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यह सुन कर भगवान ने सर्वप्रथम राजा से ही पूछ लिया कि यदि कोई आपके प्रजा-जन अपनी पुण्य-पारमी बढ़ाने के लिए घर से बेघर हो प्रव्रजित हो जायें तो उनके प्रति आपकी धारणा कैसी होगी ? इस पर राजा ने कहा कि हम उनका अभिवादन करेंगे, उनकी सेवा करेंगे, उनको आसन देंगे।
यह सुन कर भगवान ने कहा कि श्रामण्य का यह फल तो प्रत्यक्ष हुआ । परंतु इससे भी कहीं सुंदर और उत्तम सांदृष्टिक (अर्थात, आंखो-देखे) फल हुआ करते हैं ।
तब भगवान ने उन्हें विस्तार से समझाया कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है तब वह अरहंत अवस्था पर पहँचा हआ, सम्यक सम्बद्ध, विद्या और आचरण में संपन्न. अच्छी गति वाला, लोकों का जानकार, श्रेष्ठ, लोगों को रास्ते पर लाने वाला, देवों और मनुष्यों का शास्ता होकर अपने ही प्रयत्नों से सारे लोकों का साक्षात्कार कर ऐसे धर्म का उपदेश देता है जो आदि में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अंत में कल्याणकारी होता है। ऐसे धर्म को सुन कर कोई भी गृहपति श्रद्धावान हो घर-बार त्याग कर प्रव्रजित हो जाता है और उनके द्वारा उपदिष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करने में जुट जाता है। इसमें पुष्ट होने के लिए वह शील पालन करता है, इंद्रियों को वश में करता है, स्मृति और संप्रज्ञान बनाये रखता है और मात्र चीवर तथा पिंडपात से संतुष्ट रहता है । तत्पश्चात वह किसी निर्जन स्थान पर जा कर पालथी मार, शरीर को सीधा रख, मुख के इर्द-गिर्द जागरूक हो ध्यानावस्थित होने का उपक्रम करता है और ऐसा करता हुआ अपने चित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर लेता है। यह नीवरण दूर होते ही उसे अपने भीतर उत्तरोत्तर प्रमोद, प्रीति, प्रश्रब्धि और सुख की अनुभूति होने लगती है। इसके फलस्वरूप उसका चित्त समाहित होने लगता है।
यह स्थिति आने पर नाना प्रकार के श्रामण्य-फल प्रकट होने लगते हैं जो पूर्व में कहे गए श्रामण्य-फल से कहीं बढ़-चढ़ कर होते हैं । इस प्रकार श्रमण प्रथम ध्यान से लेकर चतुर्थ ध्यान को, उत्तरोत्तर, प्राप्त कर इनमें विहार करने लगता है। इस अवस्था पर पहुँच कर उसका चित्त नितांत शुद्ध, निष्पाप, क्लेश-रहित, मृदु, मनोरम और निश्चल हो जाता है । तब यह भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के लिए नवाने योग्य हो जाता है जिससे इन ध्यानों से भी बढ़ कर श्रामण्य-फल अनुभव में आने लगते
हैं।
चित्त को ज्ञान-दर्शन के लिए नवाने पर प्रज्ञापूर्वक यह जानकारी होने लगती है कि चार महाभूतों से बना हुआ यह शरीर पूरी तरह अनित्यता से ग्रस्त है, यह विज्ञान उससे आबद्ध है। ऐसे ही इसे मनोमय शरीर के निर्माण, ऋद्धियों की प्राप्ति, दिव्य श्रोत्र, परचित्तज्ञान, पूर्वजन्मों की
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