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चूंकि साधक अपनी ही संज्ञा ग्रहण करने वाला होता है, अतः वह वहां से वहां, वहां से वहां, क्रमशः श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर संज्ञा को प्राप्त करता जाता है। उसके चिंतन न करने, अभिसंस्करण न करने से सूक्ष्म संज्ञाएं नष्ट हो जाती हैं और उदार संज्ञाएं उत्पन्न होती नहीं । इस प्रकार, क्रमशः, अभिसंज्ञा-निरोध की स्थिति आ जाती है।
तब पोट्ठपाद ने यह जानना चाहा कि संज्ञा पुरुष की आत्मा होती है, या संज्ञा और आत्मा अलग-अलग होते हैं। इस पर भगवान ने कहा कि तुम जैसे भिन्न दृष्टि वाले, भिन्न चाह वाले, भिन्न रुचि वाले, भिन्न आयोग वाले, भिन्न आचार्य वाले के लिए यह जान लेना दुष्कर है।
तब पोट्ठपाद ने एक-एक करके यह जानना चाहा कि क्या लोक शाश्वत है; अशाश्वत है; अंतवान है; अनंत है; जीव ही शरीर है; जीव और शरीर अलग-अलग हैं; मरने के बाद तथागत फिर पैदा होता है, या नहीं होता है, या होता है और नहीं भी होता है, या न होता है होता है । इन प्रश्नों को भगवान ने 'अव्याकृत' (अनिर्वचनीय) कहा क्योंकि ये न तो अर्थयुक्त हैं, न धर्मयुक्त, न आदि-ब्रह्मचर्य के उपयुक्त और न ही ये निर्वेद, विराग, निरोध, शांति, अभिज्ञा, संबोधि अथवा निर्वाण के लिए उपयोगी हैं।
तब पोट्टपाद द्वारा यह पूछे जाने पर कि भगवान ने क्या-क्या 'व्याकृत' किया है, उन्होंने
कहा -
'यह दुःख है'; 'यह दुःख का हेतु है'; 'यह दुःख का निरोध है'; 'यह दुःख के निरोध का उपाय है।'
दो तीन दिन बीतने पर चित्त हत्थिसारिपुत्त और पोट्ठपाद भगवान के पास गये । उस अवसर पर चर्चा के दौरान भगवान ने कहा कि कोई-कोई श्रमण-ब्राह्मण ऐसी दृष्टि रखते हैं कि 'मरने के बाद आत्मा अ-रोग, एकांत-सुखी होती है।' यह पूछे जाने पर ये कहते हैं कि हम न तो इस एकांत सुख वाले लोक अथवा आत्मा को जानते हैं; न वहां ले जाने वाले मार्ग को जानते हैं और न ही उस लोक में उत्पन्न हुए देवताओं के शब्द सुन पाते हैं कि ऐसे ही मार्ग पर आरूढ़ होकर हम यहां पर पैदा हुए हैं। इससे उनका कथन वैसे ही प्रमाणरहित हो जाता है जैसे किसी जनपदकल्याणी की कामना करने वाले व्यक्ति ने न तो उसे देखा हो और न उसके बारे में कुछ जानता हो, या किसी महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी बनाने वाले व्यक्ति ने न तो महल को देखा हो और न उसके बारे में कुछ जानता हो।
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