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________________ [१७] या उनकी संख्या इत्यादि पैरा संख्या से पहले दिये गये हैं । जैसे कि संयुत्तनिकाय के लिये - पहले ग्रंथ का नाम, भाग, वग्ग की संख्या या शीर्षक तथा पैरा संख्या । इसी तरह अङ्गुत्तरनिकाय के लिये ग्रंथ का नाम, भाग, निपात तथा अनुच्छेद संख्या दिये गये हैं । जहां प्रमुख रूप से गाथाएं हैं, जैसे कि धम्मपद इत्यादि में, वहां पैरा संख्या की जगह गाथा संख्या दी गयी है । प्रस्तुत ग्रंथ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय, भाग-१ ( सीलक्खन्धवग्गपाळि ) सुत्तपिटक के प्रथम निकाय, दीघनिकाय के तीन खंडों में से प्रथम खंड है । हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा । Jain Education International 27 For Private & Personal Use Only निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास www.jainelibrary.org
SR No.009976
Book TitleDighnikayo Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVipassana Research Institute Igatpuri
PublisherVipassana Research Institute Igatpuri
Publication Year1998
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationInterfaith, Buddhism, R000, & R005
File Size13 MB
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