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पर भी कोई पुरुष ‘ब्राह्मण' कहला सकता है, सोणदण्ड ने कहा- नहीं । प्रज्ञा शील से प्रक्षालित है और शील प्रज्ञा से । जहां शील है वहां प्रज्ञा है; जहां प्रज्ञा है वहां शील है । शीलवान को प्रज्ञा होती है, प्रज्ञावान को शील । शील और प्रज्ञा को संसार में अगुआ बतलाया जाता है। यह ऐसे ही है जैसे कोई हाथ से हाथ धोए, पैर से पैर ।
भगवान ने इसका अनुमोदन किया पर यह पूछ लिया कि 'शील' क्या होता है और 'प्रज्ञा' क्या होती है । इस पर सोणदण्ड ने कहा कि हम तो इतना भर ही जानते हैं । अच्छा हो यदि भगवान ही इस पर प्रकाश डालें ।
तब भगवान ने कहा कि संसार में जब कभी कोई तथागत उत्पन्न होता है और कोई व्यक्ति उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये धर्म के प्रति श्रद्धावान होकर तीनों प्रकार के शीलों का पालन करने लगता है, तब वह ' शीलसंपन्न' हो जाता । फिर इंद्रियों को वश में कर, हर अवस्था में स्मृतिमान और संप्रज्ञानी रह, संतुष्ट हुआ हुआ, अपने चित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर समाहित चित्त से उत्तरोत्तर चारों ध्यानों का अभ्यास कर (विपश्यना ) ज्ञान के लिए अपने चित्त को नवाता है, तो यह 'प्रज्ञा' होती है। ऐसे ही जब वह चित्त को आस्रवों के क्षय के ज्ञान के लिए नवाता है और इसके फलस्वरूप यह जान लेता है कि 'जन्म क्षीण हुआ, ब्रह्मचर्य पूरा हुआ, जो करना था सो कर लिया, इससे परे करने को कुछ रहा नहीं', तो यह 'प्रज्ञा' ही है ।
यह सुन कर भाव-विभोर हो सोणदण्ड ने भगवान से कहा कि आप मुझे अपना अंजलिबद्ध शरण में आया हुआ उपासक स्वीकार करें और भिक्षु संघ सहित मेरे यहां कल का भोजन स्वीकार करें ।
अगले दिन भोजन हो चुकने पर सोणदण्ड ने भगवान से कहा कि यदि मैं परिषद में बैठे हुए आसन से उठ कर आपका अभिवादन करूं तो परिषद मेरा तिरस्कार करेगी जिससे मेरा यश क्षीण होगा और यश क्षीण होने से भोग क्षीण होगा । हमें यश से ही भोग मिलते हैं । अतः यदि मैं परिषद में बैठे हुए हाथ जोडूं तो इसे आप मेरा खड़ा होना जानें। यदि मैं परिषद में बैठा हुआ अपना साफा हटाऊं तो उसे आप मेरा सिर से किया गया अभिवादन मानें। ऐसे ही यदि यान में बैठे हुए मैं कोड़ा ऊपर उठाऊं तो उसे आप मेरा यान से उतरना मानें और यदि मैं यान में बैठा हुआ हाथ उठाऊं तो उसे आप मेरा सिर से किया गया अभिवादन स्वीकार करें ।
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