, 'इदं कुसल'न्ति वा ब्याकरेय्यं, 'इदं अकुसल'न्ति वा ब्याकरेय्यं, तं ममस्स मुसा । यं ममस्स
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दीघनिकायो-१
(१.१.६३-६४)
मुसा, सो ममस्स विघातो । यो ममस्स विघातो सो ममस्स अन्तरायो"ति । इति सो मुसावादभया मुसावादपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं“एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नो"ति । इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ।
६३. “दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति । तस्स एवं होति- “अहं खो 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानामि । अहञ्चे खो पन 'इदं कुसल न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, 'इदं कुसल'न्ति वा
करेय्यं. 'इदं अकसल'न्ति वा ब्याकरेय्यं. तत्थ मे अस्स छन्दो वा रागो वा दोसो वा पटिघो वा। यत्थ मे अस्स छन्दो वा रागो वा दोसो वा पटिघो वा, तं ममस्स उपादानं । यं ममस्स उपादानं, सो ममस्स विघातो। यो ममस्स विघातो, सो ममस्स अन्तरायो''ति । इति सो उपादानभया उपादानपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं - "एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नोति । इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पऽहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खे।
६४. "ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानाति । तस्स एवं होति- “अहं खो 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, 'इदं अकुसल'न्ति यथाभूतं नप्पजानामि । अहञ्चे खो पन 'इदं कुसल'न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो 'इदं अकुसल न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो 'इदं कुसल'न्ति वा ब्याकरेय्यं, 'इदं अकुसल'न्ति वा ब्याकरेय्यं । सन्ति हि खो समणब्राह्मणा पण्डिता
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(१.१.६५-६५)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
निपुणा कतपरप्पवादा वालवेधिरूपा, ते भिन्दन्ता मञ्जे चरन्ति पञ्ञागतेन दिट्ठिगतानि, ते मं तत्थ समनुयुञ्जेय्युं समनुगाहेय्युं समनुभासेय्युं । ये मं तत्थ समनुयुञ्जेय्युं समनुगाहेय्युं समनुभासेय्युं, तेसाहं न सम्पायेय्यं । येसाहं न सम्पायेय्यं, सो ममस्स विघातो । यो ममस्स विघातो, सो ममस्स अन्तरायो” ति । इति सो अनुयोगभया अनुयोगपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं- " एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञ्ञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नोति । इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हें पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ।
६५. “चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तथ तत्थ पहं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा मन्दो होति मोमूहो । सो मन्दत्ता मोमूहत्ता तत्थ तत्थ पहं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं - " अत्थि परो लोको "ति इति चे मं पुच्छसि, "अत्थि परो लोको" ति इति चे मे अस्स, “अत्थि परो लोको "ति इति ते नं ब्याकरेय्यं, एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नोति । नत्थि परो लोको... पे०... अत्थि च नत्थि च परो लोको... पे०... नेवत्थि न नत्थि परो लोको... पे०... अत्थि सत्ता ओपपातिका...पे०... नत्थि सत्ता ओपपातिका...पे०... अस्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका... पे०... नेवत्थि न नत्थि सत्ता ओपपातिका... पे०... अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको...पे०... नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको...पे०... अत्थि च नत्थि च सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको...पे०... नेवत्थि न नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको... पे०... होति तथागतो परं मरणा... पे०... न होति तथागतो परं मरणा... पे०... होति च न च होति तथागतो परं मरणा... पे०... नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मं पुच्छसि, “नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मे अस्स, "नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा" ति इति ते नं ब्याकरेय्यं, एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नोति । इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरम्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं ।
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( १.१.६६-६८)
६६. "इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा । तयिदं भिक्खवे, तथागतो पजानाति - 'इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवं परामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्जेव निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो । इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
दीघनिकायो-१
अधिच्चसमुप्पन्नवादो
६७. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति द्वीहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम् किमारब्भ अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि ?
६८. “सन्ति, भिक्खवे, असञ्ञसत्ता नाम देवा । सञ्प्पादा च पन ते देवा तम्हा काया चवन्ति । ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति । इत्थतं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति यथासमाहिते चित्ते सञ्ञ्जुप्पादं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति । सो एवमाह - “अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च । तं किस्स हेतु ? अहहि पुब्बे नाहोसिं, सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्ता परिणतो 'ति । इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति ।
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(१.१.६९-७२)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
६९. “दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति ? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी। सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह – 'अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको चा'ति । इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति।
____७०. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वीहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्जतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति- 'इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्यु ।
७१. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुबन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्टिनो पुब्बन्तमारब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठारसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा ।
७२. "तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति- ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
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२६
दीघनिकायो-१
(१.१.७३-७६)
____७३. “इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
दुतियभाणवारो।
अपरन्तकप्पिका
७४. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो, अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि ?
सञ्जीवादो ___७५. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि ?
७६. “ 'रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञी'ति नं पञपेन्ति । 'अरूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञी'ति नं पञपेन्ति । 'रूपी च अरूपी च अत्ता होति...पे०... नेवरूपी नारूपी अत्ता होति । अन्तवा अत्ता होति । अनन्तवा अत्ता होति । अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति । नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति । एकत्तसञी अत्ता होति । नानत्तसञ्जी अत्ता होति । परित्तसञ्जी अत्ता होति । अप्पमाणसञी अत्ता होति । एकन्तसुखी अत्ता होति । एकन्तदुक्खी अत्ता होति । सुखदुक्खी अत्ता होति । अदुक्खमसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञ्जी'ति नं पञपेन्ति ।
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(१.१.७७-८०)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
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७७. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सब्धि अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सोळसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिठ्ठिट्टाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
असञ्जीवादो
७८. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असझिं अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असधि अत्तानं पञपेन्ति अट्टहि वत्थूहि ?
७९. “ 'रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञी'ति नं पञपेन्ति । 'अरूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञ्जी'ति नं पञपेन्ति । 'रूपी च अरूपी च अत्ता होति...पे०... नेवरूपी नारूपी अत्ता होति । अन्तवा अत्ता होति । अनन्तवा अत्ता होति । अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति । नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञ्जी'ति नं पञपेन्ति ।
८०. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असझिं अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असधि अत्तानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठहि वत्थूहि, एतेसं वा अञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति
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दीघनिकायो-१
(१.१.८१-८३)
एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
नेवसञ्जीनासञ्जीवादो ८१. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञ्जीवादा, उद्धमाघातनं नेवसजीनासनिं अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका नेवसञीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसञीनासचिं अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि ?
८२. “ 'रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा नेवसञ्जीनासञी'ति नं पञपेन्ति । 'अरूपी अत्ता होति...पे०... रूपी च अरूपी च अत्ता होति । नेवरूपी नारूपी अत्ता होति । अन्तवा अत्ता होति । अनन्तवा अत्ता होति । अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति । नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति अरोगो परं मरणा नेवसञीनासञ्जी'ति नं पञपेन्ति ।
८३. "इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्जीनासझिं अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका नेवसञीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्जीनासनिं अत्तानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठहि वत्थूहि । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिट्ठिट्टाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया ति। तञ्च तथागतो पजानाति. ततो च उत्तरितरं पजानाति. तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता
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(१.१.८४-८८)
१. ब्रह्मजाल
अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
उच्छेदवादो
८४. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि ?
८५. “इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्ठि – “यतो खो, भो, अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो का भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञन्ति ।
८६. " तमञ्ञ एवमाह- " अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता दिब्बो रूपी कामावचरो कबळीकाराहारभक्खो । तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
1
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८७. “तमञ्ञ एवमाह- " अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अथ खो, भो, अञ्ञो अत्ता दिब्बो रूपी मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो । तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
-
८८. “ तमञ्ञ एवमाह- "अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अस्थि
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दीघनिकायो-१
खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा पटिघसञ्जनं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्जनं अमनसिकारा 'अनन्तो आकासो 'ति आकासानञ्चायतनूपगो । तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
३०
८९. “ तमञ्ञ एवमाह- "अत्थि खो, भो, एसो अत्ता यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अथ खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म 'अनन्तं विञ्ञाण 'न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एतावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
९०. “ तमञ्ञ एवमाह - " अत्थि खो, भो, सो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म 'नत्थि किञ्ची 'ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एतावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
( १. १.८९-९१)
९१. “ तमञ्ञ एवमाह “अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, सो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति । अस्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म 'सन्तमेतं पणीतमेत 'न्ति नेवसञ्जनासञयतनूपगो । तं त्वं न जानासि न पस्ससि । तमहं जानामि पस्सामि । सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति न होति परं मरणा, एतावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती 'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति ।
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(१.१.९२-९५)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
९२. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सत्तहि वत्थूहि । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिट्टिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्त व निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो। इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेव्यु ।
दिट्ठधम्मनिब्बानवादो
९३. “सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि । ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ दिठ्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति पञ्चहि
वत्थूहि ?
___ ९४. “इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्ठि“यतो खो, भो, अयं अत्ता पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती"ति । इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति ।
९५. "तमझो एवमाह -“अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति । तं किरस हेतु ? कामा हि, भो, अनिच्चा दुक्खा विपरिणामधम्मा, तेसं विपरिणामञ्जथाभावा उप्पज्जन्ति सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा। यतो खो, भो, अयं अत्ता विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती''ति । इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति ।
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३२
दीघनिकायो-१
(१.१.९६-९९)
९६. “तमो एवमाह - “अस्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति । तं किस्स हेतु ? यदेव तत्थ वितक्कितं विचारितं, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति । यतो खो, भो, अयं अत्ता वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती"ति । इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति ।
९७. "तमो एवमाह - “अस्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्टधम्मनिब्बानं पत्तो होति । तं किस्स हेतु ? यदेव तत्थ पीतिगतं चेतसो उप्पिलावितत्तं, एतेनेतं ओळारिक अक्खायति । यतो खो, भो, अयं अत्ता पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती''ति । इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति ।
९८. “तमञो एवमाह - “अस्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति । तं किस्स हेतु ? यदेव तत्थ सुखमिति चेतसो आभोगो, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति । यतो खो, भो, अयं अत्ता सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती'ति । इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति ।
९९. "इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव पञ्चहि वत्थूहि। तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - ‘इमे दिट्ठिवाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स
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१. ब्रह्मजालसुत्तं
पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो । इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
(१.१.१००-१०३)
१००. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारसाय वत्थूहि । ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति सब्बे ते इमेहेव चतुचत्तारसाय वत्थूहि । तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति - 'इमे दिट्ठट्ठाना एवंगहिता एवं परामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवं अभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञेव निब्बुति विदिता । वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो । इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
१०१. “इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तप्पा च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरम्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि |
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१०२. “ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरम्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा |
१०३. “तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति 'इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवं अभिसम्पराया'ति । तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञेव
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दीघनिकायो-१
(१.१.१०४-११०)
निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
१०४. “इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं ।
परितस्सितविप्फन्दितवारो
१०५. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
१०६. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
१०७. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
१०८. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
१०९. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
११०. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुबन्तानुदिट्ठिनो
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(१.१.१११-११७)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
३५
पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
१११. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सछि अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
११२. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा उद्धमाघातनं असधि अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव ।
११३. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसजीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसञीनासब्धि अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव।
११४. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
११५. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिठ्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिठ्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव ।
११६. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिविनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव।
११७. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका
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दीघनिकायो-१
(१.१.११८-१२४)
च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिछिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविष्फन्दितमेव ।
फस्सपच्चयावारो ११८. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
११९. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२०. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२१. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२२. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२३. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२४. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
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(१.१.१२५-१३२)
१. ब्रह्मजाल
१२५. “ तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञि अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
१२६. “तत्र, भिक्खवे, ये
समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञि अत्तानं पञ्ञन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
३७
१२७. “ तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
१२८. “ तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञन्ति पञ्चहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
१२९. “ तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
१३०. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरम्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया ।
नेतं ठानं विज्जतिवारो
१३१. “ तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति चतूहि वत्थूहि ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति ।
१३२. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञन्ति चतूहि वत्थूहि तेवत अत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति ।
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दीघनिकायो-२
(१.१.१३३-१४०)
१३३. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३४. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुठ्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३५. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३६. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिछिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३७. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा उद्धमाघातनं सझिं अत्तानं पञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३८. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा, उद्धमाघातनं असजि अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति ।
१३९. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्जीनासञ्जीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्जीनासछि अत्तानं पञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति ।
१४०. "तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
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(१.१.१४१-१४४)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
१४१. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि. ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१४२. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति ।
१४३. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिछिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, ते वत अञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
दिद्विगतिकाधिट्ठानवटकथा १४४. “तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पचपेन्ति चतूहि वत्थूहि, येपि ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका...पे०... येपि ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका । येपि ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका। येपि ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका । येपि ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका। येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा। येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्जीवादा । येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञीनासञ्जीवादा। येपि ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा। येपि ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा । येपि ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका । येपि ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिठ्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, सब्बे ते छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ति। तेसं वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति।
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४०
दीघनिकायो-१
विट्टकथादि
१४५. “ यतो खो, भिक्खवे, भिक्खु छन्नं फस्सायतनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं पजानाति, अयं इमेहि सब्बेहेव उत्तरितरं पजानाति ।
१४६. “ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरम्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता, एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति, एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति ।
( १.१.१४५ - १४७)
"सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो केवट्टो वा केवट्टन्तेवासी वा सुखमच्छिकेन जालेन परित्तं उदकदहं ओत्थरेय्य । तस्स एवमस्स "ये खो केचि इमस्मिं उदकदहे ओळारिका पाणा, सब्बे ते अन्तोजालीकता । एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति; एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ती' 'ति; एवमेव खो, भिक्खवे, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरम्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वासट्टिया वत्थूहि अन्तोजालीकता एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति, एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति ।
१४७. “ उच्छिन्नभवनेत्तिको, भिक्खवे, तथागतस्स कायो तिट्ठति । यावस्स कायो उस्सति, ताव नं दक्खन्ति देवमनुस्सा । कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना न नं दक्खन्ति देवमनुस्सा |
"सेय्यथापि, भिक्खवे, अम्बपिण्डिया वण्टच्छिन्नाय यानि कानिचि अम्बानि वण्टपटिबन्धानि सब्बानि तानि तदन्वयानि भवन्ति; एवमेव खो, भिक्खवे, उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायो तिट्ठति, यावस्स कायो ठस्सति, ताव नं दक्खन्ति देवमनुस्सा, कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना न नं दक्खन्ति देवमनुस्सा'ति ।
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(१.१.१४८-१४९)
१. ब्रह्मजालसुत्तं
१४८. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच - "अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, को नामो अयं, भन्ते, धम्मपरियायो''ति ? “तस्मातिह त्वं, आनन्द, इमं धम्मपरियायं अत्थजालन्तिपि नं धारेहि, धम्मजालन्तिपि नं धारेहि, ब्रह्मजालन्तिपि नं धारेहि, दिट्ठिजालन्तिपि नं धारेहि, अनुत्तरो सङ्गामविजयोतिपि नं धारेही''ति । इदमवोच भगवा ।
१४९. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति । इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्जमाने दससहस्सी लोकधातुअकम्पित्थाति ।
ब्रह्मजालसुत्तं निहितं पठम।
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२. सामञ्जफलसुत्तं
राजामच्चकथा
१५०. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा राजगहे विहरति जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं अड्डतेळसेहि भिक्खुसतेहि । तेन खो पन समयेन राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे पन्नरसे कोमुदिया चातुमासिनिया पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया राजामच्चपरिवुतो उपरिपासादवरगतो निसिन्नो होति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे उदानं उदानेसि"रमणीया वत भो दोसिना रत्ति, अभिरूपा वत भो दोसिना रत्ति, दस्सनीया वत भो दोसिना रत्ति, पासादिका वत भो दोसिना रत्ति, लक्खञा वत भो दोसिना रत्ति । कं नु ख्वज्ज समणं वा ब्राह्मणं वा पयिरुपासेय्याम, यं नो पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या'"ति ?
१५१. एवं वुत्ते, अञ्जतरो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच- “अयं, देव, पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तजू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । तं देवो पूरणं कस्सपं पयिरुपासतु । अप्पेव नाम देवस्स पूरणं कस्सपं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या'ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि ।
१५२. अञ्जतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – “अयं, देव, मक्खलि गोसालो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । तं देवो मक्खलिं गोसालं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स मक्खलिं गोसालं
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(१.२.१५३-१५६)
(१.२.१५३-१५६)
२. सामञ्फलसुतं
२. सामञफलसुत्तं
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पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या''ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि ।
१५३. अञ्जतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – “अयं, देव, अजितो केसकम्बलो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तजू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । तं देवो अजितं केसकम्बलं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स अजितं केसकम्बलं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या''ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि ।
१५४. अञ्जतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच - "अयं, देव, पकुधो कच्चायनो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । तं देवो पकुधं कच्चायनं पयिरुपासतु । अप्पेव नाम देवस्स पकुधं कच्चायनं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या''ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि ।
१५५. अञ्जतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपत्तं एतदवोच - "अयं, देव, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो | तं देवो सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं पयिरुपासतु | अप्पेव नाम देवस्स सञ्चयं बेलठ्ठपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या''ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५६. अञ्जतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच - “अयं, देव, निगण्ठो नाटपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च आतो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्जू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । तं देवो निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या'ति । एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि ।
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दीघनिकायो-१
कोमारभच्चजीवककथा
१५७. तेन खो पन समयेन जीवको कोमारभच्चो रज्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे तुम्हीभूतो निसिन्नो होति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच - " त्वं पन, सम्म जीवक, किं तुम्ही "ति ? "अयं, देव, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धी अम्हाकं अम्बवने विहरति महता भिक्खुसन सद्धिं अड्ढतेळसेहि भिक्खुसतेहि । तं खो पन भगवन्तं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा 'ति । तं देवो भगवन्तं पयिरुपासतु । अप्पेव नाम देवस्स भगवन्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या'ति ।
१५८. " तेन हि, सम्म जीवक, हत्थियानानि कप्पापेही 'ति । " एवं देवा" ति खो जीवको कोमारभच्चो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिस्सुणित्वा पञ्चमत्तानि हत्थिनिकासतानि कप्पापेत्वा रञ्ञो च आरोहणीयं नागं, रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिवेदेसि " कप्पितानि खो ते, देव, हत्थियानानि, यस्सदानि कालं मञ्ञसी "ति ।
(१.२.१५७-१५९)
१५९. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चसु हत्थिनिकास सु पच्चेका इत्थियो आरोपेत्वा आरोहणीयं नागं अभिरुहित्वा उक्कासु धारियमानासु राजगहम्हा निय्यासि महच्चराजानुभावेन येन जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनं तेन पायासि ।
अथ खो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे अम्बवनस्स अहुदेव भयं, अहु छम्भितत्तं, अहु लोमहंसो । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहजातो जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच - " कच्चि मं, सम्म जीवक, न वञ्चेसि ? कच्चि मं, सम्म जीवक, न पलम्भेसि ? कच्चि मं, सम्म जीवक, न पच्चत्थिकानं देसि ? कथञ्हि नाम ताव महतो भिक्खुसङ्घस्स अड्ढतेळसानं भिक्खुसतानं नेव खिपितसद्दो भविस्सति, न उक्कासितसद्दो न निग्घोसो 'ति ।
" मा भायि, महाराज, मा भायि, महाराज। न तं देव, वञ्चेमि; न तं देव,
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(१.२.१६०-१६३)
२. सामञफलसुत्तं
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पलम्भामि; न तं, देव, पच्चस्थिकानं देमि । अभिक्कम, महाराज, अभिक्कम, महाराज, एते मण्डलमाळे दीपा झायन्ती''ति ।
सामञ्जफलपुच्छा
१६०. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो यावतिका नागस्स भूमि नागेन गन्त्वा. नागा पच्चोरोहित्वा. पत्तिकोव येन मण्डलमाळस्स द्वारं तेनपसमि: उपसङ्कमित्वा जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच- "कहं पन, सम्म जीवक, भगवा''ति ? "एसो, महाराज, भगवा; एसो, महाराज, भगवा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो पुरक्खतो भिक्खुसङ्घस्सा''ति ।
१६१. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्टासि । एकमन्तं ठितो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्हीभूतं तुण्हीभूतं भिक्खुसद्धं अनुविलोकेत्वा रहदमिव विप्पसन्नं उदानं उदानेसि - "इमिना मे उपसमेन उदयभद्दो कुमारो समन्नागतो होतु, येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो''ति । “अगमा खो त्वं, महाराज, यथापेम''न्ति । “पियो मे, भन्ते, उदयभद्दो कुमारो । इमिना मे, भन्ते, उपसमेन उदयभद्दो कुमारो समन्नागतो होतु येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो''ति ।।
१६२. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा, भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलिं पणामेत्वा, एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच - "पुच्छेय्यामहं, भन्ते, भगवन्तं किञ्चिदेव देसं; सचे मे भगवा ओकासं करोति पञ्हस्स वेय्याकरणाया"ति । “पुच्छ, महाराज, यदाकङ्खसी'ति ।
१६३. “यथा नु खो इमानि, भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि, सेय्यथिदं - हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका सूदा मालकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिवेव धम्मे सन्दिट्टिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति; ते तेन अत्तानं
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दीघनिकायो-१
(१.२.१६४-१६६)
सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिठ्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं । सक्का नु खो, भन्ते, एवमेव दिद्वैव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञफलं पञपेतु"न्ति ?
१६४. “अभिजानासि नो त्वं, महाराज, इमं पहं अजे समणब्राह्मणे पुच्छिता"ति ? “अभिजानामहं, भन्ते, इमं पऽहं अञ समणब्राह्मणे पुच्छिता''ति । “यथा कथं पन ते, महाराज, ब्याकरिंसु, सचे ते अगरु भासस्सू''ति । “न खो मे, भन्ते, गरु, यत्थस्स भगवा निसिन्नो, भगवन्तरूपो वा''ति । "तेन हि, महाराज, भासस्सू'ति ।
पूरणकस्सपवादो
१६५. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन पूरणो कस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पूरणेन कस्सपेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, पूरणं कस्सपं एतदवोचं - "यथा नु खो इमानि, भो कस्सप, पुथुसिप्पायतनानि, सेय्यथिदं- हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका सूदा मालकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनञ्जानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति । ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिठ्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं । सक्का नु खो, भो कस्सप, एवमेव दिढेव धम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञपेतु"न्ति ?
१६६. “एवं वुत्ते, भन्ते, पूरणो कस्सपो मं एतदवोच -- “करोतो खो, महाराज, कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो सोचयतो, सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातापयतो, अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिहतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो, करोतो न करीयति पापं । खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एक मंसखलं एकं मंसपुजं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो । दक्खिणं
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(१.२.१६७-१६८)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो छिन्दन्तो छेदापेन्तो पचन्तो पाचापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो । उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो यजन्तो यजापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पुलं, नत्थि पुञस्स आगमो । दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन नत्थि पुलं, नत्थि पुञ्जस्स आगमो''ति । इत्थं खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्ठिकं सामञफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि ।
सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि । तस्स मव्हं, भन्ते, एतदहोसि - "कथहि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मझेय्या'ति । सो खो अहं, भन्ते, पूरणस्स कस्सपस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं । अनभिनन्दित्वा अप्पटिकोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उठायासना पक्कमि ।
मक्खलिगोसालवादो
१६७. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन मक्खलि गोसालो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा मक्खलिना गोसालेन सद्धिं सम्मोदिं । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, मक्खलिं गोसालं एतदवोचं- “यथा न खो इमानि, भो गोसाल, पुथुसिप्पायतनानि...पे०... सक्का नु खो, भो गोसाल, एवमेव दिढेव धम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञपेतु''न्ति ?
__ १६८. “एवं वुत्ते, भन्ते, मक्खलि गोसालो में एतदवोच – “नत्थि महाराज हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय, अहेतू अपच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति । नत्थि हेतु, नस्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया, अहेतू अपच्चया सत्ता विसुज्झन्ति । नत्थि अत्तकारे, नत्थि परकारे, नत्थि पुरिसकारे, नत्थि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो। सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ति । चुद्दस खो पनिमानि योनिपमुखसतसहस्सानि सहि च सतानि छ च सतानि पञ्च च कम्मुनो सतानि पञ्च च कम्मानि तीणि च कम्मानि कम्मे च अड्डकम्मे च द्वट्ठिपटिपदा
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दीघनिकायो-१
द्वट्ठन्तरकप्पा छळाभिजातियो अट्ठ पुरिसभूमियो एकूनपञ्ञास आजीवकसते एकूनपास परिब्बाजकसते एकूनपञ्ञास नागावाससते वीसे इन्द्रियसते तिसे निरयसते छत्तिंस रजोधातुयो सत्त सञ्ञीगब्भा सत्त असञ्ञीगब्भा सत्त निगण्ठिगब्भा सत्त देवा सत्त मानुसा सत्त पिसाचा सत्त सरा सत्त पवुटा सत्त पवुटसतानि सत्त पपाता सत्त पपातसतानि सत्त सुपिना सत्त सुपिनसतानि चुल्लासीति महाकप्पिनो सतसहस्सानि यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति । तत्थ नत्थि 'इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्कं वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्कं वा कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तिं करिस्सामी 'ति हेवं नत्थि । दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नत्थि उक्कंसावकंसे । सेय्यथापि नाम सुत्तगुळे खित्ते निब्बेठियमानमेव पलेति, एवमेव बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ती 'ति ।
१६९. “इत्थं खो मे, भन्ते, मक्खलि गोसालो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो संसारसुद्धिं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, मक्खलि गोसालो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो संसारसुद्धिं ब्याकासि । तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि - " कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मय्या "ति । सो खो अहं, भन्ते, मक्खलिस्स गोसालस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गहन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं ।
( १.२.१६९-१७१)
अजितके सकम्बलवादो
१७०. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन अजितो केसकम्बलो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा अजितेन केसकम्बलेन सद्धिं सम्मोदिं । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं । एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, अजितं केसकम्बलं एतदवोचं – “यथा नु खो इमानि भो अजित, पुथुसिप्पायतनानि...पे०... सक्का नु खो, भो अजित, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु"न्ति ?
१७१. “ एवं वुत्ते, भन्ते, अजितो केसकम्बलो मं एतदवोच - “नत्थि, महाराज,
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( १.२.१७२-१७४)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
दिन्नं, नत्थि यिट्ठ, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना, ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ति। चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो, यदा कालङ्करोति, पथवी पथविकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आकासं इन्द्रियानि सङ्कमन्ति । आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति । यावाळाहना पदानि पञ्ञायन्ति । कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति, भस्सन्ता आहुतियो | दत्तुपञ्ञत्तं यदिदं दानं । तेसं तुच्छं मुसा विलापो ये केचि अत्थिकवादं वदन्ति । बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति न होन्ति परं मरणा" ति ।
१७२. “इत्थं खो मे, भन्ते, अजितो केसकम्बलो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो उच्छेदं ब्याकासि । सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, अजितो केसकम्बलो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो उच्छेदं ब्याकासि । तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि - " कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या "ति । सो खो अहं, भन्ते, अजितस्स केसकम्बलस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं । अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गहन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं ।
पकुधकच्चायनवादो
१७३. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन पकुधो कच्चायनो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा पकुधेन कच्चायनेन सद्धिं सम्मोदिं । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं । एकमन्तं निसिनो खो अहं, भन्ते, पकुधं कच्चायनं एतदवोचं - " यथा नु खो इमानि, भो कच्चायन, पुथुसिप्पायतनानि... पे०... सक्का नु खो, भो कच्चायन, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु"न्ति ?
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१७४. “एवं वुत्ते, भन्ते, पकुधो कच्चायनो मं एतदवोच - “ सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता । तेन
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दीघनिकायो-१
(१.२.१७५-१७७)
इञ्जन्ति, न विपरिणमन्ति, न अञमजं ब्याबाधेन्ति, नालं अञ्जमञ्जस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा। कतमे सत्त? पथविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायोकायो, सुखे, दुक्खे, जीवे सत्तमे - इमे सत्त काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वझा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता । ते न इञ्जन्ति, न विपरिणमन्ति, न अञ्जमलं ब्याबाधेन्ति, नालं अञमञ्जस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा । तत्थ नत्थि हन्ता वा घातेता वा, सोता वा सावेता वा, विज्ञाता वा विज्ञापेता वा । योपि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि किञ्चि जीविता वोरोपेति; सत्तन्नं त्वेव कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतती'ति ।
१७५. "इत्थं खो मे, भन्ते, पकुधो कच्चायनो सन्दिट्टिकं सामञ्जफलं पुट्ठो समानो अञ्जेन अजं ब्याकासि । सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, पकुधो कच्चायनो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो अजेन अझं ब्याकासि । तस्स मम्, भन्ते, एतदहोसि - "कथहि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मझेय्या'ति । सो खो अहं, भन्ते, पकुधस्स कच्चायनस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमि ।
निगण्ठनाटपुत्तवादो
१७६. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा निगण्ठेन नाटपुत्तेन सद्धिं सम्मोदिं । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोचं"यथा नु खो इमानि, भो अग्गिवेस्सन, पुथुसिप्पायतनानि...पे०... सक्का नु खो, भो अग्गिवेस्सन, एवमेव दिढेव धम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञपेतु''न्ति ?
१७७. “एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो मं एतदवोच – “इध, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति । कथञ्च, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति ? इध, महाराज, निगण्ठो सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो च। एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो
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२. सामञ्ञफलसुत्तं
होति । यतो खो, महाराज, निगण्ठो एवं चातुयामसंवरसंवुतो होति; अयं वुच्चति, महाराज, निगण्ठो गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा "ति ।
( १.२.१७८-१८०)
१७८. “इत्थं खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि । सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि । तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि - " कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या "ति । सो खो अहं, भन्ते, निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दि नप्पटिक्कोसिं । अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं ।
सञ्चयबेलपुत्तवादो
१७९. “एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा सञ्चयेन बेलट्ठपुत्तेन सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं । एकमन्तं निसिन्नो खो अहं भन्ते, सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं एतदवोचं - "यथा नु खो इमानि भो सञ्चय, पुथुसिप्पायतनानि... पे०... सक्का नु खो, भो सञ्चय, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु”न्ति ?
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१८०. “एवं वुत्ते, भन्ते, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो मं एतदवोच - " अत्थि परो लोकोति इति चे मं पुच्छसि, अत्थि परो लोकोति इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोकोति इति ते नं ब्याकरेय्यं । एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो । नत्थि परो लोको... पे०... अत्थि च नत्थि च परो लोको...पे०... नेवत्थि न नत्थि परो लोको... पे०... अस्थि सत्ता ओपपातिका... पे०... नत्थि सत्ता ओपपातिका... पे०... अत्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका... पे०... नेवत्थि न नत्थि सत्ता ओपपातिका... पे०... अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको...पे..... नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको... पे०... अत्थि च नत्थि च सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको... पे०... नेवत्थि न नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको... पे०... होति तथागतो परं मरणा... पे०... न होति तथागतो परं मरणा... पे०...
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दीघनिकायो-१
(१.२.१८१-१८३)
होति च न च होति तथागतो परं मरणा...पे०... नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मं पुच्छसि, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मे अस्स. नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति ते नं ब्याकरेय्यं । एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नोति ।
१८१. “इत्थं खो मे, भन्ते, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकासि । सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, सञ्चयो बेलठ्ठपुत्तो सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकासि । तस्स मव्हं, भन्ते, एतदहोसि - “अयञ्च इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळहो । कथहि नाम सन्दिट्टिकं सामञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकरिस्सती'ति । तस्स महं, भन्ते, एतदहोसि - "कथहि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब् मझेय्या"ति । सो खो अहं, भन्ते, सञ्चयस्स बेलठ्ठपुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं । अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमि ।
पठमसन्दिट्ठिकसामञफलं
१८२. “सोहं, भन्ते, भगवन्तम्पि पुच्छामि- “यथा नु खो इमानि, भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि सेय्यथिदं- हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका सूदा मालकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिढेव धम्मे सन्दिट्टिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति, ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं । सक्का नु खो, भन्ते, एवमेव दिवेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञफलं पञपेतु"न्ति ?
१८३. “सक्का, महाराज | तेन हि, महाराज, तओवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि । यथा
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(१.२.१८४ - १८५)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि । तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध ते अस्स पुरिसो दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको । तस्स एवमस्स- " अच्छरियं, वत भो, अब्भुतं वत भो, पुञ्ञानं गति पुञ्ञानं विपाको । अयहि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो मनुस्सो; अहम्पि मनुस्सो । अयहि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, देवो मञ्ञे । अहं पनम्हिस्स दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको । सो वतस्साहं पुञ्ञानि करेय्यं । यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यन्ति । सो अपरेन समयेन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य । सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संयुतो विहरेय्य, वाचाय संवुतो विहरेय्य मनसा संवुतो विहरेय्य, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्टो, अभिरतो पविवेके । तं चे ते पुरिसा एवमारोचेय्युं - “ यग्घे देव जानेय्यासि, यो ते सो पुरिसो दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको, सो, देव, केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरति, वाचाय संवुतो विहरति, मनसा संवुतो विहरति, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके”ति । अपि नु त्वं एवं वदेय्यासि - “ एतु मे, भो, सो पुरिसो, पुनदेव होतु दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको”ति ?
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1
१८४. “नो हेतं, भन्ते । अथ खो नं मयमेव अभिवादेय्यामपि पच्चुट्ठेय्यामपि, आसनेनपि निमन्तेय्याम, अभिनिमन्तेय्यामपि नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि, धम्मिकम्पिस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्यामा 'ति ।
१८५. "तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते होति वा सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं नो वा "ति ? " अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते होति सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफल ”न्ति । “इदं खो ते, महाराज, मया पठमं दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञत्त "न्ति ।
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दीघनिकायो-१
(१.२.१८६-१८८)
दुतियसन्दिट्ठिकसामञफलं
१८६. “सक्का पन, भन्ते, अझम्पि एवमेव दिदेव धम्मे सन्दिट्टिकं सामञफलं पञ्जपेतु"न्ति ? “सक्का, महाराज । तेन हि, महाराज, त वेत्थ पटिपुच्छिस्सामि । यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि । तं किं मञ्जसि, महाराज, इध ते अस्स पुरिसो कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्डको । तस्स एवमस्स - “अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, पुञानं गति, पुञानं विपाको | अयहि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो मनुस्सो, अहम्पि मनुस्सो । अयहि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, देवो मजे। अहं पनम्हिस्स कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्डको । सो वतस्साहं पुञानि करेय्यं । यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य"न्ति ।
__“सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय, अप्पं वा आतिपरिवर्ल्ड पहाय महन्तं वा आतिपरिवढं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य । सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरेय्य, वाचाय संवुतो विहरेय्य, मनसा संवुतो विहरेय्य, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके । तं चे ते पुरिसा एवमारोचेय्यु"यग्घे, देव जानेय्यासि, यो ते सो पुरिसो कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्डको; सो देव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो । सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरति, वाचाय संवुतो विहरति, मनसा संवुतो विहरति, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके''ति | अपि नु त्वं एवं वदेय्यासि - "एतु मे, भो, सो पुरिसो, पुनदेव होतु कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्डको"ति ?
१८७. “नो हेतं, भन्ते । अथ खो नं मयमेव अभिवादेय्यामपि, पच्चुढेय्यामपि, आसनेनपि निमन्तेय्याम, अभिनिमन्तेय्यामपि नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि, धम्मिकम्पिस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्यामा"ति ।
१८८. "तं किं मञ्जसि, महाराज? यदि एवं सन्ते होति वा सन्दिट्टिकं सामञफलं नो वाति ? “अद्धा खो, भन्ते. एवं सन्ते होति सन्दिट्टिकं
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(१.२.१८९-१९३)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
सामञ्ञफल "न्ति । " इदं खो ते, महाराज, सामञ्ञफलं पञ्ञत्त "न्ति ।
पणीततरसामञ्ञफलं
१८९. “सक्का पन, भन्ते, अञ्ञम्पि दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतुं इमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्चा" ति ? "सक्का, महाराज । तेन हि महाराज, सुणोहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी 'ति । “एवं, भन्ते 'ति खो राजा मागधी अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि |
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मया दुतियं दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं
१९०. भगवा एतदवोच - "इध, महाराज, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति ।
१९१. “तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो । सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति । सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति – 'सम्बाधो घरावासी रजोपथो, अब्भोकासो पब्बज्जा । नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं । यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यन्ति ।
१९२. " सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा जतिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा जातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति ।
१९३. “सो एवं पब्बजितो समानो पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु,
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दीघनिकायो-१
(१.२.१९४-१९४)
कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन, परिसुद्धाजीवो सीलसम्पन्नो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो सतिसम्पजओन समन्नागतो, सन्तुट्ठो ।
चूळसीलं
१९४. “कथञ्च, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ? इध, महाराज, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति । निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
“अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी, अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
"अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी होति आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
"मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स | इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
"पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति; इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय; अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता, अमूसं भेदाय । इति भिन्नान वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
“फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति; या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
“सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता होति कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
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(१.२.१९५-१९७)
२. सामञफलसुत्तं
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"बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति...पे०... एकभत्तिको होति रत्तूपरतो विरतो विकालभोजना | नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो होति । मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो होति । उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति । जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति । आमकधपटिग्गहणा पटिविरतो होति । आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति । इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो होति । दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो होति। अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो होति । कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो होति | हथिगवस्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो होति । खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो होति । दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति । कयविक्कया पटिविरतो होति । तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो होति । उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा पटिविरतो होति । छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
चूळसीलं निहितं ।
मज्झिमसीलं
१९५. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं बीजगामभूतगामसमारम्भं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, इति एवरूपा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
१९६. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं सन्निधिकारपरिभोगं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं वत्थसन्निधिं यानसन्निधिं सयनसन्निधिं गन्धसन्निधिं आमिससन्निधिं, इति वा इति, एवरूपा सन्निधिकारपरिभोगा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।।
१९७. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं विसूकदस्सनं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - नच्चं गीतं वादितं पेक्खं
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दीघनिकायो-१
(१.२.१९८-२०१)
अक्खानं पाणिस्सरं वेताळं कुम्भथूणं सोभनकं चण्डालं वंसं धोवनं हत्थियुद्धं अस्सयुद्धं महिंसयुद्धं उसभयुद्धं अजयुद्धं मेण्डयुद्धं कुक्कुटयुद्धं वट्टकयुद्धं दण्डयुद्धं मुट्ठियुद्धं निब्बुद्धं उय्योधिकं बलग्गं सेनाब्यूहं अनीकदस्सनं इति वा इति, एवरूपा विसूकदस्सना पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
१९८. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - अठ्ठपदं दसपदं आकासं परिहारपथं सन्तिकं खलिकं घटिकं सलाकहत्थं अक्खं पङ्गचीरं वङ्ककं मोक्खचिकं चिङ्गुलिकं पत्ताळ्हकं रथकं धनुकं अक्खरिकं मनेसिकं यथावज्जं इति वा इति, एवरूपा जूतप्पमादट्ठानानुयोगा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
१९९. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं उच्चासयनमहासयनं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - आसन्दिं पल्लङ्कं गोनकं चित्तकं पटिकं पटलिकं तूलिकं विकतिकं उद्दलोमिं एकन्तलोमिं कट्टिस्सं कोसेय्यं कुत्तकं हत्थत्थरं अस्सत्थरं रथत्थरं अजिनप्पवेणिं कदलिमिगपवरपच्चत्थरणं सउत्तरच्छदं उभतोलोहितकूपधानं इति वा इति, एवरूपा उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
२००. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - उच्छादनं परिमद्दनं न्हापनं सम्बाहनं आदासं अञ्जनं मालागन्धविलेपनं मुखचुण्णं मुखलेपनं हत्थबन्धंसिखाबन्धं दण्डं नाळिकं असिं छत्तं चित्रुपाहनं उण्हीसं मणिं वालबीजनिं ओदातानि वत्थानि दीघदसानि इति वा इति, एवरूपा मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
___ २०१. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं आतिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं
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२. सामञ्ञफलसुत्तं
पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानकथाय पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
(१.२.२०२-२०५)
२०२. “ यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जत्वा ते एवरूपं विग्गाहिककथं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, मिच्छा पटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मा पटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते पुरे वचनीयं पच्छा अवच, पच्छा वचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसीति इति वा इति, एवरूपाय विग्गाहिककथाय पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
२०३. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जत्वा ते एवरूपं दूतेय्यपहिणगमनानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति । सेय्यथिदं - रञ्ञ, राजमहामत्तानं, खत्तियानं, ब्राह्मणानं, गहपतिकानं, कुमारानं - "इध गच्छ, अमुत्रागच्छ, इदं हर, अमुत्र इदं आहरा "ति इति वा इति, एवरूपा दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
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२०४. “ यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जत्वा ते कुहका च होन्ति लपका च नेमित्तिका च निप्पेसिका च लाभेन लाभं निजिगींसितारो च । इति एवरूपा कुहनलपना पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं” ।
मज्झिमसीलं निट्ठितं ।
महासीलं
२०५. “ यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जत्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - अङ्गं निमित्तं उप्पातं सुपिनं लक्खणं मूसिकच्छिन्नं अग्गिहोमं दब्बिहोमं थुसहोमं कणहोमं तण्डुलहोमं
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दीघनिकायो-१
(१.२.२०६-२०८)
सप्पिहोमं तेलहोमं मुखहोमं लोहितहोमं अङ्गविज्जा वत्थुविज्जा खत्तविज्जा सिवविज्जा भूतविज्जा भूरिविज्जा अहिविज्जा विसविज्जा विच्छिकविज्जा मूसिकविज्जा सकुणविज्जा वायसविज्जा पक्कज्झानं सरपरित्ताणं मिगचक्कं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
___ २०६. "यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - मणिलक्खणं वत्थलक्खणं दण्डलक्खणं सत्थलक्खणं असिलक्खणं उसुलक्खणं धनुलक्खणं आवुधलक्खणं इथिलक्खणं पुरिसलक्खणं कुमारलक्खणं कुमारिलक्खणं दासलक्खणं दासिलक्खणं हत्थिलक्खणं अस्सलक्खणं महिंसलक्खणं उसभलक्खणं गोलक्खणं अजलक्खणं मेण्डलक्खणं कुक्कुटलक्खणं वट्टकलक्खणं गोधालक्खणं कण्णिकलक्खणं कच्छपलक्खणं मिगलक्खणं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति | इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
२०७. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - रझं निय्यानं भविस्सति, रजं अनिय्यानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ज उपयानं भविस्सति, बाहिरानं रखं अपयानं भविस्सति, बाहिरानं रज्जे उपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रझं अपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रखं जयो भविस्सति, बाहिरानं रकं पराजयो भविस्सति, बाहिरानं रखं जयो भविस्सति, अब्भन्तरानं रओं पराजयो भविस्सति, इति इमस्स जयो भविस्सति, इमस्स पराजयो भविस्सति इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
२०८. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - चन्दग्गाहो भविस्सति, सूरियग्गाहो भविस्सति, नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, उक्कापातो भविस्सति, दिसाडाहो भविस्सति, भूमिचालो भविस्सति, देवदुद्रभि भविस्सति, चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति, एवंविपाको चन्दग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको सूरियग्गाहो भविस्सति,
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(१.२.२०९-२११)
२. सामञफलसुत्तं
६१
एवंविपाको नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाको उक्कापातो भविस्सति, एवंविपाको दिसाडाहो भविस्सति, एवंविपाको भूमिचालो भविस्सति, एवंविपाको देवदुद्रभि भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।।
२०९. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - सुवुट्ठिका भविस्सति, दुब्बुट्टिका भविस्सति, सुभिक्खं भविस्सति, दुब्भिक्खं भविस्सति, खेमं भविस्सति, भयं भविस्सति, रोगो भविस्सति, आरोग्यं भविस्सति, मुद्दा, गणना, सङ्खानं, कावेय्यं, लोकायतं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
२१०. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - आवाहनं विवाहनं संवरणं विवरणं सङ्किरणं विकिरणं सुभगकरणं दुब्भगकरणं विरुद्धगब्भकरणं जिव्हानिबन्धनं हनुसंहननं हत्थाभिजप्पनं हनुजप्पनं कण्णजप्पनं आदासपऽहं कुमारिकपऽहं देवपज्हं आदिच्चुपट्टानं महतुपट्टानं अब्भुज्जलनं सिरिव्हायनं इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
__ २११. “यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - सन्तिकम्म पणिधिकम्मं भूतकम्मं भूरिकम्मं वस्सकम्मं वोस्सकम्मं वत्थुकम्मं वत्थुपरिकम्मं आचमनं न्हापनं जुहनं वमनं विरेचनं उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं कण्णतेलं नेत्ततप्पनं नत्थुकम्मं अञ्जनं पच्चञ्जनं सालाकियं सल्लकत्तियं दारकतिकिच्छा, मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं, ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
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दीघनिकायो-१
(१.२.२१२-२१४)
___ २१२. “स खो सो, महाराज, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सेय्यथापि - महाराज, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो निहतपच्चामित्तो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं पच्चत्थिकतो; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो | सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।
महासीलं निहितं ।
इन्द्रियसंवरो
२१३. "कथञ्च, महाराज, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति ? इध, महाराज, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही । यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झा दोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्यु, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति । सोतेन सई सुत्वा...पे०... घानेन गन्धं घायित्वा...पे०... जिव्हाय रसं सायित्वा...पे०... कायेन फोटुब्बं फुसित्वा...पे०... मनसा धम्मं विज्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही । यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झा दोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति । सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, महाराज, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति ।
सतिसम्पजङ्गं
२१४. “कथञ्च, महाराज, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति ? इध, महाराज, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे
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(१.२.२१५-२१८)
२. सामञफलसुत्तं
सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, महाराज, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति।
सन्तोसो
२१५. “कथञ्च, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति ? इध, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन, कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन । सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति । सेय्यथापि, महाराज, पक्खी सकुणो येन येनेव डेति, सपत्तभारोव डेति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन । सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति । एवं खो, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति ।
नीवरणप्पहानं
२१६. “सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्जन समन्नागतो, इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो, विवित्तं सेनासनं भजति अरशं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुजं । सो पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो निसीदति पल्लवं आभुजित्वा उजु कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा ।
२१७. “सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति । ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति । थिनमिद्धं पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञ्जी, सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति। उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति, अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति । विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति, अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति ।
२१८. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेय्य । तस्स ते कम्मन्ता समिज्झेय्युं । सो यानि च पोराणानि इणमूलानि, तानि च ब्यन्तिं करेय्य, सिया चस्स उत्तरं अवसिटुं दारभरणाय । तस्स एवमस्स- “अहं खो पुब्बे इणं आदाय
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६४
दीघनिकायो-१
(१.२.२१९-२२२)
कम्मन्ते पयोजेसिं। तस्स मे ते कम्मन्ता समिज्झिंसु । सोहं यानि च पोराणानि इणमूलानि, तानि च ब्यन्तिं अकासिं, अत्थि च मे उत्तरं अवसिटुं दारभरणाया''ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्ज, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
२१९. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो आबाधिको अस्स दुक्खितो बाळहगिलानो; भत्तञ्चस्स नच्छादेय्य, न चस्स काये बलमत्ता | सो अपरेन समयेन तम्हा आबाधा मुच्चेय्य; भत्तं चस्स छादेय्य, सिया चस्स काये बलमत्ता। तस्स एवमस्स - “अहं खो पुब्बे आबाधिको अहोसिं दुक्खितो बाळहगिलानो; भत्तञ्च मे नच्छादेसि, न च मे आसि काये बलमत्ता । सोम्हि एतरहि तम्हा आबाधा मुत्तो; भत्तञ्च मे छादेति, अस्थि च मे काये बलमत्ता''ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्ज, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
२२०. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो बन्धनागारे बद्धो अस्स । सो अपरेन समयेन तम्हा बन्धनागारा मुच्चेय्य सोत्थिना अब्भयेन, न चस्स किञ्चि भोगानं वयो। तस्स एवमस्स – “अहं खो पुब्बे बन्धनागारे बद्धो अहोसिं, सोम्हि एतरहि तम्हा बन्धनागारा मुत्तो सोत्थिना अब्भयेन । नत्थि च मे किञ्चि भोगानं वयो"ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
२२१. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो दासो अस्स अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो । सो अपरेन समयेन तम्हा दासब्या मुच्चेय्य अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो । तस्स एवमस्स – “अहं खो पुब्बे दासो अहोसिं अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो। सोम्हि एतरहि तम्हा दासब्या मुत्तो अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमोति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
२२२. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जेय्य दुभिक्खं सप्पटिभयं । सो अपरेन समयेन तं कन्तारं नित्थरेय्य सोत्थिना, गामन्तं अनुपापुणेय्य खेमं अप्पटिभयं । तस्स एवमस्स- “अहं खो पुब्बे सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जिं दुब्भिक्खं सप्पटिभयं । सोम्हि एतरहि तं कन्तारं नित्थिण्णो सोत्थिना, गामन्तं अनुप्पत्तो खेमं अप्पटिभयन्ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
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(१.२.२२३-२२८)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
२२३. “एवमेव खो, महाराज, भिक्खु यथा इणं यथा रोगं यथा बन्धनागारं यथा दासब्यं यथा कन्तारद्धानमग्गं एवं इमे पञ्च नीवरणे अप्पहीने अत्तनि समनुपस्सति ।
२२४. “ सेय्यथापि, महाराज, यथा आणण्यं यथा आरोग्यं यथा बन्धनामोक्खं यथा भुजिस्सं यथा खेमन्तभूमिं एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सति ।
२२५. “ तस्सिमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति ।
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पठमज्झानं
२२६. “सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति ।
२२७. " सेय्यथापि, महाराज, दक्खो न्हापको वा न्हापकन्तेवासी वा कंसथाले न्हानीयचुण्णानि आकिरित्वा उदकेन परिप्फोसकं परिप्फोसकं सन्नेय्य, सायं न्हानीयपिण्डि स्नेहानुगता स्नेहपरेता सन्तरबाहिरा फुटा स्नेहेन न च पग्घरणी; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कार्य विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति । इदम्पि खो महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्टिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
दुतियज्झानं
२२८. “पुन चपरं महाराज, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं
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दीघनिकायो- १
उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिष्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायरस समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति ।
६६
२२९. “ सेय्यथापि, महाराज, उदकरहदो गम्भीरो उब्भिदोदको तस्स नेवस्स पुरत्थिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न दक्खिणाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न पच्छिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं न उत्तराय दिसाय उदकस्स आयमुखं, देवो च न कालेनकालं सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य । अथ खो तम्हाव उदकरहदा सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वा तमेव उदकरहदं सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, नास्स किञ्चि सब्बावतो उदकरहदस्स सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति । इदम्प खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
ततियज्झानं
२३०. “पुन चपरं, महाराज, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति - " उपेक्खको सतिमा सुखविहारी” ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कार्य निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति ।
( १.२.२२९-२३१)
२३१. “सेय्यथापि, महाराज, उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्डानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि परिपूरानि परिप्फुटानि, नास्स किञ्चि सब्बावतं उप्पलानं वा पदुमानं वा पुण्डरीकानं वा सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति । इदम्पि खो, महाराज,
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२. सामञ्ञफलसुत्तं
सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
(१.२.२३२-२३५)
चतुत्थज्झानं
२३२. “पुन चपरं, महाराज, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति ।
अस्स,
२३३. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो ओदातेन वत्थेन ससीसं पारुपित्वा निसिन्नो नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति । इदम्पि महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्टिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
खो,
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विपस्सनाञाणं
२३४. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो एवं पजानाति – “अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्छुच्छादन - परिमद्दन - भेदन - विद्वंसन-धम्मो इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध "न्ति ।
२३५. “सेय्यथापि, महाराज, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठसो सुपरिकम्मको अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो । तत्रास्स सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा । तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य – “अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अहंसो सुपरिकम्मको अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो; तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा
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दीघनिकायो-१
(१.२.२३६-२३७)
ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा''ति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो एवं पजानाति- “अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो; इदञ्च पन मे विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध"न्ति । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्टिकं सामञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
मनोमयिद्धिञाणं २३६. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इमम्हा काया अझं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं ।
२३७. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिकं पवाहेय्य । तस्स एवमस्स - “अयं मुञ्जो, अयं ईसिका, अञो मुजो, अञा ईसिका, मुञ्जम्हा त्वेव ईसिका पवाळहा''ति । सेय्यथा वा पन, महाराज, पुरिसो असिं कोसिया पवाहेय्य । तस्स एवमस्स - “अयं असि, अयं कोसि, अञ्जो असि, अञा कोसि, कोसिया त्वेव असि पवाळ्हो"ति । सेय्यथा वा पन, महाराज, पुरिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्य । तस्स एवमस्स - “अयं अहि, अयं करण्डो । अञ्जो अहि, अञ्जो करण्डो, करण्डा त्वेव अहि उब्भतो"ति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इमम्हा काया अचं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्टिकं सामञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
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२. सामञ्ञफलसुत्तं
द्विविधञाणं
२३८. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आने पत्ते इद्विविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति - एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा को होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे । पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके । उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथविया । आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति । याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति ।
(१.२.२३८-२३९)
२३९. “सेय्यथापि, महाराज, दक्खो कुम्भकारो वा कुम्भकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकताय मत्तिकाय यं यदेव भाजनविकति आकङ्क्षय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य । सेय्यथा वा पन, महाराज, दक्खो दन्तकारो वा दन्तकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं दन्तस्मिं यं यदेव दन्तविकति आकङ्क्षय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य । सेय्यथा वा पन, महाराज, दक्खो सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं सुवण्णस्मिं यं यदेव सुवण्णविकति आकङ्क्षय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं इद्विविधं पच्चनुभोति - एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे । पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके । उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथविया । आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो । इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति । याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्टिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
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दीघनिकायो-१
(१.२.२४०-२४२)
दिब्बसोतञाणं
२४०. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च ।
२४१. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो अद्धानमग्गप्पटिपन्नो । सो सुणेय्य भेरिसद्दम्पि मुदिङ्गसद्दम्पि सङ्खपणवदिन्दिमसद्दम्पि । तस्स एवमस्स - “भेरिसद्दो" इतिपि, “मुदिङ्गसद्दो" इतिपि, “सङ्खपणवदिन्दिमसद्दो” इतिपि । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
चेतोपरियजाणं
२४२. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरियाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति ।
। पजानाति- सरागं वा चित्तं “सरागं चित्त"न्ति पजानाति. वीतरागं वा चित्तं “वीतरागं चित्त"न्ति पजानाति. सदोसं वा चित्तं “सदोसं चित्त"न्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं “वीतदोसं चित्त''न्ति पजानाति, समोहं वा चित्तं “समोहं चित्त"न्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं “वीतमोहं चित्त"न्ति पजानाति, सवित्तं वा चित्तं “सङ्घित्तं चित्त'न्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं "विक्खित्तं चित्त"न्ति पजानाति, महग्गतं वा चित्तं “महग्गतं चित्त"न्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं “अमहग्गतं चित्त"न्ति पजानाति, सउत्तरं वा चित्तं “सउत्तरं चित्त"न्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं “अनुत्तरं चित्त"न्ति पजानाति, समाहितं वा चित्तं “समाहितं चित्त''न्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं “असमाहितं चित्त"न्ति
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(१.२.२४३-२४४)
२. सामञफलसुत्तं
पजानाति, विमुत्तं वा चित्तं “विमुत्तं चित्त'न्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं "अविमुत्तं चित्त''न्ति पजानाति ।
२४३. “सेय्यथापि, महाराज, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनजातिको आदासे वा परिसुद्धे परियोदाते अच्छे वा उदकपत्ते सकं मुखनिमित्तं पच्चवेक्खमानो सकणिकं वा “सकणिक"न्ति जानेय्य, अकणिकं वा “अकणिक''न्ति जानेय्य; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरियञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति - सरागं वा चित्तं “सरागं चित्त"न्ति पजानाति, वीतरागं वा चित्तं "वीतरागं चित्त"न्ति पजानाति, सदोसं वा चित्तं “सदोसं चित्त''न्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं “वीतदोसं चित्त"न्ति पजानाति, समोहं वा चित्तं “समोहं चित्त'न्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं “वीतमोहं चित्त'न्ति पजानाति, सचित्तं वा चित्तं “सवित्तं चित्त"न्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं “विक्खित्तं चित्त"न्ति पजानाति, महग्गतं वा चित्तं “महग्गतं चित्त"न्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं . “अमहग्गतं चित्त"न्ति पजानाति, सउत्तरं वा चित्तं “सउत्तरं चित्त''न्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं “अनुत्तरं चित्त"न्ति पजानाति, समाहितं वा चित्तं “समाहितं चित्त"न्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं “असमाहितं चित्त''न्ति पजानाति, विमुत्तं वा चित्तं “विमुत्तं चित्त"न्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं "अविमुत्तं चित्त''न्ति पजानाति । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्टिकं सामञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं २४४. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्जासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, “अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो
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दीघनिकायो-१
एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुरसरति ।
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२४५. “सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो सकम्हा गामा अञ्जं गामं गच्छेय्य, तम्हापि गामा अञ्जं गामं गच्छेय्य । सो तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागच्छेय्य । तस्स एवमस्स - “अहं खो सकम्हा गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्रापि एवं अट्ठासिं, एवं निसीदिं, एवं अभासिं, एवं तुम्ही अहोसिं, तम्हापि गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्रापि एवं अट्ठासिं, एवं निसीदिं, एवं अभासिं, एवं तुम्ही अहोसिं, सोम्हि तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागतो 'ति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुरसरति, सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, “अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो तो तो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति, इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
दिब्बचक्खुत्राणं
२४६. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते परसति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते जानाति - 'इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना । ते
(१.२.२४५-२४६)
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( १.२.२४७-२४८)
२. सामञ्ञफलसुत्तं
कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना । इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्टिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नाति । इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुस सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते जानाति ।
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२४७. “सेय्यथापि, महाराज, मज्झे सिङ्घाटके पास दो । तत्थ चक्खुमा पुरिसो ठितो परसेय्य मनुस्से गेहं पविसन्तेपि निक्खमन्तेपि रथिकायपि वीथिं सञ्चरन्ते मज्झे सिङ्घाटके निसिन्नेपि। तस्स एवमस्स – “ एते मनुस्सा गेहं पविसन्ति, एते निक्खमन्ति एते रथिकाय वीथिं सञ्चरन्ति एते मज्झे सिङ्घाटके निसिन्ना'ति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने ही पणी सुवणे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति - 'इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्टिका मिच्छादिट्टिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना । इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना । ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना'ति । इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत् पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते; यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति। “इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च ।
आसवक्खयञणं
२४८. “ सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं जानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति
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( १.२.२४९-२५०)
यथाभूतं जानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं परसतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति, “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति पजानाति ।
दीघनिकायो-१
२४९. “ सेय्यथापि, महाराज, पब्बतसङ्क्षेपे उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो । तत्थ चक्खुमा पुरिसो तीरे ठितो पस्सेय्य सिप्पिसम्बुकम्पि सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि चरन्तम्पि तिट्ठन्तम्पि । तस्स एवमस्स- "अयं खो उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो | तत्रिमे सिप्पिसम्बुकापि सक्खरकथलापि मच्छगुम्बापि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपी 'ति । एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं परसतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञणं होति, “ खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं नापरं इत्थत्ताया”ति पजानाति । इदं खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च । इमस्मा च पन, महाराज, सन्दिट्टिका सामञ्ञफला अञ्ञ सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं उत्तरितरं वा पणीततरं वा नत्थी " ति ।
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदना
२५०. एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच - “अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जातं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती' ति; एवमेवं, भन्ते, भगवता अनेकपरियायेन धम्मो
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(१.२.२५१-२५३)
(१.२.२५१-२५३)
२. सामञ्जफलसुतं
२. सामञफलसुत्तं
पकासितो। एसाह, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, योहं पितरं धम्मिकं धम्मराजानं इस्सरियकारणा जीविता वोरोपेसिं । तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया''ति ।
___ २५१. “तग्य त्वं, महाराज, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यं त्वं पितरं धम्मिकं धम्मराजानं जीविता वोरोपेसि । यतो च खो त्वं, महाराज, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम । वुद्धिहेसा, महाराज, अरियस्स विनये, यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोति, आयतिं संवरं आपज्जतीति ।
२५२. एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “हन्द च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया'ति । “यस्सदानि त्वं, महाराज, कालं मञसी''ति । अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि ।
२५३. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तस्स रो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स भिक्खू आमन्तेसि - "खतायं, भिक्खवे, राजा । उपहताय, भिक्खवे, राजा। सचायं, भिक्खवे, राजा पितरं धम्मिकं धम्मराजानं जीविता न वोरोपेस्सथ, इमस्मि व आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खु उप्पज्जिस्सथा''ति । इदमवोच भगवा । अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
सामञफलसुत्तं निहितं दुतियं ।
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३. अम्बट्ठसुत्तं
२५४. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन इच्छानङ्गलं नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि । तत्र सुदं भगवा इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे |
पोक्खरसातिवत्थु २५५. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणो पोक्खरसाति उक्कट्ठ अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं रञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं । अस्सोसि खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति- “समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि इच्छानङ्गलं अनुप्पत्तो इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं, सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती''ति ।
अम्बट्ठमाणवो
२५६. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स अम्बट्ठो नाम माणवो अन्तेवासी होति अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं
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( १.३.२५७-२५८)
३. अम्बट्ठत्तं
साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो अनुञ्ञातपटिञ्ञातो सके आचरियके तेविज्जके पावचने - “यमहं जानामि, तं त्वं जानासि ; यं त्वं जानासि तमहं जानामी 'ति ।
२५७. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति अम्बट्टं माणवं आमन्तेसि - " अयं, तात अम्बट्ट, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि इच्छानङ्गलं अनुप्पत्तो इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे | तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - 'इतिपि सो भगवा, अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति । देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं, सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होतीति । एहि त्वं तात अम्ब, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं जानाहि, यदि वा तं भवन्तं गोतमं तथासन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो, यदि वा नो तथा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो, तथा मयं तं भवन्तं गोतमं वेदिस्सामा ''ति ।
२५८. “यथा कथं पनाहं, भो, तं भवन्तं गोतमं जानिस्सामि “यदि वा तं भवन्तं गोतमं तथासन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो, यदि वा नो तथा । यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो "ति ?
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" आगतानि खो, तात अम्बट्ट, अम्हाकं मन्तेसु द्वत्तिंस महापुरिसलक्खणानि येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेयेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा । सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति । सेय्यथिदं - चक्करतनं, हत्थिरतनं, अस्सरतनं, मणिरतनं, इत्थिरतनं, गहपतिरतनं, परिणायकरतनमेव सत्तमं । परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना । सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति । सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं
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दीघनिकायो-१
(१.३.२५९-२६२)
पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। अहं खो पन, तात अम्बठ्ठ, मन्तानं दाता; त्वं मन्तानं पटिग्गहेता''ति ।
२५९. “एवं, भो"ति खो अम्बट्ठो माणवो ब्राह्मणस्स पोखरसातिस्स पटिस्सुत्वा उठायासना ब्राह्मणं पोक्खरसातिं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा वळवारथमारुयह सम्बहुलेहि माणवकेहि सद्धिं येन इच्छानङ्गलवनसण्डो तेन पायासि । यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव आरामं पाविसि । तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू अब्भोकासे चङ्कमन्ति । अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच- "कहं न खो. भो, एतरहि सो भवं गोतमो विहरति ? तहि मयं भवन्तं गोतमं दस्सनाय इधूपसङ्कन्ता'ति ।
२६०. अथ खो तेसं भिक्खूनं एतदहोसि - “अयं खो अम्बट्ठो माणवो अभिजातकोलञो चेव अभिञातस्स च ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स अन्तेवासी । अगरु खो पन भगवतो एवरूपेहि कुलपुत्तेहि सद्धिं कथासल्लापो होती''ति । ते अम्बटुं माणवं एतदवोचुं- “एसो अम्बठ्ठ विहारो संवुतद्वारो, तेन अप्पसद्दो उपसङ्कमित्वा अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा उक्कासित्वा अग्गळं आकोटेहि, विवरिस्सति ते भगवा द्वार"न्ति ।
२६१. अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन सो विहारो संवुतद्वारो, तेन अप्पसद्दो उपसङ्कमित्वा अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा उक्कासित्वा अग्गळं आकोटेसि। विवरि भगवा द्वारं । पाविसि अम्बट्ठो माणवो । माणवकापि पविसित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । अम्बट्ठो पन माणवो चङ्कमन्तोपि निसिन्नेन भगवता कञ्चि कञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेति, ठितोपि निसिन्नेन भगवता किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेति ।
२६२. अथ खो भगवा अम्बटुं माणवं एतदवोच - "एवं नु ते, अम्बट्ट, ब्राह्मणेहि वुद्धेहि महल्लकेहि आचरियपाचरियेहि सद्धिं कथासल्लापो होति, यथयिदं चरं तिटुं निसिन्नेन मया किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेती"ति ?
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(१.३.२६३-२६५)
३. अम्बट्टसुत्तं
पठमइब्भवादो
२६३. "नो हिदं, भो गोतम । गच्छन्तो वा हि, भो गोतम, गच्छन्तेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, ठितो वा हि, भो गोतम ठितेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, निसिन्नो वा हि भो गोतम निसिन्नेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, सयानो वा हि भो गोतम सयानेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति । ये च खो ते भो गोतम मुण्डका समणका इब्भा कण्हा बन्धुपादापच्चा, तेहिपि मे सद्धिं एवं कथासल्लापो होति, यथरिव भोता गोतमेना''ति | “अस्थिकवतो खो पन ते अम्बट्ठ, इधागमनं अहोसि, यायेव खो पनत्थाय आगच्छेय्याथ, तमेव अत्थं साधुकं मनसि करेय्याथ । अवुसितवायेव खो पन भो अयं अम्बट्ठो माणवो वुसितमानी किमञत्र असितत्ता''ति ।
__२६४. अथ खो अम्बट्ठो माणवो भगवता अवुसितवादेन वुच्चमानो कुपितो अनत्तमनो भगवन्तंयेव खंसेन्तो भगवन्तंयेव वम्भेन्तो भगवन्तंयेव उपवदमानो -- “समणो च मे, भो, गोतमो पापितो भविस्सती''ति भगवन्तं एतदवोच – “चण्डा, भो गोतम, सक्यजाति; फरुसा भो गोतम सक्यजाति; लहुसा भो गोतम सक्यजाति; भस्सा भो गोतम सक्यजाति; इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ति । तयिदं भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ती''ति । इतिह अम्बठ्ठो माणवो इदं पठमं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि |
दुतियइब्भवादो २६५. “किं पन ते, अम्बठ्ठ, सक्या अपरद्ध"न्ति ? “एकमिदाहं, भो गोतम, समयं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स केनचिदेव करणीयेन कपिलवत्थु अगमासिं । येन सक्यानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमि । तेन खो पन समयेन सम्बहुला सक्या चेव सक्यकुमारा च सन्धागारे उच्चेसु आसनेसु निसिन्ना होन्ति अञमधे अङ्गुलिपतोदकेहि सञ्जग्घन्ता संकीळन्ता, अञदत्थु मम व मछे अनुजग्घन्ता, न मं कोचि आसनेनपि निमन्तेसि । तयिदं भो गोतम नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता
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दीघनिकायो-१
(१.३.२६६-२६७)
इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्तीति । इतिह अम्बठ्ठो माणवो इदं दुतियं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि ।
ततियइब्भवादो २६६. “लटुकिकापि खो, अम्बट्ट, सकुणिका सके कुलावके कामलापिनी होति । सकं खो पनेतं अम्बठ्ठ सक्यानं यदिदं कपिलवत्थु, नारहतायस्मा अम्बठ्ठो इमाय अप्पमत्ताय अभिसज्जितु''न्ति । “चत्तारोमे, भो गोतम, वण्णा - खत्तिया ब्राह्मणा वेस्सा सुद्दा । इमेसहि, भो गोतम, चतुन्नं वण्णानं तयो वण्णा – खत्तिया च वेस्सा च सुद्दा च - अञदत्थु ब्राह्मणस्सेव परिचारका सम्पज्जन्ति । तयिदं, भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ती''ति । इतिह अम्बठ्ठो माणवो इदं ततियं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि ।
दासिपुत्तवादो
२६७. अथ खो भगवतो एतदहोसि- “अतिबाळ्हं खो अयं अम्बट्ठो माणवो सक्येसु इब्भवादेन निम्मादेति, यंनूनाहं गोत्तं पुच्छेय्य"न्ति । अथ खो भगवा अम्बटुं माणवं एतदवोच – “कथं गोत्तोसि, अम्बट्ठा"ति ? “कण्हायनोहमस्मि, भो गोतमा'ति । पोराणं खो पन ते अम्बठ्ठ मातापेत्तिकं नामगोत्तं अनुस्सरतो अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति; दासिपुत्तो त्वमसि सक्यानं । सक्या खो पन अम्बठ्ठ राजानं ओक्काकं पितामहं दहन्ति ।
"भूतपुब् अम्बट्ठ, राजा ओक्काको या सा महेसी पिया मनापा, तस्सा पुत्तस्स रज्जं परिणामेतुकामो जेट्टकुमारे रट्ठस्मा पब्बाजेसि- ओक्कामुखं करकण्डं हस्थिनिक सिनिसूरं । ते रट्ठस्मा पब्बाजिता हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे महासाकसण्डो, तत्थ वासं कप्पेसुं। ते जातिसम्भेदभया सकाहि भगिनीहि सद्धिं संवासं कप्पेसुं ।
अथ खो, अम्बट्ठ, राजा ओक्काको अमच्चे पारिसज्जे आमन्तेसि - ‘कहं नु खो, भो, एतरहि कुमारा सम्मन्ती'ति ? 'अत्थि, देव, हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे
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(१.३.२६८-२६९)
३. अम्बट्ठसुत्तं
महासाकसण्डो, तत्थेतरहि कुमारा सम्मन्ति । ते जातिसम्भेदभया सकाहि भगिनीहि सद्धिं संवासं कप्पेन्ती'ति । अथ खो, अम्बठ्ठ, राजा ओक्काको उदानं उदानेसि - ‘सक्या वत, भो, कुमारा, परमसक्या वत, भो, कुमारा'ति । तदग्गे खो पन अम्बठ्ठ सक्या पञ्जायन्ति; सो च नेसं पुब्बपुरिसो।।
__ "रो खो पन, अम्बट्ठ, ओक्काकस्स दिसा नाम दासी अहोसि । सा कण्हं नाम जनेसि । जातो कण्हो पब्याहासि- 'धोवथ मं, अम्म, नहापेथ मं अम्म, इमस्मा मं असुचिस्मा परिमोचेथ, अत्थाय वो भविस्सामी'ति । यथा खो पन अम्बठ्ठ एतरहि मनुस्सा पिसाचे दिस्वा 'पिसाचा'ति सञ्जानन्ति; एवमेव खो अम्बठ्ठ तेन खो पन समयेन मनुस्सा पिसाचे ‘कण्हा'ति सञ्जानन्ति । ते एवमाहंसु - ‘अयं जातो पब्याहासि, कण्हो जातो, पिसाचो जातो'ति । तदग्गे खो पन, अम्बठ्ठ कण्हायना पञ्जायन्ति, सो च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो। इति खो ते अम्बठ्ठ पोराणं मातापेत्तिकं नामगोत्तं अनुस्सरतो अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति, दासिपुत्तो त्वमसि सक्यान''न्ति ।
२६८. एवं वुत्ते, ते माणवका भगवन्तं एतदवोचुं- "मा भवं गोतमो अम्बटुं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेसि । सुजातो च, भो गोतम अम्बठ्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बठ्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बठ्ठो माणवो, कल्याणवाक्करणो च अम्बठ्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बठ्ठो माणवो, पहोति च अम्बठ्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु''न्ति ।
२६९. अथ खो भगवा ते माणवके एतदवोच – “सचे खो तुम्हाकं माणवकानं एवं होति - 'दुज्जातो च अम्बट्ठो माणवो, अकुलपुत्तो च अम्बठ्ठो माणवो, अप्पस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, अकल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, दुप्पो च अम्बट्ठो माणवो, न च पहोति अम्बट्ठो माणवो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु'न्ति, तिठ्ठतु अम्बठ्ठो माणवो, तुम्हे मया सद्धिं मन्तव्हो अस्मिं वचने । सचे पन तुम्हाकं माणवकानं एवं होति- 'सुजातो च अम्बट्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, कल्याणवाक्करणो च अम्बठ्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बठ्ठो माणवो, पहोति च अम्बट्ठो माणवो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु'न्ति, तिठ्ठथ तुम्हे; अम्बठ्ठो माणवो मया सद्धिं पटिमन्तेतू''ति । "सुजातो च, भो गोतम, अम्बठ्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो,
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दीघनिकायो- १
( १.३.२७०-२७२)
कल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बट्टो माणवो, पहोति च अम्बट्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतुं, तुम्ही मयं भविस्साम, अम्बट्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतू'ति ।
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२७०. अथ खो भगवा अम्बट्टं माणवं एतदवोच - " अयं खो पन ते, अम्बट्ठ, सहधम्मिको पञ्हो आगच्छति, अकामा ब्याकातब्बो । सचे त्वं न ब्याकरिस्ससि, अञ्ञेन वा अञ्जं पटिचरिस्ससि, तुम्ही वा भविस्ससि, पक्कमिस्ससि वा एत्थेव ते सत्ता मुद्धा फलिस्सति। तं किं मञ्ञसि अम्बट्ट, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो’ति ?
एवं वुत्ते, अम्बट्ठो माणवो तुम्ही अहोसि । दुतियम्पि खो भगवा अम्बट्टं माणवं एतदवोच – “तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ट, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं युद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो”ति ? दुतियम्पि खो अम्बट्टो माणवो तुम्ही अहोसि । अथ खो भगवा अम्ब माणवं एतदवोच - " ब्याकरोहि दानि अम्बट्ठ, न दानि ते तुम्हीभावस्स कालो । यो खो अम्बट्ट तथागतेन यावततियकं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरोति, एत्थेवस्स सत्ता मुद्धा फलिस्ती 'ति ।
२७१. तेन खो पन समयेन वजिरपाणी यक्खो महन्तं अयोकूटं आदाय आदित् सम्पज्जलितं सजोतिभूतं अम्बट्ठस्स माणवस्स उपरि वेहासं ठितो होति - “सचायं अम्बट्ठो माणवो भगवता यावततियकं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरिस्सति, एत्थेवस्स सत्तधा मुद्धं फालेस्सामी 'ति । तं खो पन वजिरपाणि यक्खं भगवा चेव पस्सति अम्बट्ठो च माणवो ।
२७२. अथ खो अम्बट्ठो माणवो भीतो संविग्गो लोमहट्टजातो भगवन्तंयेव ताणं गवेसी भगवन्तंयेव लेणं गवेसी भगवन्तंयेव सरणं गवेसी - उपनिसीदित्वा भगवन्तं एतदवोच – “किमेतं भवं गोतमो आह ? पुनभवं गोतमो ब्रवितू 'ति ।
“तं किं मञ्ञसि अम्बट्ट, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं
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(१.३.२७३-२७४)
३. अम्बट्ठसुत्तं
आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो''ति ? “एवमेव मे, भो गोतम, सुतं यथेव भवं गोतमो आह । ततोपभुतिका कण्हायना; सो च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो''ति ।
अम्बट्ठवंसकथा
२७३. एवं वुत्ते, ते माणवका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं- “दुज्जातो किर, भो, अम्बट्ठो माणवो; अकुलपुत्तो किर भो अम्बट्ठो माणवो; दासिपुत्तो किर, भो, अम्बठ्ठो माणवो सक्यानं । अय्यपुत्ता किर, भो, अम्बट्ठस्स माणवस्स सक्या भवन्ति । धम्मवादियेव किर मयं समणं गोतमं अपसादेतब्बं अमझिम्हा''ति ।
२७४. अथ खो भगवतो एतदहोसि - “अतिबाळ्हं खो इमे माणवका अम्बटुं माणवं दासिपुत्तवादेन निम्मादेन्ति, यंनूनाहं परिमोचेय्यन्ति । अथ खो भगवा ते माणवके एतदवोच - "मा खो तुम्हे, माणवका, अम्बटुं माणवं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेथ । उळारो सो कण्हो इसि अहोसि । सो दक्खिणजनपदं गन्त्वा ब्रह्ममन्ते अधीयित्वा राजानं ओक्काकं उपसङ्कमित्वा मद्दरूपिं धीतरं याचि । तस्स राजा ओक्काको - 'को नेवं रे अयं मय्हं दासिपुत्तो समानो मद्दरूपिं धीतरं याचती' ''ति, कुपितो अनत्तमनो खुरप्पं सन्नव्हि। सो तं खुरप्पं नेव असक्खि मुञ्चितुं, नो पटिसंहरितुं।
___ “अथ खो, माणवका, अमच्चा पारिसज्जा कण्हं इसिं उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं'सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रञो; सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रो'ति । ‘सोत्थि भविस्सति रञ्जो, अपि च राजा यदि अधो खुरप्पं मुञ्चिस्सति, यावता रञो विजितं, एत्तावता पथवी उन्द्रियिस्सती'ति । ‘सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रओ, सोत्थि जनपदस्सा'ति । ‘सोत्थि भविस्सति रो, सोत्थि जनपदस्स, अपि च राजा यदि उद्धं खुरप्पं मुञ्चिस्सति, यावता रो विजितं, एत्तावता सत्त वस्सानि देवो न वस्सिस्सती'ति । ‘सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रो सोत्थि जनपदस्स देवो च वस्सतू'ति । 'सोत्थि भविस्सति रञो सोस्थि जनपदस्स देवो च वस्सिस्सति, अपि च राजा जेट्टकुमारे खुरप्पं पतिढापेतु, सोत्थि कुमारो पल्लोमो भविस्सती'ति । अथ खो, माणवका, अमच्चा ओक्काकस्स आरोचेसुं- 'ओक्काको जेट्टकुमारे खुरप्पं पतिट्ठापेतु | सोत्थि कुमारो पल्लोमो भविस्सती'ति । अथ खो राजा
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दीघनिकायो-१
(१.३.२७५-२७६)
ओक्काको जेट्टकुमारे खुरप्पं पतिठ्ठपेसि, सोत्थि कुमारो पल्लोमो समभवि । अथ खो तस्स राजा ओक्काको भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो ब्रह्मदण्डेन तज्जितो मद्दरूपिं धीतरं अदासि । मा खो तुम्हे, माणवका, अम्बटुं माणवं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेथ, उळारो सो कण्हो इसि अहोसी"ति ।
खत्तियसेटुभावो
२७५. अथ खो भगवा अम्बटुं माणवं आमन्तेसि - "तं किं मञ्जसि, अम्बठ्ठ, इध खत्तियकुमारो ब्राह्मणकञाय सद्धिं संवासं कप्पेय्य, तेसं संवासमन्वाय पुत्तो जायेथ । यो सो खत्तियकुमारेन ब्राह्मणकञाय पुत्तो उप्पन्नो, अपि नु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा''ति ? "लभेथ, भो गोतम' । “अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यज्ञे वा पाहुने वा''ति ? “भोजेय्यु, भो गोतम"। “अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा''ति ? “वाचेय्यु, भो गोतम" | "अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा"ति ? “अनावटं हिस्स, भो गोतम”। “अपिनु नं खत्तिया खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चेय्यु"न्ति ? “नो हिदं, भो गोतम"। "तं किस्स हेतु" ? "मातितो हि, भो गोतम, अनुपपन्नो''ति ।
"तं किं मञ्जसि, अम्बट्ट, इध ब्राह्मणकुमारो खत्तियकाय सद्धिं संवासं कप्पेय्य । तेसं संवासमन्वाय पुत्तो जायेथ । यो सो ब्राह्मणकुमारेन खत्तियकाय पुत्तो उप्पन्नो, अपिनु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा"ति ? "लभेथ, भो गोतम"। "अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यछे वा पाहुने वा'ति ? "भोजेय्यु, भो गोतम'। “अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा'"ति ? “वाचेय्यु, भो गोतम"। “अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा"ति ? “अनावटं हिस्स, भो गोतम' । “अपिनु नं खत्तिया खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चेय्यु''न्ति ? “नो हिदं, भो गोतम", "तं किस्स हेतु" ? “पितितो हि, भो गोतम, अनुपपन्नो''ति ।
२७६. “इति खो, अम्बट्ट, इत्थिया वा इत्थिं करित्वा पुरिसेन वा पुरिसं करित्वा खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणा । तं किं मञ्जसि, अम्बट्ट, इध ब्राह्मणा ब्राह्मणं किस्मिञ्चिदेव पकरणे खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेय्युं । अपिनु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा"ति ? “नो हिदं, भो
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(१.३.२७७-२७७)
३. अम्ब
गोतम”। “अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यज्ञे वा पाहुने वा”ति ? “नो हिदं, भो गोतम" । "अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा "ति ? “नो हिदं, भो गोतम" । " अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा "ति ? " आवटं हिस्स, भो गोतम" ।
"तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध खत्तिया खत्तियं किस्मिञ्चिदेव पकरणे खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेय्युं । अपिनु सो लभेय ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा’”ति ? " लभेथ, भो गोतम" । "अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यज्ञे वा पाहुने वा "ति ? " भोजेय्युं, भो गोतम" । "अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा "ति ? “वाचेय्युं, भो गोतम” । “अपिनुस्स इत्थी सु आवटं वा अस्स अनावटं वा "ति ? " अनावटं हिस्स, भो गोतम" ।
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२७७. “ एत्तावता खो, अम्बट्ठ, खत्तियो परमनिहीनतं पत्तो होति यदेव नं खत्तिया खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेन्ति । इति खो अम्बठ्ठ यदा खत्तियो परमनिहीनतं पत्तो होति, तदापि खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणा । ब्रह्मना पेसा, अम्बट्ट, सनङ्कुमारेन गाथा भासिता
" खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं,
विज्जाचरणसम्पन्नो,
ये गोत्तपटिसारिनो ।
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सो सेट्ठी देवमानुसेति । ।
“सा खो पनेसा, अम्बट्ट, ब्रह्मना सनङ्कुमारेन गाथा सुगीता नो दुग्गीता, सुभासिता नो दुब्भासिता, अत्थसंहिता नो अनत्थसंहिता, अनुमता मया । अहम्पि हि, अम्बट्ट, एवं वदामि -
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दीघनिकायो-१
(१.३.२७८-२७९)
"खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं,
ये गोत्तपटिसारिनो। विज्जाचरणसम्पन्नो,
सो सेट्ठो देवमानुसे''ति ।।
भाणवारो पठमो।
विज्जाचरणकथा
२७८. “कतमं पन तं, भो गोतम, चरणं, कतमा च पन सा विज्जा''ति ? "न खो, अम्बठ्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय जातिवादो वा वुच्चति, गोत्तवादो वा वुच्चति, मानवादो वा वुच्चति- 'अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी'ति । यस्थ खो, अम्बठ्ठ, आवाहो वा होति, विवाहो वा होति, आवाहविवाहो वा होति, एत्थेतं वुच्चति जातिवादो वा इतिपि गोत्तवादो वा इतिपि, मानवादो वा इतिपि- 'अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी'ति । ये हि केचि अम्बठ्ठ जातिवादविनिबद्धा वा गोत्तवादविनिबद्धा वा मानवादविनिबद्धा वा आवाहविवाहविनिबद्धा वा, आरका ते अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय। पहाय खो, अम्बट्ट, जातिवादविनिबद्धञ्च गोत्तवादविनिबद्धञ्च मानवादविनिबद्धञ्च आवाहविवाहविनिबद्धञ्च अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सच्छिकिरिया होती"ति।
२७९. “कतमं पन तं, भो गोतम, चरणं, कतमा च सा विज्जा''ति ? “इध, अम्बट्ट, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्जतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो । सो तं धम्म सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति । सो
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( १.३.२७९-२७९)
तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति... ( यथा १९१ आदयो अनुच्छेदा, एवं वित्थारेतब्बं) ।
३. अम्बत्तं
"कथञ्च, अम्बट्ट, भिक्खु सतिसम्पञ्ञेन समन्नागतो होति ? इध, अम्बट्ठ, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिने सुत्ते जागरिते भासिते तुम्हीभावे सम्पजानकारी होति । एवं खो अम्बट्ठ भिक्खु सतिसम्पन समन्नागतो होति ।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति । ...
" सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति ... पे०... इदम्पिस्स होति चरणस्मिं ।
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" पुन चपरं अम्बट्ट, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ... पे०... इदम्पिस्स होति चरणस्मिं ।
1
“पुन चपरं अम्बट्ट, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सोच सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति - “ उपेक्खको सतिमा सुखविहारी” ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ... पे० ... इदम्पिस्स होति चरणस्मिं ।
" पुन चपरं अम्बट्ट, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति ... पे०... इदम्पिस्स होति चरणस्मिं । इदं खो तं, अम्बट्ठ, चरणं ।
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो एवं पजानाति – “अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दन भेदनविद्धंसनधम्मो इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध "न्ति, इदम्पिस्स होति विज्जाय ।... पे० ...
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दीघनिकायो-१
(१.३.२८०-२८०)
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनित्रामेति। सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति; इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति। विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति। “खीणा जाति, बुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति, इदम्पिस्स होति विज्जाय । अयं खो सा, अम्बठ्ठ, विज्जा।
___ अयं वुच्चति, अम्बट्ठ, भिक्खु “विज्जासम्पन्नो” इतिपि, “चरणसम्पन्नो” इतिपि, “विज्जाचरणसम्पन्नो' इतिपि। इमाय च अम्ब? विज्जासम्पदाय चरणसम्पदाय च अज्ञा विज्जासम्पदा च चरणसम्पदा च उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थि।
चतुअपायमुखं
२८०. “इमाय खो, अम्बठ्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति । कतमानि चत्तारि? इध, अम्बट्ट, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इम व अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो खारिविधमादाय अरञायतनं अज्झोगाहति -- “पवत्तफलभोजनो भविस्सामी''ति । सो अञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति । इमाय खो, अम्बठ्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं पठमं अपायमुखं भवति ।
"पुन चपरं, अम्बठ्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कुदालपिटकं आदाय अरञ्जवनं अज्झोगाहति -- “कन्दमूलफलभोजनो भविस्सामी''ति । सो अञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति । इमाय खो, अम्बठ्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं दुतियं अपायमुखं भवति ।
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(१.३.२८१-२८१)
३. अम्बट्ठसुत्तं
“पुन चपरं, अम्बठ्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो गामसामन्तं वा निगमसामन्तं वा अग्यागारं करित्वा अग्गिं परिचरन्तो अच्छति । सो अञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति । इमाय खो, अम्बठ्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं ततियं अपायमुखं भवति ।
“पुन चपरं, अम्बठ्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमं चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानोपवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो अग्गिपारिचरियञ्च अनभिसम्भुणमानो चातुमहापथे चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छति- “यो इमाहि चतूहि दिसाहि आगमिस्सति समणो वा, ब्राह्मणो वा, तमहं यथासत्ति यथाबलं पटिपूजेस्सामी''ति । सो अञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति । इमाय खो, अम्बट्ट, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं चतुत्थं अपायमुखं भवति । इमाय खो, अम्बट्ट, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इमानि चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति ।
२८१. "तं किं मञ्जसि, अम्बट्ट, अपिनु त्वं इमाय अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सन्दिस्ससि साचरियको"ति ? “नो हिदं, भो गोतम" | "कोचाहं, भो गोतम, साचरियको, का च अनुत्तरा विज्जाचरणसम्पदा ? आरकाहं, भो गोतम, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय साचरियको"ति |
"तं किं मञ्जसि, अम्बट्ट, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो खारिविधमादाय अरञ्जवनमज्झोगाहसि साचरियको - पवत्तफलभोजनो भविस्सामी''ति ? “नो हिदं, भो गोतम' |
"तं किं मसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कुदालपिटकं आदाय अरञ्जवनमज्झोगाहसि साचरियको- कन्दमूलफलभोजनो भविस्सामी"ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
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दीघनिकायो-१
(१.३.२८२-२८४)
__"तं किं मञ्जसि, अम्बठ्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भणमानो गामसामन्तं वा निगमसामन्तं वा अग्यागारं करित्वा अग्गिं परिचरन्तो अच्छसि साचरियको"ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
"तं किं मासि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो अग्गिपारिचरियञ्च अनभिसम्भुणमानो चातुमहापथे चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छसि साचरियको - यो इमाहि चतूहि दिसाहि आगमिस्सति समणो वा ब्राह्मणो वा, तं मयं यथासत्ति यथाबलं पटिपूजेस्सामा ति ? “नो हिदं, भो गोतम" |
२८२. “इति खो, अम्बठ्ठ, इमाय चेव त्वं अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय परिहीनो साचरियको। ये चिमे अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति, ततो च त्वं परिहीनो साचरियको । भासिता खो पन ते एसा अम्बट्ठ आचरियेन ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना वाचा - "के च मुण्डका समणका इब्भा कण्हा बन्धुपादापच्चा, का च तेविज्जानं ब्राह्मणानं साकच्छा''ति अत्तना आपायिकोपि अपरिपूरमानो। पस्स अम्बठ्ठ, याव अपरद्धञ्च ते इदं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स।
पुब्बकइसिभावानुयोगो २८३. "ब्राह्मणो खो पन, अम्बठ्ठ, पोक्खरसाति रञो पसेनदिस्स कोसलस्स दत्तिकं भुञ्जति । तस्स राजा पसेनदि कोसलो सम्मुखीभावम्पि न ददाति । यदापि तेन मन्तेति, तिरोदुस्सन्तेन मन्तेति । यस्स खो पन, अम्बठ्ठ, धम्मिकं पयातं भिक्खं पटिग्गण्हेय्य, कथं तस्स राजा पसेनदि कोसलो सम्मुखीभावम्पि न ददेय्य | पस्स, अम्बठ्ठ, याव अपरद्धञ्च ते इदं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स ।
२८४. "तं किं मञ्जसि, अम्बठ्ठ, इध राजा पसेनदि कोसलो हत्थिगीवाय वा निसिन्नो अस्सपिढे वा निसिन्नो रथूपत्थरे वा ठितो उग्गेहि वा राज हि वा किञ्चिदेव मन्तनं मन्तेय्य । सो तम्हा पदेसा अपक्कम्म एकमन्तं तिढेय्य । अथ आगच्छेय्य सुद्दो
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(१.३.२८५-२८६)
३. अम्बठ्ठसुत्तं
वा सुद्ददासो वा, तस्मिं पदेसे ठितो तदेव मन्तनं मन्तेय्य – “एवम्पि राजा पसेनदि कोसलो आह, एवम्पि राजा पसेनदि कोसलो आहा''ति । अपिनु सो राजभणितं वा भणति राजमन्तनं वा मन्तेति ? एत्तावता सो अस्स राजा वा राजमत्तो वा'"ति ? “नो हिदं, भो गोतम'।
२८५. “एवमेव खो त्वं, अम्बट्ट, ये ते अहेसुं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति तदनुभासन्ति भासितमनुभासन्ति वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु- 'त्याहं मन्ते अधियामि साचरियको'ति, तावता त्वं भविस्ससि इसि वा इसित्थाय वा पटिपन्नोति नेतं ठानं विज्जति ।
२८६. “तं किं मञ्जसि, अम्बट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं - ये ते अहेसुं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति तदनुभासन्ति भासितमनुभासन्ति वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, एवं सु ते सुन्हाता सुविलित्ता कप्पितकेसमस्सू आमुक्कमणिकुण्डलाभरणा ओदातवत्थवसना पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको''ति? "नो हिदं. भो गोतम"।
...पे०... “एवं सु ते सालीनं ओदनं सुचिमंसूपसेचनं विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं परिभुञ्जन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको''ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
...पे०... “एवं सु ते वेठकनतपस्साहि नारीहि परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको''ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
...पे०... “एवं सु ते कुत्तवालेहि वळवारथेहि दीघाहि पतोदलठ्ठीहि वाहने
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दीघनिकायो-१
(१.३.२८७-२८८)
वितुदेन्ता विपरियायन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको''ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
...पे०... “एवं सु ते उक्किण्णपरिखासु ओक्खित्तपलिघासु नगरूपकारिकासु दीघासिवुधेहि पुरिसेहि रक्खापेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको"ति ? “नो हिदं, भो गोतम'।
“इति खो, अम्बठ्ठ, नेव त्वं इसि न इसित्थाय पटिपन्नो साचरियको । यस्स खो पन, अम्बट्ट, मयि कङ्खा वा विमति वा सो मं पञ्हेन, अहं वेय्याकरणेन सोधिस्सामी'ति ।
ढेलक्खणादस्सनं
२८७. अथ खो भगवा विहारा निक्खम्म चङ्कम अब्भुट्ठासि । अम्बट्ठोपि माणवो विहारा निक्खम्म चङ्कम अब्भुट्टासि | अथ खो अम्बट्ठो माणवो भगवन्तं चङ्कमन्तं अनुचङ्कममानो भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि समन्नेसि । अद्दसा खो अम्बट्ठो माणवो भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे। द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति -- कोसोहिते च वत्थगुम्हे पहूतजिव्हताय च ।
२८८. अथ खो भगवतो एतदहोसि– “पस्सति खो मे अयं अम्बट्ठो माणवो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे । द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति- कोसोहिते च वत्थगुय्हे पहूतजिव्हताय चा''ति । अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासि । यथा अद्दस अम्बट्ठो माणवो भगवतो कोसोहितं वत्थगुय्हं । अथ खो भगवा जिव्हं निन्नामेत्वा उभोपि कण्णसोतानि अनुमसि पटिमसि, उभोपि नासिकसोतानि अनुमसि पटिमसि, केवलंपि नलाटमण्डलं जिव्हाय छादेसि । अथ खो अम्बट्ठस्स माणवस्स एतदहोसि - “समन्नागतो खो समणो गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि, नो अपरिपुण्णेही''ति । भगवन्तं एतदवोच- "हन्द च दानि मयं, भो गोतम, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं
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(१.३.२८९-२९१)
३. अम्बट्ठसुत्तं
बहुकरणीया''ति । “यस्सदानि त्वं, अम्बट्ट, कालं मञसी''ति । अथ खो अम्बठ्ठो माणवो वळवारथमारुयह पक्कामि ।
२८९. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणो पोक्खरसाति उक्कट्ठाय निक्खमित्वा महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं सके आरामे निसिन्नो होति अम्बटुंयेव माणवं पटिमानेन्तो। अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन सको आरामो तेन पायासि | यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन ब्राह्मणो पोक्खरसाति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ब्राह्मणं पोक्खरसातिं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि ।।
२९०. एकमन्तं निसिन्नं खो अम्बटुं माणवं ब्राह्मणो पोक्खरसाति एतदवोच"कच्चि, तात अम्बठ्ठ, अद्दस तं भवन्तं गोतम"न्ति ? “अद्दसाम खो मयं, भो, तं भवन्तं गोतम''न्ति | "कच्चि, तात अम्बट्ट, तं भवन्तं गोतमं तथा सन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो नो अञ्जथा; कच्चि पन सो भवं गोतमो तादिसो नो अञादिसो''ति ? “तथा सन्तंयेव भो तं भवन्तं गोतमं सद्दो अब्भुग्गतो नो अथा, तादिसोव सो भवं गोतमो नो अादिसो । समन्नागतो च सो भवं गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि नो अपरिपुण्णेही''ति | "अहु पन ते, तात अम्बट्ट, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो"ति ? “अहु खो मे, भो, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो'"ति | "यथा कथं पन ते, तात अम्बट्ठ, अहु समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो' 'ति ? अथ खो अम्बट्ठो माणवो यावतको अहोसि भगवता सद्धिं कथासल्लापो, तं सब्बं ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स आरोचेसि ।
२९१. एवं वुत्ते, ब्राह्मणो पोक्खरसाति अम्बटुं माणवं एतदवोच- "अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक, अहो वत रे अम्हाकं बहुस्सुतक, अहो वत रे अम्हाकं तेविज्जक, एवरूपेन किर, भो, पुरिसो अत्थचरकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य । यदेव खो त्वं, अम्बट्ट, तं भवन्तं गोतमं एवं आसज्ज आसज्ज अवचासि, अथ खो सो भवं गोतमो अम्हेपि एवं उपनेय्य उपनेय्य अवच । अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक, अहो वत रे अम्हाकं बहुस्सुतक, अहो वत रे अम्हाकं तेविज्जक, एवरूपेन किर, भो, पुरिसो अत्थचरकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्या'"ति, कुपितो अनत्तमनो अम्बटुं माणवं पदसायेव पवत्तेसि । इच्छति च तावदेव भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
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दीघनिकायो-१
पोक्खरसातिबुद्धुपसङ्कमनं
२९२. अथ खो ते ब्राह्मणा ब्राह्मणं पोक्खरसातिं एतदवोचुं - " अतिविकालो खो, भो, अज्ज समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । स्वेदानि भवं पोक्खरसाति समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती 'ति । अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा याने आरोपेत्वा, उक्कासु धारियमानासु उक्कट्ठाय निय्यासि । येन इच्छानङ्गलवनसण्डो तेन पायासि । यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन भगवा तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि ।
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"आगमा
२९३. एकमन्तं निसिन्नो खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं एतदवोचनु खो इध, भो गोतम, अम्हाकं अन्तेवासी अम्बट्टो माणवो 'ति ? " आगमा खो ते, ब्राह्मण, अन्तेवासी अम्बट्टो माणवो 'ति । “अहु पन ते, भो गोतम, अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो 'ति ? " अहु खो मे, ब्राह्मण, अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो 'ति । " यथाकथं पन ते भो गोतम, अहु अम्बट्टेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो "ति ? अथ खो भगवा यावतको अहोसि अम्बट्टेन माणवेन सद्धिं कथासल्लापो, तं सब्बं ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स आरोचेसि । एवं वुत्ते, ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं एतदवोच " बालो, भो गोतम, अम्बट्टो माणवो, खमतु भवं गोतमो अम्बट्टस्स माणवस्सा "ति । "सुखी होतु, ब्राह्मण, अम्बट्ठो माणवो 'ति ।
२९४. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि समन्नेसि। अद्दसा खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे । द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्क्षति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति – कोसोहिते च वत्थगुम्हे पहूतजिव्हताय च ।
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( १.३.२९२-२९५)
२९५. अथ खो भगवतो एतदहोसि - “पस्सति खो मे अयं ब्राह्मणो पोक्खरसाति द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे । द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्क्षति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति - कोसोहिते च वत्थगुहे, पहूतजिव्हताय चा' 'ति । अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्घारं अभिसङ्घासि । यथा अद्दस ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो कोसोहितं वत्थगुय्हं । अथ खो भगवा जिव्हं निन्नामेत्वा उभोपि
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(१.३.२९६-२९९)
३. अम्बट्ठसुत्तं
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कण्णसोतानि अनुमसि पटिमसि, उभोपि नासिकसोतानि अनुमसि पटिमसि, केवलम्पि नलाटमण्डलं जिव्हाय छादेसि ।
२९६. अथ खो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स एतदहोसि - “समन्नागतो खो समणो गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि नो अपरिपुण्णेही ति। भगवन्तं एतदवोच“अधिवासेतु मे भवं गोतमो अज्जतनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना'"ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन ।
२९७. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो अधिवासनं विदित्वा भगवतो कालं आरोचेसि- "कालो, भो गोतम; निहितं भत्त"न्ति । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खसलेन येन ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि। अथ खो ब्राह्मणो पोक्र
क्खरसाति भगवन्तं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि, माणवकापि भिक्खुसङ्ख | अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि ।
२९८. एकमन्तं निसिन्नस्स खो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं - दानकथं सीलकथं सग्गकथं; कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा भगवा अासि ब्राह्मणं पोक्खरसातिं कल्लचित्तं मुचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि- दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्यः एवमेव ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स तस्मिञ्जव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्टुं उदपादि- "यं किञ्चि समुदयधम्म, सब्बं तं निरोधधम्म"न्ति।
पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदना
२९९. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळहधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – “अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम । सेय्यथापि भो गोतम । निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं
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दीघनिकायो-१
(१.३.२९९-२९९)
आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाहं भो गोतम सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । यथा च भवं गोतमो उक्कट्ठाय अञ्ञानि उपासककुलानि उपसङ्कमति, एवमेव भवं गोतमो पोक्खरसातिकुलं उपसङ्कम | ते माणवका वा माणविका वा भवन्तं गोतमं अभिवादेस्सन्ति वा पच्चुट्ठिस्सन्ति वा आसनं वा उदकं वा दस्सन्ति चित्तं वा पसादेस्सन्ति, तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया 'ति । " कल्याणं वुच्चति, ब्राह्मणा' 'ति ।
अम्बट्टत्तं निट्ठितं ततियं ।
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४. सोणदण्डसुत्तं
चम्पेय्यकब्राह्मणगहपतिका
३००. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन चम्पा तदवसरि । तत्र सुदं भगवा चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे । तेन खो पन समयेन सोणदण्डो ब्राह्मणो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधजे राजभोग्गं रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं ।
३०१. अस्सोसुं खो चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका – “समणो खलु भो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे | तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपूण्णं परिसद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साध खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती"ति । अथ खो चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका चम्पाय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्ति ।
३०२. तेन खो पन समयेन सोणदण्डो ब्राह्मणो उपरिपासादे दिवासेय्यं उपगतो होति । अद्दसा खो सोणदण्डो ब्राह्मणो चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके चम्पाय निक्खमित्वा
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दीघनिकायो-१
(१.४.३०३-३०३)
सङ्घसङ्घी गणीभूते येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्ते; दिस्वा खत्तं आमन्तेसि – “किं नु खो, भो खत्ते, चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका चम्पाय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्तीति ? “अस्थि खो, भो, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति । तमेते भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती"ति । तेन हि, भो खत्ते, येन चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके एवं वदेहि - 'सोणदण्डो, भो, ब्राह्मणो एवमाह - आगमेन्तु किर भवन्तो, सोणदण्डोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती'ति । “एवं, भो''ति खो सो खत्ता सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके एतदवोच - “सोणदण्डो भो ब्राह्मणो एवमाह – 'आगमेन्तु किर भवन्तो, सोणदण्डोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती' ''ति ।
सोणदण्डगुणकथा ___३०३. तेन खो पन समयेन नानावेरज्जकानं ब्राह्मणानं पञ्चमत्तानि ब्राह्मणसतानि चम्पायं पटिवसन्ति केनचिदेव करणीयेन । अस्सोसुं खो ते ब्राह्मणा - “सोणदण्डो किर ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती''ति । अथ खो ते ब्राह्मणा येन सोणदण्डो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं- “सच्चं किर भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती"ति ? “एवं खो मे, भो, होति - 'अहम्पि समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामी' ''ति ।
“मा भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमि । न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसमितुं । सचे भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सति, भोतो सोणदण्डस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्डिस्सति । यम्पि भोतो सोणदण्डस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो
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(१.४.३०३-३०३)
४. सोणदण्डसुत्तं
अभिवड्डिस्सति, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
"भवहि सोणदण्डो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन | यम्पि भवं सोणदण्डो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
"भवहि सोणदण्डो अड्ढो महद्धनो महाभोगो...पे०...
"भवज्हि सोणदण्डो अज्झायको, मन्तधरो, तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो, लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो...पे०...
___ "भवहि सोणदण्डो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय...पे०...
"भवञ्हि सोणदण्डो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो...पे०...
"भवहि सोणदण्डो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विज्ञापनिया...पे०...
"भवञ्हि सोणदण्डो बहूनं आचरियपाचरियो तीणि माणवकसतानि मन्ते वाचेति । बहू खो पन नानादिसा नानाजनपदा माणवका आगच्छन्ति भोतो सोणदण्डस्स सन्तिके मन्तस्थिका मन्ते अधियितकामा...पे०...
"भवहि सोणदण्डो जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो; समणो गोतमो तरुणो चेव तरुणपब्बजितो च...पे०...
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दीघनिकायो-१
(१.४.३०४-३०४)
"भवहि सोणदण्डो रो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“भवञ्हि सोणदण्डो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
"भवहि सोणदण्डो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं, रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं, राजदायं ब्रह्मदेय्यं । यम्पि भवं सोणदण्डो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं, रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं, राजदायं ब्रह्मदेय्यं । इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितु'न्ति ।
बुद्धगुणकथा ३०४. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच
"तेन हि, भो, ममपि सुणाथ, यथा मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; नत्वेव अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । समणो खलु, भो, गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा, अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । यम्पि भो समणो गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा, अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसमितुं ।
“समणो खलु, भो, गोतमो महन्तं आतिसङ्घ ओहाय पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो पहूतं हिरञसुवण्णं ओहाय पब्बजितो भूमिगतञ्च वेहासटुं च...पे०...
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(१.४.३०४-३०४)
४. साणदण्डसुत्तं
१०१
“समणो खलु, भो, गोतमो दहरोव समानो युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो, ब्रह्मवण्णी, ब्रह्मवच्छसी, अखुद्दावकासो दस्सनाय...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो सीलवा अरियसीली कुसलसीली कुसलसीलेन समन्नागतो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विज्ञापनिया...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो बहूनं आचरियपाचरियो...पे०... “समणो खलु, भो, गोतमो खीणकामरागो विगतचापल्लो...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो कम्मवादी किरियवादी अपापपुरेक्खारो ब्रह्माय पजाय...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो उच्चा कुला पब्बजितो असम्भिन्नखत्तियकुला...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो अड्डा कुला पब्बजितो महद्धना महाभोगा...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं तिरोरट्ठा तिरोजनपदा पहं पुच्छितुं आगच्छन्ति...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं अनेकानि देवतासहस्सानि पाणेहि सरणं गतानि...पे०...
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१०२
दीघनिकायो-१
(१.४.३०४-३०४)
“समणं खलु, भो, गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' ति...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो एहिस्वागतवादी सखिलो सम्मोदको अब्भाकुटिको उत्तानमुखो पुब्बभासी...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो चतुन्नं परिसानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“समणे खलु, भो, गोतमे बहू देवा च मनुस्सा च अभिप्पसन्ना...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो यस्मिं गामे वा निगमे वा पटिवसति, न तस्मिं गामे वा निगमे वा अमनुस्सा मनुस्से विहेठेन्ति...पे०...
__ “समणो खलु, भो, गोतमो सङ्घी गणी गणाचरियो पुथुतित्थकरानं अग्गमक्खायति । यथा खो पन, भो, एतेसं समणब्राह्मणानं यथा वा तथा वा यसो समुदागच्छति, न हेवं समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो । अथ खो अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं राजा पसेनदि कोसलो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं ब्राह्मणो पोक्खरसाति सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०...
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(१.४.३०५-३०६)
४. साणदण्डसुत्तं
१०३
"समणो खलु, भो, गोतमो रञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो रञ्जो पसेनदिस्स कोसलस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०....
"समणो खलु, भो, गोतमो चम्पं अनुप्पत्तो, चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे | ये खो पन, भो, केचि समणा वा ब्राह्मणा वा अम्हाकं गामखेत्तं आगच्छन्ति अतिथी नो ते होन्ति । अतिथी खो पनम्हेहि सक्कातब्बा गरुकातब्बा मानेतब्बा पूजेतब्बा अपचेतब्बा। यम्पि, भो, समणो गोतमो चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे, अतिथिम्हाकं समणो गोतमो; अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो गरुकातब्बो मानेतब्बो पूजेतब्बो अपचेतब्बो। इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसमितुं । अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । एत्तके खो अहं, भो, तस्स भोतो गोतमस्स वण्णे परियापुणामि, नो च खो सो भवं गोतमो एत्तकवण्णो | अपरिमाणवण्णो हि सो भवं गोतमो"ति ।
३०५. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं- “यथा खो भवं सोणदण्डो समणस्स गोतमस्स वण्णे भासति इतो चेपि सो भवं गोतमो योजनसते विहरति, अलमेव सद्धेन कुलपुत्तेन दस्सनाय उपसमितुं अपि पुटोसेना'ति । "तेन हि, भो, सब्बेव मयं समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा"ति |
सोणदण्डपरिवितक्को
३०६. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमि । अथ खो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स तिरोवनसण्डगतस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – “अहञ्चेव खो पन समणं गोतमं पहं पुच्छेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य - 'न खो एस ब्राह्मण पञ्हो एवं पुच्छितब्बो, एवं नामेस
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१०४
दीघनिकायो-१
(१.४.३०७-३०८)
ब्राह्मण पञ्हो पुच्छितब्बो'ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य - 'बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणं गोतमं योनिसो पऽहं पुच्छितु न्ति । यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ । यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। ममञ्चेव खो पन समणो गोतमो पञ्हं पुच्छेय्य, तस्स चाहं पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं न आराधेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य - 'न खो एस ब्राह्मण पञ्हो एवं ब्याकातब्बो, एवं नामेस ब्राह्मण पञ्हो ब्याकातब्बो'ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य - 'बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणस्स गोतमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेतु'न्ति । यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ । यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहञ्चेव खो पन एवं समीपगतो समानो अदिस्वाव समणं गोतमं निवत्तेय्यं, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य - 'बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो मानथद्धो भीतो च, नो विसहति समणं गोतमं दस्सनाय उपसमितं, कथहि नाम एवं समीपगतो समानो अदिस्वा समणं गोतमं निवत्तिस्सती'ति । यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ । यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्यु, यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा''ति ।
३०७. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । चम्पेय्यकापि खो ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु ।
३०८. तत्रपि सुदं सोणदण्डो ब्राह्मणो एतदेव बहुलमनुवितक्केन्तो निसिन्नो होति - “अहञ्चेव खो पन समणं गोतमं पहं पुच्छेय्यं; तत्र चे में समणो गोतमो एवं वदेय्य - 'न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं पुच्छितब्बो, एवं नामेस ब्राह्मण पञ्हो पुच्छितब्बो'ति । तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य - 'बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणं गोतमं योनिसो पऽहं पुच्छितु'न्ति । यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ । यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा । ममञ्चेव खो पन समणो गोतमो पऽहं पुच्छेय्य, तस्स चाहं पञ्हस्स
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४. सोणदण्डसुत्तं
वेय्याकरणेन चित्तं न आराधेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य - 'न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं ब्याकातब्बो, एवं नामेस, ब्राह्मण, पञ्हो ब्याकातब्बो 'ति । तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य - 'बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणस्स गोतमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेतु' न्ति । यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हाथ | यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोद्धा खो पनम्हाकं भोगा । अहो वत मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पहं पुच्छेय्य, अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेय्यं पञ्हस्स वेय्याकरणेना" ति ।
(१.४.३०९-३११)
ब्राह्मणपञ्ञत्ति
३०९. अथ खो भगवतो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय एतदहोसि – “विहञ्ञति खो अयं सोणदण्डो ब्राह्मणो सकेन चित्तेन । यंनूनाहं सोणदण्डं ब्राह्मणं सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छेय्यन्ति । अथ खो भगवा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोच – “कतिहि पन, ब्राह्मण, अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावाद आपज्जेय्या "ति ?
३१०. अथ खो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि - "यं वत नो अहोसि इच्छितं यं आकङ्क्षितं यं अधिप्पेतं यं अभिपत्थितं - 'अहो वत मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छेय्य, अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेय्यं पञ्हस्स वेय्याकरणेना' ति, तत्र मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पहं पुच्छति । अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेस्सामि पञ्हस्स वेय्याकरणेना "ति ।
१०५
३११. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्भुन्नामेत्वा कायं अनुविलोकेत्वा परिसं भगवन्तं एतदवोच - " पञ्चहि, भो गोतम, अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य न च पन मुसावादं आपज्जेय्य | कतमेहि पञ्चहि ? इध, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्टो जातिवादेन; अज्झायको होति मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; अभिरूपो
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दीघनिकायो-१
होति दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय; सीलवा होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गहन्तानं । इमेहि खो, भो गोतम, पञ्चहि अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; 'ब्राह्मणोस्मी'ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ।
१०६
“इमेसं पन, ब्राह्मण, पञ्चन्नं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा चतूहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ? “सक्का, भो गोतम । इमेसञ्हि, भो गोतम, पञ्चन्नं अङ्गानं वण्णं ठपयाम । किञ्हि वण्णो करिस्सति ? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अज्झायको च होति मन्तधरो च तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वैय्याकरण लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं । इमेहि खो भो गोतम चतूहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; 'ब्राह्मणोस्मी'ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ।
३१२. “इमेसं पन, ब्राह्मण, चतुन्नं अङ्गानं सक्का एक अङ्गं ठपयित्वा तीहङ्गेि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं ; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ? “सक्का, भो गोतम । इमेसञ्हि, भो गोतम, चतुन्नं अङ्गानं मन्ते ठपयाम । किञ्हि मन्ता करिस्सन्ति ? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं । इमेहि खो, भो गोतम, तीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; 'ब्राह्मणोस्मी'ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ।
(१.४.३१२-३१२)
"इमेसं पन, ब्राह्मण, तिण्णं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च
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४. सोणदण्डसुत्तं
पन मुसावादं आपज्जेय्या "ति ? "सक्का, भो गोतम । इमेसञ्हि, भो गोतम, तिण्णं अङ्गानं जातिं ठपयाम । किञ्हि जाति करिस्सति ? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो सीलवा होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं । इमेहि खो, भो गोतम, द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी 'ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या'ति ।
(१.४.३१३-३१६)
३१३. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं - " मा भवं सोणदण्डो एवं अवच, मा भवं सोणदण्डो एवं अवच । अपवदतेव भवं सोणदण्डो वण्णं, अपवदति मन्ते, अपवदति जातिं एकंसेन । भवं सोणदण्डो समणस्सेव गोतमस्स वादं अनुपक्खन्दती 'ति ।
३१४. अथ खो भगवा ते ब्राह्मणे एतदवोच - “सचे खो तुम्हाकं ब्राह्मणानं एवं होति – ‘अप्पस्सुतो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, अकल्याणवाक्करणो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, दुप्पञ्ञ च सोणदण्डो ब्राह्मणो, न च पहोति सोणदण्डो ब्राह्मणो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु'न्ति । तिट्ठतु सोणदण्डो ब्राह्मणो, तुम्हे मया सद्धिं मन्तव्हो अस्मिं वचने । सचे पन तुम्हाकं ब्राह्मणानं एवं होति - 'बहुस्सुतो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, कल्याणवाक्करणो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, पण्डितो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, पहोति च सोणदण्डो ब्राह्मणो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु 'न्ति । तिट्ठथ तुम्हे, सोणदण्डो ब्राह्मणो मया सद्धिं पटिमन्तेतू'ति ।
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३१५. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच - "तिट्ठतु भवं गोतमो, तुम्ही भवं गोतमो होतु, अहमेव तेसं सहधम्मेन पटिवचनं करिस्सामी 'ति । अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच - " मा भवन्तो एवं अवचुत्थ, मा भवन्तो एवं अवचुत्थ 'अपवदतेव भवं सोणदण्डो वण्णं, अपवदति मन्ते, अपवदति जाति, एकंसेन । भवं सोणदण्डो समणस्सेव गोतमस्स वादं अनुपक्खन्दती 'ति । नाहं, भो, अपवदामि वण्णं वा मन्ते वा जातिं वा "ति ।
३१६. तेन खो पन समयेन सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स भागिनेय्यो अङ्गको नाम माणवको तस्सं परिसायं निसिन्नो होति । अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे
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दीघनिकायो-१
(१.४.३१७-३१७)
एतदवोच – “पस्सन्ति नो भोन्तो इमं अङ्गकं माणवकं अम्हाकं भागिनेय्य"न्ति ? “एवं, भो"। “अङ्गको खो, भो, माणवको अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय, नास्स इमिस्सं परिसायं समसमो अत्थि वण्णेन ठपेत्वा समणं गोतमं । अङ्गको खो माणवको अज्झायको मन्तधरो, तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो। अहमस्स मन्ते वाचेता। अङ्गको खो माणवको उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । अहमस्स मातापितरो जानामि । अङ्गको खो माणवको पाणम्पि हनेय्य, अदिन्नम्पि आदियेय्य, परदारम्पि गच्छेय्य, मुसावादम्पि भणेय्य, मज्जम्पि पिवेय्य, एत्थ दानि, भो, किं वण्णो करिस्सति, किं मन्ता, किं जाति ? यतो खो भो ब्राह्मणो सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो, पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं । इमेहि खो, भो, द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञपेन्ति; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या'ति ।
सीलपाकथा
___३१७. “इमेसं पन, ब्राह्मण, द्विन्नं अङ्गानं सक्का एक अङ्गं ठपयित्वा एकेन अङ्गेन समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञपेतुं; 'ब्राह्मणोस्मीति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या"ति ? “नो हिदं, भो गोतम । सीलपरिधोता हि, भो गोतम, पञा; पञापरिधोतं सीलं । यत्थ सीलं तत्थ पञा, यत्थ पञा तत्थ सीलं । सीलवतो पञ्जा, पञ्जवतो सीलं। सीलपाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति । सेय्यथापि, भो गोतम, हत्थेन वा हत्थं धोवेय्य, पादेन वा पादं धोवेय्य; एवमेव खो, भो गोतम, सीलपरिधोता पञ्जा, पञापरिधोतं सीलं । यत्थ सीलं तत्थ पञ्जा, यत्थ पञ्चा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्जा, पञ्जवतो सीलं। सीलपञ्जाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायती"ति । एवमेतं, ब्राह्मण, एवमेतं, ब्राह्मण, सीलपरिधोता हि, ब्राह्मण, पा, पञापरिधोतं सीलं। यस्थ सीलं तत्थ पञ्जा, यत्थ पञ्जा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्जा, पञ्जवतो सीलं। सीलपाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति। सेय्यथापि, ब्राह्मण, हत्थेन वा हत्थं धोवेय्य, पादेन वा पादं धोवेय्य; एवमेव खो, ब्राह्मण, सीलपरिधोता पञ्जा,
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(१.४.३१८-३१८)
४. सोणदण्डसुत्तं
१०९
पापरिधोतं सीलं। यत्थ सीलं तत्थ पञ्जा, यत्थ पञ्जा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्जा, पञ्जवतो सीलं। सीलपाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति।
___ ३१८. “कतमं पन तं, ब्राह्मण, सीलं ? कतमा सा पञ्जा'"ति ? “एत्तकपरमाव मयं, भो गोतम, एतस्मिं अत्थे । साधु वत भवन्तंयेव गोतमं पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो''ति । “तेन हि, ब्राह्मण, सुणोहि; साधुकं मनसिकरोहि; भासिस्सामी''ति । “एवं, भो"ति खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि । भगवा एतदवोच- "इध. ब्राह्मण तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथ १९०-२१२ अनुच्छेदेसु तथा वित्थारेतब्ब)। एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति । इदं खो तं, ब्राह्मण, सीलं।
"कथञ्च, ब्राह्मण, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति ? इध, ब्राह्मण, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सतिसम्पजओन समन्त्रागतो होति ।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।... दुतियं झानं...।
"पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।
"पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।...
. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्पनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति, अभिनित्रामेति। सो एवं पजानाति - “अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो
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दीघनिकायो-१
(१.४.३१९-३२०)
अनिच्चुच्छादन-परिमद्दन-भेदन-विद्धंसन-धम्मो इदञ्च पन मे विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध"न्ति।...
"सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयजाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिनामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति। विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति। 'खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं नापरं इत्थत्ताया'ति पजानाति, इदम्पिस्स होति पाय... अयं खो सा, ब्राह्मण, पा "ति।
सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदना . ३१९. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – “अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम । सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च, भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । अधिवासेतु च मे भवं गोतमो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना''ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन ।
३२०. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि - “कालो, भो गोतम, निहितं भत्त"न्ति । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स निवेसनं
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(१.४.३२१-३२२)
४. साणदण्डसुत्तं
१११
तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्चत्ते आसने निसीदि। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्ख पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि ।
३२१. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच- “अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो आसना वुट्ठहित्वा भवन्तं गोतमं अभिवादेय्यं, तेन मं सा परिसा परिभवेय्य । यं खो पन सा परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ । यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा । अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो अञ्जलिं पग्गण्हेय्यं, आसना मे तं भवं गोतमो पच्चुट्ठानं धारेतु । अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो वेठनं ओमुञ्चेय्यं, सिरसा मे तं भवं गोतमो अभिवादनं धारेतु | अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो याना पच्चोरोहित्वा भवन्तं गोतमं अभिवादेय्यं, तेन मं सा परिसा परिभवेय्य । यं खो पन सा परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ, यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं । यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो पतोदलहिँ अब्भुन्नामेय्यं, याना मे तं भवं गोतमो पच्चोरोहनं धारेतु । अहञ्चेव खो पन,
गोतम, यानगतो समानो छत्तं अपनामेय्यं, सिरसा मे तं भवं गोतमो अभिवादनं धारेतू'ति ।
३२२. अथ खो भगवा सोणदण्डं ब्राह्मणं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामीति |
सोणदण्डसुत्तं निद्वितं चतुत्थं ।
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५. कूटदन्तसुत्तं
खाणुमतकब्राह्मणगहपतिका ३२३. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन खाणुमतं नाम मगधानं ब्राह्मणगामो तदवसरि । तत्र सुदं भगवा खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं । तेन खो पन समयेन कूटदन्तो ब्राह्मणो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधकं राजभोग्गं रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं । तेन खो पन समयेन कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स महायज्ञो उपक्खटो होति । सत्त च उसभसतानि सत्त च वच्छतरसतानि सत्त च वच्छतरीसतानि सत्त च अजसतानि सत्त च उरब्भसतानि थूणूपनीतानि होन्ति यञ्जत्थाय ।
३२४. अस्सोसुं खो खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका - “समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती''ति ।
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(१.५.३२५-३२९)
५. कूटदन्तसुत्तं
११३
३२५. अथ खो खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ति ।
___ ३२६. तेन खो पन समयेन कूटदन्तो ब्राह्मणो उपरिपासादे दिवासेय्यं उपगतो होति । अद्दसा खो कूटदन्तो ब्राह्मणो खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूते येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ते । दिस्वा खत्तं आमन्तेसि – “किं नु खो, भो खत्ते, खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ती''ति ?
३२७. “अस्थि खो, भो, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खसलेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खसतेहि खाणमतं अनप्पत्तो, खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा'ति । तमेते भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती''ति ।
३२८. अथ खो कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि - “सुतं खो पन मेतं - 'समणो गोतमो तिविधं यञसम्पदं सोळसपरिक्खारं जानाती'ति । न खो पनाहं जानामि तिविधं यञसम्पदं सोळसपरिक्खारं । इच्छामि चाहं महायजं यजितुं । यंनूनाहं समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा तिविधं यञ्जसम्पदं सोळसपरिक्खारं पुच्छेय्य"न्ति ।
३२९. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो खत्तं आमन्तेसि -- "तेन हि, भो खत्ते, येन खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कम । उपसङ्कमित्वा खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके एवं वदेहि - 'कूटदन्तो, भो, ब्राह्मणो एवमाह - आगमेन्तु किर भवन्तो, कूटदन्तोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती' "ति । “एवं, भो''ति खो सो खत्ता कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कमि । उपसङ्कमित्वा खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके एतदवोच- “कूटदन्तो, भो, ब्राह्मणो एवमाह - ‘आगमेन्तु किर भोन्तो, कूटदन्तोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती' 'ति ।
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११४
दीघनिकायो-१
(१.५.३३०-३३१)
कूटदन्तगुणकथा ३३०. तेन खो पन समयेन अनेकानि ब्राह्मणसतानि खाणुमते पटिवसन्ति - “कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स महायज्ञे अनुभविस्सामा"ति। अस्सोसुं खो ते ब्राह्मणा - “कूटदन्तो किर ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती''ति । अथ खो ते ब्राह्मणा येन कूटदन्तो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु ।
३३१. उपसङ्कमित्वा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं- “सच्चं किर भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती"ति ? एवं खो मे, भो, होति - 'अहम्पि समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामी' ''ति । “मा भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमि । न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्क्रमितुं । सचे भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सति, भोतो कूटदन्तस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्विस्सति । यम्पि भोतो कूटदन्तस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्विस्सति, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । समणो त्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
"भवहि कूटदन्तो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । यम्पि भवं कूटदन्तो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं | समणो त्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
अड्डो
महद्धनो
महाभोगो
पहूतवित्तूपकरणो
“भवहि कूटदन्तो पहूतजातरूपरजतो...पे०...
"भवहि कूटदन्तो अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो...पे०...
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(१.५.३३१-३३१)
५. कूटदन्तसुत्तं
११५
"भवन्हि कूटदन्तो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय...पे०...
“भवहि कूटदन्तो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो...पे०...
"भवहि कूटदन्तो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सठ्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विज्ञापनिया...पे०...
“भवहि कूटदन्तो बहूनं आचरियपाचरियो तीणि माणवकसतानि मन्ते वाचेति, बहू खो पन नानादिसा नानाजनपदा माणवका आगच्छन्ति भोतो कूटदन्तस्स सन्तिके मन्तत्थिका मन्ते अधियितुकामा...पे०...
“भवहि कूटदन्तो जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो । समणो गोतमो तरुणो चेव तरुणपब्बजितो च...पे०...
"भवहि कूटदन्तो रो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
"भवन्हि कूटदन्तो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
"भवहि कूटदन्तो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं । यम्पि भवं कूटदन्तो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं, रञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसमितु''न्ति ।
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दीघनिकायो-१
(१.५.३३२-३३२)
बुद्धगुणकथा ३३२. एवं वुत्ते कूटदन्तो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच -
"तेन हि, भो, ममपि सुणाथ, यथा मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं, न त्वेव अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसमितुं । समणो खलु, भो, गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । यम्पि, भो, समणो गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसमितुं । अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं ।
“समणो खलु, भो, गोतमो महन्तं आतिसङ्घ ओहाय पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो पहूतं हिरञसुवण्णं ओहाय पब्बजितो भूमिगतञ्च वेहासटुं च...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो दहरोव समानो युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो सीलवा अरियसीली कुसलसीली कुसलसीलेन समन्नागतो...पे०...
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(१.५.३३२-३३२)
५. कूटदन्तसुत्तं
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“समणो खलु, भो, गोतमो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विज्ञापनिया...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो बहूनं आचरियपाचरियो...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो खीणकामरागो विगतचापल्लो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो कम्मवादी किरियवादी अपापपुरेक्खारो ब्रह्मज्ञाय पजाय...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो उच्चा कुला पब्बजितो असम्भिन्नखत्तियकुला...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो अड्डा कुला पब्बजितो महद्धना महाभोगा...पे०...
"समणं खलु, भो, गोतमं तिरोरट्ठा तिरोजनपदा पऽहं पुच्छितुं आगच्छन्ति...पे०... “समणं खलु, भो, गोतमं अनेकानि देवतासहस्सानि पाणेहि सरणं गतानि...पे०...
"समणं खलु, भो, गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' ति...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो एहिस्वागतवादी सखिलो सम्मोदको अब्भाकुटिको उत्तानमुखो पुब्बभासी...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो चतुन्नं परिसानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
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दीघनिकायो-१
(१.५.३३२-३३२)
"समणे खलु, भो, गोतमे बहू देवा च मनुस्सा च अभिप्पसन्ना...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो यस्मिं गामे वा निगमे वा पटिवसति न तस्मिं गामे वा निगमे वा अमनुस्सा मनुस्से विहेठेन्ति...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो सङ्घी गणी गणाचरियो पुथुतित्थकरानं अग्गमक्खायति, यथा खो पन, भो, एतेसं समणब्राह्मणानं यथा वा तथा वा यसो समुदागच्छति, न हेवं समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो । अथ खो अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं राजा पसेनदि कोसलो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०...
“समणं खलु, भो, गोतमं ब्राह्मणो पोक्खरसाति सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो...पे०..
“समणो खलु, भो, गोतमो रञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो रो पसेनदिस्स कोसलस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
"समणो खलु, भो, गोतमो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो...पे०...
“समणो खलु, भो, गोतमो खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं । ये खो पन, भो, केचि समणा वा ब्राह्मणा वा अम्हाकं गामखेत्तं आगच्छन्ति, अतिथी
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५. कूटदन्तत्तं
नो ते होन्ति अतिथी खो पनम्हेहि सक्कातब्बा गरुकातब्बा मानेतब्बा पूजेतब्बा अपचेतब्बा । यम्पि, भो, समणो गोतमो खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकार्य, अतिथिम्हाकं समणो गोतमो । अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो गरुकातब्बो मानेतब्बो पूजेतब्बो अपचेतब्बो । इमिनापङ्गेन नारहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्क्रमितुं । अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं । एत्तके खो अहं, भो, तस्स भोतो गोतमस्स वण्णे परियाणामि, नो खो सो भवं गोतमो एत्तकवण्णो, अपरिमाणवण्णो हि सो भवं गोतमोति ।
(१.५.३३३-३३६)
३३३. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं - “यथा खो भवं कूटदन्तो समणस्स गोतमस्स वण्णे भासति इतो चेपि सो भवं गोतमो योजनसते विहरति, अलमेव सद्धेन कुलपुत्तेन दस्सनाय उपसङ्कमितुं अपि पुटोसेना "ति । "तेन हि भो सब्बेव मयं समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा ''ति ।
महाविजितराजयञ्ञकथा
३३४. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं येन अम्बलट्ठिका येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । खाणुमतकापि खो ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुम्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु ।
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३३५. एकमन्तं निसिन्नो खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – “सुतं मेतं, भो गोतम - 'समणो गोतमो तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं जानातीति । न खो पनाहं जानामि तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं । इच्छामि चाहं महायज्ञ यजितुं । साधु मे भवं गोतमो तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं देसेतू" ति ।
"
३३६. “तेन हि ब्राह्मण, सुणाहि साधुकं मनसिकरोहि भासिस्सामी 'ति । "एवं, भो' ति खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि । भगवा एतदवोच - "भूतपुब्बं,
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दीघनिकायो-१
(१.५.३३७-३३८)
ब्राह्मण, राजा महाविजितो नाम अहोसि अड्डो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो । अथ खो, ब्राह्मण, रञो महाविजितस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि - ‘अधिगता खो मे विपुला मानुसका भोगा, महन्तं पथविमण्डलं अभिविजिय अज्झावसामि, यंनूनाहं महायजं यजेय्यं, यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया'ति ।
____३३७. “अथ खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितं ब्राह्मणं आमन्तेत्वा एतदवोच - ‘इध मय्हं ब्राह्मण रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि - अधिगता खो मे विपुला मानुसका भोगा, महन्तं पथविमण्डलं अभिविजिय अज्झावसामि | यंनूनाहं महायचं यजेय्यं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया'ति । इच्छामहं, ब्राह्मण, महायजं यजितुं । अनुसासतु मं भवं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया' "ति।
___३३८. “एवं वुत्ते, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो राजानं महाविजितं एतदवोच'भोतो खो रञो जनपदो सकण्टको सउप्पीळो, गामघातापि दिस्सन्ति, निगमधातापि दिस्सन्ति, नगरघातापि दिस्सन्ति, पन्थदुहनापि दिस्सन्ति । भवं खो पन राजा एवं सकण्टके जनपदे सउप्पीळे बलिमुद्धरेय्य, अकिच्चकारी अस्स तेन भवं राजा। सिया खो पन भोतो रो एवमस्स - ‘अहमेतं दस्सुखीलं वधेन वा बन्धेन वा जानिया वा गरहाय वा पब्बाजनाय वा समूहनिस्सामी'ति, न खो पनेतस्स दस्सुखीलस्स एवं सम्मा समुग्घातो होति । ये ते हतावसेसका भविस्सन्ति, ते पच्छा रो जनपदं विहेठेस्सन्ति । अपि च खो इदं संविधानं आगम्म एवमेतस्स दस्सुखीलस्स सम्मा समुग्घातो होति । तेन हि भवं राजा ये भोतो रो जनपदे उस्सहन्ति कसिगोरक्खे, तेसं भवं राजा बीजभत्तं अनुप्पदेतु। ये भोतो रो जनपदे उस्सहन्ति वाणिज्जाय, तेसं भवं राजा पाभतं अनुप्पदेतु। ये भोतो रो जनपदे उस्सहन्ति राजपोरिसे, तेसं भवं राजा भत्तवेतनं पकप्पेतु । ते च मनुस्सा सकम्मपसुता रो जनपदं न विहेठेस्सन्ति; महा च रो रासिको भविस्सति । खेमद्विता जनपदा अकण्टका अनप्पीळा । मनस्सा मदा मोदमाना उरे पत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मजे विहरिस्सन्ती'ति । "एवं. भो"ति खो. ब्राह्मण राजा महाविजितो पूरोहितस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सूत्वा ये रओ जनपदे उस्सहिंसू कसिगोरक्खे तेसं राजा महाविजितो बीजभत्तं अनप्पदासि। ये च रओ जनपदे उस्सहिंसु वाणिज्जाय, तेसं राजा महाविजितो पाभतं अनुप्पदासि । ये च रञो जनपदे
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५. कूटदन्तत्तं
उस्सहिंसु राजपोरिसे, तेसं राजा महाविजितो भत्तवेतनं पकप्पेसि । ते च मनुस्सा सकम्मपसुता रञ्ञो जनपदं न विहेठिंसु, महा च रज्ञो रासिको अहोसि । खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीळा मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मञ्ञे विहरिंसु । अथ खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितं ब्राह्मणं आमन्तेत्वा एतदवोच - " समूहतो खो मे भोतो दस्सुखीलो, भोतो संविधानं आगम्म महा च मे रासिको। खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीळा मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मञे विहरन्ति । इच्छामहं ब्राह्मण महायज्ञ यजितुं । अनुसास मं भवं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया "ति ।
(१.५.३३९-३३९)
चतुपरिक्खारं
--
३३९. “तेन हि भवं राजा ये भोतो रञ्ञो जनपदे खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च ते भवं राजा आमन्तयतं - 'इच्छामहं भो, महायज्ञ यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया 'ति । ये भोतो रञ जनपदे अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च... पे०... ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च... पे०... गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च ते भवं राजा आमन्तयतं - 'इच्छामहं भो, महायज्ञ यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया 'ति । ' एवं भो' ति खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहित स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा ये रज्ञ जनपदे खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च, ते राजा महाविजितो आमन्तेसि - 'इच्छामहं, भो, महायज्ञ यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया "ति । 'यजतं भवं राजा यञ्ञ, यञ्ञकालो महाराजा'ति । ये रञ्ञो जनपदे अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च... पे०... ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च... पे०... गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च, ते राजा महाविजितो आमन्तेसि - 'इच्छामहं भो, महायज्ञ यजितुं । अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया 'ति । 'यजतं भवं राजा यञ्ञ, यञ्ञकालो महाराजा'ति । इतिमे चत्तारो अनुमतिपक्खा तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति ।
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१२२
दीघनिकायो-१
अट्ठ परिक्खारा
३४०. "राजा महाविजितो अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो, उभतो सुजातो मातितो च पितितो च; संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय; अड्डो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधज्ञ परिपुरणकोसकोट्ठागारो; बलवा चतुरङ्गिनिया सेनाय समन्नागतो अस्सवाय ओवादपटिकराय सहति मञ्जे पच्चत्थिके यससा; सद्धो दायको दानपति अनावटद्वारो समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं ओपानभूतो पुञ्ञानि करोति; बहुस्सुतो तस्स तस्स सुतजातस्स, तस्स तस्सेव खो पन भासितस्स अत्यं जानाति 'अयं इमस्स भासितस्स अत्यो अयं इमस्स भासितस्स अत्थो'ति; पण्डितो, वियत्तो, मेधावी, पटिबलो, अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं । राजा महाविजितो इमे अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो । इति इमानिपि अट्ठङ्गानि तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति ।
चतुपरिक्खारं
३४१. “ पुरोहितो ब्राह्मणो चतुहङ्गेहि समन्नागतो। उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं । पुरोहितो ब्राह्मणो इमेहि चतूहङ्गेहि समन्नागतो । इति इमानि चत्तारि अङ्गानि तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति ।
तिस्सो विधा
३४२. “अथ खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रज्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा तिस्सो विधा देसेसि। सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायज्ञ यिट्टुकामस्स कोचिदेव विप्पटिसारो - 'महा वत मे भोगक्खन्धो विगच्छिस्सती 'ति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो । सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायज्ञं यजमानस्स कोचिदेव विप्पटिसारो
(१.५.३४०-३४२)
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५. कूटदन्तत्तं
'महा वत मे भोगक्खन्धो विगच्छतीति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो । सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायज्ञ यिट्ठस्स कोचिदेव विप्पटिसारो 'महा वत मे भोगक्खन्धो विगतो'ति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो 'ति । इमा खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा तिस्सो विधा देसेसि |
(१.५.३४३-३४४)
दस आकारा
३४३. “अथ खो, ब्राह्मण पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा दसहाकारेहि पटिग्गाहकेसु विप्पटिसारं पटिविनेसि । ' आगमिस्सन्ति खो भोतो यञ्ञ पाणातिपातिनोपि पाणातिपाता पटिविरतापि । ये तत्थ पाणातिपातिनो तेसञ्ञेव तेन । ये तत्थ पाणातिपाता पटिविरता, ते आरम्भ यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु । आगमिस्सन्ति खो भोतो यञ्जं अदिन्नादायिनोपि अदिन्नादाना पटिविरतापि... पे०... कामे मिच्छाचारिनोपि कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतापि। मुसावादिनोपि मुसावादा पटिविरतापि । पिसुणवाचिनोपि पिसुणाय वाचाय पटिविरतापि । फरुसंवाचिनोपि फरुसाय वाचाय पटिविरतापि । सम्फप्पलापिनोपि सम्फप्पलापा पटिविरतापि । अभिज्झानोपि अनभिज्झालुनोपि । ब्यापन्नचित्तापि अब्यापन्नचित्तापि। मिच्छादिट्टिकापि सम्मादिट्टिकापि, ये तत्थ मिच्छादिट्टिका, तेसञ्ञेव तेन । ये तत्थ सम्मादिट्टिका, ते आरब्भ यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतू 'ति । इमेहि खो, ब्राह्मण पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा दसहाकारेहि पटिग्गाहकेसु विप्पटिसारं पटिविनेसि ।
सोळस आकारा
३४४. “अथ खो, ब्राह्मण पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स महाय यजमानस्स सोळसहाकारेहि चित्तं सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायज्ञ यजमानस्स कोचिदेव वत्ता- ' राजा खो महाविजितो महायञ्जं यजति, नो च खो तस्स आमन्तिता खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च; अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायज्ञ यजती 'ति । एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि । भोता खो पन रञ्ञा आमन्तिता खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा
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दीघनिकायो-१
(१.५.३४४-३४४)
च । इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु ।
_ “सिया खो पन भोतो रो महायजे यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – 'राजा खो महाविजितो महायचं यजति, नो च खो तस्स आमन्तिता अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च...पे०... ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च...पे०... गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायचं यजतीति । एवम्पि भोतो रो वत्ता धम्मतो नत्थि । भोता खो पन रञा आमन्तिता गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च । इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
"सिया खो पन भोतो रो महायचं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता - ‘राजा खो महाविजितो महायज्ञ यजति, नो च खो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायचं यजती'ति । एवम्पि भोतो रो वत्ता धम्मतो नत्थि । भवं खो पन राजा उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु ।
“सिया खो पन भोतो रो महायचं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता - ‘राजा खो महाविजितो महायजं यजति नो च खो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय...पे०... नो च खो अड्डो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो...पे०... नो च खो बलवा चतुरङ्गिनिया सेनाय समन्नागतो अस्सवाय ओवादपटिकराय सहति मञ्छे पच्चत्थिके यससा...पे०... नो च खो सद्धो दायको दानपति अनावटद्वारो समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं ओपानभूतो पुञानि करोति...पे०... नो च खो बहुस्सुतो तस्स तस्स सुतजातस्स...पे०... नो च खो तस्स तस्सेव खो पन भासितस्स अत्थं जानाति 'अयं इमस्स भासितस्स अत्थो, अयं इमस्स भासितस्स अत्थो'ति...पे०... नो च खो पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायज्ञे
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(१.५.३४५-३४५)
५. कूटदन्तसुत्तं
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यजती'ति । एवम्पि भोतो रो वत्ता धम्मतो नत्थि । भवं खो पन राजा पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं । इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु ।
___ “सिया खो पन भोतो रो महायजं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता - ‘राजा खो महाविजितो महायचं यजति । नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन: अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायज्ञ यजतीति । एवम्पि भोतो रञ्ज वत्ता धम्मतो नत्थि | भोतो खो पन रो पुरोहितो ब्राह्मणो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन । इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
___ "सिया खो पन भोतो रो महायचं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता - 'राजा खो महाविजितो महायचं यजति । नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो...पे०... नो च ख्यरस पुरोहितो ब्राह्मणो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो...पे०... नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायज्ञे यजतीति । एवम्पि भोतो रञो वत्ता धम्मतो नत्थि । भोतो खो पन रञो पुरोहितो ब्राह्मणो पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं | इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतू''ति । इमेहि खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रो महाविजितस्स महायचं यजमानस्स सोळसहि आकारेहि चित्तं सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि ।
३४५. "तस्मिं खो, ब्राह्मण, यज्ञ नेव गावो हअिंसु, न अजेळका हअिंसु, न कुक्कुटसूकरा हअिंसु, न विविधा पाणा संघातं आपज्जिंसु, न रुक्खा छिज्जिंसु यूपत्थाय, न दब्भा लूयिंसु बरिहिसत्थाय । येपिस्स अहेसुं दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा, तेपि न दण्डतज्जिता न भयतज्जिता न अस्सुमुखा रुदमाना
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१२६
दीघनिकायो-१
(१.५.३४६-३४७)
परिकम्मानि अकंसु । अथ खो ये इच्छिंसु, ते अकंसु, ये न इच्छिंसु, न ते अकंसु; यं इच्छिंसु, तं अकंसु, यं न इच्छिंसु, न तं अकंसु । सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव सो यो निट्ठानमगमासि ।
३४६. “अथ खो, ब्राह्मण, खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च, अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च, ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च, गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च पहूतं सापतेय्यं आदाय राजानं महाविजितं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु - "इदं, देव, पहूतं सापतेय्यं देव व उद्दिस्साभतं, तं देवो पटिग्गण्हातू"ति | 'अलं, भो, ममापिदं पहूतं सापतेय्यं धम्मिकेन बलिना अभिसङ्घतं; तञ्च वो होतु, इतो च भिय्यो हरथा'ति । ते रञा पटिक्खित्ता एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं- “न खो एतं अम्हाकं पतिरूपं, यं मयं इमानि सापतेय्यानि पुनदेव सकानि घरानि पटिहरेय्याम | राजा खो महाविजितो महायजं यजति, हन्दस्स मयं अनुयागिनो होमा''ति ।
३४७. “अथ खो, ब्राह्मण, पुरथिमेन यञवाटस्स खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च दानानि पठ्ठपेसुं। दक्खिणेन यञवाटस्स अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं। पच्छिमेन यञ्जवाटस्स ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्टपेसुं । उत्तरेन यञवाटस्स गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं।
"तेसुपि खो, ब्राह्मण, यझेसु नेव गावो हचिंसु, न अजेळका हअिंसु, न कुक्कुटसूकरा हजिंसु, न विविधा पाणा संघातं आपज्जिंसु, न रुक्खा छिज्जिंसु यूपत्थाय, न दब्भा लूयिंसु बरिहिसत्थाय । येपि नेसं अहेसुं दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा, तेपि न दण्डतज्जिता न भयतज्जिता न अस्सुमुखा रुदमाना परिकम्मानि अकंसु । अथ खो ये इच्छिंसु, ते अकंसु, ये न इच्छिंसु, न ते अकंसु; यं इच्छिंसु, तं अकंसु, यं न इच्छिसु न तं अकंसु । सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव ते या निट्ठानमगमंसु ।
"इति चत्तारो च अनुमतिपक्खा, राजा महाविजितो अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो,
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५. कूटदन्तत्तं
पुरोहितो ब्राह्मणो चतूहङ्गेहि समन्नागतो; तिस्सो च विधा अयं वुच्चति ब्राह्मणवा यञ्ञसम्पदा सोळसपरिक्खारा "ति ।
( १.५.३४८-३४९)
३४८. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं - “ अहो यञ्ञो, अहो यञ्ञसम्पदा”ति ! कूटदन्तो पन ब्राह्मणो तूम्हीभूतोव निसिन्नो होति । अथ खो ब्राह्मणा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं- “कस्मा पन भवं कूटदन्तो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदती 'ति ? ' नाहं, भो, समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदामि । मुद्धापि तस्स विपतेय्य, यो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्य । अपि च मे भो, एवं होति - समणो गोतमो न एवमाह “एवं मे सुत "न्ति वा “ एवं अरहति भवितु "न्ति वा अपि च समणो गोतमो – “एवं तदा आसि, इत्थं तदा आसि" त्वेव भासति । तस्स मय्हं भो एवं होति - " अद्धा समणो गोतमो तेन समयेन राजा वा अहोसि महाविजितो यञ्ञस्सामि पुरोहितो वा ब्राह्मणो तस्स यञ्ञस्स याजेता ”ति । अभिजानाति पन भवं गोतमो एवरूपं यञ्ञ यजित्वा वा याजेत्वा वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिताति ? “अभिजानामहं, ब्राह्मण, एवरूपं यञ्ञ यजित्वा वा याजेत्वा वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिता, अहं तेन समयेन पुरोहितो ब्राह्मणो अहोसिं तस्स यञ्ञस्स याजेता "ति ।
निच्चदानअनुकुलयञ
३४९. “अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञ इमाय तिविधाय यज्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरोच अप्पसमारम्भतरो च महफ्फलतरो च महानिसंसतरो चा" ति ?
१२७
खो,
"अत्थि ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो
चाति ।
"कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय
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दीघनिकायो-१
(१.५.३५०-३५०)
सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा" ति ?
१२८
“यानि खो पन तानि, ब्राह्मण, निच्चदानानि अनुकुलयज्ञानि सीलवन्ते पब्बजिते उद्दिस्स दिय्यन्ति; अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो इमाय तिविधाय यज्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महफ्फलतरो च महानिसंसतरो चा" ति ।
“ को नु खो, भो गोतम, हेतु को पच्चयो, येन तं निच्चदानं अनुकुलयञ इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चा" ति ?
"न खो, ब्राह्मण, एवरूपं यञ्ञ उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना । तं किस्स हेतु ? दिस्सन्ति हेत्थ ब्राह्मण दण्डप्पहारापि गलग्गहापि, तस्मा एवरूपं यञ्ञं न उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना । यानि खो पन तानि ब्राह्मण निच्चदानानि अनुकुलयञ्ञानि सीलवन्ते पब्बजिते उद्दिस्स दिय्यन्ति; एवरूपं खो ब्राह्मण यञ्ञ्जं उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना । तं किस्स हेतु ? न हेत्थ ब्राह्मण दिस्सन्ति दण्डप्पहारापि गलग्गहापि, तस्मा एवरूपं यञ्ञ उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना । अयं खो ब्राह्मण हेतु अयं पच्चयो, येन तं निच्चदानं अनुकुलयञ्जं इमाय तिविधाय यज्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्टतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च महफ्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चा”ति ।
३५०. “अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यज्ञ इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयज्ञेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महफ्फलतरो च महानिसंसतरो चा "ति ?
"अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयज्ञेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महफ्फलतरो च महानिसंसतरो चा ''ति ।
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(१.५.३५१-३५२)
५. कूटदन्तसुत्तं
१२९
“कतमो पन सो, भो गोतम, यो इमाय च तिविधाय यञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयब्रेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''ति ?
“यो खो, ब्राह्मण, चातुद्दिसं सङ्घ उद्दिस्स विहारं करोति, अयं खो, ब्राह्मण, यज्ञो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्जन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ।
___ ३५१. “अत्थि पन, भो गोतम, अञ्जो यो इमाय च तिविधाय यञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्जन इमिना च विहारदानेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ?
“अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्जो यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयझेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ।
"कतमो पन सो, भो गोतम, यज्ञो इमाय च तिविधाय यझसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्जेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ?
“यो खो, ब्राह्मण, पसन्नचित्तो बुद्धं सरणं गच्छति, धम्मं सरणं गच्छति, सङ्घ सरणं गच्छति; अयं खो, ब्राह्मण, यो इमाय च तिविधाय यज्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलय न इमिना च विहारदानेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ।
___३५२. “अस्थि पन, भो गोतम, अञ्जो यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयझेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पठ्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''ति ?
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१३०
दीघनिकायो-१
(१.५.३५३-३५३)
“अस्थि खो, ब्राह्मण, अञो यो इमाय च तिविधाय यञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयझेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पठ्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा'ति ।
"कतमो पन सो, भो गोतम, यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयझेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''ति?
“यो खो, ब्राह्मण, पसन्नचित्तो सिक्खापदानि समादियति- पाणातिपाता वेरमणिं, अदिन्नादाना वेरमणिं, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणिं, मुसावादा वेरमणिं, सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणिं । अयं खो, ब्राह्मण, यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयओन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''ति ।
३५३. “अत्थि पन, भो गोतम, अञ्जो यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयझेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ?
“अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्जो यो इमाय च तिविधाय यञ्जसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्जेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा''ति ।
__“कतमो पन सो, भो गोतम, यज्ञो इमाय च तिविधाय यञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्जन इमिना च विहारदानेन इमेहि
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(१.५.३५३-३५३)
५. कूटदन्तसुत्तं
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च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा"ति ?
"इध, ब्राह्मण, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०२१२ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्ब)। एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।
"कथञ्च, ब्राह्मण, भिक्खु सतिसम्पाञ्जेन समन्नागतो होति ? इध, ब्राह्मण, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति । एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सतिसम्पजओन समन्नागतो होति।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयं खो, ब्राह्मण, यो पुरिमेहि यजेहि अप्पढ़तरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च। ...पे०... दुतियं झानं... ।
"पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।...
"पुन चपरं, ब्राह्मण, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अस्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । अयम्पि खो, ब्राह्मण, यो पुरिमेहि यजेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चाति ।
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते जाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । अयम्पि खो, ब्राह्मण, यो पुरिमेहि यजेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च ।...
"सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते
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दीघनिकायो-१
(१.५.३५४-३५५)
कम्मनिये ठिते आनेजप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति; इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति। विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति। “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति । अयम्पि खो, ब्राह्मण, यो पुरिमेहि यजेहि अप्पट्टतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च । इमाय च, ब्राह्मण, यञ्जसम्पदाय अञा यञ्जसम्पदा उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थी''ति ।
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदना
३५४. एवं वुत्ते, कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – “अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम ! सेय्यथापि भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं । एसाहं भो गोतम सत्त च उसभसतानि सत्त च वच्छतरसतानि सत्त च वच्छतरीसतानि सत्त च अजसतानि सत्त च उरब्भसतानि मुञ्चामि, जीवितं देमि, हरितानि चेव तिणानि खादन्तु, सीतानि च पानीयानि पिवन्तु, सीतो च नेसं वातो उपवायतू'ति ।
सोतापत्तिफलसच्छिकिरिया
३५५. अथ खो भगवा कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं, दानकथं सीलकथं सग्गकथं; कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि । यदा भगवा अासि कूटदन्तं ब्राह्मणं कल्लचित्तं मुद्रचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि- दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य,
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Education International
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(१.५.३५६-३५८)
५. कूटदन्तत्तं
एवमेव कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स तस्मिञ्ञेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि - “यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म "न्ति ।
३५६. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळहधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – “अधिवासेतु मे भवं गोतमो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना "ति । अधिवासेसि भगवा तुम्हीभावेन ।
३५७. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि । अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके यञ्ञवाटे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि - "कालो, भो गोतम; निट्ठितं भत्तन्ति ।
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३५८. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन येन कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स यञ्ञवाटो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि ।
अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुस पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवासि । अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणि अञ्ञतरं नीचं आसनं गत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो कूटदन्तं ब्राह्मणं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामीति ।
कूटदन्तसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं ।
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६. महालिसुत्तं
ब्राह्मणदूतवत्थु ३५९. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं । तेन खो पन समयेन सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता वेसालियं पटिवसन्ति केनचिदेव करणीयेन । अस्सोसुं खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता- “समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिजा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती"ति ।
३६०. अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमिंसु । तेन खो पन समयेन आयस्मा नागितो भगवतो उपट्ठाको होति । अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमिंसु । उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागितं एतदवोचुं- "कहं नु खो, भो नागित, एतरहि सो भवं गोतमो विहरति ? दस्सनकामा हि मयं तं भवन्तं गोतम"न्ति । "अकालो खो, आवुसो, भगवन्तं दस्सनाय, पटिसल्लीनो भगवा"ति । अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता तत्थेव एकमन्तं निसीदिंसु- “दिस्वाव मयं तं भवन्तं गोतमं गमिस्सामा''ति ।
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६. महालिसुत्तं
ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थु
३६१. ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं येन महावनं कूटागारसाला येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागतं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो ओट्ठद्धोपि लिच्छवी आयस्मन्तं नागितं एतदवोच - " कहं नु खो, भन्ते नागित, एतरहि सो भगवा विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो, दस्सनकामा हि मयं तं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध 'न्ति । “ 'अकालो खो, महालि, भगवन्तं दस्सनाय, पटिसल्लीनो भगवा "ति । ओट्ठद्धोपि लिच्छवी तत्थेव एकमन्तं निसीदि - “दिस्वाव अहं तं भगवन्तं गमिस्सामि अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध "न्ति ।
(१.६.३६१-३६३)
३६२. अथ खो सीहो समणुद्देसो येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागितं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो सीहो समणुद्देसो आयस्मन्तं नागितं एतदवोच - " एते, भन्ते कस्सप सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता इधूपसङ्कन्ता भगवन्तं दस्सनाय; ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं इधूपसङ्कन्तो भगवन्तं दस्सनाय, साधु, भन्ते कस्सप, लभतं एसा जनता भगवन्तं दस्सनाया "ति ।
" तेन हि, सीह, त्वञ्ञेव भगवतो आरोचेही 'ति । “एवं, भन्ते "ति खो सीहो समणुद्देसो आयस्मतो नागितस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो सीहो समणुद्देसो भगवन्तं एतदवोच - " एते, भन्ते, सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता इधूपसङ्कन्ता भगवन्तं दस्सनाय, ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं इधूपसङ्कन्तो भगवन्तं दस्सनाय । साधु, भन्ते, लभतं एसा जनता भगवन्तं दस्सनाया "ति । " तेन हि, सीह, विहारपच्छायायं आसनं पञ्ञपेही 'ति । “एवं, भन्ते 'ति खो सीहो समणुद्देसो भगवतो पटिस्सुत्वा विहारपच्छायायं आसनं पञ्ञपेसि।
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३६३. अथ खो भगवा विहारा निक्खम्म विहारपच्छायायं पञ्ञत्ते आसने निसीदि । अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूंता येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं
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दीघनिकायो-१
(१.६.३६४-३६७)
वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि ।
३६४. एकमन्तं निसिन्नो खो ओट्ठद्धो लिच्छवी भगवन्तं एतदवोच- “पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं एतदवोच - ‘यदग्गे अहं, महालि, भगवन्तं उपनिस्साय विहरामि, न चिरं तीणि वस्सानि, दिब्बानि हि खो रूपानि पस्सामि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणामि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानी'ति । सन्तानेव नु खो, भन्ते, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, उदाहु असन्तानी''ति ?
एकसभावितसमाधि ३६५. “सन्तानेव खो, महालि, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी''ति । “को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो, येन सन्तानेव सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी''ति ? ।
३६६. “इध, महालि, भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकसभावितो समाधि होति दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो पुरथिमाय दिसाय एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । पुरथिमाय दिसाय दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं ।
३६७. “पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय...पे०... पच्छिमाय
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(१.६.३६८-३६९)
६. महालिसुत्तं
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दिसाय... उत्तराय दिसाय... उद्धमधो तिरियं एकसभावितो समाधि होति दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो उद्धमधो तिरियं एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । उद्धमधो तिरियं दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो तिरियं एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं ।
____३६८. “इध, महालि, भिक्खुनो पुरथिमाय दिसाय एकसभावितो समाधि होति दिब्बानं सदानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो पुरत्थिमाय दिसाय एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । पुरथिमाय दिसाय दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरथिमाय दिसाय एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं ।
३६९. “पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय...पे०... पच्छिमाय दिसाय... उत्तराय दिसाय... उद्धमधो तिरियं एकसभावितो समाधि होति दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो उद्धमधो तिरियं एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । उद्धमधो तिरियं दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवव्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो
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दीघनिकायो-१
(१.६.३७०-३७२)
तिरियं एकसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं ।
३७०. “इध, महालि, भिक्खुनो पुरथिमाय दिसाय उभयंसभावितो समाधि होति दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो पुरत्थिमाय दिसाय उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । पुरथिमाय दिसाय दिब्बानि च रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, दिब्बानि च सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरथिमाय दिसाय उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं ।
३७१. “पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय...पे०... पच्छिमाय दिसाय... उत्तराय दिसाय... उद्धमधो तिरियं उभयंसभावितो समाधि होति दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । सो उद्धमधो तिरियं उभयसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । उद्धमधो तिरियं दिब्बानि च रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, दिब्बानि च सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि । तं किस्स हेतु ? एवज्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो तिरियं उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं । अयं खो महालि, हेतु, अयं पच्चयो, येन सन्तानेव सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी''ति ।
३७२. “एतासं नून, भन्ते, समाधिभावनानं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्तीति । “न खो, महालि, एतासं समाधिभावनानं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू
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(१.६.३७३-३७४)
६. महालिसुत्तं
१३९
मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति । अत्थि खो, महालि, अशेव धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती''ति ।
चतुअरियफलं ३७३. "कतमे पन ते, भन्ते, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ती''ति ? "इध, महालि, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापनो होति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।
'पुन चपरं, महालि, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी होति, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करोति। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।
"पुन चपरं, महालि, भिक्खु पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति, तत्थ परिनिब्बायी, अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।
"पुन चपरं, महालि, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति। इमे खो ते, महालि, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती"ति।
अरियअट्ठङ्गिकमग्गो
३७४. “अस्थि पन, भन्ते, मग्गो अत्थि पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया''ति ? “अत्थि खो, महालि, मग्गो अस्थि पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया"ति।
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१४०
दीघनिकायो-१
(१.६.३७५-३७७)
___ ३७५. “कतमो पन, भन्ते, मग्गो कतमा पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया'ति ? “अयमेव अरियो अटुङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं- सम्मादिढि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो, महालि, मग्गो अयं पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय ।
ढेपब्बजितवत्थु
__ ३७६. “एकमिदाहं, महालि, समयं कोसम्बियं विहरामि घोसितारामे । अथ खो द्वे पब्बजिता -- मुण्डियो च परिब्बाजको जालियो च दारुपत्तिकन्तेवासी येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु । उपसङ्कमित्वा मया सद्धिं सम्मोदिंसु । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अटुंसु । एकमन्तं ठिता खो ते द्वे पब्बजिता मं एतदवोचुं - 'किं नु खो, आवुसो गोतम, तं जीवं तं सरीरं, उदाहु अझं जीवं अजं सरीरन्ति ?
३७७. तेन हावुसो, सुणाथ साधुकं मनसि करोथ भासिस्सामीति । “एवमावुसो''ति खो ते द्वे पब्बजिता मम पच्चस्सोसुं। अहं एतदवोचं- इधावुसो तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्ब)। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।।
“कथञ्च, आवुसो, भिक्खु सतिसम्पजओन समन्नागतो होति ? इध, आवुसो, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सतिसम्पजज्ञेन समन्नागतो होति।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।...
पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अचं जीवं अजं सरीर"न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा, “अञ्चं जीवं अनं सरीर''न्ति वाति ।
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(१.६.३७७-३७७)
६. महालिसुत्तं
१४१
अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि - “तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अखं जीवं अञ्चं सरीर'"न्ति वा...पे०... दुतियं झानं ।...
"पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।...
_ “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अचं जीवं अनं सरीर''न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर'"न्ति वा “अनं जीवं अजं सरीर"न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अझं जीवं अझं सरीर"न्ति वा ।...
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – “तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अझं जीवं अझं सरीर''न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीरन्ति वा “अनं जीवं अनं सरीर'"न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि- “तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अझं जीवं अनं सरीर''न्ति वा ।
"सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति; इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं
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१४२
दीघनिकायो-१
पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं परसतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति । विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति त्राणं होति । " खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति पजानाति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर "न्ति वा " अञ्ञ जीवं अञ्ञं सरीर”न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति न कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर "न्ति वा " अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर "न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि - "तं जीवं तं सरीर "न्ति वा “ अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर"न्ति वाति । इदमवोच भगवा । अत्तमनो ओट्ठद्धो लिच्छवी भगवतो भासितं अभिनन्दीति ।
"
महालिसुत्तं निट्ठितं छटुं ।
142
(१.६.३७७-३७७)
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७. जालियसुत्तं
द्वेब्बजितवत्थु
३७८. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा कोसम्बियं विहरति घोसितारामे । तेन खो पन समयेन द्वे पब्बजिता - मुण्डियो च परिब्बाजको जालियो च दारुपत्तिकन्तेवासी येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठेसु । एकमन्तं ठिता खो ते द्वे पब्बजिता भगवन्तं एतदवोचुं - “किं नु खो, आवुसो गोतम, तं जीवं तं सरीरं, उदाहु अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर "न्ति ?
३७९. " तेन हावुसो, सुणाथ साधुकं मनसि करोथ; भासिस्सामी 'ति । “एवमावुसो”ति खो ते द्वे पब्बजिता भगवतो पच्चस्सोसुं । भगवा एतदवोच - “इधावुसो, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धी... पे०... ( यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं) । एवं खो, आवुसो, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।
"कथञ्च, आवुसो, भिक्खु सतिसम्पजञेन समन्नागतो होत इध, आवुसो, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गठिते निसिने सुत्ते जागरिते भासिते तुम्हीभावे सम्पजानकारी होति । एवं खो, आवुसो, भिक्खु सतिसम्पज्ञेन समन्नागतो होति ।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति । ...
पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं
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१४४
दीघनिकायो-१
(१.७.३८०-३८०)
पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अचं जीवं अनं सरीर'"न्ति वाति । यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अझं जीवं अजं सरीर''न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि - "तं जीवं तं सरीर''न्ति वा “अझं जीवं अनं सरीर"न्ति वा...पे०... दुतियं झानं... "पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । “पुन चपरं, आवुसो, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा "अनं जीवं अनं सरीर"न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति कल्लं, तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर'"न्ति वा “अखं जीवं अनं सरीर''न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाह न वदामि – “तं जीवं तं सरीर'"न्ति वा “अझं जीवं अधे सरीर'"न्ति वा ।...
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते जाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । यो खो आवुसो भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – “तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अझं जीवं अजं सरीर"न्ति वाति । यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अझं जीवं अखं सरीर''न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि | अथ च पनाहं न वदामि - "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अझं जीवं अनं सरीर''न्ति वा ।
३८०. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयजाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति; इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं
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(१.७.३८०-३८०)
७. जालियसुत्तं
१४५
पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति। विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति। "खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति। यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय -"तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अनं जीवं अझं सरीर"न्ति वाति ? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, न कल्लं तस्सेतं वचनाय - "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अचं जीवं अझं सरीर''न्ति वाति । अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि । अथ च पनाहं न वदामि- "तं जीवं तं सरीर"न्ति वा “अनं जीवं अजं सरीर'"न्ति वाति । इदमवोच भगवा । अत्तमना ते द्वे पब्बजिता भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति ।
जालियसुत्तं निहितं सत्तम।
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८. महासीहनादसुत्तं
अचेलकस्सपवत्थु ३८१. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा उरुञ्जायं विहरति कण्णकत्थले मिगदाये । अथ खो अचेलो कस्सपो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – “सुतं मेतं, भो गोतम- 'समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीवि एकंसेन उपक्कोसति उपवदतीति । ये ते, भो गोतम, एवमाहंसु - ‘समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीविं एकसेन उपक्कोसति उपवदती'ति, कच्चि ते भोतो गोतमस्स वुत्तवादिनो, न च भवन्तं गोतमं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोन्ति, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारव्हं ठानं आगच्छति ? अनब्भक्खातुकामा हि मयं भवन्तं गोतम"न्ति ।
३८२. “ये ते, कस्सप, एवमाहंस- 'समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीविं एकंसेन उपक्कोसति उपवदती'ति, न मे ते वुत्तवादिनो, अब्भाचिक्खन्ति च पन मं ते असता अभूतेन । इधाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं लूखाजीविं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्नं । इध पनाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं लूखाजीविं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नं ।
३८३. “इधाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं अप्पदुक्खविहारिं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं
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(१.८.३८४-३८६)
८. महासीहनादसुत्तं
१४७
विनिपातं निरयं उपपन्नं । इध पनाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं अप्पदुक्खविहारिं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नं । योहं, कस्सप, इमेसं तपस्सीनं एवं आगतिञ्च गतिञ्च चुतिञ्च उपपत्तिञ्च यथाभूतं पजानामि, सोहं किं सब तपं गरहिस्सामि, सब्बं वा तपस्सिं लूखाजीविं एकसेन उपक्कोसिस्सामि उपवदिस्सामि ?
३८४. “सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा पण्डिता निपुणा कतपरप्पवादा वालवेधिरूपा। ते भिन्दन्ता मञ चरन्ति पञागतेन दिट्ठिगतानि । तेहिपि मे सद्धिं एकच्चेसु ठानेसु समेति, एकच्चेसु ठानेसु न समेति । यं ते एकच्चं वदन्ति “साधू''ति, मयम्पि तं एकच्चं वदेम “साधू''ति । यं ते एकच्चं वदन्ति “न साधू''ति, मयम्पि तं एकच्चं वदेम “न साधू''ति । यं ते एकच्चं वदन्ति “साधू"ति, मयं तं एकच्चं वदेम "न साधू"ति | यं ते एकच्चं वदन्ति “न साधू''ति, मयं तं एकच्चं वदेम “साधू"ति ।
___ "यं मयं एकच्चं वदेम “साधू''ति, परेपि तं एकच्चं वदन्ति “साधू''ति । यं मयं एकच्चं वदेम “न साधू''ति, परेपि तं एकच्चं वदन्ति “न साधू''ति । यं मयं एकच्चं वदेम “न साधू''ति, परे तं एकच्चं वदन्ति “साधू''ति । यं मयं एकच्चं वदेम "साधू''ति, परे तं एकच्चं वदन्ति “न साधू'ति ।।
समनुयुजापनकथा
३८५. “त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि - येसु नो, आवुसो, ठानेसु न समेति, तिद्वन्तु तानि ठानानि । येसु ठानेसु समेति, तत्थ विजू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घन वा सङ्घ - 'ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्खाता, कण्हा कण्हसङ्खाता । को इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, समणो वा गोतमो, परे वा पन भोन्तो गणाचरिया'ति ?
३८६. “ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विझू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं - 'ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्घाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्घाता, कण्हा
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१४८
दीघनिकायो-१
(१.८.३८७-३९०)
कण्हसङ्खाता । समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरिया'ति ? इतिह, कस्सप, विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं ।
३८७. “अपरम्प नो, कस्सप, विजू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घन वा सङ्घ - 'ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्घाता, अलमरिया अलमरियसङ्घाता, सुक्का सुक्कसङ्घाता | को इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, समणो वा गोतमो, परे वा पन भोन्तो गणाचरिया' "ति ?
___३८८. "ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्यु - 'ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्घाता, अलमरिया अलमरियसङ्घाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता । समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरिया'ति । इतिह, कस्सप, विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं ।
३८९. “अपरम्प नो, कस्सप, विजू समनुयुजन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घन वा सङ्घ- 'ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता, सावज्जा सावज्जसङ्घाता, असेवितब्बा असेवितब्बसाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्घाता, कण्हा कण्हसङ्घाता। को इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, गोतमसावकसङ्घो वा, परे वा पन भोन्तो गणाचरियसावकसङ्घाति ?
३९०. "ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं - 'ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्घाता, सावज्जा सावज्जसङ्घाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्घाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्घाता, कण्हा कण्हसङ्खाता | गोतमसावकसङ्घो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियसावकसङ्घाति । इतिह, कस्सप, विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं ।
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(१.८.३९१-३९४)
८. महासीहनादसुत्तं
१४९
३९१. “अपरम्प नो, कस्सप, विजू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घन वा सर्छ । 'ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्घाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता, अलमरिया अलमरियसङ्घाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता । को इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, गोतमसावकसङ्घो वा, परे वा पन भोन्तो गणाचरियसावकसङ्घाति ?
___३९२. “ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विजू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं- 'ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्घाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्घाता, अलमरिया अलमरियसङ्घाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता । गोतमसावकसङ्घो इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियसावकसङ्घा'ति । इतिह, कस्सप, विज्ञे समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं ।
अरियो अटुङ्गिको मग्गो
३९३. “अत्थि, कस्सप, मग्गो अत्थि पटिपदा, यथापटिपन्नो सामंयेव अस्सति सामं दक्खति- “समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी''ति । कतमो च, कस्सप, मग्गो, कतमा च पटिपदा, यथापटिपन्नो सामयेव अस्सति सामं दक्खति – “समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी''ति ? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो ।
सेय्यथिदं - सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि । अयं खो, कस्सप, मग्गो, अयं पटिपदा, यथापटिपन्नो सामंयेव अस्सति सामं दक्खति “समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी''ति ।
तपोपक्कमकथा
३९४. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – “इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्जससाता च ब्रह्मज्ञसङ्खाता च ।
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१५०
दीघनिकायो-१
(१.८.३९५-३९६)
अचेलको होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो, न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं, न निमन्तनं सादियति । सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्टितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं, न मंसं, न सुरं, न मेरयं, न थुसोदकं पिवति । सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको; एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति, सत्तहिपि दत्तीहि यापेति; एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति, सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति । इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति ।
___३९५. “इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्जससाता च ब्रह्मज्ञसङ्खाता च । साकभक्खो वा होति, सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दद्दुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्जाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति, गोमयभक्खो वा होति, वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी ।
___३९६. “इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्जससाता च ब्रह्मञ्जससाता च । साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खिकम्पि धारेति, केसमस्सुलोचकोपि होति केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि होति आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति, फलकसेय्यम्पि कप्पेति, थण्डिलसेय्यम्पि कप्पेति, एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो, अब्भोकासिकोपि होति यथासन्थतिको, वेकटिकोपि होति विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो, अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरती"ति ।
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(१.८.३९७-३९८)
८. महासीहनादसुत्तं
१५१
तपोपक्कमनिरत्थकथा
३९७. “अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो...पे०... इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्जासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता । अथ खो सो आरकाव सामञ्जा आरकाव ब्रह्मा । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि ।
“साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति, सामाकभक्खो...पे०... वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी। तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्जासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता । अथ खो सो आरकाव सामञा आरकाव ब्रह्मज्ञा । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरे अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिढेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि ।
“साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति...पे०... सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्जासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता । अथ खो सो आरकाव सामञा आरकाव ब्रह्मा । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्जाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपी'ति ।
३९८. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – “दुक्कर, भो गोतम, सामनं दुक्करं ब्रह्मज्ञ''न्ति । पकति खो एसा, कस्सप, लोकस्मिं दुक्करं सामनं दुक्करं ब्रह्मज्ञन्ति । अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो...पे०... इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन सामजं वा अभविस्स ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्करं, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – “दुक्करं सामनं दुक्करं ब्रह्मज्ञन्ति ।
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दीघनिकायो-१
(१.८.३९८-३९८)
“सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि - “हन्दाहं अचेलको होमि, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो...पे०... इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरामी''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अञ्जत्रेव इमाय मत्ताय अत्र इमिना तपोपक्कमेन सामनं वा होति ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्कर, तस्मा एतं कल्लं वचनाय -- “दुक्करं सामनं दुक्करं ब्रह्मच"न्ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं बुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
“साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति, सामाकभक्खो...पे०... वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन सामञ्चं वा अभविस्स ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्कर, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – “दुक्करं सामनं दुक्कर ब्रह्मञ"न्ति ।
"सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि- "हन्दाहं साकभक्खो वा होमि, सामाकभक्खो वा...पे०... वनमूलफलाहारो यापेमि पवत्तफलभोजी''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अत्रेव इमाय मत्ताय अञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामजं वा होति ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्कर, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – “दुक्कर सामनं दुक्करं ब्रह्मञ''न्ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरे अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । अयं बुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
"साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति...पे०... सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन
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(१.८.३९९-३९९)
८. महासीहनादसुत्तं
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सामनं वा अभविस्स ब्रह्मनं वा दुक्करं सुदुक्कर, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय - “दुक्करं सामनं दुक्करं ब्रह्मज्ञ"न्ति ।
“सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि- “हन्दाहं साणानिपि धारेमि, मसाणानिपि धारेमि...पे०... सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरामी''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अञत्रेव इमाय मत्ताय अञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामनं वा होति ब्रह्मजं वा दुक्करं सुदुक्करं, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – “दुक्कर सामनं दुक्करं ब्रह्मच"न्ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरे अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञआविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपी"ति।
३९९. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – “दुज्जानो, भो गोतम, समणो, दुज्जानो ब्राह्मणो"ति । पकति खो एसा, कस्सप, लोकस्मिं दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणोति । अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो...पे०... इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय - “दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो''ति ।
सक्का च पनेसो अभविस्स आतुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि- “अयं अचेलको होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो...पे०... इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरती''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अत्रेव इमाय मत्ताय अञत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय - "दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो''ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिवेव धम्मे सयं
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दीघनिकायो-१
(१.८.३९९-३९९)
अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं बुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
“साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति सामाकभक्खो...पे०... वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय - “दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो''ति ।
"सक्का च पनेसो अभविस्स ञातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि- “अयं साकभक्खो वा होति सामाकभक्खो...पे०... वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अञ्जत्रेव इमाय मत्ताय अञत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय - "दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो''ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पाविमुत्तिं दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं बुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
“साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति...पे०... सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति । इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय - "दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो''ति ।
"सक्का च पनेसो अभविस्स आतुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि- “अयं साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति...पे०... सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरती''ति ।
“यस्मा च खो, कस्सप, अत्रेव इमाय मत्ताय अत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय -
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८. महासीहनादत्तं
“दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो 'ति । यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति । अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपीति ।
(१.८.४००-४०१)
सीलसमाधिपञसम्पदा
४००. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच - " कतमा पन सा, भो गोतम, सीलसम्पदा, कतमा चित्तसम्पदा, कतमा पञ्ञासम्पदा "ति ? "इध, कस्सप, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धी... पे०... ( यथा १९०-१९३ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्बं) । भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन परिसुद्धाजीवो सीलसम्पन्नो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो सतिसम्पन समन्नागतो सन्तुट्ठो ।
४०१. “कथञ्च, कस्सप, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ? इध, कस्सप, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति । इदम्पिस्स होति सीलसम्पदाय... पे०... (यथा १९४ याव २१० अनुच्छेदेसु)
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" यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति । सेय्यथिदं - सन्तिकम्मं पणिधिकम्मं...पे०... (यथा २११ अनुच्छेदे) ओसधीनं पतिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलसम्पदाय ।
“स खो सो, कस्सप, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सेय्यथापि, कस्सप, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो निहतपच्चामित्तो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं पच्चत्थिकतो । एवमेव खो, कस्सप, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो । सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, कस्सप, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति । अयं खो, कस्सप, सीलसम्पदा । ...
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दीघनिकायो-१
" कथञ्च, कस्सप, भिक्खु सतिसम्पन समन्नागतो होति ? इध, कस्सप, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुम्हीभावे सम्पजानकारी होति । एवं खो, कस्सप, भिक्खु सतिसम्पञ्ञेन समन्नागतो होति ।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदम्पिस्स होति चित्तसम्पदाय... पे०... दुतियं झानं ....
" पुन चपरं कस्सप, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “ उपेक्खको सतिमा सुखविहारी "ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । “पुन चपरं कस्सप, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदम्पिस्स होति चित्तसम्पदाय अयं खो, कस्सप, चित्तसम्पदा ।
(१.८.४०१-४०१ )
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । इदम्पिस्स होति पञ्ञासम्पदाय ।
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं जानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनीपटिपदाति यथाभूतं पजानाति । इमे आसवाि यथाभूतं जानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनीपटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति । विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति जाणं होति । " खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति । इदम्पिस्स होति पञ्ञासम्पदाय । अयं खो, कस्सप, पञ्ञासम्पदा ।
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(१.८.४०२-४०३)
८. महासीहनादसुत्तं
१५७
'इमाय च, कस्सप, सीलसम्पदाय चित्तसम्पदाय पञ्जासम्पदाय अञा सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्जासम्पदा उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थि।
सीहनादकथा
४०२. “सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा सीलवादा। ते अनेकपरियायेन सीलस्स वण्णं भासन्ति । यावता, कस्सप, अरियं परमं सीलं, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो ! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिसीलं ।
"सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा तपोजिगुच्छावादा। ते अनेकपरियायेन तपोजिगुच्छाय वण्णं भासन्ति । यावता, कस्सप, अरिया परमा तपोजिगुच्छा, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिजेगुच्छं।
"सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा पञ्जावादा । ते अनेकपरियायेन पाय वण्णं भासन्ति । यावता, कस्सप, अरिया परमा पञ्जा, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो ! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिपञ्ज।
“सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा विमुत्तिवादा । ते अनेकपरियायेन विमुत्तिया वण्णं भासन्ति । यावता, कस्सप, अरिया परमा विमुत्ति, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो ! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिविमुत्ति।
___४०३. “ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेव्यु - “सीहनादं खो समणो गोतमो नदति, तञ्च खो सुझागारे नदति, नो परिसासू'ति । ते- “मा हेव''न्तिस्सु वचनीया । “सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदती"ति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया ।
___ “ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु“सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, नो च खो विसारदो
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१५८
दीघनिकायो-१
(१.८.४०४-४०४)
नदतीति । ते - “मा हेव''न्तिस्सु वचनीया । “सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदतीति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया ।
“ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्यु"सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदति, नो च खो नं पऽहं पुच्छन्ति...पे०... पञ्हञ्च नं पुच्छन्ति; नो च खो नेसं पहं पुट्ठो ब्याकरोति...पे०... पहञ्च नेसं पुट्ठो ब्याकरोति; नो च खो पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति...पे०... पञ्हस्स च वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति; नो च खो सोतब् मञन्ति...पे०... सोतब्बञ्चस्स मञ्जन्ति; नो च खो सुत्वा पसीदन्ति...पे०... सुत्वा चस्स पसीदन्ति; नो च खो पसन्नाकारं करोन्ति...पे०... पसन्नाकारञ्च करोन्ति; नो च खो तथत्ताय पटिपज्जन्ति...पे०... तथत्ताय च पटिपज्जन्ति; नो च खो पटिपन्ना आराधेन्ती''ति । ते- “मा हेव"न्तिस्सु वचनीया । “सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदति, पञ्हञ्च नं पुच्छन्ति, पहञ्च नेसं पुट्ठो ब्याकरोति, पञ्हस्स च वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति, सोतब्बञ्चस्स मञन्ति, सुत्वा चस्स पसीदन्ति, पसन्नाकारञ्च करोन्ति, तथत्ताय च पटिपज्जन्ति, पटिपन्ना च आराधेन्ती''ति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया ।
तित्थियपरिवासकथा
४०४. “एकमिदाहं, कस्सप, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते । तत्र मं अञतरो तपब्रह्मचारी निग्रोधो नाम अधिजेगुच्छे पऽहं अपुच्छि। तस्साहं अधिजेगुच्छे पऽहं पुट्ठो ब्याकासि | ब्याकते च पन मे अत्तमनो अहोसि परं विय मत्ताया''ति । “को हि, भन्ते, भगवतो धम्म सुत्वा न अत्तमनो अस्स परं विय मत्ताय ? अहम्पि हि, भन्ते, भगवतो धम्म सुत्वा अत्तमनो परं विय मत्ताय । अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते । सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य - "चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती''ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाह, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । लभेय्याह, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद"न्ति ।
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(१.८.४०५-४०५)
८. महासीहनादसुत्तं
१५९
४०५. “यो खो, कस्सप, अतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकति पब्बज्जं, आकङ्घति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय । अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता"ति | “सचे, भन्ते, अतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्घन्ति पब्बज्जं,
आकङ्घन्ति उपसम्पदं, चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय । अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि, चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु, उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया"ति ।
अलत्थ खो अचेलो कस्सपो भगवतो सन्तिके पब्बज्ज, अलत्थ उपसम्पदं । अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा कस्सपो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो न चिरस्सेव- यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरंब्रह्मचरियपरियोसानं दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति- अभञासि। अञतरो खो पनायस्मा कस्सपो अरहतं अहोसीति ।
महासीहनादसुत्तं निहितं अट्ठमं।
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९. पोट्टपादसुत्तं
पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थु
४०६. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतव अनाथपिण्डिकस्स आरामे । तेन खो पन समयेन पोट्ठपादो परिब्बाजको समयप्पवादके तिन्दुकाचीरे एकसालके मल्लिकाय आरामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं तिंसमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि । अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि ।
४०७. अथ खो भगवतो एतदहोसि - " अतिप्पगो खो ताव सावत्थियं पिण्डाय चरितुं । यंनूनाहं येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो, येन पोट्ठपादो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्यन्ति । अथ खो भगवा येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो तेनुपसङ्कमि ।
४०८. तेन खो पन समयेन पोट्ठपादो परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया । सेय्यथिदं - राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं जातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा ।
४०९. अद्दसा खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं; दिवान सकं परिसं सण्ठपेसि - " अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु मा भोन्तो सद्दमकत्थ । अयं समणो
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९. पोट्टपादत्तं
गोतमो आगच्छति । अप्पसद्दकामो खो सो आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी । अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या "ति । एवं वुत्ते ते परिब्बाजका अहेसुं ।
(१.९.४१०-४११)
४१०. अथ खो भगवा येन पोट्ठपादो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि । अथ खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - " एतु खो, भन्ते, भगवा | स्वागतं, भन्ते, भगवतो । चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय । निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदं आसनं पञ्ञत्त "न्ति ।
निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने । पोट्ठपादोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नं खो पोट्टपादं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच - " काय नुत्थ, पोट्ठपाद, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता "ति ?
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अभिसञ्ञानिरोधकथा
४११. एवं वुत्ते पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - " तिट्ठतेसा, भन्ते, कथा, याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना । नेसा, भन्ते, कथा भगवतो दुल्लभा भविस्सति पच्छापि सवनाय । पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि, नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं कोतूहलसालाय सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अभिसञ्ञानिरोधे कथा उदपादि'कथं नु खो, भो, अभिसञ्ञानिरोधो होती 'ति ? तत्रेकच्चे एवमाहंसु - 'अहेतू अप्पच्चया पुरिसस्स सञ्ञा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपि । यस्मिं समये उप्पज्जन्ति, सञ्ञी तस्मिं समये होति । यस्मिं समये निरुज्झन्ति, असञ्ञी तस्मिं समये होती 'ति । इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञन्ति ।
" तमञ्ञ एवमाह - 'न खो पन मेतं, भो, एवं भविस्सति । सञ्ञा हि, भो, पुरिसस्स अत्ता । सा च खो उपेतिपि अपेतिपि । यस्मिं समये उपेति, सञ्ञी तस्मिं समये होति । यस्मिं समये अपेति, असञ्ञी तस्मिं समये होती 'ति । इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञपेन्ति
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दीघनिकायो-१
(१.९.४१२-४१३)
"तमझो एवमाह - 'न खो पन मेतं, भो, एवं भविस्सति । सन्ति हि, भो, समणब्राह्मणा महिद्धिका महानुभावा। ते इमस्स पुरिसस्स सञ्ज उपकड्डन्तिपि अपकड्डन्तिपि । यस्मिं समये उपकड्डन्ति, सञी तस्मिं समये होति । यस्मिं समये अपकड्डन्ति, असञी तस्मिं समये होती'ति । इत्थेके अभिसनिरोधं पञपेन्ति ।।
"तमञो एवमाह - 'न खो पन मेतं, भो, एवं भविस्सति । सन्ति हि, भो, देवता महिद्धिका महानुभावा । ता इमस्स पुरिसस्स सनं उपकड्डन्तिपि अपकड्डन्तिपि । यस्मिं समये उपकड्डन्ति, सञी तस्मिं समये होति । यस्मिं समये अपकड्डन्ति, असञ्जी तस्मिं समये होती'ति । इत्थेके अभिसञानिरोधं पञपेन्ति ।
"तस्स मव्हं, भन्ते, भगवन्तंयेव आरब्भ सति उदपादि- 'अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो, यो इमेसं धम्मानं सुकुसलो'ति । भगवा, भन्ते, कुसलो, भगवा पकतञ्जू अभिसञ्जानिरोधस्स । कथं नु खो, भन्ते, अभिसञ्जानिरोधो होती''ति ?
सहेतुकसअप्पादनिरोधकथा
४१२. “तत्र, पोट्टपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु- “अहेतू अप्पच्चया पुरिसस्स सञ्जा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपी"ति, आदितोव तेसं अपरद्धं । तं किस्स हेतु ? सहेतू हि, पोट्ठपाद, सप्पच्चया पुरिसस्स सञा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपि । सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्जा निरुज्झति ।
४१३. “का च सिक्खा''ति ? भगवा अवोच – “इध, पोट्ठपाद, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, पोट्टपाद, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति । “कथञ्च, पोट्टपाद, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति ? इध, पोट्टपाद, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, साटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, पोट्ठपाद, भिक्खु सतिसम्पजञ्जन समन्नागतो होति।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... तस्सिमे पञ्चनीवरणे
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९. पोट्टपादत्तं
पीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति । सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा कामसञ्ञ, सा निरुज्झति । विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञ निरुज्झति" । अयं सिक्खाति भगवा अवोच ।
(१.९.४१३-४१३)
" पुन चपरं पोट्ठपाद, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति । समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्जीव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति । अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच ।
" पुन चपरं पोट्टपाद, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतोच सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति - “ उपेक्खको सतिमा सुखविहारी "ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति । उपेक्खासुखसुखुमसच्चस तस्मिं समये होति, उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञ उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति । अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच ।
"
१६३
" पुन चपरं, पोट्टपाद, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेद सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्ञा । सा निरुज्झति अदुक्खमसुखसुखुमसच्चसञ्ञ तस्मिं समये होति, अदुक्खमसुखसुखुमसच्चसञ्जीव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति । अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच ।
" पुन चपरं पोट्टपाद, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्जनं समतिक्कमा पटिघसञ्जनं
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दीघनिकायो-१
(१.९.४१४-४१४)
अत्थङ्गमा नानत्तसञानं अमनसिकारा “अनन्तो आकासो"ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा रूपसञ्जा, सा निरुज्झति । आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसा तस्मिं समये होति, आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञा निरुज्झति'। अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच ।
“पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म “अनन्तं विज्ञाण''न्ति विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जा, सा निरुज्झति । विज्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जा तस्मिं समये होति, विज्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञ्जा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्जा निरुज्झति'। अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच।
"पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सब्बसो विाणञ्चायतनं समतिक्कम्म “नत्थि किञ्ची''ति आकिञ्चञायतनं उपसम्पज्ज विहरति । तस्स या पुरिमा विज्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जा, सा निरुज्झति । आकिञ्चञायतनसुखुमसच्चसञ्जा तस्मिं समये होति, आकिञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जीयेव तस्मिं समये होति । एवम्पि सिक्खा एका सञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञा निरुज्झति"। अयम्पि सिक्खाति भगवा अवोच।
४१४. 'यतो खो, पोट्ठपाद, भिक्खु इध सकसञी होति, सो ततो अमुत्र ततो अमुत्र अनुपुब्बेन सञ्जग्गं फुसति। तस्स सञ्जग्गे ठितस्स एवं होति- "चेतयमानस्स मे पापियो, अचेतयमानस्स मे सेय्यो। अहञ्चेव खो पन चेतेय्यं, अभिसङ्घरेय्यं, इमा च मे सञ्जा निरुज्झेय्युं, अञा च ओळारिका सञा उप्पज्जेय्युः यंनूनाहं न चेव चेतेय्यं न च अभिसङ्घरेय्य"न्ति। सो न चेव चेतेति, न च अभिसङ्घरोति। तस्स अचेतयतो अनभिसङ्घरोतो ता चेव सा निरुज्झन्ति, अञा च ओळारिका सा न उप्पज्जन्ति। सो निरोधं फुसति । एवं खो, पोट्टपाद, अनुपुब्बाभिसञ्जानिरोध-सम्पजान-समापत्ति होति।
"तं किं मञ्जसि, पोट्ठपाद, अपि नु ते इतो पुब्बे एवरूपा अनुपुब्बाभिसञ्जानिरोध-सम्पजान-समापत्ति सुतपुब्बा''ति ? “नो हेतं, भन्ते । एवं खो
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(१.९.४१५-४१७)
९. पोट्टपादसुत्तं
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अहं, भन्ते, भगवतो भासितं आजानामि - ‘यतो खो, पोट्ठपाद, भिक्खु इध सकसञी होति, सो ततो अमुत्र ततो अमुत्र अनुपुब्बेन सजग्गं फुसति, तस्स सञग्गे ठितस्स एवं होति - चेतयमानस्स मे पापियो, अचेतयमानस्स मे सेय्यो। अहञ्चेव खो पन चेतेय्यं अभिसङ्घरेय्यं, इमा च मे सझा निरुज्झेय्यु, अञा च ओळारिका सञ्जा उप्पज्जेय्यु; यंनूनाहं न चेव चेतेय्यं, न च अभिसङ्घरेय्य'न्ति । सो न चेव चेतेति, न चाभिसङ्घरोति, तस्स अचेतयतो अनभिसङ्घरोतो ता चेव सञ्ज निरुज्झन्ति, अञा च ओळारिका सञा न उप्पज्जन्ति । सो निरोधं फुसति । एवं खो, पोट्टपाद, अनुपुब्बाभिसानिरोध-सम्पजान-समापत्ति होती''ति । “एवं, पोठ्ठपादा"ति ।
४१५. “एक व नु खो, भन्ते, भगवा सञ्जग्गं पञपेति, उदाहु पुथूपि सञ्जग्गे पचपेती''ति ? “एकम्पि खो अहं, पोट्ठपाद, सजग्गं पञपेमि, पुथूपि सञ्जग्गे पञपेमी'ति । “यथा कथं पन, भन्ते, भगवा एकम्पि सञग्गं पञपेति, पुथूपि सञ्जग्गे पञपेती'ति ? “यथा यथा खो, पोट्टपाद, निरोधं फुसति, तथा तथाहं सञ्जग्गं पञपेमि। एवं खो अहं, पोट्टपाद, एकम्पि सञ्जग्गं पञपेमि, पुथूपि सञग्गे पञपेमी"ति।
४१६. “सञ्जा नु खो, भन्ते, पठमं उप्पज्जति, पच्छा जाणं, उदाहु आणं पठमं उप्पज्जति, पच्छा सञ्जा, उदाहु सञा च आणञ्च अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जन्ती"ति ? सञ्जा खो, पोट्टपाद, पठमं उप्पज्जति, पच्छा आणं, सञ्जुप्पादा च पन आणुप्पादो होति । सो एवं पजानाति - ‘इदप्पच्चया किर मे आणं उदपादी'ति । इमिना खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं - यथा सञा पठमं उप्पज्जति, पच्छा आणं, स प्पादा च पन आणुप्पादो होती"ति।
साअत्तकथा
४१७. “सञा नु खो, भन्ते, पुरिसस्स अत्ता, उदाहु अञ सञा अञ्जो अत्ता"ति ? "कं पन त्वं, पोठ्ठपाद, अत्तानं पच्चेसी"ति ? “ओळारिकं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि रूपिं चातुमहाभूतिकं कबळीकाराहारभक्ख"न्ति । “ओळारिको च हि ते, पोट्ठपाद, अत्ता अभविस्स रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो । एवं सन्तं खो ते, पोठ्ठपाद, अभाव सा भविस्सति अञो अत्ता। तदमिनापेतं, पोट्टपाद, परियायेन
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दीघनिकायो-१
(१.९.४१८-४२०)
वेदितब्बं यथा अञ्जाव सझा भविस्सति अझो अत्ता। तिट्ठतेव सायं, पोट्ठपाद, ओळारिको अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञा च सा उप्पज्जन्ति, अञा च सा निरुज्झन्ति । इमिना खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अभाव सझा भविस्सति अञ्जो अत्ता"ति।
४१८. “मनोमयं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियन्ति । "मनोमयो च हि ते, पोट्ठपाद, अत्ता अभविस्स सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, एवं सन्तम्पि खो ते पोट्ठपाद अज्ञाव सञ्जा भविस्सति अञो अत्ता । तदमिनापेतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्जाव सझा भविस्सति अञ्जो अत्ता । तिठ्ठतेव सायं, पोट्टपाद, मनोमयो अत्ता सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञा च सा उप्पज्जन्ति, अञा च सभा निरुज्झन्ति । इमिनापि खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञाव सा भविस्सति अञ्जो अत्ता''ति ।
४१९. “अरूपिं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि सञआमयन्ति । “अरूपी च हि ते, पोठ्ठपाद, अत्ता अभविस्स सामयो, एवं सन्तम्पि खो ते, पोट्टपाद, अञ्जाव सञा भविस्सति अञो अत्ता। तदमिनापेतं, पोट्टपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अभाव सञा भविस्सति अञो अत्ता । तिठ्ठतेव सायं, पोट्टपाद, अरूपी अत्ता सामयो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञा च सञ्जा उप्पज्जन्ति, अञा च सञ्जा निरुज्झन्ति । इमिनापि खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्जाव सञ्जा भविस्सति अञ्जो अत्ता''ति ।
४२०. “सक्का पनेतं, भन्ते, मया आतुं- सञा पुरिसस्स अत्ता"ति वा “अज्ञाव सझा अञ्जो अत्ताति वा''ति? दुज्जानं खो एतं, पोठ्ठपाद, तया अदिट्टिकेन अञखन्तिकेन अरुचिकेन अञत्रायोगेन अञत्राचरियकेन – “सा पुरिसस्स अत्ता"ति वा, “अञाव सञा अञो अत्ताति वा''ति ।
___ "सचे तं, भन्ते, मया दुज्जानं अदिठ्ठिकेन अखन्तिकेन अझरुचिकेन अञत्रायोगेन अञ्जत्राचरियकेन – “सञा पुरिसस्स अत्ता'"ति वा, “अञ्जाव सञ्जा अञ्जो अत्ता"ति वा; “किं पन, भन्ते, सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्च"न्ति ? अब्याकतं खो एतं, पोठ्ठपाद, मया - “सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ''न्ति ।
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९. पोट्टपादत्तं
" किं पन, भन्ते, असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ "न्ति ? " एतम्पि खो, पोट्टपाद, मया अब्याकतं - असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ "न्ति ।
(१.९.४२१-४२१)
" किं पन, भन्ते, अन्तवा लोको...पे०... अनन्तवा लोको... तं जीवं तं सरीरं.... अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं... होति तथागतो परं मरणा... न होति तथागतो परं मरणा... होति च न च होति तथागतो परं मरणा... नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ "न्ति ? " एतम्पि खो, पोट्ठपाद, मया अब्याकतं - नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ "न्ति ।
"कस्मा पनेतं, भन्ते, भगवता अब्याकत "न्ति ? " न हेतं, पोट्ठपाद, अत्थसंहितं न धम्मसंहितं नादिब्रह्मचरियकं, न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, तस्मा एतं मया अब्याकत "न्ति ।
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" किं पन, भन्ते, भगवता ब्याकत "न्ति ? “ इदं दुक्खन्ति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकतं । अयं दुक्खसमुदयोति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकतं । अयं दुक्खनिरोधोति खो, पोट्टपाद, मया ब्याकतं । अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकत "न्ति ।
"कस्मा पनेतं, भन्ते, भगवता ब्याकत "न्ति ? " एतञ्हि, पोट्टपाद, अत्थसंहितं, एवं धम्मसंहितं, एतं आदिब्रह्मचरियकं एतं निब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति; तस्मा एतं मया व्याकत "न्ति । " एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत । यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती 'ति । अथ खो भगवा उट्ठायासना पक्कामि ।
४२१. अथ खो ते परिब्बाजका अचिरपक्कन्तस्स भगवतो पोट्टपादं परिब्बाजकं समन्ततो वाचाय सन्नितोदकेन सञ्झब्भरिमकंसु - " एवमेव पनायं भवं पोट्ठपादो यञ्ञदेव समणो गोतमो भासति तं तदेवस्स अब्भनुमोदति - 'एवमेतं भगवा एवमेतं, सुगता 'ति । न खो पन मयं किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानाम - 'सस्सतो लोको' ति वा, 'असस्तो लोको'ति वा, 'अन्तवा लोको' ति वा, 'अनन्तवा लोको'ति वा, 'तं जीवं तं सरीर 'न्ति वा, 'अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर 'न्ति
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दीघनिकायो- १
वा,
'होति तथागतो परं मरणा'ति वा, 'न होति तथागतो परं मरणा'ति वा, 'होति च न च होति तथागतो परं मरणा'ति वा, 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति वा "ति ।
१६८
एवं वुत्ते पोट्ठपादो परिब्बाजको ते परिब्बाजके एतदवोच - " अहम्पि खो, भो, न किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानामि - 'सस्तो लोको 'ति वा, ‘असस्सतो लोको'ति वा... पे०... 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा 'ति वा; अपि च समणो गोतमो भूतं तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेति धम्मट्टिततं धम्मनियामतं । भूतं खो पन तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेन्तस्स धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं, कथञ्हि नाम मादिसो विञ्ञू समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्या ”ति ?
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्टपादवत्थु
४२२. अथ खो द्वीहतीहस्स अच्चयेन चित्तो च हत्थिसारिपुत्तो पोट्ठपादो च परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । पोट्ठपादो पन परिब्बाजको भगवता सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच - " तदा मं, भन्ते, ते परिब्बाजका अचिरपक्कन्तस्स भगवतो समन्ततो वाचासन्नितोदकेन सञ्झब्भरिमकंसु - 'एवमेव पनायं भवं पोट्टपादो यञ्ञदेव समणो गोतमो भासति, तं तदेवस्स अब्भनुमोदति - एवमेतं भगवा एवमेतं सुगता 'ति । न खो पन मयं किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानाम - 'सस्तो लोको'ति वा, 'असस्सतो लोको' ति वा, 'अन्तवा लोको' ति वा, 'अनन्तवा लोको' ति वा, 'तं जीवं तं सरीर 'न्ति वा, 'अञ्ञ जीवं अञ्ञ सरीर 'न्ति वा, 'होति तथागतो परं मरणाति वा, 'न होति तथागतो परं मरणा'ति वा, 'होति च न च होति तथागतो परं मरणा'ति वा, 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा'ति वा'ति । एवं वुत्ताहं, भन्ते, ते परिब्बाजके एतदवोचं - “अहम्पि खो, भो, न किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानामि - 'सस्सतो लोको 'ति वा, 'असस्सतो लोको'ति वा... पे०... 'नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा'ति वा; अपि च समणो गोतमो भूतं तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेति धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं ।
(१.९.४२२-४२२)
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(१.९.४२३-४२४)
९. पोट्टपादसुत्तं
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भूतं खो पन तच्छं तथं पटिपदं पझपेन्तस्स धम्मट्टिततं धम्मनियामतं, कथहि नाम मादिसो विज्ञे समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्या'ति ?
४२३. “सब्बेव खो एते, पोट्ठपाद, परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका; त्वंयेव नेसं एको चक्खुमा । एकंसिकापि हि खो, पोट्टपाद, मया धम्मा देसिता पञत्ता; अनेकंसिकापि हि खो, पोट्ठपाद, मया धम्मा देसिता पञत्ता ।
"कतमे च ते, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? सस्सतो लोकोति खो, पोट्ठपाद, मया अनेकसिको धम्मो देसितो पञ्जत्तो; असस्सतो लोकोति खो, पोट्ठपाद, मया अनेकसिको धम्मो देसितो पञत्तो; अन्तवा लोकोति खो पोट्ठपाद...पे०... अनन्तवा लोकोति खो पोट्टपाद... तं जीवं तं सरीरन्ति खो पोट्टपाद... अनं जीवं अनं सरीरन्ति खो पोठ्ठपाद... होति तथागतो परं मरणाति खो पोठ्ठपाद... न होति तथागतो परं मरणाति खो पोट्टपाद... होति च न च होति तथागतो परं मरणाति खो पोट्ठपाद... नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति खो, पोट्टपाद, मया अनेकसिको धम्मो देसितो पत्तो ।
“कस्मा च ते, पोठ्ठपाद, मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पत्ता ? न हेते, पोट्ठपाद, अस्थसंहिता न धम्मसंहिता न आदिब्रह्मचरियका न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिज्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति । तस्मा ते मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञत्ता'।
एकसिकधम्मो
४२४. “कतमे च ते, पोट्ठपाद, मया एकंसिका धम्मा देसिता पत्ता ? इदं दुक्खन्ति खो, पोट्ठपाद, मया एकसिको धम्मो देसितो पञत्तो। अयं दुक्खसमुदयोति खो, पोट्ठपाद, मया एकसिको धम्मो देसितो पञत्तो। अयं दुक्खनिरोधोति खो, पोट्टपाद, मया एकसिको धम्मो देसितो पञ्जत्तो। अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, पोट्ठपाद, मया एकसिको धम्मो देसितो पञ्जत्तो।
"कस्मा च ते, पोट्टपाद, मया एकंसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? एते, पोट्ठपाद,
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१७०
दीघनिकायो-१
अत्थसंहिता, एते धम्मसंहिता, एते आदिब्रह्मचरियका एते निब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिज्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति । तस्मा ते मया एकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता ।
४२५. “सन्ति, पोट्ठपाद, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो “एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि - “सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो - एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा" ति ? ते चे मे एवं पुट्ठा "आमा" ति पटिजानन्ति, त्याहं एवं वदामि " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा "ति ? इति पुट्ठा "नो "ति वदन्ति ।
(१.९.४२५-४२६)
"त्याहं एवं वदामि - " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपड्डुं वा रत्तिं उपड्डुं वा दिवसं एकन्तसुखि अत्तानं सञ्जानाथा' 'ति ? इति पुट्ठा “नो’”ति वदन्ति । त्याहं एवं वदामि - " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ- अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया "ति ? इति पुट्ठा "नोति वदन्ति ।
“त्याहं एवं वदामि – “ अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना, तासं भासमानानं सद्दं सुणाथ - सुप्पटिपन्नात्थ मारिसा उजुप्पटिपन्नात्थ मारिसा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि मारिसा एवंपटिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना "ति ? इति पुट्ठा "नो” ति वदन्ति ।
“तं किं मञ्ञसि, पोट्टपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती "ति ? "अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती 'ति ।
-
४२६. "सेय्यथापि, पोट्टपाद पुरिसो एवं वदेय्य - " अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी, तं इच्छामि तं कामेमी 'ति । तमेनं एवं वदेय्युं - “अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणि इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणि खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वासुद्दी वा "ति ? इति पुट्ठो "नो "ति वदेय्य । तमेनं एवं वदेय्युं - " अम्भो
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९. पोट्ठपादत्तं
पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणि इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं एवंनामा एवंगोत्ताति वा, दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति, अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा "ति ? इति पुट्ठो "नो" ति वदेय्य । तमेनं एवं वदेय्युं - “अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी 'ति ? इति पुट्ठो "आमा"ति वदेय्य ।
(१.९.४२६-४२६)
"तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ? 'अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती 'ति ।
" एवमेव खो, पोट्टपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्टिनो " एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि "सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो - एकन्तसुखी अत्ता होति अरोग परं मरणाति ? ते चे मे एवं पुट्ठा "आमा "ति पटिजानन्ति । त्याहं एवं वदामि " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा "ति ? इति पुट्ठा "नो "ति वदन्ति ।
१७१
“त्याहं एवं वदामि – “ अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपड्डुं वा रत्तिं उपड्डुं वा दिवसं एकन्तसुखिं अत्तानं सञ्जानाथा ”ति ? इति पुट्ठा “नो”ति वदन्ति । त्याहं एवं वदामि - " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ - अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया "ति ? इति पुट्ठा "नो "ति वदन्ति ।
“त्याहं एवं वदामि - " अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना, तासं भासमानानं सद्दं सुणाथ - सुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, उजुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि, मारिसा, एवं टिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना "ति ? इति पुट्ठा “नो” ति वदन्ति ।
"तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं
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-
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दीघनिकायो-१
(१.९.४२७-४२७)
भासितं सम्पज्जतीति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ।
४२७. “सेय्यथापि, पोट्टपाद, पुरिसो चातुमहापथे निस्सेणिं करेय्य पासादस्स आरोहणाय | तमेनं एवं वदेय्यु - “अम्भो पुरिस, यस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं पुरथिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वा'ति ? इति पुट्ठो “नो''ति वदेय्य । तमेनं एवं वदेय्युं- “अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसी"ति ? इति पुट्ठो “आमा''ति वदेय्य ।
"तं किं मञ्जसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति।
"एवमेव खो, पोट्ठपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो - “एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा'ति । त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि"सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो- एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा''ति? ते चे मे एवं पुट्ठा “आमा''ति पटिजानन्ति । त्याहं एवं वदामि“अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा''ति ? इति पुट्ठा "नो'"ति वदन्ति ।
"त्याहं एवं वदामि -- “अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपटुं वा रत्तिं उपहुं वा दिवसं एकन्तसुखि अत्तानं सञ्जानाथा"ति? इति पुट्ठा "नो"ति वदन्ति । त्याहं एवं वदामि – “अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया''ति ? इति पुट्ठा “नो''ति वदन्ति ।
"त्याहं एवं वदामि- “अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना' तासं देवतानं भासमानानं सदं सुणाथ, सुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा,
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(१.९.४२८-४३०)
९. पोट्ठपादसुत्तं
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उजुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि, मारिसा, एवं पटिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना''ति ? इति पुट्ठा “नो''ति वदन्ति ।
"तं किं मञ्जसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ।
तयो अत्तपटिलाभा
४२८. “तयो खो मे, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभा- ओळारिको अत्तपटिलाभो, मनोमयो अत्तपटिलाभो, अरूपो अत्तपटिलाभो। कतमो च, पोट्ठपाद, ओळारिको अत्तपटिलाभो ? रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो, अयं ओळारिको अत्तपटिलाभो। कतमो मनोमयो अत्तपटिलाभो ? रूपी मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, अयं मनोमयो अत्तपटिलाभो । कतमो अरूपो अत्तपटिलाभो ? अरूपी सामयो, अयं अरूपो अत्तपटिलाभो ।
४२९. “ओळारिकस्सपि खो अहं, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्म देसेमि- “यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा"ति | सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, एवमस्स – “संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिढेव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारो''ति, न खो पनेतं, पोट्टपाद, एवं दट्टब् । संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवडिस्सन्ति, पापारिपूरि वेपुल्लत्तञ्च दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञञ्च सुखो च
विहारो।
४३०. "मनोमयस्सपि खो अहं, पोठ्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्मं देसेमि“यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिवेव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज
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१७४
दीघनिकायो-१
विहरिस्सथा "ति । सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, "संकिलेसिका धम्मा एवमस्स पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञ सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारो "ति, न खो पतं, पोट्टपाद, एवं दट्ठब्बं । संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञपारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञ्ञञ्च सुखो च विहारो ।
-
४३१. “अरूपस्सपि खो अहं, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्मं देसेमि - " यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा”ति । सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, एवमस्स - “संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारो "ति, न खो पनेतं, पोट्टपाद, एवं दट्ठब्बं । संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञपारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञ्ञञ्च सुखो च विहारो ।
(१.९.४३१-४३३)
-
४३२. “परे चे पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं - “ कतमो पन सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा"ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम - "अयं वा सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो, यस्स मयं पहानाय धम्मं देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा "ति ।
"
४३३. “ परे चे पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं - “ कतमो पन सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका
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(१.९.४३४-४३५)
९. पोट्ठपादसुत्तं
१७५
धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा"ति? तेसं मयं एवं पुठ्ठा एवं ब्याकरेय्याम – “अयं वा सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो यस्स मयं पहानाय धम्म देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिद्वैव धम्मे सयं अभिजा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा''ति ।
४३४. “परे चे, पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं - “कतमो पन सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरि वेपुल्लत्तञ्च दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा''ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम – “अयं वा सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो यस्स मयं पहानाय धम्म देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरि वेपुल्लत्तञ्च दिढेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा''ति ।
"तं किं मञ्जसि, पोट्टपाद, ननु एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ।
४३५. “सेय्यथापि, पोट्टपाद, पुरिसो निस्सेणिं करेय्य पासादस्स आरोहणाय तस्सेव पासादस्स हेट्ठा । तमेनं एवं वदेय्युं- “अम्भो पुरिस, यस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं, पुरत्थिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वाति ? सो एवं वदेय्य -- “अयं वा सो, आवुसो, पासादो, यस्साहं आरोहणाय निस्सेणिं करोमि, तस्सेव पासादस्स हेट्ठा'ति ।
"तं किं मञ्जसि, पोट्टपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ।
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१७६
दीघनिकायो-१
(१.९.४३६-४३७)
४३६. “एवमेव खो, पोट्ठपाद, परे चे अम्हे एवं पुच्छेय्यु - “कतमो पन सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो...पे०... कतमो पन सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो...पे०... कतमो पन सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिवेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा''ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम - “अयं वा सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स मयं पहानाय धम्म देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्डिस्सन्ति, पञापारिपूरि वेपुल्लत्तञ्च दिवेव धम्मे सयं अभिञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा''ति ।
"तं किं मञ्जसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ।
४३७. एवं वृत्ते चित्तो हत्थिसारिपत्तो भगवन्तं एतदवोच- "यस्मिं, भन्ते, समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये मनोमयो. अत्तपटिलाभो होति, मोघो अरूपो अत्तपटिलाभो होति; ओळारिको वास्स अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होति । यस्मिं, भन्ते, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति. मोघो अरूपो अत्तपटिलाभो होति. मनोमयो अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होति । यस्मिं, भन्ते, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, मोघो मनोमयो अत्तपटिलाभो होति; अरूपो वास्स अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होती"ति ।
वास्स
"यस्मिं, चित्त, समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति; ओळारिको अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति। यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्ख गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सझं गच्छति; मनोमयो अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्ख गच्छति । यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति ।
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(१.९.४३८-४३९)
९. पोट्टपादसुत्तं
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४३८. “सचे तं, चित्त, एवं पुच्छेय्यु- “अहोसि त्वं अतीतमद्धानं, न त्वं नाहोसि; भविस्ससि त्वं अनागतमद्धानं, न त्वं न भविस्ससि; अत्थि त्वं एतरहि, न त्वं नत्थी''ति, एवं पुट्ठो त्वं, चित्त, किन्ति ब्याकरेय्यासी''ति ? “सचे मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्युं - "अहोसि त्वं अतीतमद्धानं, न त्वं न अहोसि; भविस्ससि त्वं अनागतमद्धानं, न त्वं न भविस्ससि; अस्थि त्वं एतरहि, न त्वं नत्थी''ति । एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं - "अहोसाहं अतीतमद्धानं, नाहं न अहोसि; भविस्सामहं अनागतमद्धानं, नाहं न भविस्सामि; अत्थाहं एतरहि, नाहं नत्थी''ति । एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्य"न्ति ।
__ “सचे पन तं, चित्त, एवं पुच्छेय्यु- “यो ते अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो ? यो ते भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो ? यो ते एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतोति । एवं पुट्ठो त्वं, चित्त, किन्ति ब्याकरेय्यासी"ति ? "सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्युं- “यो ते अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो । यो ते भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो । यो ते एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतो''ति । एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं - "यो मे अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो अहोसि, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो मे भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो भविस्सति, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो मे एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतो''ति । एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्य''न्ति ।
४३९. “एवमेव खो, चित्त, यस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये मनोमयो अत्तपटिलाभोति सझं गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सङ्ख गच्छति । ओळारिको अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्ख गच्छति । यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति...पे०... यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति,
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दीघनिकायो-१
(१.९.४४०-४४२)
नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्गं गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति ।
४४०. “सेय्यथापि, चित्त, गवा खीरं, खीरम्हा दधि, दधिम्हा नवनीतं, नवनीतम्हा सप्पि, सप्पिम्हा सप्पिमण्डो। यस्मिं समये खीरं होति, नेव तस्मिं समये दधीति सङ्ख गच्छति, न नवनीतन्ति सङ्कं गच्छति, न सप्पीति सङ्कं गच्छति, न सप्पिमण्डोति सङ्ख गच्छति; खीरं त्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति । यस्मिं समये दधि होति...पे०... नवनीतं होति... सप्पि होति... सप्पिमण्डो होति, नेव तस्मिं समये खीरन्ति सङ्कं गच्छति, न दधीति सङ्गं गच्छति, न नवनीतन्ति सङ्कं गच्छति, न सप्पीति सङ्कं गच्छति; सप्पिमण्डो त्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति । एवमेव खो, चित्त, यस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति...पे०... यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति...पे०... यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्घ गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्कं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्कं गच्छति । इमा खो चित्त, लोकसमजा लोकनिरुत्तियो लोकवोहारा लोकपञ्जत्तियो, याहि तथागतो वोहरति अपरामसन्ति ।
४४१. एवं वुत्ते, पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच- "अभिक्कन्तं, भन्ते ! अभिक्कन्तं, भन्ते, सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत''न्ति ।
चित्तहत्थिसारिपुत्तउपसम्पदा ४४२. चित्तो पन हत्थिसारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – “अभिक्कन्तं, भन्ते; अभिक्कन्तं, भन्ते ! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य - 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति । एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाहं, भन्ते,
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९. पोट्टपाद
भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद' "न्ति ।
(१.९.४४३-४४३)
४४३. अलत्थ खो चित्तो हत्थिसारिपुत्तो भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं । अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो न चिरस्सेव - यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं - ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्टेव धम्मे सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि । “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति - अब्भञ्ञासि । अञ्ञतरो खो पनायस्मा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो अरहतं अहोसीति ।
पोट्टपादत्तं निट्ठितं नवमं ।
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१०. सुभसुत्तं
सुभमाणववत्थु
४४४. एवं मे सुतं - एकं समयं आयस्मा आनन्दो सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे अचिरपरिनिब्बुते भगवति । तेन खो पन समयेन सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो सावत्थियं पटिवसति केनचिदेव करणीयेन ।
४४५. अथ खो सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो अञ्जतरं माणवकं आमन्तेसि - “एहि त्वं, माणवक, येन समणो आनन्दो तेनुपसङ्कम; उपसमित्वा मम वचनेन समणं आनन्दं अप्पाबाधं अप्पातकं लहुहानं बलं फासुविहारं पुच्छ- 'सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो भवन्तं आनन्दं अप्पाबाधं अप्पातकं लहुट्टानं बलं फासुविहारं पुच्छती'ति । एवञ्च वदेहि - 'साधु किर भवं आनन्दो येन सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमतु अनुकम्पं उपादाया'ति ।
४४६. “एवं, भो''ति खो सो माणवको सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स पटिस्सुत्वा येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता आनन्देन सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सो माणवको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच- "सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो भवन्तं आनन्दं अप्पाबाधं अप्पातकं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति। एवञ्च वदेति - साधु किर भवं आनन्दो येन सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमतु अनुकम्पं उपादाया''ति ।
४४७. एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो तं माणवकं एतदवोच - “अकालो खो,
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(१.१०.४४८-४४९)
१०. सुभसुत्तं
१८१
माणवक । अस्थि मे अज्ज भेसज्जमत्ता पीता | अप्पेवनाम स्वेपि उपसङ्कमेय्याम कालञ्च समयञ्च उपादाया"ति । “एवं, भो"ति खो सो माणवको आयस्मतो आनन्दस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना येन सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सुभं माणवं तोदेय्यपुत्तं एतदवोच, “अवोचुम्हा खो मयं भोतो वचनेन तं भवन्तं आनन्दं - सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो भवन्तं आनन्दं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति, एवञ्च वदेति – 'साधु किर भवं आनन्दो येन सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमतु अनुकम्पं उपादाया'ति । एवं वुत्ते, भो, समणो आनन्दो मं एतदवोच – 'अकालो खो, माणवक । अत्थि मे अज्ज भेसज्जमत्ता पीता । अप्पेवनाम स्वेपि उपसङ्कमेय्याम कालञ्च समयञ्च उपादाया'ति । एत्तावतापि खो, भो, कतमेव एतं, यतो खो सो भवं आनन्दो ओकासमकासि स्वातनायपि उपसङ्कमनाया''ति ।
__४४८. अथ खो आयस्मा आनन्दो तस्सा रत्तिया अच्चयेन पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय चेतकेन भिक्खुना पच्छासमणेन येन सुभस्स माणवस्स तोदेय्यपुत्तस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि ।
अथ खो सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो येनायस्मा आनन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता आनन्देन सद्धिं सम्मोदि । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो सुभो माणवो तोदेय्यपुत्तो आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच - "भवहि आनन्दो तस्स भोतो गोतमस्स दीघरत्तं उपट्ठाको सन्तिकावचरो समीपचारी | भवमेतं आनन्दो जानेय्य, येसं सो भवं गोतमो धम्मानं वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसि । कतमेसानं खो, भो आनन्द, धम्मानं सो भवं गोतमो वण्णवादी अहोसि; कत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसी"ति ?
४४९. “तिण्णं खो, माणव, खन्धानं सो भगवा वण्णवादी अहोसि; एत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसि । कतमेसं तिण्णं? अरियस्स सीलक्खन्धस्स, अरियस्स समाधिक्खन्धस्स, अरियस्स पाक्खन्धस्स । इमेसं खो, माणव, तिण्णं खन्धानं सो भगवा वण्णवादी अहोसि; एत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसी"ति ।
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दीघनिकायो-१
सीलक्खन्धो
४५०. “कतमो पन सो, भो आनन्द, अरियो सीलक्खन्धो, यस्स सो भवं गोतमो वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसी 'ति ?
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"इध, माणव, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । तं धम्मं सुणाति पति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो । सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति । सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति - “सम्बाधो घरावासो रजोपथो, अब्भोकासो पब्बज्जा, नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं । यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यन्ति । सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा जातिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा जातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति । सो एवं पब्बजितो समानो पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति, आचारगोचरसम्पन्नो, अनुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्ख सिक्खापदेसु, कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन परिसुद्धाजीवो, सीलसम्पन्नो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो, सतिसम्पजज्ञेन समन्नागतो, सन्तुट्ठी ।
४५१. “कथञ्च, माणव, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ? इध, माणव, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति । यम्पि, माणव, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटवितो होति, निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति; इदम्पिस्स होति सीलस्मिं । (यथा १९४ याव २१० अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं) ।
" यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते
(१.१०.४५०-४५१)
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(१.१०.४५२-४५३)
१०. सुभसुत्तं
१८३
एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं- सन्तिकम्म पणिधिकम्मं भूतकम्मं भूरिकम्मं वस्सकम्मं वोस्सकम्मं वत्थुकम्मं वत्थुपरिकम्मं आचमनं न्हापनं जुहनं वमनं विरेचनं उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं कण्णतेलं नेत्ततप्पनं नत्थुकम्मं अञ्जनं पच्चञ्जनं सालाकियं सल्लकत्तियं दारकतिकिच्छा मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । यम्पि, माणव, भिक्खु यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुजित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं, सन्तिकम्मं पणिधिकम्म...पे०... ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति । इदम्पिस्स होति सीलस्मिं ।
४५२. “स खो सो, माणव, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सेय्यथापि, माणव, राजा खत्तियो मद्धावसित्तो निहतपच्चामित्तो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं पच्चत्थिकतो । एवमेव खो, माणव, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो । सो इमिना
अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, माणव, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।
४५३. “अयं खो सो, माणव, अरियो सीलक्खन्धो यस्स सो भगवा वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसि । अस्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीय"न्ति ।
“अच्छरियं, भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द ! सो चायं, भो आनन्द, अरियो सीलक्खन्धो परिपुण्णो, नो अपरिपुण्णो। एवं परिपुण्णं चाहं, भो, आनन्द, अरियं सीलक्खन्धं इतो बहिद्धा अजेसु समणब्राह्मणेसु न समनुपस्सामि । एवं परिपुण्णञ्च, भो आनन्द, अरियं सीलक्खन्धं इतो बहिद्धा अछे समणब्राह्मणा अत्तनि समनुपस्सेय्युं, ते तावतकेनेव अत्तमना अस्सु - ‘अलमेत्तावता, कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्जत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिकरणीयन्ति । अथ च पन भवं आनन्दो एवमाह - अस्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीय"न्ति ।
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१८४
दीघनिकायो-१
(१.१०.४५४-४५६)
समाधिखन्धो
४५४. “कतमो पन सो, भो आनन्द, अरियो समाधिक्खन्धो, यस्स सो भवं गोतमो वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिठ्ठापेसी"ति ?
"कथञ्च, माणव, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति ? इध, माणव, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही; यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति । सोतेन सदं सुत्वा...पे०... घानेन गन्धं घायित्वा... जिव्हाय रसं सायित्वा... कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा... मनसा धम्मं विज्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही; यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झादोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्यु... तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति । सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति । एवं खो, माणव, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति । ..
४५५. “कथञ्च, माणव, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति ? इध, माणव, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, साटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, माणव, भिक्खु सतिसम्पजञ्जन समन्नागतो होति।
४५६. "कथञ्च, माणव, भिक्खु सन्तुट्ठो होति ? इध, माणव, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन । सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति । सेय्यथापि, माणव, पक्खी सकुणो येन येनेव डेति, सपत्तभारोव डेति; एवमेव खो, माणव, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन । सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति । एवं खो, माणव, भिक्खु सन्तुट्ठो होति ।
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(१.१०.४५७-४६१)
१०. सुभसुत्तं
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४५७. “सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्जन समन्त्रागतो, इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो विवित्तं सेनासनं भजति अरजं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुर्ज। सो पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो निसीदति पल्लवं आभुजित्वा, उजु कायं पणिधाय, परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा ।
४५८. “सो अभिझं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति । ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति । थिनमिद्धं पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञ्जी सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति। उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति । विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति ।
___४५९. “सेय्यथापि, माणव, पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेय्य । तस्स ते कम्मन्ता समिज्झेय्युं । सो यानि च पोराणानि इणमूलानि तानि च ब्यन्तिं करेय्य, सिया चस्स उत्तरं अवसिटुं दारभरणाय । तस्स एवमस्स - “अहं खो पुब्बे इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेसिं । तस्स मे ते कम्मन्ता समिज्झिंसु । सोहं यानि च पोराणानि इणमूलानि तानि च ब्यन्तिं अकासिं, अस्थि च मे उत्तरं अवसिटुं दारभरणाया"ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं |
४६०. “सेय्यथापि, माणव, पुरिसो आबाधिको अस्स दुक्खितो बाळहगिलानो; भत्तञ्चस्स नच्छादेय्य, न चस्स काये बलमत्ता। सो अपरेन समयेन तम्हा आबाधा मुच्चेय्य, भत्तञ्चस्स छादेय्य, सिया चस्स काये बलमत्ता । तस्स एवमस्स- “अहं खो पुब्बे आबाधिको अहोसिं दुक्खितो बाळहगिलानो, भत्तञ्च मे नच्छादेसि, न च मे आसि काये बलमत्ता। सोम्हि एतरहि तम्हा आबाधा मुत्तो भत्तञ्च मे छादेति, अस्थि च मे काये बलमत्ता"ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
४६१. “सेय्यथापि, माणव, पुरिसो बन्धनागारे बद्धो अस्स । सो अपरेन समयेन तम्हा बन्धनागारा मुच्चेय्य सोत्थिना अब्भयेन, न चस्स किञ्चि भोगानं वयो। तस्स एवमस्स - “अहं खो पुब्बे बन्धनागारे बद्धो अहोसिं । सोम्हि एतरहि तम्हा बन्धनागारा
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दीघनिकायो-१
मुत्तो सोत्थिना अब्भयेन, नत्थि च मे किञ्चि भोगानं वयो" ति । सो ततो निदानं लभे पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
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४६२. “सेय्यथापि, माणव, पुरिसो दासो अस्स अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो । सो अपरेन समयेन तम्हा दासब्या मुच्चेय्य, अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो । तस्स एवमस्स “अहं खो पुब्बे दासो अहोसिं अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो । सोम्हि एतरहि तम्हा दासब्या मुत्तो अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो 'ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
--
४६३. “ सेय्यथापि, माणव, पुरिसो सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जेय्य दुभिक्खं सप्पटिभयं । सो अपरेन समयेन तं कन्तारं नित्थरेय्य, सोत्थिना गामन्तं अनुपापुणेय्य खेमं अप्पटिभयं । तस्स एवमस्स “अहं खो पुब्बे सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जिं दुब्भिक्खं सप्पटिभयं । सोम्हि एतरहि कन्तारं नित्थिण्णो, सोत्थिना गामन्तं अनुप्पत्तो खेमं अप्पटिभयन्ति । सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं ।
(१.१०.४६२-४६७)
-
४६४. " एवमेव खो, माणव, भिक्खु यथा इणं यथा रोगं यथा बन्धनागारं यथा दासब्यं यथा कन्तारद्धानमग्गं, एवं इमे पञ्च नीवरणे अप्पहीने अत्तनि समनुपस्सति ।
४६५. “ सेय्यथापि, माणव, यथा आणण्यं यथा आरोग्यं यथा बन्धनामोक्खं यथा भुजिस्सं यथा खेमन्तभूमिं । एवमेव भिक्खु इमे पञ्च नीवर पहीने अत्तनि समनुपस्सति ।
४६६.
" तस्सिमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति ।
४६७. “सो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं विवेकजेन
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( १.१०.४६८-४६९)
१०. सुभ
पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति ।
“सेय्यथापि, माणव, दक्खो न्हापको वा न्हापकन्तेवासी वा कंसथाले न्हानीयचुण्णानि आकिरित्वा उदकेन परिप्फोसकं परिप्फोसकं सन्देय्य । सायं न्हानीयपिण्डि स्नेहानुगता स्नेहपरेता सन्तरबाहिरा फुटा स्नेहेन, न च पग्घरणी । एवमेव खो, माणव, भिक्खु इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति । यम्पि, माणव, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कार्य विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति । इदम्पिस्स होति समाधिस्मिं ।
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४६८. “पुन चपरं, माणव, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं ज्ञानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति ।
“सेय्यथापि, माणव, उदकरहदो गम्भीरो उब्भिदोदको । तस्स नेवस्स पुरथिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं न दक्खिणाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न पच्छिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं न उत्तराय दिसाय उदकस्स आयमुखं, देवो च न कालेन कालं सम्मा धारं अनुपवेच्छेय्य । अथ खो तम्हाव उदकरहदा सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वा तमेव उदकरहदं सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, नास्स किञ्चि सब्बावतो उदकरहदस्स सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०... यम्पि, माणव, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा... पे० ... दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति । इदम्पस्स होति समाधिस्मिं ।
४६९. “पुन चपरं माणव, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो
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१८८
दीघनिकायो-१
(१.१०.४७०-४७१)
सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति ।
“सेय्यथापि, माणव, उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि परिपूरानि परिप्फुटानि, नास्स किञ्चि सब्बावतं उप्पलानं वा पदुमानं वा पुण्डरीकानं वा सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०... यम्पि, माणव, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति । इदम्पिस्स होति समाधिस्मिं ।।
४७०. “पुन चपरं, माणव, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति; नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति ।
“सेय्यथापि, माणव, पुरिसो ओदातेन वत्थेन ससीसं पारुपित्वा निसिन्नो अस्स, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अप्फुटं अस्स | एवमेव खो, माणव, भिक्ख...पे०... यम्पि, माणव, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थनमा अदक्खमसखं उपेक्खासतिपारिसद्धिं चतत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति; नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति । इदम्पिस्स होति समाधिस्मिं ।
४७१. “अयं खो सो, माणव, अरियो समाधिक्खन्धो यस्स सो भगवा वण्णवादी
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(१.१०.४७२-४७२)
१०. सुभसुत्तं
१८९
अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिढापेसि । अत्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीय"न्ति ।
"अच्छरियं, भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द ! सो चायं, भो आनन्द, अरियो समाधिक्खन्धो परिपुण्णो, नो अपरिपुण्णो। एवं परिपुण्णं चाहं, भो आनन्द, अरियं समाधिक्खन्धं इतो बहिद्धा अञ्जेसु समणब्राह्मणेसु न समनुपस्सामि । एवं परिपुण्णञ्च, भो आनन्द, अरियं समाधिक्खन्धं इतो बहिद्धा अछे समणब्राह्मणा अत्तनि समनुपस्सेय्युं, ते तावतकेनेव अत्तमना अस्सु - ‘अलमेत्तावता, कतमेत्तावता, अनुप्पत्तो नो सामञ्जत्थो, नत्थि नो किञ्चि उत्तरिकरणीय'न्ति । अथ च पन भवं आनन्दो एवमाह - ‘अस्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीय' "न्ति ।
पञ्जाक्खन्धो
४७२. "कतमो पन सो, भो आनन्द, अरियो पञआक्खन्धो, यस्स भो भवं गोतमो वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसी''ति ? ।
'सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते जाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो एवं पजानाति- “अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो; इदञ्च पन मे विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध"न्ति।
"सेय्यथापि, माणव, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अटुंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो । तत्रास्स सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा । तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य - "अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अटुंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्ड्सत्तं वा"ति। एवमेव खो, माणव. भिक्ख एवं समाहिते चित्ते परिसद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो एवं पजानाति – “अयं खो मे कायो रूपी
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१९०
दीघनिकायो-१
चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो । इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध "न्ति । " यम्पि, माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते... पे०... आनेञ्जप्पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो एवं पजानाति ... पे०... एत्थ पटिबद्ध "न्ति; इदम्पिस्स होति पञ्ञाय ।
४७३. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहर अभिनिन्नामेति । सो इमम्हा काया अञ्ञ कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं ।
(१.१०.४७३-४७४)
“सेय्यथापि, माणव, पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिकं पवाहेय्य । तस्स एवमस्स - " अयं मुञ्जो अयं ईसिका; अञ्ञो मुञ्जो अञ्ञा ईसिका; मुञ्जम्हा त्वेव ईसिका पवाळ्हा "ति । सेय्यथा वा पन, माणव, पुरिसो असिं कोसिया पवाहेय्य । तस्स एवमस्स “अयं असि, अयं कोसि; अञ्ञो असि, अञ्ञा कोसि; कोसिया त्वेव असि पवाहो 'ति । सेय्यथा वा पन, माणव, पुरिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्य । तस्स एवमस्स 'अयं अहि, अयं करण्डो; अञ्ञो अहि, अञ्ञो करण्डो; करण्डा त्वेव अहि उभतो 'ति । एवमेव खो, माणव, भिक्खु... पे०... यम्पि, माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति... पे०... । इदम्पिस्स होति पञ्ञाय ।
४७४. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्पनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं इद्विविधं पच्चनुभोति । एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा को होति । आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे । पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति, सेय्यथापि उदके । उदकेप अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथवियं । आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो । इमेपि चन्दिमसूरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति । याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति ।
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(१.१०.४७५-४७६)
१०. सुभसुत्तं
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“सेय्यथापि, माणव, दक्खो कुम्भकारो वा कुम्भकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकताय मत्तिकाय यञदेव भाजनविकति आकङ्घय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य । सेय्यथा वा पन, माणव, दक्खो दन्तकारो वा दन्तकारन्तेवासी वा सपरिकम्मकतस्मिं दन्तस्मिं यञ्जदेव दन्तविकतिं आकखेय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य । सेय्यथा वा पन, माणव, दक्खो सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं सुवण्णस्मिं यञदेव सुवण्णविकतिं आकर्केय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिष्फादेय्य । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०... यम्पि माणव भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति । एकोपि हुत्वा बहुधा होति ...पे०... याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति । इदम्पिस्स होति पाय ।
४७५. “सो एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च । सेय्यथापि, माणव, पुरिसो अद्धानमग्गप्पटिपन्नो । 'सो सुणेय्य भेरिसद्दम्पि मुदिङ्गसद्दम्पि सङ्खपणवदिन्दिमसद्दम्पि । तस्स एवमस्स - भेरिसद्दो इतिपि मुदिङ्गसद्दो इतिपि सङ्खपणवदिन्दिमसद्दो इतिपि । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०... । यम्पि माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च । इदम्पिस्स होति पञाय ।
४७६. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरियजाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति, सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानाति, वीतरागं वा चित्तं वीतरागं चित्तन्ति पजानाति, सदोसं वा चित्तं सदोसं चित्तन्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं वीतदोसं चित्तन्ति पजानाति, समोहं वा चित्तं समोहं चित्तन्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं वीतमोहं चित्तन्ति पजानाति, सङित्तं वा चित्तं सङित्तं चित्तन्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं विक्खित्तं चित्तन्ति पजानाति, महग्गतं वा चित्तं महग्गतं चित्तन्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं अमहग्गतं चित्तन्ति पजानाति, सउत्तरं वा चित्तं सउत्तरं चित्तन्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं अनुत्तरं
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दीघनिकायो-१
चित्तन्ति पजानाति, समाहितं वा चित्तं समाहितं चित्तन्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं असमाहितं चित्तन्ति पजानाति, विमुत्तं वा चित्तं विमुत्तं चित्तन्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाति ।
"सेय्यथापि, माणव, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनजातिको आदासे वा परिसुद्धे परियोदाते अच्छे वा उदकपत्ते सकं मुखनिमित्तं पच्चवेक्खमानो सकणिकं वा सकणिकन्ति जानेय्य, अकणिकं वा अकणिकन्ति जानेय्य । एवमेव खो, माणव, भिक्खु... पे०... । यम्पि, माणव, भिक्खु एवं समाहिते... पे०... आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरित्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो परसत्तानं पुरपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति, सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानाति ... पे०... अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानाति । इदम्पिस्स होति पञ्ञाय ।
(१.१०.४७७-४७७)
४७७. " सो एवं समाहिते चित्ते... पे०... आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति । सेय्यथिदं, एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे - “अमुत्रासि एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो । सो ततो चुतो अमुत्र उदपादि; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो; सो ततो चुतो इधूपपन्नो 'ति । इति साकारं सउद्देसं अनेक विहितं पुब्बेनिवासं अनुसरति ।
"सेय्यथापि, माणव, पुरिसो सकम्हा गामा अञ्जं गामं गच्छेय्य; तम्हापि गामा अञ्ञ गामं गच्छेय्य; सो तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागच्छेय्य । तस्स एवमस्स"अहं खो सकम्हा गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्र एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासिं एवं तुही अहोसिं । सो तम्हापि गामा अमुं गामं गच्छिं, तत्रापि एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासि एवं तुम्ही अहोसिं । सोम्हि तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागतो 'ति । एवमेव खो, माणव, भिक्खु... पे०... यम्पि, माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते... पे०... आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणाय चित्तं अभिनीहर
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(१.१०.४७८-४७९)
१०. सुभसुत्तं
१९३
अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं - एकम्पि जातिं...पे०... इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति । इदम्पिस्स होति पाय ।
४७८. “सो एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति - “इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना | ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना । इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्टिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना । ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना"ति । इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति ।
__ "सेय्यथापि, माणव, मज्झेसिङ्घाटके पासादो, तत्थ चक्खुमा पुरिसो ठितो पस्सेय्य मनुस्से गेहं पविसन्तेपि निक्खमन्तेपि रथिकायपि वीथिं सञ्चरन्ते मज्झेसिङ्घाटके निसिन्नेपि। तस्स एवमस्स - “एते मनुस्सा गेहं पविसन्ति, एते निक्खमन्ति, एते रथिकाय वीथिं सञ्चरन्ति, एते मज्झेसिङ्घाटके निसिन्ना''ति । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०...। यम्पि, माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति । इदम्पिस्स होति पाय ।
४७९. “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेजप्पत्ते आसवानं खयजाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनित्रामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति; इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं
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१९४
दीघनिकायो-१
(१.१०.४८०-४८०)
पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविनासवापि चित्तं विमुच्चति, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति जाणं होति। “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति।
“सेय्यथापि, माणव, पब्बतसङ्केपे उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो । तत्थ चक्खुमा पुरिसो तीरे ठितो पस्सेय्य सिप्पिकसम्बुकम्पि सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि चरन्तम्पि तिद्वन्तम्पि । तस्स एवमस्स - "अयं खो उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो। तत्रिमे सिप्पिकसम्बुकापि सक्खरकथलापि मच्छगुम्बापि चरन्तिपि तिठ्ठन्तिपी"ति । एवमेव खो, माणव, भिक्खु...पे०... यम्पि, . माणव, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते...पे०... आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति...पे०... आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति, विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति, “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया"ति पजानाति । इदम्पिस्स होति पाय ।
४८०. “अयं खो, सो माणव, अरियो पाक्खन्धो यस्स सो भगवा वण्णवादी अहोसि, यत्थ च इमं जनतं समादपेसि निवेसेसि पतिट्ठापेसि । नत्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीय"न्ति । “अच्छरियं, भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द ! सो चायं, भो आनन्द, अरियो पाक्खन्धो परिपुण्णो, नो अपरिपुण्णो । एवं परिपुण्णं चाहं, भो आनन्द, अरियं पञआक्खन्धं इतो बहिद्धा अनेसु समणब्राह्मणेसु न समनुपस्सामि । नत्थि चेवेत्थ उत्तरिकरणीयं । अभिक्कन्तं, भो आनन्द, अभिक्कन्तं, भो आनन्द ! सेय्यथापि, भो आनन्द, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य "चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती"ति । एवमेवं भोता आनन्देन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो । एसाहं, भो आनन्द, तं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं आनन्दो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत"न्ति ।
सुभसुत्तं निहितं दसमं।
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११. केवट्टसुत्तं
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थु
४८१. एवं मे सुतं एकं समयं भगवा नालन्दायं विहरति पावारिकम्बवने । अथ खो केवट्टो गहपतिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच - "अयं, भन्ते, नालन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना। साधु, भन्ते, भगवा एकं भिक्खुं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा, इद्धिपाटिहारियं करिस्सति; एवायं नाळन्दा भय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती”ति । एवं वुत्ते, भगवा केवट्टं गहपतिपुत्तं एतदवोच - " न खो अहं, केवट्ट, भिक्खूनं एवं धम्मं देसेमि- एथ तुम्हे, भिक्खवे, गिहीनं ओदातवसनानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोथा "ति ।
४८२. दुतियम्पि खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच "नाहं, भन्ते, भगवन्तं धंसेमि; अपि च, एवं वदामि - अयं, भन्ते, नालन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना । साधु, भन्ते, भगवा एकं भिक्खुं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति; एवायं नालन्दा भिय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती 'ति । दुतियम्पि खो भगवा केवट्टं गहपतिपुत्तं एतदवोच – “न खो अहं, केवट्ट, भिक्खूनं एवं धम्मं देसेमि - एथ तुम्हे, भिक्खवे, गिहीनं ओदातवसनानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोथा "ति ।
ततियम्पि खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच - " नाहं, भन्ते, भगवन्तं धंसेमि; अपि च, एवं वदामि - 'अयं, भन्ते, नालन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना
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दीघनिकायो-१
(१.११.४८३-४८४)
आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना । साधु, भन्ते, भगवा एक भिखं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति । एवायं नाळन्दा भिय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती'ति ।
इद्धिपाटिहारियं
४८३. "तीणि खो इमानि, केवट्ट, पाटिहारियानि मया सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदितानि । कतमानि तीणि ? इद्धिपाटिहारियं, आदेसनापाटिहारियं, अनुसासनीपाटिहारियं ।
४८४. “कतमञ्च, केवट्ट, इद्धिपाटिहारियं ? इध, केवट्ट, भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति । एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति; याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति ।
"तमेनं अञतरो सद्धो पसन्नो पस्सति तं भिक्खुं अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्तं - एकोपि हुत्वा बहुधा होन्तं, बहुधापि हुत्वा एको होन्तं; आविभावं तिरोभावं; तिरोकुटुं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानं गच्छन्तं सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोन्तं सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छन्तं सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमन्तं सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसन्तं परिमज्जन्तं याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्तं ।
“तमेनं सो सद्धो पसन्नो अञतरस्स अस्सद्धस्स अप्पसन्नस्स आरोचेति - “अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता । अमाहं भिक्खुं अद्दसं अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्तं - एकोपि हुत्वा बहुधा होन्तं, बहुधापि हुत्वा एको होन्तं...पे०... याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्त"न्ति ।
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(१.११.४८५-४८५)
११. केवट्टसुत्तं
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___ “तमेनं सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्य - "अत्थि खो, भो, गन्धारी नाम विज्जा। ताय सो भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति- एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति...पे०... याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेती''ति ।
"तं किं मञ्जसि, केवट्ट, अपि नु सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्या''ति ? “वदेय्य, भन्ते''ति । “इमं खो अहं, केवट्ट, इद्धिपाटिहारिये आदीनवं सम्पस्समानो इद्धिपाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि" ।
आदेसनापाटिहारियं
४८५. “कतमञ्च, केवट्ट, आदेसनापाटिहारियं? इध, केवट्ट, भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसति, चेतसिकम्पि आदिसति, वितक्कितम्पि आदिसति, विचारितम्पि आदिसति – “एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त'"न्ति ।
___ “तमेनं अञतरो सद्धो पसन्नो पस्सति तं भिक्खुं परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसन्तं, चेतसिकम्पि आदिसन्तं, वितक्कितम्पि आदिसन्तं, विचारितम्पि आदिसन्तं - "एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त"न्ति । तमेनं सो सद्धो पसन्नो अञतरस्स अस्सद्धस्स अप्पसन्नस्स आरोचेति - अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता । अमाहं भिक्खुं अद्दसं परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसन्तं, चेतसिकम्पि आदिसन्तं, वितक्कितम्पि आदिसन्तं, विचारितम्पि आदिसन्तं - "एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त"न्ति ।
“तमेनं सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्य – “अस्थि खो, भो, मणिका नाम विज्जा; ताय सो भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसति, चेतसिकम्पि आदिसति, वितक्कितम्पि आदिसति, विचारितम्पि आदिसति - एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त"न्ति ।
"तं किं मञ्जसि, केवट्ट, अपि नु सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं
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दीघनिकायो-१
(१.११.४८६-४८६)
वदेय्या'"ति ? “वदेय्य, भन्ते''ति । "इमं खो अहं, केवट्ट, आदेसनापाटिहारिये आदीनवं सम्पस्समानो आदेसनापाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि' |
अनुसासनीपाटिहारियं
४८६. “कतमञ्च, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं ? इध, केवट्ट, भिक्खु एवमनुसासति - “एवं वितक्केथ, मा एवं वितक्कयित्थ, एवं मनसिकरोथ, मा एवं मनसाकत्थ, इदं पजहथ, इदं उपसम्पज्ज विहरथा''ति । इदं वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं ।
“पुन चपरं, केवट्ट, इध तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, केवट्ट, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति।
___ “कथञ्च, केवट्ट, भिक्खु सतिसम्पजओन समन्नागतो होति ? इध, केवट्ट, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिजिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, केवट्ट, भिक्खु सतिसम्पजञ्जन समन्त्रागतो होति।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं...पे०... दुतियं झानं...
"पुन चपरं, केवट्ट, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- 'उपेक्खको सतिमा सुखविहारी'ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।
__ “पुन चपरं, केवट्ट, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं । आणदस्सनाय चित्तं
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(१.११.४८७-४८९)
११. केवट्टसुत्तं
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अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो एवं पजानाति- “अयं खो मे कायो रूप चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मोः इदञ्च पन मे विज्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध"न्ति ।... इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं ।... विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति। "खीणा जाति, वुसित ब्रह्मचरियं कतं करणीयं, नापरं इत्थत्तायाति पजानाति"...पे०... इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं।
“इमानि खो, केवट्ट, तीणि पाटिहारियानि मया सयं अभिज्ञा सच्छिकत्वा पवेदितानि'।
भूतनिरोधेसकभिक्खुवत्थु ४८७. “भूतपुब्बं, केवट्ट, इमस्मि व भिक्खुसङ्घ अञतरस्स भिक्खुनो एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि -- “कत्थ नु खो इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू'ति ?
४८८. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु तथारूपं समाधिं समापज्जि, यथासमाहिते चित्ते देवयानियो मग्गो पातुरहोसि । अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन चातुमहाराजिका देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चातुमहाराजिके देवे एतदवोच - “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधात वायोधातू'ति ?
___“एवं वुत्ते, केवट्ट, चातुमहाराजिका देवा तं भिक्खं एतदवोचुं- "मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति । अत्थि खो, भिक्खु, चत्तारो महाराजानो अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च । ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू'ति ।
४८९. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन चत्तारो महाराजानो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारो महाराजे एतदवोच – “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता
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दीघनिकायो-१
अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ? एवं वुत्ते, केवट्ट, चत्तारो महाराजानो तं भिक्खु एतदवोचुं- “मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु, आपोधातु जोधा वायोधाति । अत्थि खो, भिक्खु, तावतिंसा नाम देवा अम्हे अभि च पणीततरा च । ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ।
२००
४९०. " अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन तावतिंसा देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तावतिंसे देवे एतदवोच - “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ? एवं वुत्ते, केवट्ट, तावतिंसा देवा तं भिक्खु एतदवोचुं- “मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति । अत्थि खो, भिक्खु, सक्को नाम देवानमिन्दो अम्हेहि भ पणीततरो च । सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ।
४९१. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन सक्को देवानमिन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच - “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू ' 'ति ? एवं वुत्ते, केवट्ट, सक्को देवानमिन्दो तं भिक्खु एतदवोच - " अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु
(१.११.४९०-४९२)
जोधातु वायोधातूति । अत्थि खो, भिक्खु, यामा नाम देवा... पे०... सुयामो नाम देवपुत्तो... तुसिता नाम देवा... सन्तुस्सितो नाम देवपुत्तो... निम्मानरती नाम देवा.... सुनिम्मितो नाम देवपुत्तो... परनिम्मितवसवत्ती नाम देवा... वसवत्ती नाम देवपुत्तो अम्हेहि अभिक्कन्ततरो च पणीततरो च । सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ।
४९२. " अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन वसवत्ती देवपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा वसवत्तिं देवपुत्तं एतदवोच - “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू 'ति ? एवं
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(१.११.४९३-४९४)
११. केवट्टसुत्तं
२०१
वुत्ते, केवट्ट, वसवत्ती देवपुत्तो तं भिक्खं एतदवोच – “अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति । अस्थि खो, भिक्खु, ब्रह्मकायिका नाम देवा अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च । ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू'ति ।
४९३. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु तथारूपं समाधि समापज्जि, यथासमाहिते चित्ते ब्रह्मयानियो मग्गो पातुरहोसि । अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन ब्रह्मकायिका देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ब्रह्मकायिके देवे एतदवोच – “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू"ति ? एवं वुत्ते, केवट्ट, ब्रह्मकायिका देवा तं भिक्खु एतदवोचुं- "मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति । अत्थि खो, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं अम्हेहि अभिक्कन्ततरो च पणीततरो च। सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू"ति ।
__"कहं पनावुसो, एतरहि सो महाब्रह्मा''ति ? “मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थ वा ब्रह्मा येन वा ब्रह्मा यहिं वा ब्रह्मा; अपि च, भिक्खु, यथा निमित्ता दिस्सन्ति, आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवति, ब्रह्मा पातुभविस्सति, ब्रह्मनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवतीति । अथ खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा नचिरस्सेव पातुरहोसि ।
___४९४. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन सो महाब्रह्मा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं महाब्रह्मानं एतदवोच – “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू''ति ? एवं वुत्ते, केवट्ट, सो महाब्रह्मा तं भिक्खं एतदवोच- "अहमस्मि, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान"न्ति।
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२०२
दीघनिकायो-१
(१.११.४९५-४९६)
“दुतियम्पि खो सो, केवट्ट, भिक्खु तं महाब्रह्मानं एतदवोच - न खोहं तं, आवुसो, एवं पुच्छामि- “त्वमसि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान''न्ति । एवञ्च खो अहं तं, आवुसो, पुच्छामि - “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू''ति ?
“दुतियम्पि खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा तं भिक्खं एतदवोच- "अहमस्मि, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान''न्ति । ततियम्पि खो सो, केवट्ट, भिक्खु तं महाब्रह्मानं एतदवोच - न खोहं तं, आवुसो, एवं पुच्छामि-- "त्वमसि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान"न्ति । एवञ्च खो अहं तं, आवुसो, पुच्छामि – “कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू''ति?
४९५. “अथ खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा तं भिक्खं बाहायं गहेत्वा एकमन्तं अपनेत्वा तं भिक्खं एतदवोच – “इमे खो मं, भिक्खु, ब्रह्मकायिका देवा एवं जानन्ति, नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो अञातं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो अदिटुं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो अविदितं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मनो असच्छिकत'न्ति । तस्माहं तेसं सम्मुखा न ब्याकासि । अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति । तस्मातिह, भिक्खु, तुम्हेवेतं दुक्कटं, तुम्हेवेतं अपरद्धं, यं त्वं तं भगवन्तं अतिधावित्वा बहिद्धा परियेष्टुिं आपज्जसि इमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय । गच्छ त्वं, भिक्खु, तमेव भगवन्तं उपसङ्कमित्वा इमं पञ्हं पुच्छ, यथा च ते भगवा ब्याकरोति, तथा नं धारेय्यासीति ।
___ ४९६. “अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु - सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिजेय्य एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि । अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु मं आभेवादेत्वा एकमन्तं निसीदि, एकमन्तं निसिन्नो खो, केवट्ट, सो भिक्खु मं एतदवोच – “कत्थ नु खो, भन्ते, इमे
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(१.११.४९७-४९९)
११. केवट्टसुत्तं
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चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू"ति?
तीरदस्सिसकुणुपमा ४९७. “एवं वुत्ते, अहं, केवट्ट, तं भिक्खुं एतदवोचं - भूतपुर, भिक्खु, सामुद्दिका वाणिजा तीरदस्सिं सकुणं गहेत्वा नावाय समुदं अज्झोगाहन्ति । ते अतीरदक्खिनिया नावाय तीरदस्सिं सकुणं मुञ्चन्ति । सो गच्छतेव पुरस्थिमं दिसं, गच्छति दक्खिणं दिसं, गच्छति पच्छिमं दिसं, गच्छति उत्तरं दिसं, गच्छति उद्धं दिसं, गच्छति अनुदिसं। सचे सो समन्ता तीरं पस्सति, तथागतकोव होति । सचे पन सो समन्ता तीरं न पस्सति, तमेव नावं पच्चागच्छति । एवमेव खो त्वं, भिक्खु, यतो याव ब्रह्मलोका परियेसमानो इमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणं नाज्झगा, अथ मम व सन्तिके पच्चागतो । न खो एसो, भिक्खु, पञ्हो एवं पुच्छितब्बो- “कत्थ नु खो, भन्ते, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं - पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू"ति ?
४९८. “एवञ्च खो एसो, भिक्खु, पञ्हो पुच्छितब्बो -
“कत्थ आपो च पथवी, तेजो वायो न गाधति । कत्थ दीघञ्च रस्सञ्च, अणुं थूलं सुभासुभं । कत्थ नामञ्च रूपञ्च, असेसं उपरुज्झती'ति ।।
४९९. तत्र वेय्याकरणं भवति -
“विज्ञाणं अनिदस्सनं, अनन्तं सब्बतोपभं । एत्थ आपो च पथवी, तेजो वायो न गाधति ।।
एत्थ दीघञ्च रस्सञ्च, अणुं थूलं सुभासुभं । एत्थ नामञ्च रूपञ्च, असेसं उपरुज्झति । विज्ञाणस्स निरोधेन, एत्थेतं उपरुज्झती"ति ।।
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दीघनिकायो-१
५००. इदमवोच भगवा । अत्तमनो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दीति ।
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केवट्टत्तं निट्ठितं एकादसमं ।
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(१.११.५००-५००)
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१२. लोहिच्चसुत्तं
लोहिच्चब्राह्मणवत्थु ५०१. एवं मे सुतं- एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन सालवतिका तदवसरि । तेन खो पन समयेन लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधनं राजभोग्गं रञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायं, ब्रह्मदेय्यं ।
५०२. तेन खो पन समयेन लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स एवरूपं पापकं दिट्ठिगतं उप्पन्नं होति- “इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किञ्हि परो परस्स करिस्सति । सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अचं नवं बन्धनं करेय्य, एवंसम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि, किहि परो परस्स करिस्सती''ति ।
५०३. अस्सोसि खो लोहिच्चो ब्राह्मणो- “समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि सालवतिकं अनुप्पत्तो। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो - 'इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा' । सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञा सच्छिकत्वा पवेदेति । सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति । साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती"ति ।
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२०६
दीघनिकायो-१
(१.१२.५०४-५०८)
५०४. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो रोसिकं न्हापितं आमन्तेसि- “एहि त्वं, सम्म रोसिके, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा मम वचनेन समणं गोतमं अप्पाबाधं अप्पातकं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छ – लोहिच्चो, भो गोतम, ब्राह्मणो भवन्तं गोतमं अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्टानं बलं फासुविहारं पुच्छती"ति । एवञ्च वदेहि - "अधिवासेतु किर भवं गोतमो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना'"ति।
५०५. “एवं, भो''ति खो रोसिका न्हापितो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो रोसिका न्हापितो भगवन्तं एतदवोच - "लोहिच्चो, भन्ते, ब्राह्मणो भगवन्तं अप्पाबाधं अप्पातकं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति; एवञ्च वदेति- अधिवासेतु किर, भन्ते, भगवा लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना''ति । अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन ।
५०६. अथ खो रोसिका न्हापितो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन लोहिच्चो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा लोहिच्वं ब्राह्मणं एतदवोच – “अवोचुम्हा खो मयं भोतो वचनेन तं भगवन्तं - 'लोहिच्चो, भन्ते, ब्राह्मणो भगवन्तं अप्पाबाधं अप्पातङ्गं लहृवानं बलं फासूविहारं पुच्छति; एवञ्च वदेति - अधिवासेतु किर, भन्ते, भगवा लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घना'ति । अधिवुत्थञ्च पन तेन भगवता"ति ।
५०७. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा रोसिकं न्हापितं आमन्तेसि - "एहि त्वं, सम्म रोसिके. येन समणो गोतमो तेनपसङ्कमः उपसङ्कमित्वा समणस्स गोतमस्स कालं आरोचेहिकालो भो, गोतम, निहितं भत्त"न्ति । “एवं, भो''ति खो रोसिका न्हापितो लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि । एकमन्तं ठितो खो रोसिका न्हापितो भगवतो कालं आरोचेसि - "कालो, भन्ते, निहितं भत्तन्ति ।
५०८. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घन
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(१.१२.५०९-५०९)
१२. लोहिच्चसुत्तं
२०७
येन सालवतिका तेनुपसङ्कमि । तेन खो पन समयेन रोसिका न्हापितो भगवन्तं पिद्वितो पिट्टितो अनुबन्धो होति । अथ खो रोसिका न्हापितो भगवन्तं एतदवोच – “लोहिच्चस्स, भन्ते, ब्राह्मणस्स एवरूपं पापकं दिविगतं उप्पन्नं - ‘इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य - किहि परो परस्स करिस्सति । सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अझं नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि- किहि परो परस्स करिस्सती'ति । साधु, भन्ते, भगवा लोहिच्वं ब्राह्मणं एतस्मा पापका दिट्ठिगता विवेचेतू'ति । “अप्पेव नाम सिया रोसिके, अप्पेव नाम सिया रोसिके"ति ।
अथ खो भगवा येन लोहिच्चस्स ब्राह्मणस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञत्ते आसने निसीदि । अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्ख पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि ।
लोहिच्चब्राह्मणानुयोगो
५०९. अथ खो लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्जतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो लोहिच्चं ब्राह्मणं भगवा एतदवोच- "सच्चं किर ते. लोहिच्च. एवरूपं पापकं दिविगतं उप्पन्नं- 'इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्म अधिगच्छेय्य, कसलं धम्म अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्यकिहि परो परस्स करिस्सति । सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अचं नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि, किहि परो परस्स करिस्सती' "ति ? "एवं, भो गोतम" | "तं किं मञ्जसि लोहिच्च ननु त्वं सालवतिकं अज्झावससी'ति ? “एवं, भो गोतम'। “यो नु खो, लोहिच्च, एवं वदेय्य - ‘लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति । या सालवतिकाय समुदयसञ्जाति लोहिच्चोव तं ब्राह्मणो एकको परिभुजेय्य, न अजेसं ददेय्या'ति । एवं वादी सो ये तं उपजीवन्ति, तेसं अन्तरायकरो वा होति, नो वाति ?
“अन्तरायकरो, भो गोतम' । “अन्तरायकरो समानो हितानुकम्पी वा तेसं होति अहितानुकम्पी वाति ? “अहितानुकम्पी, भो गोतम"। “अहितानुकम्पिस्स मेत्तं वा तेसु चित्तं पच्युपट्टितं होति सपत्तकं वा''ति ? “सपत्तकं, भो गोतम'। “सपत्तके चित्ते
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दीघनिकायो-१
(१.१२.५१०-५११)
पच्चुपट्टिते मिच्छादिट्ठि वा होति सम्मादिट्ठि वा''ति ? “मिच्छादिट्ठि, भो गोतम' । “मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञ्जतरं गतिं वदामि - निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा”।
५१०. "तं किं मञ्जसि, लोहिच्च, ननु राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसती''ति ? “एवं, भो गोतम"। “यो नु खो, लोहिच्च, एवं वदेय्य - ‘राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसति; या कासिकोसले समुदयसञ्जाति, राजाव तं पसेनदि कोसलो एकको परिभुजेय्य, न अचेसं ददेय्या'ति । एवं वादी सो ये राजानं पसेनदि कोसलं उपजीवन्ति तुम्हे चेव अछे च, तेसं अन्तरायकरो वा होति, नो वाति?
“अन्तरायकरो, भो गोतम'। “अन्तरायकरो समानो हितानुकम्पी वा तेसं होति अहितानुकम्पी वा''ति ? “अहितानुकम्पी, भो गोतम'। “अहितानुकम्पिस्स मेत्तं वा तेसु चित्तं पच्चुपट्टितं होति सपत्तकं वा"ति ? “सपत्तकं, भो गोतम'। “सपत्तके चित्ते पच्चुपट्टिते मिच्छादिट्ठि वा होति सम्मादिट्ठि वा"ति? “मिच्छादिट्ठि, भो गोतम"। "मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञतरं गतिं वदामि - निरयं वा तिरच्छानयोनि वा"।
_ ५११. “इति किर, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य - "लोहिच्चो ब्राह्मणो सालवतिकं अज्झावसति; या सालवतिकाय समुदयसञ्जाति, लोहिच्चोव तं ब्राह्मणो एकको परिभुजेय्य, न अ सं ददेय्या'ति । एवंवादी सो ये तं उपजीवन्ति, तेसं अन्तरायकरो होति । अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्टितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्टिते मिच्छादिठ्ठि होति । एवमेव खो, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य – “इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्म अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किहि परो परस्स करिस्सति । सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अझं नवं बन्धनं करेय्य...पे०... करिस्सती"ति । एवंवादी सो ये ते कुलपुत्ता तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छन्ति, सोतापत्तिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, सकदागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अनागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अरहत्तम्पि सच्छिकरोन्ति, ये चिमे दिब्बा गब्भा परिपाचेन्ति दिब्बानं भवानं अभिनिब्बत्तिया, तेसं अन्तरायकरो होति, अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी
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(१.१२.५१२-५१३)
१२. लोहिच्चसुत्तं
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होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्टितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्टिते मिच्छादिठ्ठि होति । मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं. लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञतरं गतिं वदामि - निरयं वा तिरच्छानयोनि वा।
५१२. “इति किर, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य - “राजा पसेनदि कोसलो कासिकोसलं अज्झावसति; या कासिकोसले समुदयसञ्जाति, राजाव तं पसेनदि कोसलो एकको परिभुजेय्य, न अक्षेसं ददेय्या'ति । एवंवादी सो ये राजानं पसेनदि कोसलं उपजीवन्ति तुम्हे चेव अञ्चे च, तेसं अन्तरायकरो होति । अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्टितं होति, सपत्तके चित्ते पच्युपट्टिते मिच्छादिठ्ठि होति । एवमेव खो, लोहिच्च, यो एवं वदेय्य - "इध समणो वा ब्राह्मणो वा कुसलं धम्मं अधिगच्छेय्य, कुसलं धम्मं अधिगन्त्वा न परस्स आरोचेय्य, किहि परो परस्स करिस्सति । सेय्यथापि नाम...पे०... किहि परो परस्स करिस्सती"ति, एवं वादी सो ये ते कुलपुत्ता तथागतप्पवेदितं धम्मविनयं आगम्म एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छन्ति, सोतापत्तिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, सकदागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अनागामिफलम्पि सच्छिकरोन्ति, अरहत्तम्पि सच्छिकरोन्ति । ये चिमे दिब्बा गब्भा परिपाचेन्ति दिब्बानं भवानं अभिनिब्बत्तिया, तेसं अन्तरायकरो होति, अन्तरायकरो समानो अहितानुकम्पी होति, अहितानुकम्पिस्स सपत्तकं चित्तं पच्चुपट्टितं होति, सपत्तके चित्ते पच्चुपट्टिते मिच्छादिठ्ठि होति । मिच्छादिट्ठिस्स खो अहं, लोहिच्च, द्विन्नं गतीनं अञतरं गतिं वदामि - निरयं वा तिरच्छानयोनिं वा ।
तयो चोदनारहा
५१३. “तयो खोमे, लोहिच्च, सत्थारो, ये लोके चोदनारहा; यो च पनेवरूपे सत्थारो चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा। कतमे तयो ? इध, लोहिच्च, एकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्जत्थो अननुप्पत्तो होति । सो तं सामञ्जत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति - "इदं वो हिताय इदं वो सुखाया'ति । तस्स सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति । सो एवमस्स चोदेतब्बो - “आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्पा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्जत्थो अननुप्पत्तो, तं त्वं सामञ्जत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि - ‘इदं वो हिताय इदं वो
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दीघनिकायो-१
(१.१२.५१४-५१५)
सुखाया'ति । तस्स ते सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञ चित्तं उपट्टपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति । सेय्यथापि नाम ओसक्कन्तिया वा उस्सक्केय्य, परम्मुखिं वा आलिङ्गेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि – किञ्हि परो परस्स करिस्सती 'ति । अयं खो, लोहिच्च, पठमो सत्था, यो लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा ।
२१०
५१४. “पुन चपरं, लोहिच्च, इधेकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्ञत्थो अननुप्पत्ती होति । सो तं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति- “ इदं वो हिताय, इदं वो सुखाया " ति । तस्स सावका सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, न च वोक्कम्म सत्थुसासना वत्तन्ति । सो एवमस्स चोदेतब्बो - " आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्ञत्थो अननुप्पत्ती । तं त्वं सामञ्ञत्थं अननुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि - 'इदं वो हिताय इदं वो सुखाया 'ति । तस्स ते सावका सुस्सूसन्ति, सोतं ओदहन्ति, अञ्ञा चित्तं उपट्टपेन्ति, न च वोक्कम्म सत्थुसासना वत्तन्ति । सेय्यथापि नाम सकं खेत्तं ओहाय परं खेत्तं निद्दायितब्बं मञ्ञेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि किञ्हि परो परस्स करिस्सती 'ति । अयं खो, लोहिच्च, दुतियो सत्था, यो, लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका
अनवज्जा ।
५१५. “पुन चपरं, लोहिच्च, इधेकच्चो सत्था यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति, स्वास्स सामञ्ञत्थो अनुप्पत्तो होति । सो तं सामञ्ञत्थं अनुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेति – “ इदं वो हिताय इदं वो सुखाया "ति । तस्स सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति । सो एवमस्स चोदेतब्बो - " आयस्मा खो यस्सत्थाय अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो, सो ते सामञ्ञत्थो अनुप्पत्तो । तं त्वं सामञ्ञत्थं अनुपापुणित्वा सावकानं धम्मं देसेसि - 'इदं वो हिताय इदं वो सुखाया 'ति । तस्स ते सावका न सुस्सूसन्ति, न सोतं ओदहन्ति, न अञ्ञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थुसासना वत्तन्ति । सेय्यथापि नाम पुराणं बन्धनं छिन्दित्वा अञ्ञ नवं बन्धनं करेय्य, एवं सम्पदमिदं पापकं लोभधम्मं वदामि किञ्हि परो परस्स करिस्सती 'ति । अयं खो, लोहिच्च, ततियो सत्था, यो लोके चोदनारहो; यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जा ।
"
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(१.१२.५१६-५१६)
१२. लोहिच्चसुत्तं
२११
इमे खो, लोहिच्च, तयो सत्थारो, ये लोके चोदनारहा, यो च पनेवरूपे सत्थारो चोदेति, सा चोदना भूता तच्छा धम्मिका अनवज्जाति ।
नचोदनारहसत्थु ५१६. एवं वुत्ते, लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – “अत्थि पन, भो गोतम, कोचि सत्था, यो लोके नचोदनारहो''ति ? “अस्थि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो''ति । “कतमो पन सो, भो गोतम, सत्था, यो लोके नचोदनारहो"ति ?
__ "इध, लोहिच्च, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, लोहिच्च, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।...
"कथञ्च, लोहिच्च, भिक्खु सतिसम्पजओन समन्नागतो होति ? इध, लोहिच्च, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, लोहिच्च, भिक्खु सतिसम्पजज्ञेन समन्त्रागतो होति ।... सतो सम्पजानो थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति ।... पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो। यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा।
....पे०... दुतियं झानं...
“पुन चपरं, लोहिच्च, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति- “उपेक्खको सतिमा सुखविहारी"ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति ।
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२१२
दीघनिकायो- १
“पुन चपरं, लोहिच्च, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा, अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति । यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति, सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा ।....
" सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे कम्मनिये ठिते आने पत्ते आणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा ।...
(१.१२.५१७-५१७)
"
“सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयत्राणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति । सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं जानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं जानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति । तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति । विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति आणं होति । “खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया" ति पजानाति । यस्मिं खो, लोहिच्च, सत्थरि सावको एवरूपं उळारं विसेसं अधिगच्छति, अयम्पि खो, लोहिच्च, सत्था, यो लोके नचोदनारहो, यो च पनेवरूपं सत्थारं चोदेति सा चोदना अभूता अतच्छा अधम्मिका सावज्जा'ति ।
५१७. एवं वुत्ते, लोहिच्चो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच - "सेय्यथापि, भो गोतम, पुरिसो पुरिसं नरकपपातं पतन्तं केसेसु गहेत्वा उद्धारित्वा थले पतिट्ठपेय्य, एवमेवाहं भोता गोतमेन नरकपपातं पपतन्तो उद्धरित्वा थले पतिट्ठापितो । अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम, सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, परिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळहस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती 'ति । एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो
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१२. लोहिच्चत्तं
पकासितो । एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत "न्ति ।
लोहिच्चत्तं निट्ठितं द्वादसमं ।
( १.१२.५१७-५१७)
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२१३
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१३. तेविज्जसुत्तं
५१८. एवं मे सुतं - एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन मनसाकटं नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि । तत्र सुदं भगवा मनसाकटे विहरति उत्तरेन मनसाकटस्स अचिरवतिया नदिया तीरे अम्बवने ।
५१९. तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिञाता अभिञाता ब्राह्मणमहासाला मनसाकटे पटिवसन्ति, सेय्यथिदं - चङ्की ब्राह्मणो तारुक्खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति ब्राह्मणो जाणुसोणि ब्राह्मणो तोदेय्यो ब्राह्मणो अञ्चे च अभिञाता अभिज्ञाता ब्राह्मणमहासाला ।
५२०. अथ खो वासेट्ठभारद्वाजानं माणवानं जङ्घविहारं अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तानं मग्गामग्गे कथा उदपादि । अथ खो वासेठ्ठो माणवो एवमाह - “अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिनाति । भारद्वाजोपि माणवो एवमाह - “अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना''ति । नेव खो असक्खि वासेठ्ठो माणवो भारद्वाजं माणवं सापेतुं, न पन असक्खि भारद्वाजो माणवोपि वासेट्ठ माणवं सापेतुं ।
५२१. अथ खो वासेट्ठो माणवो भारद्वाजं माणवं आमन्तेसि - “अयं खो, भारद्वाज, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मनसाकटे विहरति उत्तरेन मनसाकटस्स अचिरवतिया नदिया तीरे अम्बवने । तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो- “इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो
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(१.१३.५२२-५२४)
१३. तेविज्जसुत्तं
२१५
भगवा''ति । आयाम, भो भारद्वाज, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कमिस्साम; उपसङ्कमित्वा एतमत्थं समणं गोतमं पुच्छिस्साम । यथा नो समणो गोतमो ब्याकरिस्सति, तथा नं धारेस्सामा''ति । “एवं, भो''ति खो भारद्वाजो माणवो वासेट्ठस्स माणवस्स पच्चस्सोसि ।
मग्गामग्गकथा
५२२. अथ खो वासेट्ठभारद्वाजा माणवा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु । सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु । एकमन्तं निसिन्नो खो वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच- "इध, भो गोतम, अम्हाकं जङ्घविहारं अनुचङ्कमन्तानं अनुविचरन्तानं मग्गामग्गे कथा उदपादि । अहं एवं वदामि'अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिनाति । भारद्वाजो माणवो एवमाह - 'अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना'ति । एत्थ, भो गोतम, अत्थेव विग्गहो, अस्थि विवादो, अत्थि नानावादो''ति ।।
५२३. “इति किर, वासेठ्ठ, त्वं एवं वदेसि - "अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, वायं अक्खातो ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना''ति । भारद्वाजो माणवो एवमाह- “अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय, य्वायं अक्खातो ब्राह्मणेन तारुक्खेना"ति। अथ किस्मिं पन वो, वासेठ्ठ, विग्गहो, किस्मिं विवादो, किस्मिं नानावादो"ति ?
५२४. “मग्गामग्गे, भो गोतम । किञ्चापि, भो गोतम, ब्राह्मणा नानामग्गे पञपेन्ति, अद्धरिया ब्राह्मणा तित्तिरिया ब्राह्मणा छन्दोका ब्राह्मणा बव्हारिज्झा ब्राह्मणा, अथ खो सब्बानि तानि निय्यानिका निय्यन्ति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताय ।
“सेय्यथापि, भो गोतम, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे बहूनि चेपि नानामग्गानि भवन्ति, अथ खो सब्बानि तानि गामसमोसरणानि भवन्ति; एवमेव खो, भो गोतम, किञ्चापि ब्राह्मणा नानामग्गे पञपेन्ति, अद्धरिया ब्राह्मणा तित्तिरिया
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२१६
दीघनिकायो-१
(१.१३.५२५-५२७)
ब्राह्मणा छन्दोका ब्राह्मणा बव्हारिज्झा ब्राह्मणा, अथ खो सब्बानि तानि निय्यानिका निय्यन्ति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया''ति ।
वासेट्ठमाणवानुयोगो
५२५. “निय्यन्तीति वासेठ्ठ वदेसि" ? “निय्यन्तीति, भो गोतम, वदामि' | “निय्यन्तीति, वासेट्ट, वदेसि" ? “निय्यन्तीति, भो गोतम, वदामि"। "निय्यन्तीति, वासेट्ठ, वदेसि' ? “निय्यन्ती''ति, भो गोतम, वदामि” ।
"किं पन, वासेठ्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकब्राह्मणोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो"ति ? “नो हिदं, भो गोतम'।
“किं पन, वासेठ्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो"ति ? “नो हिदं, भो गोतम'।
"किं पन, वासेट्ठ, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियपाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो"ति ? "नो हिदं, भो गोतम' ।
"किं पन, वासेट्ट, अत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगा येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो"ति ? “नो हिदं, भो गोतम" ।
५२६. “किं पन, वासेट्ठ, येपि तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु । तेपि एवमाहंसु - ‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा' "ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
५२७. "इति किर, वासेट्ठ, नस्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकब्राह्मणोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो । नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियोपि, येन ब्रह्मा
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(१.१३.५२८-५३०)
१३. तेविज्जसुत्तं
२१७
सक्खिदिट्ठो। नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं एकाचरियपाचरियोपि, येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो । नत्थि कोचि तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगा येन ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो । येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु - ‘मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा'ति । तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु- 'यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम । अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया' 'ति ।
५२८. “तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ।
“साधु, वासेट्ठ, ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति । 'अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया'ति, नेतं ठानं विज्जति ।
५२९. “सेय्यथापि, वासेट्ठ, अन्धवेणि परम्परसंसत्ता पुरिमोपि न पस्सति, मज्झिमोपि न पस्सति, पच्छिमोपि न पस्सति । एवमेव खो, वासेट्ठ, अन्धवेणूपमं मझे तेविज्जानं ब्राह्मणानं भासितं, पुरिमोपि न पस्सति, मज्झिमोपि न पस्सति, पच्छिमोपि न पस्सति । तेसमिदं तेविज्जानं ब्राह्मणानं भासितं हस्सक व सम्पज्जति, नामक व सम्पज्जति, रित्तक व सम्पज्जति, तुच्छक व सम्पज्जति ।
__ ५३०. “तं किं मञ्चसि, वासेट्ठ, पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अञ्जे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ती''ति ?
"एवं, भो गोतम, पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अछे चापि बहुजना,
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२१८
दीघनिकायो-१
(१.१३.५३१-५३३)
यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ती''ति ।
५३१. “तं किं मञ्जसि, वासे?, यं पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अछे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ति, पहोन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं- “अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स चन्दिमसूरियानं सहब्यताया"ति ? “नो हिदं, भो गोतम"।
“इति किर, वासेट्ट, यं पस्सन्ति तेविज्जा ब्राह्मणा चन्दिमसूरिये, अछे चापि बहुजना, यतो च चन्दिमसूरिया उग्गच्छन्ति, यत्थ च ओगच्छन्ति, आयाचन्ति थोमयन्ति पञ्जलिका नमस्समाना अनुपरिवत्तन्ति, तेसम्पि नप्पहोन्ति चन्दिमसूरियानं सहब्यताय मग्गं देसेतुं- “अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स चन्दिमसूरियानं सहब्यताया''ति |
५३२. “इति पन न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो। येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु- “मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा''ति । तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु - "यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम - अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया''ति ।
५३३. “तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं
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(१.१३.५३४-५३६)
१३. तेविज्जसुत्तं
२१९
अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ।
___“साधु, वासेठ्ठ, ते वत, वासेठ्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति- “अयमेव उजुमग्गो, अयमञ्जसायनो निय्यानिको, निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया''ति, नेतं ठानं विज्जति ।
जनपदकल्याणीउपमा
५३४. “सेय्यथापि, वासेट्ठ, पुरिसो एवं वदेय्य - “अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी, तं इच्छामि, तं कामेमी''ति । तमेनं एवं वदेय्युं- “अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं- खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वा सुद्दी वा'"ति ? इति पुट्ठो “नो''ति वदेय्य |
“तमेनं एवं वंदेय्युं - "अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं- एवंनामा एवंगोत्ताति वा, दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति, अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा''ति ? इति पुट्ठो 'नो'ति वदेय्य । तमेनं एवं वदेय्यु - “अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी''ति ? इति पुट्ठो “आमा''ति वदेय्य ।
५३५. “तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ।
__ ५३६. “एवमेव खो, वासेट्ट, न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो । नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिह्रो | येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति,
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दीघनिकायो-१
(१.१३.५३७-५४०)
वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु - "मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्मा'ति । तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु - "यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम - अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया'ति ।
५३७. "तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ।
“साधु, वासेठ्ठ, ते वत, वासेठ्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति- अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यतायाति नेतं ठानं विज्जति ।
निस्सेणीउपमा
५३८. “सेय्यथापि, वासेठ्ठ, पुरिसो चातुमहापथे निस्सेणिं करेय्य - पासादस्स आरोहणाय । तमेनं एवं वदेय्यु- “अम्भो पुरिस, यस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं - पुरथिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वा''ति ? इति पुट्ठो “नो''ति वदेय्य ।
“तमेनं एवं वदेय्यु - “अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि, न पस्ससि, तस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसी''ति ? इति पुट्ठो “आमा''ति वदेय्य ।
५३९. "तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती''ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ।
५४०. “एवमेव खो, वासेठ्ठ, न किर तेविज्जेहि ब्राह्मणेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो,
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(१.१३.५४१-५४४)
१३. तेविज्जसुत्तं
२२१
नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं आचरियपाचरियेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो, नपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं याव सत्तमा आचरियामहयुगेहि ब्रह्मा सक्खिदिट्ठो । येपि किर तेविज्जानं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि तेविज्जा ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति, तदनुभासन्ति, भासितमनुभासन्ति, वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं - अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, तेपि न एवमाहंसु- मयमेतं जानाम, मयमेतं पस्साम, यत्थ वा ब्रह्मा, येन वा ब्रह्मा, यहिं वा ब्रह्माति । तेव तेविज्जा ब्राह्मणा एवमाहंसु"यं न जानाम, यं न पस्साम, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेम, अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसहब्यताया''ति ।
__५४१. "तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, ननु एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती"ति ? “अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तेविज्जानं ब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जतीति ।
“साधु, वासेट्ठ । ते वत, वासेठ्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा यं न जानन्ति, यं न पस्सन्ति, तस्स सहब्यताय मग्गं देसेस्सन्ति । अयमेव उजुमग्गो अयमञ्जसायनो निय्यानिको निय्याति तक्करस्स ब्रह्मसब्यतायाति, नेतं ठानं विज्जति ।
अचिरवतीनदीउपमा
५४२. “सेय्यथापि, वासेट्ठ, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या । अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारस्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो । सो ओरिमे तीरे ठितो पारिमं तीरं अव्हेय्य – “एहि पारापारं, एहि पारापार''न्ति ।
५४३. "तं किं मासि, वासेट्ट, अपि नु तस्स पुरिसस्स अव्हायनहेतु वा आयाचनहेतु वा पत्थनहेतु वा अभिनन्दनहेतु वा अचिरवतिया नदिया पारिमं तीरं ओरिमं तीरं आगच्छेय्या'"ति ? "नो हिदं, भो गोतम"।
५४४. “एवमेव खो, वासेट्ट, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे
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२२२
दीघनिकायो-१
(१.१३.५४५-५४६)
पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना एवमाहंसु - "इन्दमव्हयाम, सोममव्हयाम, वरुणमव्हयाम, ईसानमव्हयाम, पजापतिमव्हयाम ब्रह्ममव्हयाम, महिद्धिमव्हयाम, यममव्हयामा''ति ।
"ते वत, वासेट्ट, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना अव्हायनहेतु वा आयाचनहेतु वा पत्थनहेतु वा अभिनन्दनहेतु वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती'ति, नेतं ठानं विज्जति ।
५४५. “सेय्यथापि, वासेट्ट, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या । अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारत्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो । सो ओरिमे तीरे दळहाय अन्दुया पच्छाबाहं गाळहबन्धनं बद्धो ।
"तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ, अपि नु सो पुरिसो अचिरवतिया नदिया ओरिमा तीरा पारिमं तीरं गच्छेय्या''ति ? “नो हिदं, भो गोतम'।
___ ५४६. “एवमेव खो, वासेट्ट, पञ्चिमे कामगुणा अरियस्स विनये अन्दूतिपि वुच्चन्ति, बन्धनन्तिपि वुच्चन्ति । कतमे पञ्च ? चक्खुविनेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया। सोतविद्येय्या सद्दा...पे०... घानविद्येय्या गन्धा... जिव्हाविद्येय्या रसा... कायविद्येय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया ।
"इमे खो, वासेट्ठ, पञ्च कामगुणा अरियस्स विनये अन्दूतिपि वुच्चन्ति, बन्धनन्तिपि वुच्चन्ति । इमे खो वासेट्ठ पञ्च कामगुणे तेविज्जा ब्राह्मणा गधिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञ्जा परिभुञ्जन्ति । ते वत, वासेट्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका, ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका, ते धम्मे समादाय वत्तमाना पञ्च कामगुणे गधिता मुच्छिता अज्झोपन्ना अनादीनवदस्साविनो अनिस्सरणपञा परिभुञ्जन्ता कामन्दुबन्धनबद्धा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती'ति, नेतं ठानं विज्जति ।
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(१.१३.५४७-५५०)
१३. तेविज्जसुत्तं
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५४७. “सेय्यथापि, वासे?, अयं अचिरवती नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या । अथ पुरिसो आगच्छेय्य पारस्थिको पारगवेसी पारगामी पारं तरितुकामो । सो ओरिमे तीरे ससीसं पारुपित्वा निपज्जेय्य ।
"तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, अपि नु सो पुरिसो अचिरवतिया नदिया ओरिमा तीरा पारिमं तीरं गच्छेय्या'"ति ? "नो हिदं, भो गोतम" |
५४८. “एवमेव खो, वासेठ्ठ, पञ्चिमे नीवरणा अरियस्स विनये आवरणातिपि वुच्चन्ति, नीवरणातिपि वुच्चन्ति, ओनाहनातिपि वुच्चन्ति, परियोनाहनातिपि वुच्चन्ति । कतमे पञ्च ? कामच्छन्दनीवरणं, व्यापादनीवरणं, थिनमिद्धनीवरणं, उद्धच्चकुक्कुच्चनीवरणं, विचिकिच्छानीवरणं। इमे खो, वासेट, पञ्च नीवरणा अरियस्स विनये आवरणातिपि बुच्चन्ति, नीवरणातिपि बुच्चन्ति, ओनाहनातिपि बुच्चन्ति, परियोनाहनातिपि बुच्चन्ति।
५४९. “इमेहि खो, वासेट्ठ, पञ्चहि नीवरणेहि तेविज्जा ब्राह्मणा आवुटा निवुटा ओनद्धा परियोनद्धा । ते वत, वासेठ्ठ, तेविज्जा ब्राह्मणा ये धम्मा ब्राह्मणकारका ते धम्मे पहाय वत्तमाना, ये धम्मा अब्राह्मणकारका ते धम्मे समादाय वत्तमाना पञ्चहि नीवरणेहि आवुटा निवुटा ओनद्धा परियोनद्धा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मानं सहब्यूपगा भविस्सन्ती'ति, नेतं ठानं विज्जति ।
संसन्दनकथा
५५०. "तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं. सपरिग्गहो वा ब्रह्मा अपरिग्गहो वा"ति ? “अपरिग्गहो, भो गोतम"। “सवेरचित्तो वा अवेरचित्तो वा''ति ? “अवेरचित्तो, भो गोतम' । "सब्यापज्जचित्तो वा अब्यापज्जचित्तो वा''ति? “अब्यापज्जचित्तो, भो गोतम” । “संकिलिट्ठचित्तो वा असंकिलिट्ठचित्तो वा"ति ? “असंकिलिट्ठचित्तो, भो गोतम” । "वसवत्ती वा अवसवत्ती वा''ति ? “वसवत्ती, भो गोतम" |
"तं किं मसि, वासेठ्ठ, सपरिग्गहा वा तेविज्जा ब्राह्मणा अपरिग्गहा वा''ति ? “सपरिग्गहा, भो गोतम'। “सवेरचित्ता वा अवेरचित्ता वा''ति ? “सवेरचित्ता, भो
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दीघनिकायो-१
(१.१३.५५१-५५४)
गोतम"। "सब्यापज्जचित्ता वा अब्यापज्जचित्ता वा''ति? “सब्यापज्जचित्ता, भो गोतम'। “संकिलिट्ठचित्ता वा असंकिलिट्ठचित्ता वा''ति ? “संकिलिट्ठचित्ता, भो गोतम" | "वसवत्ती वा अवसवत्ती वा"ति ? “अवसवत्ती, भो गोतम"।
५५१. “इति किर, वासेठ्ठ, सपरिग्गहा तेविज्जा ब्राह्मणा अपरिग्गहो ब्रह्मा । अपि नु खो सपरिग्गहानं तेविज्जानं ब्राह्मणानं अपरिग्गहेन ब्रह्मना सद्धिं संसन्दति समेती''ति ? “नो हिदं, भो गोतम'। “साधु, वासेठ्ठ, ते वत, वासेट्ट, सपरिग्गहा तेविज्जा ब्राह्मणा कायस्स भेदा परं मरणा अपरिग्गहस्स ब्रह्मनो सहब्यूपगा भविस्सन्ती'ति, नेतं ठानं विज्जति ।
“इति किर, वासेठ्ठ, सवेरचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा, अवेरचित्तो ब्रह्मा...पे०... सब्यापज्जचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा अब्यापज्जचित्तो ब्रह्मा... संकिलिट्ठचित्ता तेविज्जा ब्राह्मणा असंकिलिट्ठचित्तो ब्रह्मा... अवसवत्ती तेविज्जा ब्राह्मणा वसवत्ती ब्रह्मा, अपि नु खो अवसवत्तीनं तेविज्जानं ब्राह्मणानं वसवत्तिना ब्रह्मना सद्धिं संसन्दति समेती"ति ? "नो हिदं, भो गोतम” । “साधु, वासेठ्ठ, ते वत, वासेट्ट, अवसवत्ती तेविज्जा ब्राह्मणा कायस्स भेदा परं मरणा वसवत्तिस्स ब्रह्मनो सहब्यूपगा भविस्सन्ती''ति, नेतं ठानं विज्जति ।
५५२. “इध खो पन ते, वासेट्ट, तेविज्जा ब्राह्मणा आसीदित्वा संसीदन्ति, संसीदित्वा विसारं पापुणन्ति, सुक्खतरं मछे तरन्ति । तस्मा इदं तेविज्जानं ब्राह्मणानं तेविज्जाइरिणन्तिपि वुच्चति, तेविज्जाविवनन्तिपि वुच्चति, तेविज्जाब्यसनन्तिपि वुच्चती''ति ।
५५३. एवं वुत्ते, वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच - "सुतं मेतं, भो गोतम, समणो गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं जानातीति । "तं किं मञ्जसि, वासेठ्ठ । आसन्ने इतो मनसाकटं, न इतो दूरे मनसाकट'"न्ति ? “एवं, भो गोतम, आसन्ने इतो मनसाकटं, न इतो दूरे मनसाकट''न्ति ।
५५४. “तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, इधस्स पुरिसो मनसाकटे जातसंवद्धो। तमेनं मनसाकटतो तावदेव अवसटं मनसाकटस्स मग्गं पुच्छेय्युं । सिया नु खो, वासेट्ट, तस्स
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(१.१३.५५५-५५६)
१३. तेविज्जसुत्तं
२२५
पुरिसस्स मनसाकटे जातसंवद्धस्स मनसाकटस्स मग्गं पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा''ति ? “नो हिदं, भो गोतम" | "तं किस्स हेतु" ? “अमु हि, भो गोतम, पुरिसो मनसाकटे जातसंवद्धो, तस्स सब्बानेव मनसाकटस्स मग्गानि सुविदितानी''ति ।
“सिया खो, वासेट्ट, तस्स पुरिसस्स मनसाकटे जातसंवद्धस्स मनसाकटस्स मग्गं पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा, न त्वेव तथागतस्स ब्रह्मलोके वा ब्रह्मलोकगामिनिया वा पटिपदाय पुट्ठस्स दन्धायितत्तं वा वित्थायितत्तं वा। ब्रह्मानं चाहं, वासेट्ट, पजानामि ब्रह्मलोकञ्च ब्रह्मलोकगामिनिञ्च पटिपदं, यथा पटिपन्नो च ब्रह्मलोकं उपपन्नो, तञ्च पजानामी''ति ।
५५५. एवं वुत्ते, वासेट्ठो माणवो भगवन्तं एतदवोच – “सुतं मेतं, भो गोतम, समणो गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं देसेती"ति । “साधु नो भवं गोतमो ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गं देसेतु उल्लुम्पतु भवं गोतमो ब्राह्मणिं पज"न्ति । "तेन हि, वासेट्ठ, सुणाहि; साधुकं मनसि करोहि; भासिस्सामी''ति । “एवं भो''ति खो वासेठ्ठो माणवो भगवतो पच्चस्सोसि ।
ब्रह्मलोकमग्गदेसना ५५६. भगवा एतदवोच- “इध, वासेठ्ठ, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो...पे०... (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्)। एवं खो, वासेट्ठ, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति ।... "कथञ्च, वासेठ्ठ, भिक्खु सतिसम्पज न समन्नागतो होति ? इध, वासेट्ट, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिजिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, वासेट, भिक्खु सतिसम्पजञ्जन समन्नागतो होति ।... तस्सिमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति।
“सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं ।
225
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________________
२२६
दीघनिकायो-१
(१.१३.५५७-५५८)
तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति ।
____ “सेय्यथापि, वासेट्ठ, बलवा सङ्घधमो अप्पकसिरेनेव चतुद्दिसा विज्ञापेय्य; एवमेव खो, वासेट्ट, एवं भाविताय मेत्ताय चेतोविमुत्तिया यं पमाणकतं कम्मं न तं तत्रावसिस्सति, न तं तत्रावतिठ्ठति । अयम्पि खो, वासेठ्ठ, ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गो।
___ "पुन चपरं, वासेट्ठ, भिक्खु करुणासहगतेन चेतसा...पे०... मुदितासहगतेन चेतसा...पे०... उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति । तथा दुतियं । तथा ततियं । तथा चतुत्थं । इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति ।
__“सेय्यथापि, वासेठ्ठ, बलवा सङ्घधमो अप्पकसिरेनेव चतुद्दिसा विज्ञापेय्य । एवमेव खो, वासेठ्ठ, एवं भाविताय उपेक्खाय चेतोविमुत्तिया यं पमाणकतं कम्मं न तं तत्रावसिस्सति, न तं तत्रावतिठ्ठति । अयं खो, वासेट्ठ, ब्रह्मानं सहब्यताय मग्गो ।
५५७. "तं किं मञ्जसि, वासेट्ट, एवंविहारी भिक्खु सपरिग्गहो वा अपरिग्गहो वा"ति ? “अपरिग्गहो, भो गोतम"। "सवेरचित्तो वा अवेरचित्तो वा"ति? “अवेरचित्तो, भो गोतम"। "सब्यापज्जचित्तो वा अब्यापज्जचित्तो वा"ति? “अब्यापज्जचित्तो, भो गोतम"। "संकिलिट्ठचित्तो वा असंकिलिट्ठचित्तो वा"ति? "असंकिलिङ्कचित्तो, भो गोतम"। "वसवत्ती वा अवसवत्ती वा"ति ? "वसवत्ती, भो गोतम"।
“इति किर, वासेठ्ठ, अपरिग्गहो भिक्खु, अपरिग्गहो ब्रह्मा । अपि नु खो अपरिग्गहस्स भिक्खुनो अपरिग्गहेन ब्रह्मना सद्धिं संसन्दति समेती''ति ? “एवं, भो गोतम'' | “साधु, वासे?, सो वत वासेठ्ठ अपरिग्गहो भिक्खु कायस्स भेदा परं मरणा अपरिग्गहस्स ब्रह्मनो सहब्यूपगो भविस्सती"ति, ठानमेतं विज्जति ।
५५८. “इति किर, वासेट्ठ, अवेरचित्तो भिक्खु, अवेरचित्तो ब्रह्मा...पे०... अब्यापज्जचित्तो भिक्खु, अब्यापज्जचित्तो ब्रह्मा... असंकिलिट्ठचित्तो भिक्खु,
226
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________________
(१.१३.५५९-५५९)
१३. तेविज्जसुत्तं
२२७
असंकिलिट्ठचित्तो ब्रह्मा... वसवत्ती भिक्खु, वसवत्ती ब्रह्मा, अपि नु खो वसवत्तिस्स भिक्खुनो वसवत्तिना ब्रह्मना सद्धिं संसन्दति समेती''ति ? “एवं, भो गोतम'। “साधु, वासेट्ठ, सो वत, वासेट्ठ, वसवत्ती भिक्खु कायस्स भेदा परं मरणा वसवत्तिस्स ब्रह्मनो सहब्यूपगो भविस्सतीति, ठानमेतं विज्जती''ति ।
५५९. एवं वुत्ते, वासेट्ठभारद्वाजा माणवा भगवन्तं एतदवोचुं- “अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम ! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य 'चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती'ति । एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एते मयं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम, धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च । उपासके नो भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेते सरणं गते''ति ।
तेविज्जसुत्तं निहितं तेरसमं।
सीलक्खन्धवग्गो निद्वितो।
तस्सुद्दानं
ब्रह्मासामञ्जअम्बठ्ठ, सोणकूटमहालिजालिनी। सीहपोट्टपादसुभो केवट्टो, लोहिच्चतेविज्जा तेरसाति।
सीलक्खन्धवग्गपाळि निहिता।
227
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________________
Page #312
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________________
अ
अकटविधा - ४९, ५० अकण्टका- १२०, १२१ अकथंकथी - ६३,१८५ अकल्याणवाक्करणो - ८१, १०७ अकामकानं - १०१, ११६
अकालो - १३४, १३५, १८०, १८१
अकिच्चकारी - १२०
अकिरियं ४७
अकुसलन्ति - २१, २२, २३
अकुसलसङ्खाता- १४७, १४८
अकुसला - ६२, १४७, १४८, १८४
अक्खरिकं - ६, ५८
अक्खानं - ६,५८
अक्खित्तो - ९९, १००, १०५, १०६, १०८, ११४,
११६, १२२, १२४, १२५
अक्खं - ६, ५८
अखुद्दावकासो - ९९, १०१, १०६, १०८, ११५, ११६,
१२२, १२४ अगरु - ४६, ७८ अग्गबीजं - ६, ५७
अग्गळं - ७८
सद्दानुक्कमणिका
अग्गिवेस्सन - ५०
अग्गिहोमं - ८,५९
अग्यागारं - ८९, ९० अङ्गको - १०७, १०८
1
अङ्गविज्जा - ८, ६०
अङ्गीरसो - ९१, २१६, २१७, २१८, २२०, २२१ अङ्गुलिपतोदकेहि - ७९
अङ्गे - ९७, ९८
अङ्गं - ८, ५९, १०६, १०८ अचक्खुका - १६९ अचिरपरिनिब्बुते - १८०
अचिरवती नदी - २२१, २२२, २२३ अचिरूपसम्पन्न- १५९, १७९
अचेतयतो - १६४, १६५ अचेतयमानस्स - १६४, १६५
अचेलको - १५०, १५१, १५२, १५३
अचेलो कस्सपो- १४६, १४९, १५१, १५३, १५५,
१५९
अच्छो- ६७, ७४, १८९, १९४
अजयुद्धं - ६, ५८ अजलक्खणं ९, ६०
अजसतानि - ११२, १३२
अजातसत्तु - ४२, ४३, ४४, ४५, ५३, ५४, ५५, ७४,
७५
अजानतं - ३४, ३५, ३६
अजितो केसकम्बलो - ४३, ४८, ४९
अजिनक्खिपम्पिधारेति - १५०
अजिनप्पवेणिं - ७, ५८
अजिनम्पिधारेति - १५०
अजेळकपटिग्गहणा - ५, ५७
अज्झत्तं - ३२, ६२, ६३, ६५, ८७, १५५, १६३, १८३, १८४, १८५, १८७
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________________
[२]
दीघनिकायो-१
[अ-अ]
अज्झायको-७६, ९९, १०५, १०६, १०८, ११४, अत्तपटिलाभस्स-१७३,१७४ १२२, १२५
अत्तपटिलाभो-१७३, १७४,१७५,१७६,१७७,१७८ अञ्जनं -७, १०,५८, ६१, १८३
अत्ता - १२, १३, १४, १८, २४, २५, २६,२७, २८, अचखन्तिकेन-१६६
२९, ३०, ३१, ३२, १६१, १६५, १६६, १७०, अतिथियपुब्बो-१५९
१७१,१७२ अतिथिया-१५७,१५८
अदिन्नादानं-४, ५६ अञत्राचरियकेन - १६६
अदुक्खमसुखसुखुमसच्चसञा- १६३ अञत्रायोगेन-१६६
अदुक्खमसुखी अत्ता-२६ अञदत्थु-७९,८०,८८,८९
अदुक्खमसुखं-३२, ६७, ८७, १०९, १३१, १४१, अज्ञदत्थुदसो-१६,२०१,२०२
१४४,१५६, १६३, १८८, १९८, २१२ अञदिट्ठिकेन-१६६
अद्धरिया ब्राह्मणा-२१५ अझरुचिकेन-१६६
अद्धानमग्गप्पटिपन्नो-१,७०,१९१ अचा-६८, ८८, १३२, १५७, १६४, १६५, १६६, | अद्धवो - १८ १९०, २०९, २१०
अधम्मिका -२११,२१२ अजेन अझं ब्याकासि-५०
अधिच्चसमुप्पन्निका-२४, २५, ३४,३६,३८,३९ अजं जीवं अनं सरीरं - १६७
अधिपळ-१५७ अट्ठको-९१, २१६, २१७, २१८,२२०, २२१ अधिमुत्तिपदानि-११, २५, २६,३३, ३५, ३६, ३७, अट्ठङ्गानि-१२२
३८, ३९, ४० अटुङ्गिको मग्गो-१४०,१४९
अधिवासनं - ९५,११०,१३३,२०६ अटुंसो-६७, १८९
अधिविमुत्ति-१५७ अतक्कावचरा-११, १५, १९, २१, २४, २५, २६, । अधिसीलं-१५७ २७, २८, २९, ३१, ३३, ३४
अधोविरेचनं-१०,६१,१८३ अतिक्कन्तमानुसकेन-७२,७३,१४६, १४७, १९३ अनत्थसंहिता-८५ अतिथि-१०३,११९
अनत्तमनवाचं-४७,४८, ४९, ५०, ५१, ५२ अतिविकालो-९४
अनन्तवा-२६,२७,२८,१६७,१६८,१६९ अतीतो अत्तपटिलाभो-१७७
अनन्तसञ्जी- १९,२० अत्थङ्गमञ्च-१४,१९,२१,२४, २५, २७,२८,३१, | अनन्तो-२०,३०,१६४ ३३, ३४,४०
अनन्तं-३०,१६४, २०३ अत्थङ्गमा - ३०, ३२, ६७, ८७, १०९, १३१, १४१, अनब्भक्खातुकामा-१४६
१४४,१५६,१६३, १६४,१८८,१९८,२१२ अनभिज्झालुनोपि-१२३ अत्थजालन्तिपि-४१
अनभिभूतो-१६, २०१, २०२ अत्थवादी--४,५६,१४९
अनभिरति--१५ अत्थसंहिता-८५,१६९,१७०
अनभिसङ्घरोतो- १६४, १६५ अत्थसंहितं-५६,१६७
अनभिसम्भुणमानो-८८,८९,९० अस्थिकवतो-७९
अनवज्जसङ्घाता-१४८,१४९ अत्थिकवादं-४९
अनवज्जसुखं-६२,१५५, १८३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ अ-अ ]
अनवयो- ७७, १०५, १०६, १०८, १२२ अनागतो अत्तपटिलाभो - १७७
अनागामिफलम्पि - २०८, २०९ अनाथपिण्डिकस्स आरामे - १६०, १८० अनादीनवदस्साविनो - २२२
सद्दानुक्क
अनावटद्वारो - १२२, १२४ अनावत्तिधम्मो - १३९
अनाविलो ६७, ७४, १८९, १९४
अनासवं - १३९, १५१, १५२, १५३, १५४, १५५
अनिच्चा - १६, १७, १८, ३१
अनिदस्सनं - २०३
अनिम्माता - ४९, ५०
अनिय्यानं - ९, ६० अनिस्सरणपञा - २२२
अनीकदस्सनं - ६, ५८
अनुकुलयञ्ञानि - १२८ अनुञ्ञातपटिञ्ञातो- - ७७.
अनुत्तरो - ४१, ४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७,९८, १०२, ११२, ११३, ११७, १३४, १८२, २०५, २१४
अनुपक्कुट्टो - ९९, १००, १०५, १०६, १०८, ११४,
११६, १२२, १२४, १२५
अनुपादाविमुतो - १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८,
अनुसासनीपाटिहारियं - १९६, १९८, १९९ अनुसरति - ११, १२, १३, १६, १७, १८, २४, ७१,
3
७२, १९२, १९३
अनेकविहितं - ११, १२, १३, १४, ६९, ७१,७२,
१६०, १९०, १९१, १९२, १९३, १९६, १९७ अनेकंसिका - १६९
अनेकंसिकापि - १६९
अनेलगलाय - ९९, १०१, ११५, ११७
अन्तराकथा - २, ३, १६१
अन्तरायकरो - २०७, २०८, २०९
अन्तरायो - ३
अन्तलिक्खचरा - १५
अन्तवा - १९, २०, २६, २७, २८, १६७, १६८, १६९ अन्तसञ्ञी - १९, २०
अन्तानन्तिका - १९, २०, २१, ३४, ३६, ३८, ३९ अन्तोजालीकता - ४०
अन्दूतिपि - २२२
अन्धवेणूपमं - २१७ अन्नकथं - ७, ५८, १६० अन्नसन्निधिं – ६,५७ अपगतकाळकं - ९५, १३२
३१, ३३, ३४
अनुपुब्बिं कथं - ९५, १३२
अनुप्पदानं - १०, ६१, १८३
अनुबन्धा - २, ३
अनुभविस्सामाति - ११४
अनुमतिपक्खा - १२१, १२६
अनुयागिनो - १२६
अनुयोगपरिजेगुच्छा - २३ अनुयोगभया - २३
अपरिपुणो- १८३, १८९, १९४ अपानकत्तमनुयुतो - १५० अपानकोपि – १५०
अनुयोगमन्वाय - ११, १२, १३, १६, १७, १९, २०, अपापपुरेक्खारो - १०१,११७
२४
अपायमुखानि - ८८,८९,९०
अपायं - ७३, ९३, १४६, १९३ अपारुतघरा - १२०, १२१
अपच्चया- ४७
अपयानं - ९,६० पद्धति - ७९
अपरन्तकप्पिका - २६, ३३, ३५, ३७, ३९, ४० अपरन्तानुदिट्ठिनो - २६, ३३, ३५, ३७, ३९ अपरप्पच्चयो - ९५, १३३
अपरामस्तो - १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१,
[३]
३२, ३३
अपरिग्गहो - २२३, २२४, २२६
अपरिपक्कं - ४८
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________________
दीघनिकायो-१
[अ-अ]
१३२
अप्पकसिरेनेव-२२६
अभिजानाति-१२७ अप्पच्चयो-३
अभिजानामहं -४६, १२७ अप्पटिभयं-६४,१८६
अभिज्झादोमनस्सा - १८४ अप्पदुक्खविहारि-१४६,१४७
अभिञा-११, १५, १९, २१, २४, २५, २६, २७, अप्पदुट्ठचित्ता-१८
२८, २९,३१,३३,३४,४९,५५,७६,७७,८६, अप्पमत्तकं-३,१०
९७, ११२, १३४, १३९, १५१, १५२, १५३, अप्पमत्तो-१५९, १७९
१५४, १५५, १५९, १७३, १७४, १७५, १७६, अप्पमाणसञी-२६
१७९,१८२, १९६, १९९,२०५ अप्पमाणेन-२२६
अभिजातकोलो-७८ अप्पमादमन्वाय-११, १२, १३, १६, १७, १८, १९, । अभिआय-१६७,१६९, १७० २०,२४
अभिनिब्बत्तिया-२०८, २०९ अप्पसद्दकामो-१६१
अभिप्पसन्ना-१९५,१९६ अप्पसद्दो-७८
अभिभू-१६, २०१, २०२ अप्पसन्नो-१९७
अभिरतो-५३,५४ अप्पसमारम्भतरो-१२७, १२८, १२९, १३०, १३१, अभिरूपा-४२
अभिवादनं-१११ अप्पहीने-६५,१८६
अभिसङ्कतं - १२६ अप्पाटिहीरकतं-१७०, १७१,१७२, १७३, २१७, | अभिसआनिरोधो-१६१,१६२ २१८,२१९, २२०, २२१
अमनुस्सा-१०२, ११८ अप्पातङ्क-१८०,१८१,२०६
अमराविक्खेपिका-२१, २२, २३, २४, ३४, ३६, ३८, अप्पाबाधं-१८०,१८१,२०६ अप्पायुका-१६, १७,१८
अम्बट्ठो माणवो-७८, ७९, ८०, ८१, ८२, ८३, ९२, अबला-४७
९३,९४ अब्भाकुटिको-१०२, ११७
अम्बटुं-७७, ७८, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ९३ अब्भुज्जलनं-१०,६१
अम्बपिण्डिया - ४० अब्भोकासिकोपि-१५०
अम्बलट्ठिका-११३,११९ अब्भोकासो-५५, १८२
अम्बलट्ठिकायं-२,११२,११३,११८, ११९ अब्याकतं-१६६, १६७
अम्बवने-४२,४४,२१४ अब्यापज्जचित्तो-२२३, २२४, २२६
अम्बवनं - ४४ अब्यापज्जेन-२२६
अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य - ४७,४८,४९, ५०,५१, अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति-१५१, १५२, १५३, १५४, १५५
अयोकूट-८२ अब्यापन्नचित्तो-६३, १८५
अरनं-६३,१८५ अब्यासेकसुखं-६२, १८४
अरहतं-७६, ७७, ९७, ११२, १३४, १५९, १७९, अब्रह्मचरियं-४,५६
२०५ अब्राह्मणकारका-२२२, २२३
अरहत्तमग्गं-१२८
३९
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________________
[आ-आ]
सद्दानुक्कमणिका
अरहं-४४,५५,७६,७७,७८,८६,९७,९८,१०२, | असस्सतिका-३७
१०९, ११२, ११३, ११७, १३१, १३४, १३५, | असस्सतो-१८,१६७,१६८,१६९ १४०, १४३, १५५, १६२, १८२, १९८, २०५, असस्सतं-१५, १६, १७, १८, ३४, ३६, ३७ २११, २१४, २२५
असहितं-७,५९ अरियसीली-१०१,११६
असिलक्खणं-८, ६० अरियाय-६३, १८५
असेवितब्बसङ्खाता- १४७, १४८ अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो-६२, ६३, १५५, | असंकिलिट्ठचित्ता-२२४ १८३,१८५
अस्सत्थरं-७,५८ अरियो-१४०, १४९, १८२, १८३, १८४, १८८, अस्सयुद्धं-६,५८ १८९,१९४
अस्सरतनं-७७ अरोगो-२६, २७,२८,१७०, १७१,१७२
अस्सलक्खणं-९,६० अरूपी-२६, २७,२८,१६६,१७३
अस्सवाय-१२२, १२४ अरूपो अत्तपटिलाभो - १७३, १७५, १७६, १७७, अस्सादञ्च-१४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, १७८
३३.३४,४० अलमरिया - १४७, १४८, १४९
अस्सारोहा-४५,४६, ५२ अवण्णं-१,२,३
अस्सुमुखा- १२५, १२६ अवसट-२२४
अस्सुमुखानं -१०१, ११६ अवसवत्ती-२२३, २२४, २२६
अहितानुकम्पी- २०७, २०८, २०९ अविचारं - ३२, ६५, ८७, १६३, १८७
अहिविज्जा-८, ६० अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति-७४, ८८, ११०, | अहीनिन्द्रियो-२९,१६६,१७३
१३२,१४२, १४५,१५६, १९४, २१२ अवितक्कं-३२, ६५, ८७, १६३,१८७
आ अविनिपातधम्मो- १३९ अविपरिणामधम्मो-१६,१८
आकङ्घति-१५९ अविसंवादको-४, ५६
आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्जा-१६४ अवीरिया-४७
आकासानञ्चायतनूपगो-३० अवुसितवादेन -७९
आकासानञ्चायतनं -३०,१६४ अवुसितवायेव-७९
आकासं-६,४९, ५८ अवेरचित्ता - २२३
आकिञ्चायतनसुखुमसच्चसा-१६४ अवेरं - १५१, १५२,१५३,१५४,१५५
आकिञ्चचायतनूपगो-३० अव्हायनहेतु-२२१, २२२
आकिञ्चञायतनं-३०,१६४ असक्खि -८३,२१४
आगमेन्तु - ९८, ११३ असज्जमानं-१९६
आचमनं-१०, ६१,१८३ असञसत्ता-२४
आचरियन्तेवासी-२,३ असञीगब्भा-४८
आचरियामहयुगा-२१६, २१७ असलिं-२७,३५, ३७, ३८
आचामभक्खो-१५०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दीघनिकायो-१
[इ-इ]
आचारगोचरसम्पन्नो-५५,१८२ आचिक्खेय्य -७४, ९६, ११०, १३२, १५८, १७८,
१९४, २१२, २२७ आजीवकसते-४८ आणण्यं-६५, १८६ आतप्पमन्वाय-११,१२,१३,१६,१७,१९,२०,२४ आतापी-१५९,१७९ आदासपऽहं- १०, ६१ आदिकल्याणं-५५,७६,७७, ८६, ९७, ११२, १३४,
१८२, २०५ आदिच्चुपट्टानं-१०,६१ आदिब्रह्मचरियका-१६९,१७० आदीनवञ्च -१४,१९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१,
३३,३४,४० आदीनवं - ९५,१३२, १९७, १९८ आदेसनापाटिहारियं-१९६, १९७ आनन्द -४१, १८१, १८२,१८३,१८४, १८९,१९४ । आनिसंसं पकासेसि - ९५, १३२ आनुयन्ता --१२१,१२३,१२६ आनेञ्जप्पत्ते - ६७,६८,६९,७०,७१,७२,७३,७४,
८७,८८,१०९,११०,१३१,१३२,१४१,१४४, १५६, १८९, १९०, १९१, १९२, १९३, १९४,
आरद्धचित्ता-१५९ आराचारी-४,५६ आरामो-९३, १६० आरोग्यं-१०,६१, ६५, १८६ आलोकसञी-६३, १८५ आवरणातिपि-२२३ आवाहनं-१०,६१ आवाहविवाहविनिबद्धा-८६ आवाहविवाहो-८६ आवाहो-८६ आविभावं-६९,१९०,१९६ आवुटा-२२३ आवुधलक्खणं-८,६० आसनपटिक्खित्तो-१५० आसन्दिपञ्चमा-४९ आसन्दिं-७,५८ आसवनिरोधोति-७४, ८८,११०,१३२,१४१,१४४,
१५६, १९३, २१२ . आसवसमुदयोति-७४, ८८, ११०, १३२, १४१,
१४४,१५६,१९३,२१२ आसवाति-७४, ८८, ११०, १३२, १४१, १४४,
१५६, १९३, २१२ आसवानं खयाणाय -७३, ७४, ८८, ११०, १३२,
१४१,१४४,१५६,१९३, १९४, २१२ आळारिका -४५,४६, ५२
आपायिकोपि-९० आपोकायो-५० आपोधातु-१९९,२००, २०१,२०२, २०३ आबाधिको-६४,१८५ आभस्सरकाया-१५ आभस्सरसंवत्तनिका-१५ आमकधज्ञपटिग्गहणा-५,५७ आमकमंसपटिग्गहणा-५, ५७ आमिससन्निधिं-६,५७ आमुक्कमणिकुण्डलाभरणा-९१ आयमुखं -६६, १८७ आयस्मा नागितो भगवतो उपट्ठाको -१३४ आयुक्खया-१५
इच्छानङ्गलवनसण्डे -७६,७७ इच्छानङ्गले -७६,७७ इच्छितं-१०५ इणमूलानि-६३.६४, १८५ इतिपि सो भगवा-४४, ७६, ७७, ९७, ९८, १०२,
११२, ११३,११७,१३४, २०५,२१४ इतिहासपञ्चमानं -७७, ९९, १०५, १०६, १०८,
११४,१२२,१२५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ई-उ]
सद्दानुक्कमणिका
[७]
इथिकथं -७,५८,१६०
१०९, १३१, १४०, १४३, १५६, १६२, १८४, इथिकुमारिकपटिग्गहणा-५,५७
१९८,२११, २२५ इस्थिरतनं-७७
उच्चासद्दमहासदा--८३,१२७ इथिलक्खणं-८,६०
उच्चासयनमहासयना-५,७,५७,५८ इद्धाभिसङ्खार- ९२, ९४
उच्छादनं-७,५८ इद्धिपाटिहारिये आदीनवं-१९७
उच्छिन्नभवनेत्तिको-४० इद्धिपाटिहारियं-१९५, १९६
उच्छेदवादा-२९, ३१, ३५, ३७, ३८, ३९ इद्धिविधाय-६९,१९०,१९१
उजुविपच्चनीकवादा-२,३ इद्धिविधं -६९, १९०, १९१, १९६,१९७
उण्हीसं-७, ५८ इन्दमव्हयाम- २२२
उत्तरिकरणीयं-१९४ इन्द्रियसते-४८
उत्तरितरं – १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो-६२, ६३, १८४, १८५
३२,३३, ४०,७४ इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो-५६, ६२,१५५,१८२, १८४ उत्तरिमनुस्सधम्मा-१९५,१९६ इब्भवादं -७९, ८०
उत्तानमुखो-१०२, ११७ इब्भा-७९, ८०, ९०
उदकपत्ते-७१,१९२ इसयो मन्तानं कत्तारो-९१,२१६,२१७,२१८,२१९, उदकरहदो गम्भीरो उब्भिदोदको-६६, १८७ २२१
उदकस्स आयमुखं-६६,१८७ इस्सरो-१६, २०१, २०२
उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो-१५०, १५१, १५२, १५३,
१५४ उदग्गचित्तं-९५, १३२
उदपादि-२, ९५, १०३, १२०, १३३, १६१,१६२, ईसानमव्हयाम- २२२
१९९, २१४, २१५ उदयभद्दो-४५ उद्दलोमि-७,५८
उद्धग्गिकं-४६, ५२ उक्कट्ठाय-९३, ९४, ९६
उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति-६३,१८५ उक्कट्ठ-७६
उद्धच्चकुक्कुच्चं-६३, १८५ उक्कापातो- ९,६०,६१
उद्धमाघातनिका-२६, २७, २८, ३५, ३६, ३७, ३८, उक्कासितसद्दो-४४ उक्किण्णपरिखासु- ९२
उद्धंविरेचनं-१०, ६१, १८३ उक्कुटिकोपि-१५०
उपक्खटो होति-११२ उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा-५, ५७
उपट्ठाको-१३४, १८१ उक्कंसावकंसे-४८
उपनिज्झायन्ता-१७,१८ उग्गमनं-९,६०,६१
उपपज्जन्ति-१२,१३,१४,१५ उग्गा -४५,४६, ५२
उपपज्जमाने-७२,७३, १९३ उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति - ६२, ८७, | उपयानं-९, ६०
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________________
[८]
दीघनिकायो-१
[ए-ए]
उपरुज्झति-२०३
एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका-१५, १६, १७, उपसमाय-१६७,१६९, १७०
१८,३४, ३६ उपसम्पदं-१५९,१७९
एकत्तसञी अत्ता-२६ उपहतायं-७५
एकन्तदुक्खी अत्ता - २६ उपादानपच्चया-३९
एकन्तपरिपुण्णं-५५, १८२ उपादानपरिजेगुच्छा-२२
एकन्तपरिसुद्धं -५५, १८२ उपादानभया-२२
एकन्तलोमि-७,५८ उपादानं-२२,३९
एकन्तसुखस्स- १७०, १७१, १७२, १७३ उपासककुलानि- ९६
एकन्तसुखी अत्ता-२६,१७०, १७१,१७२ उपेक्खको-३२, ६६, ८७,१०९,१३१,१४१,१४४, एकपस्सयिकोपि-१५० १५६, १६३,१८७, १८८, १९८,२११
एकभत्तिको-५, ५७ उपेक्खासतिपारिसुद्धिं -३२, ६७, ८७, १०९, १३१, | एकरत्तिवासं-२
१४१,१४४, १५६, १६३,१८८, १९८,२१२ एकसालके-१६० उपेक्खासहगतेन - २२६
एकागारिको-१५० उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्जा-१६३
एकागारिकं-४६ उप्पथगमनं - ९,६०,६१
एकालोपिको-१५० उप्पलिनियं-६६, १८८
एकोदिभावं -३२, ६५, ८७, १६३, १८७ उप्पातं-८,५९
एकसभावितो समाधि-१३६,१३७ उप्पिलाविता-३
एकसिका -१६९, १७० उन्भट्ठकोपि-१५०
एकंसिकोधम्मो-१६९ उभतोलोहितकूपधानं-७,५८
एवमायुपरियन्तो-११,१२,१३, १४,७२, १९२ उभयंसभावितोसमाधि-१३८
एवमाहारो-११, १२, १३, १४,७१,७२, १९२ उम्मुज्जनिमुज्ज-६९, १९०, १९६
एवंअभिसम्परायाति-१४, १९, २१, २४, २५, २७, उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति- ४०
२८,३१,३२, ३३ उय्योधिकं-६,५८
एवंगतिका-१४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, उरब्भसतानि-११२,१३२
३२, ३३ उरुजायं-१४६
एवंगहिता - १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, उलूकपक्खिकम्पि-१५०
३२,३३ उसभयुद्धं-६, ५८
एवंगोत्तो-११, १२, १३, १४,७१,७२,१९२ उसभलक्खणं-९,६०
एवंदिट्ठिनो-१७०, १७१, १७२ उसभसतानि - ११२, १३२
एवंपटिपन्ना-१७०,१७१ उसुलक्खणं-८, ६०
एवंमहिद्धिके-६९ एवंवण्णो -११, १२, १३, १४,७१,७२,१९२ एवंवादी-२९, ३१, २०८, २०९
एवंविपाको-९, ६०, ६१ एकच्चअसस्सतिका - १५, १६, १७, १८, ३४, ३६ एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी-११, १२, १३, १४, ७२,
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________________
[ओ-क]
सद्दानुक्कमणिका
१९२
कणभक्खो-१५० एसिकट्ठायिट्ठिता-४९, ५०
कणहोम-८,५९ एसिकट्ठायिट्ठितो - १२, १३, १४
कण्टकापस्सयिकोपि-१५० एहिभद्दन्तिको-१५०
कण्णकत्थले-१४६ एहिस्वागतवादी- १०२, ११७
कण्णजप्पनं-१०,६१ एळकमन्तरं- १५०
कण्णतेलं-१०,६१, १८३
कण्णसुखा-४, ५६ ओ
कणिकालक्खणं-९
कण्हा-७९,९०,१४७, १४८ ओकारं-९५,१३२
कण्हायना-८१, ८२, ८३ ओक्काको-८०, ८१, ८३, ८४
कण्हो-८१, ८३, ८४ ओक्काकं-८०,८३
कतपरप्पवादा-२३,१४७ ओक्खित्तपलिघासु-९२
कत्ता-१६, २०१,२०२ ओगमनं - ९, ६०, ६१
कथासल्लापो-७८,७९,९३,९४ ओट्ठद्धोपि-१३५, १३६
कदलिमिगपवरपच्चत्थरणं-७,५८ ओदनकुम्मासूपचयो- ६७, ६८, ८७, १०९, १८९, कन्तारद्धानमग्गं-६४,६५,१८६ १९०,१९९
कन्दमूलफलभोजनो-८८,८९ ओनाहनातिपि-२२३
कपिलवत्थु-७९,८० ओनीतपत्तपाणिं- ९५, १११, १३३, २०७
कप्पका-४५,४६, ५२ ओपपातिको-१३९
कबळीकाराहारभक्खो-२९,१६५, १६६,१७३ ओरमत्तकं-३, १०
कम्मकारो-५३ ओरम्भागियानं-१३९
कम्मवादी-१०१,११७ ओरिमे - २२१, २२२, २२३
कम्मानि-४७ ओवादपटिकराय- १२२, १२४
कम्मानं-२३,४९, ५१ ओसधीनं-१०,६१,१५५,१८३
कम्मुनो-४७ ओळारिका-४०,१६४,१६५
कयविक्कया-५, ५७ ओळारिको-१६५, १६६, १७३, १७४, १७६, १७७, | करकण्डं-८० १७८
करकारको-५४ ओळारिकं-३२,१६५
करणीयो-१२२, १२३ करुणासहगतेन – २२६ कल्याणवाक्करणो- ८१, ८२,९९,१०१,१०७,११५,
११७ कच्चायनो-४३, ४९, ५०
कल्याणवाचो- ९९,१०१,११५,११७ कच्चायनं-४३,४९
कल्याणो कित्तिसद्दो-४४,७६,७७, ९७, ९८, १०२, कच्छपलक्खणं- ९, ६०
११२,११३, ११७,१३४, २०५, २१४ कट्टिस्सं-७,५८
कल्लचित्तं-९५,१३२
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________________
[१०]
दीघनिकायो-१
[ख-ख]
१५९
कसिगोरक्खे-१२०
कुमारिकपऽहं-१०,६१ कस्सप-४६,१३५,१४६,१४७,१४८,१४९,१५१, कुमारिलक्खणं-८, ६० १५२, १५३, १५४, १५५, १५६, १५७, १५८, | कुम्भकारन्तेवासी-६९,१९१
कुम्भकारा-४५,४६,५२ कस्सपं-४२,४६
कुम्भट्ठानकथं-७,५८,१६० कळोपिमुखा - १५०
कुम्भथूणं-६,५८ कापोतकानि-४९
कुम्भदासियापि-१५२,१५३,१५४ कामगुणा-२२२
कुसचीरम्पि-१५० कामच्छन्दनीवरणं-२२३
कुसलसङ्ख्याता - १४८, १४९ कामलापिनी-८०
कुसलो-१६२ कामसञ-१६३
कुसलं- २०५, २०७, २०८, २०९ कामावचरो-२९
कुहका-८,५९ कामासवापि चित्तं विमुच्चति-७४,८८, ११०,१३२, कुहनलपना-८, ५९ १४२, १४५, १५६, १९४, २१२
कूटट्ठा-४९, ५० कामूपसंहिता-२२२
कूटदन्तो ब्राह्मणो – ११२, ११३, ११४, ११६, ११९, कामेसुमिच्छाचारा-१२३, १३०
१३२, १३३ कायकम्मवचीकम्मेन - ५६,१५५,१८२
कूटदन्तं-११४, ११५,११९, १२७,१३२, १३३ कायदुच्चरितेन-७२,७३, १९३
कूटागारसालायं-१३४ कायवि य्या फोठुब्बा-२२२
केवट्टन्तेवासी-४० कायसुचरितेन-७३, १९३
केवट्टो-४०, १९५, २०४, २२७ कायानमन्तरेन-५०
केवलपरिपुण्णं-५५,७६,७७,८६,९७,११२,१३४, कायो-१८,४०, ६५, ६७,६८,८७, १०९, १६३, १८२, २०५ १८६, १८९, १९९, २२५
केसमस्सुलोचकोपि-१५० कालवादी-४, ५६, १४९
कोतूहलसालाय-१६१ कासिकोसलं - २०८, २०९
कोमारभच्चो-४४ किङ्कारपटिस्सावी - ५३
कोसम्बियं-१४०,१४३ कित्तिसद्दो-४४, ७६, ७७, ९७, ९८, १०२, ११२, कोसलका -१३४,१३५ ११३,११७,१३४, २०५, २१४
कोसलानं ब्राह्मणगामो-७६, २१४ किरियवादी-१०१,११७
कोसलेसु-७६,७७, २०५, २१४ कुक्कुटयुद्धं-६, ५८
कोसेय्यं-७, ५८ कुक्कुटलक्खणं-९, ६०
कंसथाले-६५,१८७ कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा-५, ५७ कुत्तक-७,५८ कुत्तवालेहिवळवारथेहि-९१ कुदालपिटकं-८८,८९
खत्तविज्जा-८,६० कुमारलक्खणं-८, ६०
खत्ता-- ९८,११३
10
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________________
[ग-घ]
सद्दानुक्कमणिका
[११]
खत्तिया-८०, ८४, ८५, १२१, १२३, १२६ खत्तियाभिसेकेन-८४ खत्तियी-१७०, २१९ खन्धबीजं-६,५७ खन्धानं-१८१ खयत्राणाय -७३, ७४, ८८, ११०, १३२, १४१,
१४४, १५६, १९३, १९४,२१२ खलिकं-६, ५८ खाणुमतं-११२, ११३, ११५,११८, ११९ खादनीयेन -९५,१११,१३३, २०७ खारिविधमादाय-८८,८९ खिड्डापदोसिका नाम देवा-१७ खिपितसद्दो-४४ खीणकामरागो-१०१,११७ खीणा जाति-७४, ८८, ११०, १३२, १४२, १४५,
१५६,१५९, १७९, १९४, १९९, २१२ खुरप्पं-८३, ८४ खेत्तवत्थुपटिग्गहणा-५,५७ खेमन्तभूमि-६५, १८६
गहपतिको-५४ गहपतिनेचयिका-१२१,१२४,१२६ गहपतिरतनं-७७ गामकथं-७,५८,१६० गामघातापि दिस्सन्ति-१२० गामधम्मा-५६ गाळ्हबन्धनं-२२२ गिज्झकूटे - १५८ गिरिगुहं-६३,१८५ गुत्तद्वारो-५६, ६२, १५५, १८२, १८४ गोतमसावकसङ्घो-१४८,१४९ गोतमो-४, ५, ७६, ७७, ७८, ७९,८१, ८२, ८३,
९२, ९३, ९४, ९५, ९६, ९७, ९८, ९९, १००, १०१, १०२, १०३, १०४, १०५, १०७, ११०, १११, ११२, ११३, ११४, ११५, ११६, ११७, ११८, ११९, १२७, १३२, १३३, १३४, १४६, १४७, १४८, १४९, १५७, १५८, १६१, १६७, १६८, १८१, १८२, १८४, १८९, २०५, २०६,
२१३,२१४, २१५, २२४, २२५, २२७ गोत्तपटिसारिनो-८५, ८६ गोत्तवादविनिबद्धा-८६ गोत्तवादो-८६ गोधालक्खणं-९,६० गोमयभक्खो-१५० गोलक्खणं-९, ६० गोसालो - ४२,४७,४८
गग्गराय-९७, ९८,१०३ गङ्गाय-४७ गणका-४५,४६, ५२ गणना-१०,६१ गणाचरियसावकसङ्घाति-१४८,१४९ गणाचरियो-- ४२, ४३,१०२,११८ गणी-४२, ४३, १०२,११८ गतत्तो-५१ गन्धकथं-७,५८,१६० गन्धसन्निधिं-६५७ गन्धारीनाम विज्जा-१९७ गब्मिनिया- १५० गरुं-७९,८० गलग्गहापि-१२८
घटिकं-६,५८ घरावासो-५५, १८२ घानविद्येय्यागन्धा - २२२ घानं-१८ घासच्छादनपरमताय-५३, ५४ घोसितारामे-१४०,१४३
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________________
[१२]
दीघनिकायो-१
[च-छ]
चक्करतनं-७७ चक्कवत्ती-७७ चक्खुन्द्रियं -६२, १८४ चक्खुमन्तो-७४, ९६, ११०, १३२, १५८, १७८,
१९४, २१२, २२७ चक्खुविनेय्या रूपा-२२२ चक्खुं-१८ चङ्की ब्राह्मणो-२१४ चण्डालं-६, ५८ चतुत्थं झानं-३२,६७,८७,१०९,१३१,१४१,१४४,
१५६,१६३, १८८, १९८,२१२ चतुन्नं अङ्गानं-१०६ चतूहङ्गेहि समन्नागतं-१०६ चत्तारि अपायमुखानि-८८,८९, ९० चन्दग्गाहो-९,६० चन्दिमसूरियनक्खत्तानं - ९,६०,६१ चन्दिमसूरियानं - ९, ६०, ६१, २१८ चम्पायं-९७,९८,१०३ चम्पेय्यका-९७, ९८ चम्पं - ९७,९८,१००,१०३ चम्मयोधिनो-४५,४६,५२ चरणसम्पन्नो-८८ चरणं-८६,८७ चलका-४५,४६,५२ चवनधम्मा-१६,१७,१८ चातुमहापथे-८९,९०,१७२,२२० चातुमहाभूतिको - २९, ४९, ६७, ६८, ८७, १०९,
१६५,१६६, १७३, १८९, १९०, १९९ चातुमहाराजिका देवा - १९९ चातुयामसंवरसंवुतो-५०, ५१ चातुरन्तो-७७ चिङ्गुलिकं-६,५८
चित्तक-७,५८ चित्तसम्पदा-१५१,१५५, १५६,१५७ चित्तो हस्थिसारिपुत्तो-१६८,१७६,१७९ चित्तं-४२, ४३, ४४, ६३, ६५, ६७,६८, ६९,७०,
७१,७२,७३,७४,८७,८८,९६,१०४,१०५, १०९, ११०, १२३, १२५, १३१, १३२, १४०, १४१, १४२, १४३, १४४, १४५, १५६, १५८, १६२, १६३, १८५, १८६, १८९, १९०, १९१, १९२, १९३, १९४, १९८, २०७, २०८, २०९,
२१०,२११,२१२,२२५ चित्रुपाहनं-७,५८ चिरपब्बजितो-४२,४३ चुतूपपातञाणाय-७२,७३, १९३ चेतकेन-१८१ चेतसा-६३,६७, ७०, ७१, १०५, १८५, १८८,
१९१,१९२, २२५, २२६ चेतसिकम्पि-१९७ चेतसो आभोगो-३२ चेतोपरिवितक्कमझाय-१०५ चेतोविमुत्तिं-१३९,१५१, १५२, १५३,१५४, १५५ चेतोसमाधि -११, १२, १३, १६, १७, १८, १९, २०,
२४ चेलका - ४५,४६, ५२ चोदना-२०९, २१०, २११, २१२ चोदनारहा-२०९, २११ चोरकथं-७,५८,१६०
छत्तं -७, ५८, १११ छन्दोका ब्राह्मणा-२१५, २१६ छम्भितत्तं -४४ छवदुस्सानिपि-१५० छळाभिजातियो-४८
Page #324
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________________
[ज-त]
सद्दानुक्कमणिका
[१३]
उ
१४४, १५६, १८९, १९०, १९८, २१२ आणं-७४, ८८, ११०, १३२, १४२, १४५, १५६,
१६५, १९४, १९९, २१२ जनपदकथं-७,५८,१६०
आतिकथं-७,५८,१६० जनपदकल्याणी-१७०, २१९
आतिपरिवर्ल्ड-५४, ५५,१८२ जनपदत्थावरियप्पत्तो-७७ जरामरणं-३९ जागरिते-६३,८७,१०९,१३१,१४०,१४३,१५६, १६२,१८४, १९८,२११,२२५
ठितत्तो-५१ जाणुसोणि ब्राह्मणो-२१४ जातरूपरजतपटिग्गहणा-५,५७ जातसंवद्धो-२२४, २२५ जातिपच्चया-३९
तक्कपरियाहतं-१४,१८, २०, २५ जातिमा-६७,१८९
तक्की-१४,१८, २०, २५ जातिवादविनिबद्धा-८६
तण्डुलहोम-८, ५९ जातिवादो-८६
तण्हा-३९ जातिसम्भेदभया-८०,८१
तण्हागतानं - ३४, ३५, ३६ जानपदा-१२१,१२३, १२४,१२६
तण्हापच्चया-३९ जातिं ठपयाम-१०७
ततियं झानं-३२, ६६, ८७, १०९, १३१, १४१, जिव्हानिबन्धनं-१०,६१
१४४, १५६,१६३, १८८, १९८, २११ जिव्हाविद्येय्या रसा- २२२
तथागतो लोके उप्पज्जति-५५, ८६, १०९, १३१, जीवको-४४
१४०, १४३, १५५, १६२, १८२, १९८, २११, जीवितपरियादाना-४०
२२५ जुहनं-१०, ६१, १८३
तथारूप-११,१२,१३,१६,१७,१८,१९,२०,२४, जूतप्पमादट्ठानानुयोग-६, ५८
९२,९४, १९९,२०१ जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे-१६०,१८० तपब्रह्मचारी निग्रोधो नाम -१५८
तपस्सीनं-१४७ तपोजिगुच्छावादा-१५७
तपोपक्कमा- १४९, १५० झानं -३१, ३२, ६५, ६६, ६७, ८७, १०९, १३१, | तपोपक्कमेन - १५१, १५२, १५३, १५४
१४०, १४१, १४३, १४४, १५६, १६३, १८६, तयो अत्तपटिलाभा-१७३ १८७,१८८, १९८,२११, २१२
तरुणपब्बजितो-९९,११५ तरुणो-९९,११५ तारुक्खो ब्राह्मणो-२१४
तावतिंसा देवा -२०० आणदस्सनाय - ६७, ६८, ८७, १०९, १३१, १४१, | तिणभक्खो-१५०
13
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________________
[१४]
दीघनिकायो-१
[थ-द]
तिण्णविचिकिच्छो-६३, ९५, १३३, १८५
तेविज्जाविवनन्तिपि-२२४ तिण्णं-७६, ९९, १०५, १०६, १०७, १०८, ११४, | तोदेय्यपुत्तो-१८०, १८१ १२२, १२५, १३९, १८१
तोदेय्यो ब्राह्मणो-२१४ तित्थकरो-४२,४३
तं जीवं तं सरीरं-१४०, १४३, १६७ तित्तिरिया ब्राह्मणा - २१५ तिन्दुकाचीरे-१६० तिरच्छानकथं -७,५८,१६० तिरच्छानयोनि-२०८, २०९
थिनमिद्धनीवरणं-२२३ तिरच्छानविज्जाय-८, ९, १०,५९, ६०, ६१, १५५,
थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति-६३, ८७, १०९, १३१, १८३
१४०, १४३, १५६, १६२, १८५, १९८,२११ तिरोकुटुं-६९, १९०, १९६
थिनमिद्धं-६३,१८५ तिरोदुस्सन्तेन मन्तेति - ९०
थुसहोम-८,५९ तिरोपब्बतं -६९, १९०, १९६
थुसोदकं-१५० तिरोपाकारं - ६९, १९०, १९६
थूणूपनीतानि - ११२ तिरोभावं-६९,१९०,१९६ तिविधं यज्ञसम्पदं-११३,११९ तिस्सो विधा-१२२,१२३ तीणि पाटिहारियानि - १९९
दक्खिणजनपदं-८३ तीरदस्सिं-२०३
दक्खिणं पतिट्ठपेन्ति सोवग्गि-४६, ५२ तीहङ्गेहि-१०६
दक्खो -४०, ६५, ६९, १८७,१९१ तुण्हीभावेन-९५,११०,१३३, २०६
दण्डतज्जिता-१२५,१२६ तुलाकूटकंसकूटमानकूटा--५, ५७
दण्डप्पहारापि--१२८ तुसिता नाम - २००
दण्डमन्तरं --१५० तूलिकं-७, ५८
दण्डयुद्धं-६,५८ तेजो-४९, २०३
दण्डलक्खणं-८, ६० तेजोकायो-५०
दण्डं-७,५८ तेजोधातु-१९९, २००, २०१, २०२, २०३ दत्तुपञत्तं - ४९ तेनञ्जलिं - १०४, ११९
दन्तकारो-६९,१९१ तेलपज्जोतं-७४, ९६, ११०, १३२, १५८, १७८, | दब्बिहोम-- ८, ५९ १९४, २१२, २२७
दयापन्नो--४,५६,१५५,१८२ तेलहोम-८, ६०
दसपदं -६, ५८ तेविज्जके -७७, १०५
दससहस्सीलोकधातु-४१ तेविज्जा ब्राह्मणा-२१६, २१७, २१८, २१९, २२०, | दस्सनाय-७८, ९३, ९४, ९८, ९९, १००, १०३, २२१, २२२, २२३, २२४
१०४, १०६, १०८, ११३, ११४, ११५, ११६, तेविज्जाइरिणन्तिपि-२२४
११९, १२२, १३४,१३५, १३६, १३७,१३८ तेविज्जाब्यसनन्तिपि-२२४
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________________
[ध-ध]
सद्दानुक्कमणिका
दस्सनीयो - ९९, १०१, १०६, १०८, ११५, ११६, | दुक्खं - ९५,१३२ १२२, १२४
दुग्गतिं-७३, ९३, १४६, १९३ दस्सुखीलं- १२०
दुतियं झानं-३२,६५, ८७,१०९,१३१,१४१,१४४, दानकथं-९५,१३२
१५६,१६३, १८७, १९८, २११ दानपति-१२२, १२४
दुप्पो -८१, १०७ दारकतिकिच्छा - १०,६१,१८३
दुब्बुट्टिका भविस्सति-१०,६१ दारभरणाय-६३,१८५
दुब्भगकरणं-१०,६१ दारुपत्तिकन्तेवासी-१४०,१४३
दुब्भासितं -३ दासलक्खणं-८,६०
दुभिक्खं भविस्सति-१०,६१ दासिकपुत्ता-४५,४६, ५२
दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा-५,८,५७,५९ दासिदासपटिग्गहणा-५, ५७
देवदुद्रभि भविस्सति -९, ६०, ६१ दासिलक्खणं-८,६०
देवपऽहं-१०, ६१ दिट्ठधम्मनिब्बानवादा-३१,३२,३५,३७,३९ देवमनुस्सानं-४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ९८, दिट्ठधम्मो-९५,१३३
१०२, ११२, ११३, ११७, १३४, १८२, २०५, दिट्ठिगतानि - २३, १४७
२१४ दिविगतं उप्पन्नं होति-२०५
देवयानियो मग्गो पातुरहोसि-१९९ दिविजालन्तिपिनंधारेहि-४१
देवा-१७, १८, २४,४८, १०२, ११८, १९९, २००, दिट्ठिट्ठाना - १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, २०१,२०२ ३२, ३३
देवानमिन्दो-२०० दिन्नपाटिकङ्खी - ४,५६
दोणमिते सुखदुक्खे-४८ दिनादायी-४,५६
दोसिना-४२ दिब्बा गब्भा-२०८, २०९
दोसो-२२ दिब्बानि-१३६,१३७,१३८
द्वट्ठिपटिपदा-४७ दिब्बाय सोतधातुया-७०,१९१
द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि-९२, ९४ दिब्बेन-७२,७३,१४६, १४७,१९३
द्वीहङ्गेहि- १०६, १०७, १०८ दिसा-८१ दिसाडाहो-९,६०,६१ दीघरत्तं -१५, ९६, १२०, १२१, १८१ दीघायुकतरो-१६
धनुकं-६,५८ दुक्खनिरोधोति-७३, ७४, ८८, ११०, १३२, १४१, धनुग्गहा-४५,४६,५२
१४४,१५६, १६७, १६९, १९३, २१२ धनुलक्खणं-८,६० दुक्खसमुदयोति-७३, ७४, ८८,११०, १३२, १४१, | धम्मचक्खुंउदपादि - ९५,१३३ १४४,१५६, १६७,१६९, १९३, २१२
धम्मजालन्तिपि-४१ दुक्खस्सन्तं-४८,१३९
धम्मद्विततं-१६८,१६९ दुक्खा -३१
धम्मदेसना-९५,१३२ दुखितो-६४, १८५
ध
15
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________________
दीघनिकायो-१
[न-न]
धम्मनियामतं-१६८,१६९
नाटपुत्तो-४३, ५०, ५१ धम्मपरियायोति-४१
नादिब्रह्मचरियकं-१६७ धम्मराजा-७७
नानत्तकथं -७,५९,१६० धम्मवादी-४,५६,१४९
नानत्तसज्ञानं-३०,१६४ धम्मविनयं-७,५९,२०८,२०९
नानत्तसञी अत्ता-२६ धम्मसंहिता--१६९,१७०
नानाधिमुत्तिकता-२ धम्मा-११, १४, १९, २१, २४, २५, २६, २७, २८, नानावेरज्जकानं- ९८
३१, ३३, ३४, ६२, १३९, १४७, १४८, १४९, | नानुब्यञ्जनग्गाही-६२,१८४ १६९, १७०, १७३, १७४, १७५, १७६, १८४, नापरं इत्थत्तायाति पजानाति-७४,८८,११०, १३२, २२१, २२२,२२३
१४२,१४५,१५६,१९४, २१२ धम्मिको-७७
नाभिहटं-१५० धम्मो-७४, ९६, ११०,१३२, १३९, १५८, १६९, | नामगोत्तं-८०,८१,१०४,११९ १७८,१९४, २१२,२२७
नामञ्च रूपञ्च -२०३ धम्म सरणं गच्छति-१२९
नारूपी अत्ता-२६, २७, २८ धुवो-१६,१८
नावं-२०३ धोवनं-६,५८
नासिकसोतानि-९२, ९५ नाळन्दा-१९५,१९६ नाळन्दं-१
नाळिकं-७,५८ नक्खत्तग्गाहो - ९, ६०, ६१
निगण्ठिगब्भा-४८ नक्खत्तानं--९, ६०, ६१
निगण्ठो नाटपुत्तो-४३, ५०, ५१ नगरकथं-७,५८,१६०
निगमकथं-७,५८,१६० नगरघातापि दिस्सन्ति-१२०
निगमघातापि दिस्सन्ति-१२० नगरूपकारिकासु- ९२
निग्गहितो-७,५९ नचोदनारहो-२११, २१२
निग्रोधो-१५८ नचोदनारहोति -२११
निच्चदानं – १२८ नच्चगीतवादितविसूकदस्सना-५, ५७
निच्चो - १६, १८ नच्चं-६, ५७
निधानवति-४,५६ नत्थुकम्म–१०,६१,१८३
निप्पीतिकेन-६६, १८८ नरकपपातं-२१२
निप्पेसिका-८,५९ नलाटमण्डलं-९२, ९५
निब्बानाय संवत्तति-१६७ नळकारा-४५,४६, ५२
निम्बिदाय - १६७, १६९, १७० न होति तथागतो परं मरणा-१६७
निब्बुति विदिता-१४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, नागस्स भूमि-४५
३१,३३,३४ नागावाससते-४८
निब्बुद्धं-६,५८ नागितो-१३४,१३५
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[१७]
निब्बेठियमानमेव -४८ निमन्तनं - १५० निमित्तग्गाही-६२,१८४ निमित्तं-८,५९ निम्माता-१६, २०१, २०२ निम्मानरती नाम देवा - २०० नियतिसङ्गतिभावपरिणता-४७ नियतो-- १३९ निय्यानं भविस्सति-९,६० निरयसते -४८ निरयं -७३, ९३, १४६, १४७, १९३, २०८, २०९ निरोधधम्मन्ति-९५१३३ निरोधेन-२०३ निरोधं-९५,१३२,१६४,१६५ निरुज्झन्ति-१६१,१६४, १६५, १६६, १९९, २००,
२०१, २०२, २०३ निल्लोपं -४६ निस्सरणञ्च-१४,१९,२१,२४,२५, २७, २८,३१,
३३, ३४, ४० निस्सेणीउपमा-२२० निहतपच्चामित्तो-६२,१५५, १८३ निहितसत्थो - ४,५६,१५५,१८२ नीवरणा-२२३ नीवरणे-६५, १८६, २२५ नीवारभक्खो-१५० नेत्ततप्पनं -१०,६१, १८३ नेमित्तिका -८, ५९ नेला-५६ नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता-२६, २७, २८ नेवरूपी-२६, २७,२८ नेवसञीनासञ्जि-२८, ३५, ३७, ३८ न्हानीयपिण्डि-६५, १८७ न्हापकन्तेवासी-६५,१८७ न्हापका-४५,४६, ५२ न्हापनं-७,१०,५८,६१,१८३
पकासेसि-९५,१३२ पकुधो कच्चायनो-४३,४९,५० पक्कज्झानं-८,६० पक्खन्दिनो-४५,४६, ५२ पक्खी सकुणो- ६३, ६९, १८४, १९०, १९६ पङ्गचीरं-६, ५८ पच्चञ्जनं-१०, ६१, १८३ पच्चत्त व निब्बुति विदिता-१४, १९, २१, २४, २५,
२७,२८, ३१, ३३ पच्चयिको-४, ५६ पच्चयो-४७, १२८,१३६, १३८ पच्चवेक्खमानो-७१, १९२ पच्चुट्ठानं-१११ पच्चुपट्टितं-२०७, २०८, २०९ पच्चूप्पन्नो अत्तपटिलाभो-१७७ पच्चोरोहनं-१११ पच्छानिपाती - ५३ पजाननं-१४,१९,२१,२४,२५,२७, २८,३१, ३२,
पजापतिमव्हयाम-२२२ पजं-५५,७६, ७७, ८६, ९७, ११२, १३४, १८२,
२०५ पञ्च-४७, ६५, १८६, २२२, २२३, २२५ पञ्चहि कामगुणेहि-३१, ५३, ५४,९१ पचवतो सीलं-१०८,१०९ पञा–१०८, १०९, १५७ पञआक्खन्धो-१८९,१९४ पञ्जाक्खन्धं-१९४ पञापरिधोतं सीलं-१०८,१०९ पञापारिपूरि-१७३,१७४, १७५, १७६ पञ्जावादा-१५७ पाविमुत्तिं-१३९,१५१, १५२,१५३,१५४,१५५
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________________
[१८]
दीघनिकायो-१
[प-प]
पचासम्पदा - १५१,१५६, १५७
पथवी-४५, ८३,२०३ पञासम्पदाय-१५६,१५७
पथवीधातु-१९९,२००,२०१,२०२, २०३ पटलिकं -७,५८
पदक्खिणं-७५,७८,११०,१३३, २०६ पटिकं -७, ५८
पदुट्ठचित्ता-१७, १८ पटिक्खित्ता-१२६
पधानमन्वाय-११,१२,१३,१६,१७, १९,२०,२४ पटिघसञआनं-३०,१६३
पन्थदुहनापिदिस्सन्ति- १२० पटिच्छन्नं -७४, ९५, ११०, १३२, १५८, १७८, १९४, पपातसतानि-४८ २१२,२२७
पब्बज्जा-५५,१८२ पटिपदा-१३९, १४०, १४९,१७०, १७१,१७२ पब्बज्ज-१५८, १५९,१७९ पटिपदाति-७४, ८८, ११०, १३२, १४१, १४२, पमाणकतं-२२६
१४४, १४५, १६७, १६९, १९३, १९४, २१२ परनिम्मितवसवत्ती नाम देवा - २०० पटिपन्नो-७,५९, ९२, २२५
परपुग्गलानं-७०,७१, १९१, १९७ पटिबलो-१२२, १२४, १२५
परमदिट्ठधम्मनिब्बानं -३१,३२,३५,३७,३९ पटिमोक्खो-१०,६१, १८३
परसत्तानं-७०,७१, १९१, १९२,१९७ पटिविरतो-४, ५, ६,७,८, ९, १०,५६, ५७, ५८, | परसेनप्पमद्दना-७७ ५९, ६०,६१,१५५, १८२, १८३
परिक्खारा-१२१, १२२ पटिसल्लीनो-१३४, १३५
परिणायकरतनमेव-७७ पटिसंवेदेति --३२, ६२, ६६, ८७, १०९, १३१, १४१, | परितस्सना - १५
१४४, १५५, १५६, १६३, १८३, १८४, १८८, | परितस्सितविष्फन्दितमेव -३४, ३५,३६ १९८,२११
परित्तसञी अत्ता-२६ पठमं झानं - ३१, ६५, ८७,१०९,१३१, १४०, १४३, परिपन्थे --४६ १५६,१६३, १८६,१८७, १९८,२११
परिपुण्णञ्च -१८३,१८९ पणिधिकम्म-१०,६१,१८३
परिपुण्णं - १८३, १८९, १९४ पणीततरा-८८, १३२, १३९, १५७, १९९, २००, परिब्बाजकसते-४८ २०१
परिब्बाजका -१५७, १५८, १६१, १६७, १६८, १६९ पणीततरं-७४
परिमद्दनं-७,५८ पणीता-११, १४, १९, २१, २४, २५, २६, २७, २८, परिमुखं-६३, १८५ ३१, ३३, ३४
परियन्तवतिं - ४,५६ पण्डितवेदनीया–११, १५, १९, २१, २४, २५, २६, परियायभत्तभोजनानुयोगमन्युत्तो-१५०, १५१, १५२, २७,२८, २९,३१,३३, ३४
१५३ पतिट्ठापितो-२१२
परियोगाळहधम्मो - ९५,१३३ पतोदलढेिं-१११
परियोदातेन-६७,१८८ पत्तधम्मो-९५,१३३
परियोनाहनातिपि-२२३ पत्ताळ्हकं-६,५८
परियोसानकल्याणं-५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ११२, पथविकायो-५०
१३४,१८२, २०५ पथविमण्डलं--१२०
परिवटुमो-१९
18
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________________
[प-प]
सद्दानुक्कमणिका
[१९]
परिवसति-१५९
पातिमोक्खसंवरसंवुतो-५५, १८२ परिवितक्को उदपादि - १०३, १२०, १९९
पानकथं-७,५८,१६० परिसानं -१०२, ११७
पानसन्निधिं-६,५७ परिसुद्धाजीवो-५६, १५५, १८२
पाभतं-१२० परिसुद्धेन-६७, १८८
पामोज्जं-६४, ६५, १६३, १८५, १८६, २२५ परिसुद्धं -५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ११२, १३४, पारगवेसी-२२१, २२२, २२३ १८२,२०५
पारगामी-२२१, २२२, २२३ परिसोधेति-६३, ८७, १०९, १३१, १४०, १४३, पारगू-७६, ९९, १०५, १०६, १०८, ११४, १२२, १५६,१६२, १८५, १९८,२११
१२५ परिहारपथं-६,५८
पारस्थिको-२२१,२२२,२२३ परिहीनो-९०
पावारिकम्बवने - १९५ परो लोको - ४९
पिञ्जाकभक्खो-१५० पलालपुर्ज-६३, १८५
पिण्डदायका-४५,४६, ५२ पल्लङ्घ आभुजित्वा-६३, १८५
पिण्डपातप्पटिक्कन्तो-६३,१८५ पल्लोमो-८३, ८४
पियरूपानि-१३६, १३७,१३८ पवत्तफलभोजनो-८८,८९
पियवादी-५३ पवत्तफलभोजी-१५०,१५१, १५२, १५४
पिसाचा-४८ पविवेके-५३, ५४
पिसुणवाचिनोपि-१२३ पवुटसतानि-४८
पीति-६५,१६३, १७३, १७४, १८६, २२५ पवुटा-४८
पीतिगतं-३२ पसन्नचित्तो-१२९, १३०
पीतिभक्खा-१५ पसन्नचित्तं - ९५, १३२
पीतिसुखेन-६५,६६, १८७ पसन्नाकारञ्च -१५८
पीतिसुखं-३१, ३२, ६५, ८७,१६३, १८६, १८७ पसन्नाकारं - १५८
पुग्गलवेमत्तता-१५९ पसेनदि - ९०,९१,१०२, ११८, २०८, २०९ पुञ्जक्खया-१५ पसेनदिना कोसलेन दिन्नं -७६, २०५
पुज्ञानि-५३, ५४,१२२, १२४ पस्सतो-७४, ८८, ११०, १३२, १४२, १४५, १५६, | पुज-४७ १९४, २१२
पुटोसेनाति-१०३, ११९ पस्सद्धकायो-६५, १६३, १८६, २२५
पुण्डरीकानं-६६, १८८ पस्सद्धि-१७३,१७४
पुण्णमाय - ४२ पहूतजिव्हताय-९२, ९४
पुथुज्जनो-३,४,५,६,७,८,९,१० पहूतधनधो -१२०,१२२,१२४
पुथुतित्थकरानं-१०२,११८ पाटिहारियानि-१९६, १९९
पुथुसिप्पायतनानि-४५,४६,५२ पाणातिपाता-४,५६, १२३, १३०, १५५, १८२
पुनभवं-८२ पाणिस्सरं-६, ५८
पुब्बका इसयो- ९१,२१६, २१७, २१८, २१९, २२१
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________________
[२०]
दीघनिकायो-१
[ब-ब]
२१४
पुब्बन्तकप्पिका-११, २५, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, | फलकचीरम्पिधारेति-१५० ३८, ३९, ४०
फस्सपच्चया-३६, ३७ पुब्बन्तानुदिट्ठिनो-११, २५,३४,३६, ३८
फस्सायतनानं-४० पुब्बन्तापरन्तकप्पिका-३३,३६,३७,३९,४० फळुबीजं-६, ५७ पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो-३३, ३६, ३७, ३९, ४० फासुविहारं - १८०, १८१, २०६ पुब्बतकथं-७,५९,१६० पुब्बुट्ठायी-५३ पुब्बेनिवासानुस्सतिआणाय-७१,७२,१९२ पुब्बेनिवासं-११, १२, १३, १४, १६, १७, १८,७१, बन्धनागारामुच्चेय्य-६४,१८५ ७२, १९२, १९३
बन्धनामोक्खं-६५,१८६ पुरिसदम्मसारथि-४४, ५५,७६,७७, ८६, ९७, ९८, | बन्धुपादापच्चा-७९,९० १०२, ११२, ११३, ११७, १३४, १८२, २०५, बलग्गं-६, ५८
बलं-४७,१८०,१८१, २०६ पुरिसन्तरगताय -१५०
बव्हारिज्झा ब्राह्मणा-२१५, २१६ पुरिसभूमियो - ४८
बहिद्धा-१४, १८, २१, २४, २५, २७, ३३, १८३, पुरिसलक्खणं-८,६०
१८९, १९४, २०२ पुरिसस्स अत्ता-१६१,१६५
बहुकरणीयाति-७५, ९३ पुरेवचनीयं-७
बहुकिच्चा-७५, ९२ । पुरोहितो ब्राह्मणो-१२०, १२२, १२३, १२५, १२७ बहुस्सुतक - ९३ पूरणो कस्सपो-४२,४६,४७
बाळ्हगिलानो-६४,१८५ पेक्खं-६,५७
बिम्बिसारस्स-१००,१०३,११५,११८ पेसकारा-४५,४६, ५२
बिम्बिसारो-१०२,११८ पोक्खरसाति ब्राह्मणो-२१४
बीजगामभूतगामसमारम्भा-५, ६,५७ पोक्खरसातिकुलं-९६
बीजगामभूतगामसमारम्भं-६,५७ पोक्खरसातिस्स अन्तेवासी-७८
बीजभत्तं - १२० पोट्ठपाद -१६१, १६२, १६३, १६४, १६५, १६६, बुद्धस्स-१,२,३
१६७, १६९, १७०, १७१, १७२, १७३, १७४, | बुद्धानं --९५, १३२ १७५, १७६
बुद्धो-४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ९८, १०२, पोट्ठपादो-१६०,१६१,१६७,१६८, १७८
११२,११३,११७,१३४,१८२,२०५, २१४ पोराणं-८०, ८१, ९१, २१६, २१७, २१८, २१९, | बुद्धं सरणं गच्छति - १२९ २२१
बेलट्ठपुत्तो-४३,५१,५२ पंसुकूलानिपि-१५०
बेलट्ठपुत्तं-४३, ५१ फन्दापयतो-४६
ब्याकतं-१६७ फरुसवाचिनोपि-१२३
ब्यापन्नचित्तापि-१२३ फरुसा-७९
ब्यापादनीवरणं-२२३ फरुसाय-४,५६, १२३
ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति-६३,१८५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[भ-भ]
ब्रह्मकायिका - २०१, २०२ ब्रह्मचरियपरियोसानं– १५९, १७९
ब्रह्मचरियं - ५५, ७४, ७६, ७७, ८६, ८८, ९७, ११०, ११२, १३२, १३४, १३८, १३९, १४२, १४५, १५६, १५९, १७९, १८२, १९४, १९९, २०५, २१२
ब्रह्मचारी - ४, ५६
ब्रह्मजालन्तिपि - ४१
ब्रह्मञ्ञसङ्घाता - १४९, १५०
ब्रह्मञ्ञा - १५१
ब्रह्मञ्ञाय - १०१, ११७
ब्रह्मञ - १५१, १५२, १५३
ब्रह्मदत्तो - १, २, ३
ब्रह्मदत्तेन - १, २
ब्रह्मदेय्यं - ७६, ९७, १००, ११२, ११५, २०५
ब्रह्ममन्ते अधीयित्वा - ८३
ब्रह्ममव्हयाम - २२२
ब्रह्मयानियो मग्गो - २०१
ब्रह्मलोकगामिनिञ्च - २२५
ब्रह्मलोकगामिनिया - २२५
ब्रह्मलोकमग्गदेसना - २२५
सद्दाम
ब्रह्मलोका - २०३
ब्रह्मलोके - २०२, २२५
ब्रह्मलोकं - २२५
ब्रह्मवच्छसी - ९९, १०१, १०६, १०८, ११५, ११६,
१२२, १२४
ब्रह्मवण्णी - ९९, १०१, १०६, १०८, ११५, ११६,
१२२, १२४
ब्रह्मविमानं - १५
ब्राह्मणदूता - १३४, १३५ ब्राह्मणपञ्ञत्ति - १०५
21
ब्राह्मणमहासाला - १२१, १२४, १२६, २१४ ब्राह्मणी - १७०, २१९
भ
भगवा - १, २, ३, ४१, ४२, ४४, ४५, ४६, ५५, ७५, ७६,७७, ७८, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८६, ९२, ९४, ९५,९७,९८, १०२, १०४, १०५, १०७, १०९, ११०, १११, ११२, ११३, ११७, ११९, १३२, १३३, १३४, १३५, १३६, १४२, १४३, १४५, १४६, १६०, १६१, १६२, १६३, १६४, १६५, १६७, १६८, १७८, १८१, १८२, १८३, १८८, १९४, १९५, १९६, २०२, २०४, २०५, २०६, २०७, २१४, २१५, २२५
भगु - ९१, २१६, २१७, २१८, २२०, २२१ भयकथं - ७, ५८, १६०
भयतज्जिता - १२५, १२६
भयदस्सावी - ५५, १५५, १८२
२२०, २२१ भुजिस्सं - ६५, १८६
भूतकम् - १०, ६१, १८३ भूतभब्यानं - १६, २०१
ब्रह्मसहब्यताय - २१४, २१५ ब्रह्मसहब्यतायाति - २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, भूतवादी - ४, ५६, १४९ भूतविज्जा - ८, ६०
२२१
ब्रह्मा - १६, २०१, २०२, २१६, २१७, २१८, २१९, भूमिचालो - ९, ६०, ६१ २२०, २२१, २२३, २२४, २२६, २२७ भूरिकम्मं - १०, ६१, १८३ ब्राह्मणगहपतिका – ९७, ९८, १०४, ११२, ११३, ११९ भूरिविज्जा - ८, ६० ब्राह्मणगामो - ७६, ११२, २१४ - ७०, १९१
भेरिसद्दो
[२१]
भवपच्चया - ३९
भवासवापि - ७४, ८८, ११०, १३२, १४२, १४५,
१५६, १९४, २१२
भरसपुटेन - ८४, ८५ भागिनेय्यो - १०७
भारद्वाजो - ९१, २१४, २१५, २१६, २१७, २१८,
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[२२]
दीघनिकायो-१
[म-म]
भेसज्जमत्ता पीता - १८१
मनोसुचरितेन -७३, १९३ भोगक्खन्धो-१२२,१२३
मन्तत्थिका - ९९,११५ मन्तधरो-७६, ९९, १०५, १०६, १०८,११४, १२२,
१२५
मन्तव्हो-८१,१०७ मक्खलि गोसालो - ४२,४७,४८
मन्तानं कत्तारो-९१, २१६, २१७, २१८, २१९, २२१ मगधानं-११२
मन्ते ठपयाम - १०६ मगधेसु-११२,११३
मल्लिकाय आरामे - १६० मग्गो-१३९,१४०,१४९,१७०,१७१,१७२, १९९, महच्चराजानुभावेन -४४ २०१, २२६
महतुपट्टानं-१०,६१ मङ्गुरच्छवी-१७१, २१९
महद्धनो-९९,११४, १२०, १२२, १२४ मज्झेकल्याणं--५५,७६, ७७, ८६, ९७, ११२, १३४, | महप्फलतरो- १२७, १२८, १२९, १३०,१३१, १३२ १८२, २०५
महानागा-४५, ४६, ५२ मञ्जसि-५३, ५४, ८२, ८४, ८५, ८९, ९०, ९१, | महानिसंसतरो-१२७, १२८, १२९, १३०, १३१,
१६४, १७०, १७१,१७२, १७३, १७५, १७६, १३२ १९७, २०७, २०८, २१७, २१८, २१९, २२०, महापुरिसलक्खणानि-७७ २२१,२२२, २२३, २२४,२२६
महाब्रह्मा-१६, २०१, २०२ मणि वेळुरियो-६७,१८९
महाभूता-१९९, २००,२०१, २०२, २०३ मणिका -१९७
महामत्तकथं-७,५८,१६० मणिरतनं-७७
महायो -११२ मणिलक्खणं-८,६०
महालि-१३५,१३६,१३७,१३८,१३९, १४० मण्डनजातिको-७१,१९२
महावने कूटागारसालायं-१३४ मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगा-७,५८
महाविजितो-१२०,१२१,१२२,१२३,१२४,१२५, मण्डलमाळे -२, ४५
१२६, १२७ मद्दरूपिंधीतरं-८३,८४
महासाकसण्डो-८०,८१ मनसाकटे-२१४, २२४, २२५
महिद्धिका-१६२ मनापचारी-५३
महिद्धिमव्हयाम - २२२ मनिन्द्रियं-६२,१८४
मागधका-१३४,१३५ मनो-१९७
मातापेत्तिकसम्भवो-२९,६७,६८,८७,१०९, १८९, मनोदुच्चरितेन-७२,७३, १९३
१९०, १९९ मनोपणिधि-१६
मानवादविनिबद्धा-८६ मनोपदोसिका नाम देवा-१७
मारिसा - १७०, १७१, १७२, १७३ मनोमया-१५
मालकारा-४५,४६, ५२ मनोमयो अत्तपटिलाभो - १७३, १७४, १७५, १७६, | मिगचक्कं-८,६० १७७,१७८
मिगदाय -१४६ मनोमयं कायं-६८,१९०
मिगलक्खणं-९,६०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[य - य]
सद्दानुक्कमणिका
[२३]
मिच्छाजीवा-८, ९, १०,६०, ६१, १५५, १८३ । मोघमञन्ति-१६६,१६७ मिच्छादिट्ठि-२०८, २०९
मोमूहो-२३ मिच्छादिढिकम्मसमादाना-७२,७३, १९३ मिच्छादिट्ठिका-७२,७३,१२३,१९३ महिंसयुद्धं -६, ५८ महिंसलक्खणं-९, ६०
यक्खो -८२ मुखचुण्णं-७, ५८
यजमानस्स-१२२, १२३, १२४, १२५ मुखनिमित्तं -७१, १९२
यज्ञकालो-१२१ मुखलेपनं -७, ५८
यचदेव-१६७,१६८, १९१ मुखहोम-८,६०
यञ्जवाटस्स-१२६ मुखुल्लोकको-५३
यञवाटो-१३३ मुट्ठियुद्धं -६, ५८
यवसम्पदाय - १२७, १२८, १२९,१३०, १३२ मुण्डका समणका -७९, ९०
यो -१२६,१२७,१२८,१२९,१३०,१३१,१३२ मुत्ताचारो-१५०,१५१,१५२,१५३
यनं-१२१, १२३, १२७, १२८ मुदिङ्गसद्दो-७०, १९१
यतत्तो-५१ मुदुचित्तं - ९५, १३२
यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति-७२,७३,१९३ मुदुभूते-६७, ६८,६९,७०,७१,७२,७३,७४,८७, | यथाधम्म-७५
८८, १०९, ११०, १३१, १४१, १४४, १५६, यथापटिपन्नो-१४९ १८९,१९०,१९१,१९३, २१२
यथाबलं-८९,९० मुद्दा-१०,६१
यथाभुच्चं-११, १५, १९, २१, २४, २५, २६, २७, मुद्दिका-४५,४६, ५२
२८, २९, ३१, ३३, ३४ मुसलमन्तरं-१५०
यथाभूतं विदित्वा-१४,१९, २१,२४,२५,२७,२८, मुसावादपरिजेगुच्छा-२२
३१, ३३, ३४ मुसावादा-४,५६, १२३, १३०
यथासत्ति-८९,९० मूलबीज-६,५७
यथासमाहिते-११,१२,१३,१६,१७,१८,१९,२०, मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं-१०,६१,१८३
२४, १९९,२०१ मूसिकच्छिन्नं-८,५९
यमतग्गि-९१, २१६, २१७, २१८, २२०, २२१ मूसिकविज्जा-८,६०
यममव्हयामाति-२२२ मेण्डयुद्धं-६, ५८
यसस्सी-४२, ४३ मेण्डलक्खणं-९, ६०
यानकथं-७,५८,१६० मेत्तचित्तं- १५१,१५२, १५३, १५४, १५५ यानसन्निधिं-६,५७ मेत्तासहगतेन चेतसा-२२५, २२६
यिट्ठनत्थि-४९ मेथुना - ४,५६
युद्धकथं-७,५८,१६० मेधावी-१०६,१०७, १०८,१२२, १२४,१२५ योनिपमुखसतसहस्सानि - ४७ मोक्खचिकं-६,५८
योब्बनेन-१०१,११६
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________________
[२४]
दीघनिकायो-१
[र-व]
लपका-८,५९ लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य - ४७,४८,४९, ५०,५१,
रक्खावरणगुत्तिं-५३, ५४ रजोजल्लधरो-१५० रजोधातुयो- ४८ रतनानि-७७ रत्तूपरतो-५, ५७ रथकं-६,५८ रथत्थरं-७५८ रथिका-४५,४६,५२ रमणीया-४२ रागदोसमोहानं-१३९ राजकथं-७,५८,१६० राजगह-१ राजदायं-७६, ९७, १००,११२,११५, २०५ राजपुत्ता-४५,४६, ५२ राजभणितं-९१ राजभोग्गं-७६, ९७, १००, ११२, ११५, २०५ राजमन्तनं-९१ रासिको - १२०, १२१ रासिवड्डको-५४ रोगो-१०,६१ रोसिका न्हापितो- २०६, २०७ रुक्खमूलं-६३,१८५ रूपञ्च असेसं उपरुज्झति-२०३ रूपसञ्जा-१६४ रूपसञानं समतिक्कमा पटिघसानं अत्थङ्गमा -३०,
१६३ रूपी अत्ता होति-२६, २७, २८
लहुट्ठानं-१८०,१८१, २०६ लिच्छविपुत्तो-१३६, १३८ लूखाजीविं-१४६, १४७ लेणं-८२ लोकक्खायिकं-७,५९, १६० लोकधातु-४१ लोकनिरुत्तियो-१७८ लोकपञत्तियो- १७८ लोकविदू-४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ९८, १०२,
११२,११३,११७,१३४, १८२, २०५, २१४ लोकवोहारा-१७८ लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु-७७, ९९, १०५, १०६,
१०८,११४,१२२,१२५ लोकायतं-१०,६१ लोको-१२, १३, १४, १५, १९, २०, २४, २५, ४९,
१६६,१६७ लोभधम्म-२०५,२०७,२१० लोहिच्च - २०७, २०८, २०९, २१०, २११, २१२ लोहिच्चस्स - २०५, २०६, २०७ लोहिच्चो ब्राह्मणो-२०५, २०६, २०७, २०८, २११,
२१२ लोहितहोम-८,६०
वङ्ककं-६,५८ वचीदुच्चरितेन-७२,७३,१९३ वचीसुचरितेन-७३,१९३ वच्छतरसतानि - ११२, १३२ वच्छतरीसतानि - ११२, १३२ वजिरपाणी यक्खो-८२ वञ्झो- १२, १३, १४ वट्टकयुद्ध-६, ५८
लक्खा -४२ लक्खणं-८,५९ लटुकिकापि-८०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[व-व]
सद्दानुक्कमणिका
[२५]
वट्टकलक्खणं- ९, ६० वण्टपटिबन्धानि-४० वण्णवादी --१६१, १८१, १८२, १८३, १८४, १८८,
१८९, १९४ वण्णा -८० वण्णं ठपयाम-१०६ वत्थकथं-७,५८,१६० वत्थगुरहे-९२,९४ वत्थलक्खणं-८,६० वत्थसन्निधिं-६५७ वत्थुकम्म-१०,६१,१८३ वत्थुपरिकर्म-१०,६१,१८३ वत्थुविज्जा-८,६० वनमूलफलाहारो-१५०,१५१,१५२,१५४ वमनं-१०,६१,१८३ वम्भेन्तो-७९ वयोअनुप्पत्तो-४२, ४३, ९९,११५ वरुणमव्हयाम- २२२ वसवत्तिस्स ब्रह्मनो --२२४, २२७ वसवत्तिं-२०० वसी-१६, २०१, २०२ वस्सकम्म-१०,६१,१८३ वाकचीरम्पि- १५० वाचाविक्खेपं-२१, २२, २३, २४, ३४,३६,३८ वाचासन्नितोदकेन-१६८ वाणिज्जाय-१२० वादप्पमोक्खाय-७,५९ वादानुवादो-१४६ वादितं-६,५७ वादी-२०७, २०८, २०९ वादो-७, ५९ वामको - ९१, २१६, २१७, २१८, २२०, २२१ वामदेवो-९१,२१६, २१७, २१८, २२०, २२१ वायसविज्जा-८, ६० वायो नगाधति-२०३ वायोकायो-५०
वायोधातूति - १९९, २००, २०१, २०२, २०३ वारिधारा-६६,१८७ वालबीजनिं-७,५८ वालवेधिरूपा- २३,१४७ वासेट्ठभारद्वाजानं -२१४ वासेट्ठो माणवो-२१४, २१५, २२४, २२५ वाळकम्बलम्पिधारेति-१५० विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो-१५० विकतिकं-७,५८ विकालभोजना-५, ५७ विकिरणं-१०,६१ विगतथिनमिद्धो-६३,१८५ विगताभिज्झेन चेतसा-६३, १८५ विगतूपक्किलेसे-६७, ६८, ६९, ७०,७१, ७२,७३,
७४,८७,८८, १०९, ११०, १३१, १४१, १४४,
१५६, १८९, १९०, १९१, १९३, २१२ विग्गाहिककथाय-७,५९ विघातो-२२, २३ विचारितं-३२ विचिकिच्छानीवरणं-२२३ विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति- ६३,१८५ विचिकिच्छं-६३,१८५ विचितकाळकं-९१ विच्छिकविज्जा-८,६० विज्जा-८८, १९७ विज्जाचरणसम्पदाय-८६,८८,८९, ९०,१०२,११८ विज्जाचरणसम्पन्नो-४४, ५५, ७६, ७७, ८५, ८६,
८८, ९७,९८, १०२, ११२, ११३,११७,१३४,
१८२, २०५,२१४ विज्जासम्पदाय-८८ विज्जासम्पन्नो-८८ विज्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञा - १६४ विज्ञाणञ्चायतनूपगो-३० विज्ञाणञ्चायतनं-३०, १६४ विज्ञाणं-६७,६८, ८७,११०, १८९, १९०, १९९,
२०३
25
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________________
[२६]
दीघनिकायो-१
[व-व]
वितक्कविचारानं वूपसमा -३२, ६५, ८७, १६३, १८७ विसारदो-१५७,१५८ वितक्कितं-३२
विसिखाकथं-७,५८,१६० वित्थायितत्तं-२२५
विसुद्धिया - ४७ विदितधम्मो-९५,१३३
विसुद्धेन ---७२,७३, १४६, १४७, १९३ विधा - १२२,१२३,१२७
विसूकदस्सनं-६,५७ विनयवादी - ४, ५६
विहारदानेन - १२९, १३० विनासं-२९, ३०, ३१, ३५, ३७, ३८
विहारपच्छायायं-१३५ विनिपातं -७३, ९३, १४६, १४७, १९३
विहारं करोति-१२९ विनीवरणचित्तं-९५, १३२
वीतमलं - ७५, ९५, १३३ विपरावत्तं-७,५९
वीमंसानुचरितं-१४, १८, २०, २५ विपरिणामधम्मा-३१
वीमंसी-१४,१८,२०,२५ विपरिणामधम्मो-१८
वीरङ्गरूपा -७७ विपाको-४९, ५३, ५४
वीथिं -७३,१९३ विपुलेन-२२६
वुद्धसीली-९९, १०६, १०७, १०८, ११५, १२२, विप्पटिसारो-१२२, १२३
१२५ विप्पसन्नो-६७,७४, १८९, १९४
वुसितमानी-७९ विभवं- २९, ३०,३१, ३५, ३७, ३८
बुसितं ब्रह्मचरियं -७४, ८८,११०,१३२,१४२, १४५, विमुत्तमिति-७४, ८८, ११०, १३२, १४२, १४५, १५६,१५९,१७९,१९४, १९९, २१२ १५६, १९४, १९९, २१२
वूपसन्तचित्तो-६३,१८५ विमुत्ति-१५७
वूपसमा- ३२, ६५, ८७,१६३,१८७ विमुत्तिवादा-१५७
वेकटिकोपि-१५० विरजं-७५, ९५, १३३
वेठकनतपस्साहि-९१ विरागाय -१६७,१६९, १७०
वेठनं ओमुञ्चेय्यं - १११ विरेचनं-१०,६१,१८३
वेताळं-६,५८ विरुद्धगब्भकरणं-१०,६१
वेदनापच्चया-३९ विवट्टकप्पे-७१,७२,१९२
वेदयितं - ३४, ३५, ३६ विवट्टच्छदो-७८
वेदानं -७६, ९९, १०५, १०६, १०८, ११४, १२२, विवट्टमाने लोके-१५
१२५ विवरणं-१०, ६१
वेदेति -६५, १६३,१८६, २२५ विवाहनं-१०,६१
वेदेहिपुत्तो - ४२, ४३, ४४, ४५, ५३, ५४, ५५, ७४, विवाहो-८६
७५ विविच्चेव-३१, ६५, ८७, १६३, १८६, १८७ वेय्याकरणो-७७, ९९, १०५, १०६, १०८, ११४, विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसा-१६३
१२२, १२५ विवेकजेन पीतिसुखेन-६५, १८६, १८७
वेय्याकरणं-२०३ विवेकजं पीतिसुखं-३१, ६५, ८७,१६३, १८६, १८७ | वेरमणिं - १३० विसविज्जा-८,६०
वेसारज्जप्पत्तो-९५,१३३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ स स ]
वेसालियं - १३४ वेस्सा - ८०
वेस्सामित्तो - ९१, २१६, २१७, २१८, २२०, २२१
वेस्सी - १७०, २१९
वेळुरियो - ६७, १८९
वोदानिया धम्मा- १७३, १७४, १७५, १७६
वोदानं - ९, ६०, ६१
वोस्सकम्मं - १०, ६१, १८३
वंसं - ६,५८
स
सउत्तरच्छदं ७, ५८
सउद्देसं - ११, १२, १३, १४, ७२, १९२, १९३ सकदागामिफलम्पि – २०८, २०९
सकदागामी - १३९
सकुणविज्जा - ८, ६०
सक्को नाम देवानमिन्दो - २००
सक्खिदिट्ठो - २१६, २१७, २१८, २१९, २२०, २२१ सक्यकुमारा- ७९
सद्दानुक्क
सक्यकुला ७६, ७७, ९७, ९८, ११२, ११३, १३४, २०५, २१४ सक्यजाति - ७९
सक्यपुत्ती - ७६, ७७, ९७, ९८, ११२, ११३, १३४, २०५, २१४
सक्या- ७९, ८०, ८१, ८३ सक्यानं - ७९, ८०, ८३
सखिलो - १०२, ११७
सग्गकथं - ९५,१३२ सग्गसंवत्तनिकं - ४६, ५२ सङ्किरणं - ६१
सङ्घलिखितं - ५५, १८२
सङ्घानं - १०, ६१
सङ्घियधम्मोउदपादि - २ सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे - ६२, ८७, १०९.१३१, १४०, १४३, १५६, १९६२, १८४, १९८, २११, २२५
27
सङ्घी - ४२, ४३, १०२, ११८
सच्चवादी - ४, ५६ सच्चसन्धो - ४,५६ सच्छिकिरिया - ८६
सच्छिकिरियाय- १४०, १७०, १७१, १७३ सच्छिकिरियाहेतु - १३८, १३९ सजिता - १६, २०१, २०२ सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो - ४३, ५१, ५२ सञ्झब्भरिमकंसु - १६७, १६८ सञ्ञग्गं - १६४, १६५
सञ्ञा - १६१, १६२, १६३, १६४, १६५, १६६
सञ्ञामयो - १६६, १७३
सञ्ञी - १६१, १६२ सञ्ञीगब्भा - ४८
[२७]
सञ्जुप्पादा- २४, १६५ सण्डसण्डचारिनी- १५० सति उदपादि - १६२
सतिणकट्ठोदकं - ७६, ९७, १००, ११२, ११५, २०५ सतिमा - ३२, ६६, ८७, १०९, १३१, १४१, १४४, १५६, १६३, १८८, १९८, २११ सतिया - १७
सतिसम्पञ्ञेन समन्नागतो - ५६, ६२, ६३, ८७, १०९, १३१, १४०, १४३, १५५, १५६, १६२, १८२, १८४, १८५, १९८, २११, २२५
सतो सम्पजानो - ६३, ६६, ८७, १०९, १३१, १४०,
१४१, १४३, १४४, १५६, १६२, १८५, १८८, १९८, २११
सत्थलक्खणं - ८, ६०
सत्था देवमनुस्सानं – ४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ९८, १०२, ११२, ११३, ११७, १३४, १८२, २०५, २१४
सत्थारो - २०९,२११
सत्थुसासना - २०९, २१० सत्त रतनानि - ७७ सत्तरतनसमन्नागतो - ७७
सता - १२, १३, १४, १५, १६, २३, ४७, ४९, ५१,
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२८]
दीघनिकायो-१
[स-स]
७२, ७३, १९३
सब्बवारियुत्तो-५० सत्तागारिको-१५०
सब्बवारिवारितो-५० सत्तालोपिको-१५०
सब्बाकारसम्पन्नो-६७, १८९ सत्तुस्सदं-७६,९७,१००,११२,११५, २०५ सब्यापज्जचित्तो-२२३, २२६ सदेवकं-५५,७६,७७,८६,९७,११२,१३४,१८२, सब्रह्मकं-५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ११२, १३४, २०५
१८२, २०५ सदेवमनुस्सं-५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ११२, १३४, | समग्गनन्दी-४,५६ १८२, २०५
समग्गारामो-४,५६ सद्धादेय्यानि-६, ७, ८, ९, १०, ५७, ५८, ५९, ६०, समङ्गीभूतो-३१, ५३, ५४ ६१,१५५, १८२, १८३
समणो गोतमो-४,५,७७, ९२, ९५, ९८, ९९, १००, सद्धापटिलाभेन-५५, ८७,१८२
१०३, १०४, १०५, ११३, ११५, ११६, ११९, सद्धेन-१०३, ११९
१२७, १४६, १४८, १५७, १५८, १६०, १६७, सधनो सभोगो-६४,१८६
१६८, २०६, २१४, २१५, २२४, २२५ सनङ्घमारेन-८५
समनुगाहन्ता-१४७,१४८,१४९ सनिघण्डुकेटुभानं-७६, ९९, १०५, १०६, १०८, | समनुभासन्ता-१४७,१४८,१४९ ११४, १२२, १२५
समनुयुञ्जन्ता-१४७, १४८,१४९ सन्तिकम्म-१०,६१,१५५,१८३
समन्नागतो-४५, ५५, ५६, ६२, ६३, ८७, ९२, ९३, सन्तिकावचरो -- १८१
९५,९९,१०१,१०६,१०७,१०८,१०९,११५, सन्तुट्ठो-५३, ५४, ५६, ६३, १५५, १८२, १८४ ११६, ११७, १२२, १२४, १२६, १२७, १३१, सन्तुस्सितो नाम देवपुत्तो-२००
१४०, १४३, १५५, १५६, १६२, १८२, १८३, सन्दिट्ठिकं सामञफलं-४६,४७, ४८, ४९, ५०,५१, १८४, १८५, १९८,२११, २२५
५२,५३,५४, ५५, ६५,६६,६७,६८,६९,७०, समप्पितो-३१, ५३, ५४ ७१,७२,७३,७४
समयप्पवादके-१६० सन्धागारे -७९
समाधि-१३६,१३७,१३८ सन्निपतितानं-२,१६१
समाधिक्खन्धो-१८४,१८८,१८९ सन्निसिन्नानं.-२,१६१
समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसा -- १६३ सप्पटिभयं-६४,१८६
समाधिजेन -६६,१८७ सप्पाटिहीरकतं-१७५,१७६
समाधिजं-३२,६५, ८७,१६३,१८७ सप्पिमण्डो-१७८
समाधिभावनानं -१३८ सप्पिहोमं-८,६०
समाहिते चित्ते-६७, ६८, ६९,७०,७१, ७२, ७३, सब्बङ्गपच्चङ्गी-२९,१६६, १७३
७४,८७,८८,१०९,११०,१३१, १४१,१४४, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी-४, ५६, ६३, १५५, १८२, १५६, १८९,१९०,१९१,१९३, २१२ १८५
समाधि -१९९,२०१ सब्बमूळ्हो - ५२
समिञ्जिते -६२, ८७, १०९, १३१, १४०, १४३, सब्बवारिधुतो-५०
१५६, १६२, १८४, १९८,२११, २२५ सब्बवारिफुटो-५०
समीपचारी--१८१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[स-स]
सद्दानुक्कमणिका
[२९]
समुच्छिन्नो-२९, ३०
सयनकथं-७,५८,१६० समुदयञ्च - १४, १९, २१, २४, २५, २७, २८, ३१, सयनसन्निधिं-६,५७ ३३,३४,४०
सयपटिभानं -१८, २०, २५ समुदयधम्म-९५,१३३
सयंपभा-१५ समुदयं-९५,१३२
सरणगमनेहि-१२९,१३०, १३१ समुद्दक्खायिक-७,५९,१६०
सरपरित्ताणं-८,६० समूहनिस्सामीति-१२०
सरा-४८ सम्पजञञ्च-१७३,१७४
सलाकहत्थं-६,५८ सम्पजानकारी होति-६२, ६३, ८७, १०९, १३१, सल्लकत्तियं-१०,६१, १८३
१४०, १४३, १५६, १६२, १८४, १९८, २११, सविचारं-३१, ६५, ८७,१६३, १८६, १८७ २२५
सवितक्कं - ३१, ६५, ८७,१६३, १८६, १८७ सम्पजानो - ३२, ६३, ६६, ८७, १०९, १३१, १४०, सवेरचित्ता - २२३, २२४
१४१, १४३, १४४, १५६, १६२, १६३, १८५, सस्सतवादा-११, १२, १३, १४, ३४,३६, ३७, ३९ १८८,१९८, २११
सस्सता-१७,१८ सम्पज्जलितं-८२
सस्सतिसमं-१२,१३,१६, १७,१८ सम्पसादनं -३२, ६५, ८७,१६३, १८७
सस्सतो- १२, १३, १४, १६, १८,१६६, १६७, १६८, सम्फप्पलापं-४,५६
१६९ सम्बाहनं-७,५८
सस्समणब्राह्मणिं-५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ११२, सम्बोधिपरायणो-१३९
१३४, १८२, २०५ सम्माआजीवो-१४०,१४९
सहधम्मिकंपहं-८२ सम्माकम्मन्तो-१४०,१४९
सहब्यताय-२१७, २१८,२१९, २२०, २२१, २२४, सम्मादिट्ठि-१४०,१४९, २०८
२२५, २२६ सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना -७३,१९३
सहब्यतं-१५ सम्मादिट्ठिका -७३,१२३, १९३
सहितं-७,५९ सम्मापटिपन्ना-४९
साकभक्खो -१५०,१५१,१५२,१५४ सम्मामनसिकारमन्वाय - ११,१२,१३,१६,१७,१८, साक्खरप्पभेदानं-७७,९९,१०५,१०६, १०८,११४, १९, २०, २४
१२२, १२५ सम्मावाचा-१४०,१४९
सात्थं-५५,७६,७७,८६, ९७,११२, १३४,१८२, सम्मावायामो-१४०,१४९
२०५ सम्मासङ्कप्पो-१४०,१४९
साधुसम्मतो-४२,४३ सम्मासति-१४०, १४९
सापदेसं-४, ५६ सम्मासमाधि-१४०,१४९
सामञफलन्ति -५३,५५ सम्मासम्बुद्धेन -२
सामञफलं-४६,४७,४८,४९, ५०,५१,५२, ५३, सम्मासम्बुद्धो-४४,५५,७६,७७,७८,८६,९७,९८, । ५४,५५, ६५, ६६, ६७, ६८, ६९,७०,७१,७२,
१०२, ११२, ११३, ११७, १३४, १३५, १८२, ७३,७४ २०५,२१४
सामञ्जसङ्खाता-१४९,१५०
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०]
सामञ्ञा - १५१ सामाकभक्खो - १५०, १५२ सामुक्कंसिका - ९५, १३२
सामुद्दिका - २०३ सालवतिका - २०५, २०७
सालाकियं - १०, ६१, १८३
सावज्जसङ्घाता - १४७, १४८ सावत्थियं - १६०, १८० सिक्खापदानि समादियति - १३०
सिक्खापदेसु - ५५, १५५, १८२
सिखाबन्धं - ७,५८ सिनिसूरं - ८०
सिप्पफलं उपजीवन्ति - ४५, ४६, ५२ सिप्पिकसम्बुकम्पि - १९४ सिप्पिकसम्बुकापि – १९४
सिरिव्हायनं - १०, ६१ सिवविज्जा - ८, ६० सतिं - ६३, १८५ सीलकथं - ९५, १३२ सीलक्खन्धस्स - १८१ सीलक्खन्धो - १८२, १८३
सीलपरिधोतापञ्ञा - १०८
दीघनिकायो-१
१५५, १६२, १८२, १८३, १९८, २११, २२५
सीलसंवरतो - ६२, १५५, १८३ सीलं - १०८, १०९, १५७ सीसविरेचनं - १०, ६१, १८३ सीहनादं - १५७ सीहो - १३५
सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको – ४९
सुजं पग्गहन्तानं - १०६, १०७, १०८, १२२, १२५ सुञगारे - १५७
सुञ - १५
सुत्तगुळे - ४८
सुदुज्जानो - १५३, १५४
सुद्ददासो - सुद्दा - ८०
सुद्दी - १७०, २१९
सीलमत्तकं - ३,१०
सुनिम्मितो नाम देवपुत्तो- २०० सुपरिकम्मकताय - ६९, १९१
सीलवतो पञ्ञा - १०८, १०९
सीलवा - ९९, १०१, १०६, १०७, १०८, ११५, ११६, सुपरिकम्मकतो - ६७, १८९
१२२, १२५
सीलवादा - १५७
सीलसम्पदाय - १५५, १५७
सीलसम्पन्न - ५६, ६२, १०९, १३१, १४०, १४३,
सुखदुक्खी अत्ता - २६ सुखविपाकं - ४६, ५२
सुखविहारीति - ३२, ६६, ८७, १०९, १३१, १४१,
१४४, १५६, १६३, १८८, १९८, २११
सुखाय - ५०
सुखिनो - ६५, १६३, १८६, २२५ सुखमच्छिकेन - ४०
सुखो च विहारो - १७३, १७४
30
सुखं - ६५, १६३, १८६, २२५
सुगतो - ४४, ५५, ७६, ७७, ८६, ९७, ९८, १०२,
११२, ११३, ११७, १३४, १६२, १८२, २०५, २१४
सुगतिं - ७३, १२७, १४६, १४७, १९३ सुचिमंसूपसेचनं - ९१
- ९१
सुपिनसतानि - ४८ सुपिनं - ८, ५९ सुप्पटिविदिता - २
सुप्पियो परिब्बाजको - १,२
[ स स ]
सुभगकरणं - १०, ६१
सुभट्ठायिनो - १५
सुभासितं - ३, १२७, १६८, १६९ सुभिक्खं -- १०, ६१
सुभो माणवी - १८०, १८१ सुयामो नाम देवपुत्तो-: सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना – १३०
- २००
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--------------------------------------------------------------------------
________________
[ह - ह]
सद्दानुक्कमणिका
[३१]
सुवण्णकारो-६९, १९१
सोळसपरिक्खाराति-१२७ सुवुट्ठिका भविस्सति-१०,६१
सोळसपरिक्खाराय- १२७, १२८, १२९, १३० सुसानं-६३, १८५
सोळसपरिक्खारं-११३, ११९ सुसुकाळकेसो--१०१,११६
संकिलिट्ठचित्ता-२२४ सूदा-४५,४६, ५२
संकिलिस्सन्ति-४७ सूरकथं-७,५८,१६०
संकिलेसं-९,६०, ६१,९५, १३२ सूरा -४५,४६, ५२,७७
संयोजनानं -१३९ सूरियग्गाहो भविस्सति-९,६०
संवट्टकप्पे-७१,७२, १९२ सेट्ठो-१६,८५,८६, २०१,२०२
संवट्टमाने-१५ सेनाकथं -७,५८,१६०
संवट्टविवट्टकप्पे-७१,७२, १९२ सेनाब्यूह-६, ५८
संवट्टविवढें-१२, १३ सेनियेन बिम्बिसारेन- ९७, १००,११२, ११५ संवरणं-१०,६१ सेय्यथापि-४०, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, ५२, ६२, संवरं-६२,७५, १८४
६३, ६४, ६५, ६६,६७,६८, ६९,७०,७१,७२, संवासमन्वाय-८४ ७३, ७४, ९१, ९२, ९५, १०८, ११०, १३२, संविधानं-१२०,१२१ १५५, १५८, १७०, १७२, १७५, १७८, १८३, | संवुतद्वारो-७८ १८४, १८५, १८६, १८७, १८८, १८९, १९०, संसारसुद्धिं ब्याकासि-४८ १९१, १९२, १९३, १९४, १९६, २०२, २०५, | संसुद्धगहणिको- ९९, १००, १०५, १०६, १०८, २०७, २०८, २०९, २१०, २१२, २१५, २१७, । ११४,११६,१२२, १२४, १२५
२१९, २२०, २२१, २२२, २२३, २२६, २२७ | स्वागत-१६१ सेवितब्बसङ्घाता-१४८,१४९
स्नेहानुगता-६५, १८७ सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा -३१, ३९ सोचयतो-४६ सोचापयतो-४६ सोणदण्डो ब्राह्मणो-९७, ९८, १००, १०३, १०४, | हत्थत्थरं-७५८ १०५, १०७, १०९,११०,१११
हत्थबन्धं-७५८ सोतधातुया-७०,१९१
हत्थापलेखनो-१५० सोतापत्तिफलम्पि-२०८,२०९
हत्थाभिजप्पनं - १०,६१ सोतापत्तिफलसच्छिकिरिया-१३२
हत्थारोहा- ४५,४६,५२ सोतापन्नो-१३९
हत्थिगवस्सवळवपटिग्गहणा-५,५७ सोभनकं -६, ५८
हत्थियुद्धं-६,५८ सोमनस्सदोमनस्सानं - ३२, ६७, ८७, १०९, १३१, | हत्थिरतनं-७७
१४१, १४४, १५६,१६३, १८८,१९८, २१२ । हथिलक्खणं-९,६० सोमनस्सं -३, ६४, १८५, १८६
हत्थिसारिपुत्तो- १६८, १७६, १७८, १७९ सोममव्हयाम-२२२
हदयङ्गमा-४,५६ सोवग्गिकं-४६, ५२
हनुजप्पनं - १०, ६१
31
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३२]
हस्सकञ्ञेव
- २१७
हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना - १७ हितानुकम्पी - २०७, २०८ हिमवन्तपस्से - ८०
दीघनिकायो-१
32
हिरञ्ञसुवणं - १००, ११६
हुतं - ४९
हेतु नत्थि - ४७
होति च न च होति तथागतो परं मरणा- १६७
[ह-ह]
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुक्कमणिका
एत्थ दीघञ्च रस्सञ्च-२०३ कत्थ आपोच पथवी-२०३ खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं-८५, ८६
ब्रह्मासामञ्जअम्बट्ठ-२२७ विआणं अनिदस्सनं-२०३
33
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) – १९७५
पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या
पालि टेक्स्ट सोसायटी
प्रथम वाक्यांश
वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या
306200000 GM & P wan
एवं मे सुतं पन परिब्बाजकस्स अवण्णं भासेय्यु पाणातिपातं पहाय सापदेसं परियन्तवति यथा वा पनेके भोन्तो धनुकं अक्खरिकं (पुरिस - कथं) सूर - कथं यथा वा पनेके भोन्तो रचं उपयानं वा इति एवरूपाय यथा वा पनेके भोन्तो विहितानि अधिवुत्ति पदानि निवासं अनुस्सरति सुखदुक्ख पटिसंवेदी लोको च वझो न परामसति आयुक्खया वा पुञ्जक्खया ब्रह्मना निम्मित्ता ते ठस्सन्ति । ये पन तथेव ठस्सन्ति दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता चेतोसमाधिं फुसति ब्राह्मणा एवं आहंसु
on om x x w wg vara a
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v9marwrLD MAvmwMMAMurar
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35
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३६]
दीघनिकायो-१
80565582228800mk0000000M
अकुसलन्ति यथा भूतं इति सो उपादानभया
आरब्भ एके समणब्राह्मणा विक्खेपिका तत्थ परं नानुस्सरति पवेदेति, येहि आघतनिका सञिवादा पवेदेति, येहि पवेदेति, येहि सन्ति, भिक्खवे जानासि न पस्ससि ब्राह्मणा वा उच्छेदवादा खो भो अयं असुखं उपेखासति पारिसुद्धिं न परामसति वत्थूहि तदपि तत्र, भिक्खवे वादा सस्सतं कप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो आघतनिका सञिवादा समणब्राह्मणा अन्तोजालिकता एवं मे सुतं मक्खलि गोसालो निगण्ठो नाटपुत्तो अजातसत्तु पणामेत्वा एकं तेन हि, महाराजा दानेन, दमेन दस खो गोसालस्स भासितं व्याकरेय्य लबुजं इत्थं खो मे भन्ते इत्थं खो मे भन्ते परम मरणा खो मे भन्ते
Mworrim mrM420w-242WMWv_mM240mm
36
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--------------------------------------------------------------------------
________________
संदर्भ-सूची
[३७]
अभिवादेय्याम पि घासच्छादनपरमताय सुत्वा तथागते अमुत्र वा सुत्वा समारम्भा पतिविरतो एवरूपा उच्चासयनमहासयना पहिण गमनानुयोगं तिरच्छानविज्जाय तिरच्छानविज्जाय निहितपच्चामित्तो महाराज भिक्खु तस्स मे ते ततोनिदानं सेय्यथा पि महाराज सन्देति परिपूरेति फरित्वा निसिन्नो होति इदञ्च पन मे अभिनिन्नामेति महानुभावे पाणिना सदोसं वा चित्तं अनुत्तरं वा चित्तं गामा सकं येव केन सत्ते पस्सति पजानाति “अयं दुक्खसमुदयो" इदं खो महाराज माघधस्स अजातसतुस्स एवं मे सुतं ब्रह्मचरियं पकासेति सत्तरतनसमन्नागतो कञ्चि कञ्चि भो गोतम सक्यजाति गोतम नच्छन्नं सक्या वत भो कुमारा सुतो च अम्बट्ठो कण्हायनानं पुब्बपुरिसो इमे माणवका
37
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३८]
दीघनिकायो-१
९७
१०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५
१०६
१०७ १०८ १०९ ११०
१११
११२ ११३
११४
ब्रह्मदण्डेन अपि नुस्स इत्थीसु पत्तो होति यद एव आवाह विवाहविनिबन्धञ्च विज्जाचरणसम्पदाय चातुम्महापथे नो हिदं भो गोतम मन्तनं मन्तेय्य नो हिदं भो गोतमो द्वे | द्वीसु तथा सन्तं येव अथ खो ते अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसादिस्स एवं मे सुतं अथ खो सोणदण्डो भो ब्राह्मणो अज्झायको मन्तधरो तेन हि भो मम समणं खलु भो समणो खलु भो नासक्खि समणं तत्र पि सुदं यं वत नो पितामहायुगा अक्खित्तो एवं वुत्ते ते सोणदण्डो समणस्सेव नो हिदं भो गोतम गोतम । सेय्यथापि चेव खो पन एवं मे सुतं ति । सो इमं यन्नाह उपसङ्कमितुं भवंहि कूटदन्तो दस्सनाय
११६
११७
०००० KW००
११८ ११९ १२० १२१ १२२ १२३ १२४
१०५ १०६ १०७ १०७ १०८ ११०
१२५
१२६ १२७ १२८
orror-ww wwwrror
१२९
१३० १३१ १३२
११५ ११६
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
संदर्भ-सूची
[३९]
११८
१३३ १३४ १३५
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सपरिसो सम्मोदिं भोगा महन्तं उस्सहिम्सु कसिगोरक्के आमन्तेसि इच्छामहं पुरोहितो ब्राह्मणो पटिविरता अभिज्झालुनो पितामहायुगा एवं पि भोतो अथ खो ब्राह्मण इति चत्तारो च अत्थि खो ब्राह्मण अप्पसमारब्भतरो अप्पट्ठत्तरो च कतमो सो भो गोतम सत्त ब्राह्मणो बुद्धपमुखं एवं मे सुतं अकालो खो आवुसो लिच्छविपरिसाय इध महालि इध महालि दिब्बानं सच्छिकिरियाहेतु कतमो पन चतुत्थज्झानं एवं मे सुतं दुतियज्झानं एवं मे सुतं चक्खुना विसुद्धन यं मयं एकच्चं वदेय्यु: "ये इमेसं समनुगाहन्तं समणब्राह्मणानं अजिनानि पि धारेति धम्मे सयं
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इति पि । साकभक्खो
एवं वृत्ते
भावेति, आसवानञ्च
सीलसम्पदाय यथा
सवितक्कं सविचारं
परियोदाते
ठानं खो पनेतं
तपसब्रह्मचारी
पब्बज्जं
एवं मे सुतं
जनपदकथं अभिसञ्जानिरोधे सञ्ञा उपज्जन्ति
चक्खु इन्द्रिये
होति
आकासनञ्चायतनं
चेतयमानस्स मे
ओळारिकं खो
अरूपं खो
एतं पि खो
धम्मसंहितं
ति वा, होति च
तथागतो परं
एकंसिको धम्मो
उप्पन्नाति ? इति
इति पुट्ठा
नो ति मरणाति ? ते चे में
वधम् सयं
अभिवड्डिसन्ति
अभिवड्डिसन्ति
एवं एव खो
संखं गच्छति
अहोसि अतीतो
एवं एव खो अनगारिय
एवं सुतं
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२१९ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८ २२९
तोदेय्यपुत्तस्स भवं हि आनन्दो सीलक्खन्धं इतो ...पे०... इदं कम्मनिये ठिते अच्छरियं भो एवं मे सुतं मनुस्स धम्मा यथा पि उदके अब्भुतं वत भो परिपूरेति भिक्खुं एतदवोचुं अथ खो सो सेय्यथीदं पठवीधातु एवं वुत्ते देव पुत्तं एतदवोच पातुर अहोसि एतदवोच इध ब्रह्मलोका परियेसमानो एवं मे सुतं सयं अभिजा अप्पबाधं अप्पातकं निसीदि । अथ खो मिच्छादिविस्स खो किं हि परो अहितानुकम्पी होति ओदहन्ति अञा चित्तं इमे खो लोहिच्च फुटा सिनेहेन लोके न एवं मे सुतं अयं अजसयनो इति किर वासेट्ठ किं पन वासेट्ठ नत्थि कोचि पस्सति मज्झिमो
२०० २०१ २०२ २०३ २०५ २०५ २०६ २०७ २०८ २०८ २०९
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२१८ २१९
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ब्राह्मणानं जनपदकल्याणिं मग्गं देसेस्सन्ति मग्गं देसेम ब्राह्मणा ये धम्मा धम्मा अब्राह्मणकरणा ब्रह्मानं अपरिग्गहस्स अवस्सटं मनसाकटस्स लोकविदू अनुत्तरो विहरति तथा इति किर वासेट्ठ ब्रह्मसामञ्जअम्बठ्ठ सोणकूटमहाजाला
२२३ २२४
२२४
२४८ २४९ २५० २५१ २५२
२२५
२२५ २२६ २२७
२५३
[* यह शब्द पेय्याल में से हैं।]
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May the merits and virtues
earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri be shared by all beings.
May all those
who come in contact with the Buddha Dhamma through
this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best fruits of the Dhamma.
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DEDICATION OF MERIT M******* *** * ***NG PA***
May the merit and virtue
accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above,
and relieve the suffering of those on the three paths below.
May those who see or hear of these efforts
generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma,
and finally be reborn together in
the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA
Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw
Printed in Taiwan 1998, 1200 copies
IN046-2001
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________________ ದಿನ ಒಣ ಎಂ. Aಣ ನಿಂಗಣಕಯ೬ ಡಿದಿ ? - As ಬ ನಿಬಂಣಂ 11 ಂದ, Star Soಳಸಿ' ಎಂದು ನಾನು ಎಂ - Kannad 5 ಓಲಂಪಿ: he G ವಿ ದಾ ಓಟ ದ ದ 1999, 1200 oares IN046-2001 Sex ಸಾ SS 61-74 [4-05-6