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द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई गृहपति कैसे विविध प्रकार के शीलों का पालन कर 'शीलसंपन्न' हो जाता है ।
फिर इंद्रियों को वश में करता हुआ, हर अवस्था में स्मृति और संप्रज्ञान बनाये हुए, संतुष्ट रह कर, पांचों नीवरणों का प्रहाण कर, एक-के-बाद-एक चारों ध्यान करके 'समाधिसंपन्न' हो जाता है ।
और तदनंतर अपने चित्त में विपश्यना - ज्ञान लेकर आम्रवक्षय-ज्ञान तक विविध प्रकार के ज्ञान जगा कर 'प्रज्ञासंपन्न' हो जाता है। आस्रवक्षय-ज्ञान होने के साथ ही उस व्यक्ति को यह अभिज्ञान हो जाता है - 'मैं मुक्त हो गया ! मैं मुक्त हो गया !'
आर्य प्रज्ञा-स्कंध से परे करने को कुछ शेष नहीं रह जाता है ।
सुभ माणवक ने भी 'आर्य प्रज्ञा- स्कंध' की परिपूर्णता को जान कर आश्चर्य व्यक्त किया और शरण-त्रय ग्रहण करते हुए आयुष्मान आनन्द से याचना की कि वे उसे जीवन भर के लिए अपनी शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें ।
११.
केवट्टसुत्त
एक समय भगवान नालन्दा के निकट पावारिक आम्रवन में विहार कर रहे थे। उस समय गृहपतिपुत्र केवट्ट ने उनसे अनुरोध किया कि आप समृद्ध एवं घनी आबादी वाले नालन्दा नगर में अपने किसी भिक्षु को भेज कर वहां अलौकिक ऋद्धियों का प्रदर्शन करावें। इससे नालन्दा-वासी आप के प्रति और अधिक श्रद्धालु हो जायेंगे |
इस पर भगवान ने कहा मैं अपने भिक्षुओं को ऐसा धर्मोपदेश नहीं देता कि तुम गृहस्थों को अपनी ऋद्धियों का प्रदर्शन करो । ऋद्धि-बल तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें मैंने स्वयं जान कर और साक्षात्कार कर बतलाया है । ये हैं- (१) ऋद्धि-प्रातिहार्य, (२) आदेशना - प्रातिहार्य, (३) अनुशासनी - प्रातिहार्य |
तथा
तब भगवान ने इन तीनों के गुण-दोष बतलाये । उन्होंने कहा 'ऋद्धि- प्रातिहार्य' में भिक्षु अपने ऋद्धि-बल से अनेक प्रकार की अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन करता है, परंतु गन्धारी नाम की विद्या द्वारा भी ऐसा किया जा सकता है। ऐसे ही 'आदेशना - प्रातिहार्य' में भिक्षु दूसरों के चित्त को जान
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