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नित्य हैं, आत्मा और लोक अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य हैं, लोक अंतवान अथवा अनंत हैं, आत्मा और लोक बिना कारण उत्पन्न होते हैं, इत्यादि । इन वादों को प्रज्ञप्त करने वाले लोग इन्हें या तो अपनी अधूरी चित्त-समाधि के बल पर अथवा केवल तर्कों के आधार पर प्रज्ञप्त किया करते
हैं।
'अपरांतकल्पिक' धारणाओं के अंतर्गत ऐसी मान्यताएं बतलाई गई हैं जैसे मरने के बाद भी आत्मा संज्ञी (अर्थात, होश वाला) बना रहता है, मरने के बाद आत्मा अ-संज्ञी (अर्थात, बिना होश वाला) हो जाता है, मरने के बाद आत्मा न संज्ञी रहता है न अ-संज्ञी, आत्मा का पूर्ण उच्छेद हो जाता है, इत्यादि।
भगवान ने स्पष्ट किया है कि मिथ्या धारणाओं का पोषण करने वाले व्यक्ति सदा इंद्रिय-क्षेत्र में बने रहते हैं। इनकी छहों इंद्रियों पर उनके विषयों का स्पर्श होते रहने से वे वेदनाओं को अनुभव करते रहते हैं और इन वेदनाओं के कारण तष्णा. तष्णा के कारण आसक्ति. आसक्ति के का भव, भव के कारण जन्म और जन्म के कारण बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दुःख, दौर्मनस्य और क्षोभ की अवस्थाओं में से गुजरते रहते हैं। ये इंद्रिय-क्षेत्र से परे की बात नहीं जानते।
केवल वही व्यक्ति जो वेदनाओं के उदय-व्यय, आस्वाद, दुष्परिणाम और इनके चंगुल से बाहर निकलने के उपाय को प्रज्ञापूर्वक यथाभूत जानते हैं, निर्वाण-लाभ कर मिथ्या धारणाओं से परे की बात को जान पाते हैं।
यही कारण है कि नाना प्रकार के वाद स्थापित करने वाले लोग वेदनाओं की यथाभूत जानकारी न होने से हमेशा इंद्रिय-क्षेत्र में बने रहने के कारण तालाब की मछलियों के समान मानों एक बृहज्जाल (ब्रह्मजाल) में फँसे रहते हैं।
२. सामञफलसुत्त
रहे थे। उन्हीं दिनों मगध
एक समय भगवान जीवक कोमारभच्च के आम्रवन में एक बड़े भिक्षु-संघ के साथ विहार कर
थे। उन्हीं दिनों मगध-नरेश अजातसत्त ने वहां आकर भगवान से यह प्रश्न किया कि जैसे भिन्न-भिन्न कलाओं से लोग इसी जीवन में प्रत्यक्ष जीविका कमा कर अपने आप को सुखी करते हैं, क्या इसी प्रकार श्रामण्य (अर्थात, भिक्षु होने) का फल भी प्रत्यक्ष फलदायक बतलाया जा सकता
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