________________
[४]
माने में अकालिक है; जो हमें सत्य का स्वयं साक्षात्कार करने के लिए आमंत्रित करता है; जो कदम-कदम अंतिम लक्ष्य निर्वाण के समीप ले जाने वाला है और जो समझदार लोगों के लिए स्वयं अनुभव किये जाने योग्य है। यह ऐसा सांप्रदायिकता-विहीन, सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सनातन आर्यधर्म है जो कि सभी के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। सारा तिपिटक हमें इस धर्म-सुधा का रसपान कराता है।
_ और है तिपिटक में भगवद्वाणी के अमृतपायी साधक संघ का प्रेरक दर्शन जो कि यह सिद्ध करता है कि भगवान के सिखाये हुए धर्म में अंध-श्रद्धाजन्य भक्ति-भावावेश के लिए कोई स्थान नहीं है; बाल की खाल खींचने वाले तार्किक बुद्धिवादियों के बुद्धि-किलोल के लिए कोई अवकाश नहीं है। धर्म अत्यंत व्यावहारिक है । इसे धारण करने वाला व्यक्ति मुक्ति के मार्ग पर सुप्रतिपन्न हो जाता है, ऋजु-प्रतिपन्न हो जाता है, न्याय-प्रतिपन्न हो जाता है, समीचीन रूप से प्रतिपन्न हो जाता है और सोतापन्न, सकदागामी, अनागामी, अरहंत में से किसी एक आर्य अवस्था को अवश्य प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति सबके लिए पूज्य है, प्रणम्य है, वरेण्य है, दक्षिणेय्य है । तिपिटक में ऐसे गृही और गृहत्यागी संतों का दर्शन करके हमारे मन में धर्म-मार्गी होने के लिए प्रभूत, पावन प्रेरणा जागती है। उनकी आश्वासन-भरी स्वानुभूत वाणी हमारे भीतर पुलक-रोमांच जगाती है और हमारी साधना को अनुप्राणित करती है।
तिपिटक में २५०० वर्ष पूर्व के भारत का आध्यात्मिक और दार्शनिक ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनैतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, व्यापारिक, औद्योगिक, पारिवारिक, नागरिक, ग्रामिक आदि सभी विषयों का बहुरंगी दर्शन निहित है। तिपिटक में २५०० वर्ष पुराना भारत जीवंत हो उठा है । तिपिटक एक ऐसा महासागर है जिसमें कल्याणकारी सुभाषितों का अतुल भंडार भरा पड़ा है।
पिटक का एक अर्थ पेटी या पिटारी भी होता है। परंतु उन दिनों वस्तुतः पिटक शब्द धम्म-साहित्य के अर्थ में बहुप्रचलित था । लेकिन यदि इसका अर्थ पेटी या पिटारी भी लें तो यह तीन पिटारियां ऐसी हैं जिनमें भारत की महान सभ्यता, संस्कृति, धर्म और दर्शन का अनमोल खजाना सुरक्षित रखा हुआ है। विशोधकर्ता देखेंगे कि यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से भगवान बुद्ध की सिखायी हुई विद्या भारत से लुप्त हो गयी परंतु वास्तविकता यह है कि वह परोक्ष रूप से सारे परवर्ती साहित्य में समा गयी । परवर्ती संस्कृत साहित्य ही नहीं बल्कि हिंदी सहित सभी प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य बुद्ध-मंतव्य से ओतप्रोत है। संत-साहित्य पर बुद्धवाणी की कितनी गहरी छाप है। अब यही वाणी अपने मूल रूप में हमारे सामने प्रत्यक्ष आ रही है जिसका विश्लेषणात्मक और तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम देखेंगे कि सारा भारत भगवान बुद्ध की मौलिक विचारधाराओं का और साधना विधियों
14
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org