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तदनंतर पुरोहित ने यज्ञ करने से पूर्व ही राजा के हृदय से दान लेने वालों के प्रति उत्पन्न होने वाले दस प्रकार के चित्त-विकारों को दूर किया और यज्ञ करते समय उसके चित्त का सोलह प्रकार से समुत्तेजन-संप्रहर्षण किया।
उस यज्ञ में न तो गायें मारी गयीं, न बकरे-भेड़े, न मुर्गे सूअर, न नाना प्रकार के प्राणी । न यूप के लिए वृक्ष काटे गये, न वेदी पर बिछाने के लिए दर्भ | जो काम करने वाले नौकर-चाकर थे उन्होंने भी दंड-तर्जित, भय-तर्जित हो, आंसू बहाते, रोते हुए सेवा नहीं की। जिसने जो चाहा वही किया, जो नहीं चाहा वह नहीं किया । घी, तेल, मक्खन, दही, मधु, खांड से वह यज्ञ संपन्न हुआ।
भगवान ने यह भी बतलाया कि उस यज्ञ का याजयिता पुरोहित मैं ही था ।
कूटदन्त द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या इस सोलह परिष्कार वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा से कम सामग्री और कम क्रिया वाला, किन्तु महाफलदायी, कोई यज्ञ होता है, भगवान ने कहा- हां ।
तत्पश्चात उन्होंने उसे एक-से-एक उत्तम, प्रणीततर यज्ञों के बारे में बतलाया -
१. दान-यज्ञ - वे नित्य-दान जो प्रत्येक कुल में सदाचारी प्रव्रजितों को दिये जाते हैं।
२. त्रिशरण-यज्ञ - यह जो प्रसन्नचित्त हो बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाना है।
३. शिक्षापद-यज्ञ – यह जो प्रसन्नचित्त हो शिक्षापदों का ग्रहण करना है (अर्थात, जीवों की
अ-हिंसा, अ-स्तेय, अ-व्यभिचार, अ-मृषावाद, नशे-पते से विरति)।
४. शील-यज्ञ - जब संसार में तथागत के उत्पन्न होने पर उनके द्वारा साक्षात्कार किये गये
धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर कोई व्यक्ति चूळ, मज्झिम और महा इन तीनों प्रकार के शीलों का पालन करके शीलसंपन्न हो जाता है।
५. समाधि-यज्ञ - जब कोई व्यक्ति इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृतिमान और
संप्रज्ञानी बना रह, संतुष्ट हुआ, अपने चित्त से नीवरणों को दूर कर, समाहित चित्त से उत्तरोत्तर प्रथम से चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है।
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