SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राक्कथन सद्धर्म को चिरायु बनाये रखने के लिए भगवान ने एक आवश्यकता यह बतायी कि धम्मवाणी को शुद्ध, सुव्यवस्थित रूप में सुरक्षित रखा जाय | इससे उसके अर्थ भी सही रह पायेंगे । दूसरी आवश्यकता यह बतायी कि “मैंने स्वयं अभिज्ञात करके जो धर्म सिखाया है- सब मिल-जुल कर, बिना विवाद के, उसका सामूहिक संगायन करें।" भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात महास्थविर काश्यप के नेतृत्व में भगवान के ५०० प्रमुख शिष्यों ने इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा करने का पहला कदम उठाया और सारी भगवद्वाणी को सुव्यवस्थित रूप में संकलित और संपादित करने के लिए प्रथम सामूहिक संगायन का आयोजन किया। सारी वाणी को विनय, सुत्त और अभिधम्म इन तीन भागों में बांटा गया । भगवान के समय से ही वाणी कंठस्थ करने की परंपरा चल पडी थी। यथा विनयधर, सत्तधर और मातिकाधर भिक्षओं का उल्लेख इस ओर संकेत करता है | कष्टसाध्य होने के कारण उन दिनों लिखित साहित्य का बहुत प्रचलन नहीं था । धम्म-साहित्य कंठस्थ करने का ही प्रचलन था । अतः ये भिक्षु अवश्य ही भगवान की वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने वाले होंगे। यथा विनयधर विनय को, सुत्तधर सुत्तों को और मातिकाधर मातिकाओं को | सारे साहित्य को कंठस्थ कर, याद रखने वाले महास्थविर आनन्द भी थे ही । एक ओर सारी वाणी को शुद्ध और सुव्यवस्थित रखने के लिए समय समय पर ऐतिहासिक संगीतियां होती रहीं, जिसका नवीनतम संयोजन छट्ठ संगायन के रूप में सन १९५४-५६ में ब्रह्मदेश में हुआ; दूसरी ओर वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने की एक स्वस्थ परंपरा भी कायम रही । प्रथम संगीति के बाद संभवतः मातिकाधर ही अभिधम्मधर कहलाये और आनन्द की भांति सारी वाणी को कंठस्थ कर, याद रखने वाले तिपिटकधर कहलाये । जैसे आनन्द बहुस्सुतो धम्मधरो कोसारक्खो महेसिनो... सद्धम्मधारको थेरो आनन्दो रतनाकरो कहलाये, वैसे ही परवर्ती तिपिटकधर धम्मभंडागारिक याने धर्म के भंडार को सुरक्षित रखने वाले धर्म के भंडारी के नाम से विख्यात हुए। जब तक धम्मवाणी लिखित रूप में नहीं आयी, केवल तब तक ही कंठस्थ करने की यह प्रथा कायम नहीं रही बल्कि उसके बाद आज तक भी यह परंपरा कायम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy