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है। अब जबकि धम्मवाणी ताड़पत्रों पर हस्तलिखित अथवा संगमरमर की पट्टियों पर टंकित ही नहीं है बल्कि मुद्रणालयों में पुस्तकाकार मुद्रित कर दी गयी है और अब तो कंप्यूटर में भी निवेशित कर दी गयी है तो भी कंठस्थ करने की यह परंपरा आज तक कायम है और इस स्वस्थ परातन । को कायम रखना भी चाहिए । पिछले दिनों तक इस परंपरा का प्रतिनिधित्व ब्रह्मदेश के परम पूज्य महास्थविर विचित्तसाराभिवंस करते रहे। जिन्हें केवल संपूर्ण तिपिटक का ही विशाल वाङ्मय नहीं बल्कि अट्ठकथाओं का भी एक बड़ा भाग कंठस्थ था। आज भी उनके चार अन्य साथी सारे तिपिटक को कंठस्थ कर रखने के कारण तिपिटकधर हैं । उपरोक्त संगीतियों के साथ-साथ इन विनयधरों, सुत्तधरों और अभिधम्मधरों तथा तिपिटकधरों की स्वस्थ परंपरा ने २५०० वर्षों के लंबे इतिहास में धम्मवाणी को शुद्ध और सुव्यवस्थित रूप में कायम रखने की महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
भारत ने धम्मवाणी पूर्णतया खो दी, शायद इसीलिए भारत से सद्धर्म भी लुप्त हुआ । परंतु ब्रह्मदेश, श्रीलंका, थाईलैंड और कंपूचिया ने धम्मवाणी सुरक्षित रखी। इन सभी देशों में सुरक्षित तिपिटिक उनकी अलग-अलग लिपियों में लिखा गया और उनके द्वारा उसका अलग-अलग उच्चारण में पाठ किया जाता रहा । परंतु मूल कलेवर में कोई अंतर नहीं आया । छठे संगायन में जब इन सभी देशों के ग्रंथ इकट्ठे किये गये और इनके तिपिटक आचार्य एकत्रित हुए तो देखा गया कि कहीं-कहीं पाठक अथवा लिपिक की असावधानी के कारण कुछ शब्दों की वर्तनी में ही अंतर आया था परंतु यह बहुत नगण्य था । सभी लिपियों का मूल कलेवर लगभग एक जैसा ही था । एतदर्थ हम इन संगीतिकारकों और धम्म-भंडागारिकों के अत्यंत आभारी हैं। जैसे भगवान बुद्ध पौराणिक नहीं, बल्कि ऐतिहासिक महापुरुष हैं, वैसे ही यह धम्मवाणी किसी कवि की कल्पनाजन्य रचना नहीं, बल्कि बुद्ध और उनके प्रमुख शिष्यों की अपनी अनुभवजन्य वाणी है । यह तथ्य इस सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखे गए वाङ्मय से स्वतः सिद्ध होता है। पड़ोसी देशों ने भारत की इस अनमोल निधि को कुशलतापूर्वक संभाल कर रखा, इस निमित्त सारा भारत इन देशों का आभारी है।
पड़ोसी ब्रह्मदेश ने तो केवल धम्मवाणी ही सुरक्षित नहीं रखी बल्कि इसमें समायी हुई विपश्यना साधना-विधि के सक्रिय अभ्यास को भी कायम रखा । सौभाग्य से मुझे यह विद्या परंपरागत आचार्य सयाजी ऊ बा खिन से वहीं प्राप्त हुई । सन १९६९ में जब यह विद्या लेकर मैं भारत आया और विपश्यना साधना के शिविर लगाने लगा तो यह देखकर अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि भारत के प्रबुद्ध लोगों ने अपनी इस पुरातन विद्या को कितने हर्ष के साथ अपना लिया । १५-२० वर्ष होते-होते विपश्यी साधकों की संख्या काफी बढ़ गयी । विपश्यना साधना से प्रभावित और लाभान्वित होने वाले साधक-साधिकाओं में से अनेकों ने मूल बुद्धवाणी और उसके अनुवाद की मांग करनी शुरू की ताकि इस विषय में उनकी सैद्धांतिक जानकारी बढ़े और साधना के क्षेत्र में उन्हें प्रभूत प्रेरणा और समुचित मार्गदर्शन मिले । तब तक नालंदा द्वारा नागरी लिपि में प्रकाशित तिपिटक भी अप्राप्य हो चुका था ।
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