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स्मृति तथा प्राणियों की च्युति और उत्पाद को जानने के लिए भी नवाया जा सकता है । परंतु जब इसे आस्रवों (चित्त-मलों) के क्षय के ज्ञान के लिए नवाया जाता है तब श्रमण यह प्रज्ञापूर्वक जानने लगता है कि यह दुःख है, यह दुःख का समुदय है, यह दुःख का निरोध है और यह दुःख का निरोध कराने वाला मार्ग है । वह यह भी प्रज्ञापूर्वक जानने लगता है कि यह आस्रव हैं, यह आनवों का समुदय है, यह आनवों का निरोध है और यह आस्रवों का निरोध करवाने वाला मार्ग है। इस प्रकार जानते-देखते उसका चित्त कामानवों से भी मुक्त हो जाता है, भवानवों से भी, अविद्यास्रवों से भी । तब उसे यह प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है- 'मैं मुक्त हो गया ! मैं मुक्त हो गया !!' वह प्रज्ञापूर्वक जान लेता - 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं ।'
भगवान ने कहा कि इससे बढ़ कर और कोई श्रामण्य फल होता नहीं है ।
३.
अम्बट्ठसुत्त
एक समय भगवान एक बड़े भिक्षु संघ के साथ कोसल देश के इच्छानंगल ब्राह्मणग्राम में विहार करते थे | उस समय पोक्खरसाति नाम के धनाढ्य ब्राह्मण को यह जानने की इच्छा हुई कि उनके बारे में जो यह ख्याति फैल रही है कि वे अरहंत, सम्यक सम्बुद्ध, विद्याचरणसंपन्न, अच्छी गति वाले, लोकों के जानकार, सर्वश्रेष्ठ, लोगों को राह पर लाने वाले सारथि, देवों और मनुष्यों के शास्ता, बुद्ध भगवान हैं, इत्यादि - यह कहां तक सही है ।
इस कार्य के लिए पोक्खरसाति ने विद्वत्ता में अपने समान अम्बठ्ठ नाम के अपने शिष्य को भेजा । शिष्य द्वारा यह पूछे जाने पर कि मुझे यह कैसे मालूम होगा कि भगवान की ख्याति सही है अथवा नहीं, उसने बतलाया कि मंत्रों के अनुसार महापुरुषों के बत्तीस शरीर लक्षण होते हैं । यदि वे घर में रहते हैं तो चक्रवर्ती राजा बनते हैं और घर त्याग दें तो सम्यक सम्बुद्ध होते हैं ।
तब अम्बट्ठ अन्य बहुत से माणवकों के साथ जहां भगवान बुद्ध थे वहां गया और वहां पहुँच कर उनसे अशिष्टतापूर्ण बातें करने लगा और शाक्यों पर भी अनुचित आक्षेप करने लगा । जब भगवान ने उसका ध्यान उसके अशिष्ट व्यवहार की ओर आकर्षित किया, तब वह बोला- 'हे गौतम ! जो मुंडक, श्रमण, इभ्य (नीच), काले, ब्रह्मा के पैर की संतान हैं, उनके साथ ऐसे ही कथा-संलाप किया जाता है जैसा कि मेरा आप गौतम के साथ हुआ है ।'
इस पर भगवान ने अम्बट्ट को उसके अपने गोत्र ' कण्हायन' का इतिहास बतलाते हुए यह
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