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* तीन संयोजनों (बंधनों) का समूल नाश हो जाने से 'सोतापन्न' हो जाना, जिससे उस व्यक्ति का अधःपतन नहीं होता और उसका संबोधि (परम ज्ञान) प्राप्त कर लेना सुनिश्चित हो जाता है;
* तीन संयोजनों (बंधनों) का समूल नाश हो जाने और राग, द्वेष तथा मोह के निर्बल पड़ जाने से 'सकदागामी' हो जाना, जिससे वह व्यक्ति एक ही बार इस संसार में आकर अपने दुःखों का अंत कर लेता है;
* पांच अवरभागीय (यहीं आवागमन में अवरुद्ध रखने वाले) संयोजनों का समूल नाश हो जाने से 'ओपपातिक' अनागामी हो जाना, जिससे वह व्यक्ति इस लोक में लौट कर नहीं आता और उच्च लोक में ही निर्वाण-लाभ कर लेता है; और
___ * आप्नवों (चित्त-मलों) का नाश हो जाने से इसी संसार में आनव-रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति का स्वयं साक्षात्कार कर विहार करने लगता है |
भगवान ने यह भी दर्शाया कि इन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए जो मार्ग है वह यही है जिसे 'आर्य अष्टांगिक मार्ग' कहते हैं, अर्थात -
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि ।
७. जालियसुत्त भगवान के कोसम्बी के घोसिताराम में विहार करते समय मुण्डिय परिव्राजक और दारुपत्तिक के शिष्य जालिय ने भगवान से प्रश्न किया- 'आवुस ! गौतम ! जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ?'
भगवान ने उन्हें समझाया कि संसार में जब कोई व्यक्ति तथागत के बतलाये हुए मार्ग पर चल कर शील में प्रतिष्ठित हुआ, अपने वित्त से पांचों नीवरणों को दूर कर प्रथम ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है तब उसके लिए यह प्रश्न अ-प्रासंगिक हो जाता है- 'जो जीव है वही शरीर है या जीव दूसरा और शरीर दूसरा है ?'
ऐसे ही यह प्रश्न उस व्यक्ति के लिए अ-प्रासंगिक हो जाता है जो द्वितीय, तृतीय अथवा
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