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जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि कृत.
देववन्दन स्तुति स्तवन संग्रह.
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श्रीमद् बुद्धिसागर सूरिजी ग्रंथमाला ग्रंथांक ५९
शास्त्रविशारद योगनिष्ठ जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर
मूरिजी विरचित
देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह
साणंदना श्रीसागरगच्छनी प्रेरणा अने सहायथी
छपावी प्रसिद्ध करनार, श्री अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंगल हा. वकील मोहनलाल हीमचंद.
मु. पादरा.
आवृत्ति पहेली.
प्रत १०००.
संवत १९७८ सन १९२२
किंमत रु. ०-४-..
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आ पुस्तक मळवा- ठेकाj---
वकील मोहनलाल हीमचंद.
___ [ गुजरात ] पादरा. शा. आतमाराम खेमचंद.
साणंद.
श्री प्रजाहितार्थ मुद्रालय प्रेसमां पटेल, डाघाभाइ दलपतरामे
छाप्यु. ४२ शाहापुर नवी पोळ-अमदाबाद.
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वक्तव्य. ॐ अर्हमहावीरायनमः
श्री " देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह" एवं आ पुस्तकनुं नाम पाडयुं छे. साणंदना शेठ, उमेद महेताना सुपुत्रो-त्रिभोवनदास तथा चुनीलाल तथा पौत्र, शा. दलमुखभाइ गोविंदनी प्रेरणाथी सं. १९७७ मां साणंदमां चोमामु कयु हतुं त्यार देववंदन ' स्तुति ' पूनाओनी रचना करवानों प्रारंभ को हतो. देववंदन अने स्तुतियोनो द्वन्द वास साणंदमां रचायो छे, तथा बीजनुं स्तवन त्यांथी आरंभीने अर्धमान तप ओली स्तवन मुधीनो स्तवन भाग पग साणंदमां रचायेल छे. पहेली चोवीशी. सं. १९६४ ना माणसाना चोमासामां आषाढ मासमां रचाइ छे अने वीजी चोवीशी. सं. १९६५ नी सा. लमां डभोइमां श्रीमद उपाध्याय यशोविजयनी देरीमा फाल्गुन पूर्णिमाने दिन रचेली छे. आबे चोवीशीओ पहेलां साणंद जैनोदय बुद्धिसागर समाज तरफथी छपाइ हती छतां स्तवनोनो उपयोग विशेष प्रमाणमां थाय अने पुस्तक भेगो जळवाइ रहे एम जाणी आ पु. स्तकमां दाखल करवामां आवी छे. पाछळनां चे स्तवनो मेसाणामां हालना चातुर्मासमां रचायेलां छे. विविध रुचिवाला जीवो छे. सर्व जीगेनी भिन्न भिन्न रुचि छे. भक्तिनां स्तवनो पैकी जेने जेको । 'धिकार होय छे तेने ते स्तवन रुचे छे. स्तवनो पैकी केवलांक
जी रुचिनी प्रेरणानुसारे रचायलां के अने केटलांक स्वानुभव
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४
उद्गारावेशथी रवेल छे. पूर्व पुनिवरोए देववंदन स्तुति स्तवनो वगेरेनी रचना करी छे अने ते सारी ले तो नवीन देववंदनादिनी रचना करवानी शी जरुर हती ? एम केटलाक प्राचीन प्रियवादीओ तरफथी कहेवामां आवे तेना उत्तरमा जणाववानुं के मनुष्यो सर्वे कंड प्राचीन मिय नथी तथा सर्वे के वर्तमान प्रिय नयी. सर्व मनुयोनी भिन्न भिन्न रुचि ले तेथी भूतमां ने वर्तमानमां गमे तेवां स्तवनो वगेरेनी रचना करेली होय ले अगर कराय छे तोपण ते तेओ पोताना योग्य स्तवनने पसंद करे छे. कोड़ने द्रव्यानुयोगनां स्तवन रुचे छे, कोइने स्वामीसेवक भावनां अने तेपां पण अत्यंत पश्चात्ताप करवामां आव्यो होय एवां स्तवनो रुने छे. कोइने प्रभुना बाह्य अतिशयवाळां स्तत्रनो रुचे छे, कोइने आंतर अतिशयवाळां स्तनो रुवे छे. एम भिन्न भिन्न दशावाळा जीवोने भिन्न भिन्न स्तवन रुचे छे अने ते स्वदशा पसंद करे ले एस तेमनी स्वरुचि स्वतंत्रता छे. ते कोइनाथी छीनवी लेवाय ते नथी. जेने जेमां रस पडे ते ते स्तवनो वगेरेथी प्रभुनी भक्ति करीने आत्मानी शुद्धि करे. बाल मध्यम अने ज्ञानी एव वण्य प्रकारना जीवो होय छे. एक मनुध्यमां त्रण दशाओ भगटे है. वाल्यकालमा जे स्तवनी रुने ते मध्यम दशामां रुचतां नथी भने मन्यन दशामां जे रुचेले ते ज्ञानी दशामi aani नथी. कोने भावमुख्य स्वनो रुवे छे. कोड़ने साहित्य कलाविवान दृष्टि स्वनो वगेरे कवे छे. कोइने आत्मज्ञान गर्मित स्तवनो रुवे छे. तेवी स्तवनो अमुक रीति कलाएज
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relai atai aise वो सार्वदेशीय नियम सिद्ध यतो नथी, कारण तेमां रुचिभावनी मुख्यता छे अने तेवी स्वतंत्रता पर कोइ - नाथी साहित्य विषयक कायदाओने घडीने अंकुश मूकी शकातो नथी. लघु वालकना अव्यक्त शब्दो - कालाघेला शब्दो पण तेना मावापने प्रिय लागे छे. पोताने जे प्रिय न लागतां होय एवां स्तEat at अवश्य अन्योने प्रिय लागे छे अने तेथी तेओनी भावना खीलेले तेथी त्यां अमुक नियम कलाविधान कायदाओनी परतंत्रताने को करे नहि. सत्य रहस्य तो ए छे के जेने जे रुचे ते ग्रहे, अने न रुचं तेनुं खंडन न करे. भक्तिविषय स्तवनोथी आत्मानी अशुद्धि तो थती नयी तेथी तेना खंडननी माथाकूटमां पडवानी जरुर रहेती नथी. स्तवनी वगेरे कर्तानुं हृदय छे. उद्गारवाळां स्तवनो वगेरेमा तेना रचविताना दशानुं प्रतिबिंब पडया विना रहेतुं नथी, समान दशावाळाने स्वहृदय भाव सरखां स्तवनो रुवे छे तेथी अमुक सा वा अमुक नरसुं कवानो सार्वजनिक दृष्टिए अधिकार नथी. कलाविधान स्तवन साहित्यज्ञोमां भिन्न भिन्न विषयरुचि होय के तेथी एक सरखो कायदा सर्वने लागु पडतो नथी. भावनगरना रहीश सुश्रावक कुंवरजीना पुत्र परमानंद, जो आवी दृष्टिए स्तवनोनी प्रियतानो विचार करशे तो तेओ अनेक दृष्टियोनी अपेक्षानुं स्तवन साहित्य स्वरूप विचारीने शांत सापेक्ष दृष्टिवाळा नशे. पोतानी दृष्टिए जे पसंद पडे छे ते कंइ सर्वनी दृष्टियो माटे नथी. पोताने जे अपेक्षाए सत्य लागे छे ते कंइ सर्वने सत्य लागे
•
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नहीं, तेथी पोताने जे प्रिय सत्य न लागे तेनुं खंडन करवा मंडीजवू ते एकांत संकुचित निरपेक्ष दृष्टि छे. भाषा, राज्य, कोम, प्रजा, धर्मपर, जो सख्त निया पडे छे तो तेथी भाषा वगेरेनुं मृत्यु धाय छे. संस्कृत भाषापर घमा नियम कायदा थया तेथी ते जीवती भाषा रही नहीं, तेम स्तवनो कारे पर जो हदयभाव दाववाना नियमो पडे तो दुनियामांथी औद्गारिक स्तवनोवाळी भक्तिनो नाश थाय एम अनु. भवीओ जाणे छे. भावपर कायदो ते जीवतां मृत्यु छे. जेने जे भाव वाळां स्तवनो वगेरे रुचे ते ग्रहण करे एवी भावनावाला स्वतंत्र भतोना हृदयोमाथी उत्तम उदार भक्तिरसनी गंगाओ प्रगटवानी आशा राखी शकीए. वस्तुतः खरां स्तवनो तो ए छे के प्रभुनी स्तवना करवामां अंतरमांथी तेकाले स्वतः भक्तिरसमय गद्य वा पत्र कंइ बोलाय. एवां हार्दिक रसमय स्तवनो तेज प्रभुनां तानां स्तवनो छे. एवां स्तवनो तुर्त बनातीने गानारा ज्ञानी भक्त कवियो होय छे. वालजीवोनी एवी दशा होती नथी तेथी तेओ अन्योनां रचेलां अने पोताने पसंद पडे एवां स्तवनाने मुले करी प्रभुनी आगळ गाय छ अने आनंद माने छे.
जे स्तवनो वगेरेनो अर्थ समजवामां आवे अने ते गानां शरीरमा भक्तिभावना आंदोलनो प्रगटे, तन विकसे. मन विकसे, आँखा विकसे, आत्मामां रसनां झरणो प्रगटे एवां स्तवनो गावां अगर तत्काल प्रभुनी आगळ नवां बनावीने गावां- मातृभाषामां रचेल स्तवनो,
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तुर्त समजाय छे माटे मातृभाषामां स्तवनो, स:तियोवगेरेनी रचना करवीते अत्यंत उपयोगी छे. शब्द बोलतांनी साथे सहेजे अर्थ समजाय अने हृदयमां भक्तिभाव प्रगट थाय एवां स्तवनी अने स्तुतियोने बोलवी जोइए. शब्दना अर्थनी मालुप न पडे अने पोपटनी पेठे फक्त बोली जवाय एवां चैत्यवंदनस्तोत्र स्तवन वगेरेथी भक्तिरस प्रगटतो नथी, भक्तिभावना प्रगटती नथी, माटे जे स्तबनो वगेरेनो परिपूर्ण अर्थ समजाय ते स्तवनोने मुखे करवां अने तद्द्वारा प्रभुनी स्तवना करवी. जे स्तवन बगेरेथी भक्ति करनारने भक्ति आनंदरस प्रगटे तेणे ते स्तवन वगेरेनुं गान करवं. बाह्य पौद्गलिक सुरनरनी ऋद्धि पदवी मेळववानी इच्छाए स्तवनादि अनुष्टान कर, ते गरल अनुष्टान छे. पर भवनां सुख भोगववानी इच्छाए करातुं स्तवनादि अनुष्ठान ते विषानुष्ठान छे बाह्य देखादेखीए गाडरिया प्रवाहे मिथ्यात्व बुद्धिथी जे स्तवनादि प्रवृत्ति करवू ते अनोन्य अनुष्ठान छे. सम्यग् दृष्टिपूर्वक मोक्षनी इच्छाए बाह्य सर्व कामनाथी मुक्त निष्काम बनी मोक्षना हेतुए ज्ञानपूर्वक प्रभुनी स्तवना करवी ते तद्धेतु अनुष्ठान छे. समजण पडे तेवी भाषामां प्रभुनी स्तवना करवी. शब्दनो अर्थ समजीने विधिपूर्वक चढते भावे स्तवना करवी. स्तवन करतां आनंदरस प्रगटे ते अमृतानुष्ठानवाळु प्रभु स्तवन जागवू. एवी रीते सर्व धार्मिक बाबतोमां अनुष्टान स्वरूप जाणवू. प्रभुना पर पूर्ण श्रद्धा प्रेम वधे अने स्तवन करतां आनंदरस भाव उल्लास वधे तेवी रीते स्तवन करवू. एम करवायी आत्मानी अत्यंत शुद्धि थाय छे अने ज्ञानानंदरूपे आत्म प्रभु प्राक्टय क्षणे क्षणे वधतुं जाय छे. एज हेतुए स्वपर आ.
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स्मज्ञानानंद पर्याय विशुद्धिए देववंदन स्तुति स्तवन उद्गार रचना जाणवी अने आदरवी. सर्वज्ञ वीतराग देवनी आज्ञा विरुद्ध कंइ अजाणथी आ पुस्तकमां कंइ लखायुं होय तो तेनी प्रभु महावीर देवनी आगल तथा संघनी आगळ क्षमा मागु छ, अने मिथ्या दुष्कृत दउर्छ. सर्व विश्वने शांति मळो. सर्व जनोनी दोषदृष्टि टळो अने गुणदृष्टि खीलो.
इत्येवं ॐ अर्हमहावीरशांतिः ३
आश्विन पूर्णिमा.
सं. १९७८ मु. मेहसाणा.
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निवेदन.
सेवा मंत्री निशदिन गणी दु:खीना दुःख टाळं, सेवा तंत्र निशदिन रची दुःख सहना विदारु: सेवा यंत्रो प्रतिदिन करी] स्वार्पणे नित्य राचुं, या तामं सहु परिहरी सेवनामांज राचं.
( कर्म योगमा श्रीमद बुद्धिसागरजी मृरिजी) जेओ श्रीना हृदयमा प्रत्येक क्षणे विश्वना जीवोनी सेवा करवानो मंत्र रमी रह्यो छे. जेमनी नसो नसमां कोडपण भोगे विश्वना जीवोने प्रतिबोध अपने शासनना रशिक बनावी स्वपरोन्नतिकर करवानी तीव्र जिज्ञासा प्रज्वल रही छे ते महात्मा शास्त्रविशारद जैनाचार्य अध्यात्म ज्ञानी योगनिष्ठ बुद्धिसागरजी सूरीश्वरजीनुं संवत् १९७७ नी सा
नुं चातुर्मास श्री संघना घणाज आग्रहथी श्री साणंद ( सानंद ) मां थयुं हतुं, त्यारे गुरु महाराज श्रीनी शारीरिक प्रकृति सारी न होवा छतां पण केलाएक श्रावकांनी विनंतीथी जन समाजना क ल्याणार्थे च मासी देव वंदन स्तुति स्तवन संग्रहनो अति उपयोगी ग्रंथ पोतानी विश्वोपकारक प्रभावशाली कसाएली लेखीनीद्वारा रच्यो हतो. जे वाचकांना सदभाग्ये श्रीमद् बुद्धिसागरजी ग्रंथमाळाना arunaH aणकारूपं जनसमाज पासे रजु थाय छे. आ ग्रंथनी अंदरना चैत्यवंदना, स्तुति, स्तवनो आत्म ज्ञानथी भरपूर छे, मध्यस्थभावे अवलोकतां सहेजे तेनी अंदरना त्रिषयोनुं भान करावनारा
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छे. समयानुकूलरागो अने जमानाने अनुसरीने आ ग्रंथ रचवामां गुरु महाराजश्री घणीज प्रशंसनीय प्रवृत्ति सेवेली छे. ए स्पष्टन छे. आ ग्रंथनी अंदर ॐ ए मयाळावाला चैत्यवंदनो अने ॐ महावीर प्रभुए संज्ञावाळा स्तोत्रो वगेरे जे छे. ते जगत्ना जीवोने बाह्य रोग अने अनेक जातना विघ्नो विनाश करवामां सहायभूत छे अने आत्माना गुणो प्रगट करवामां आवता विघ्नो नाश करवामां खरेखर उपयोगी छे पण तेनुं चितवन शुद्ध प्रेम भावी करनारज फळ पामी शके छे. आ ग्रंथनी अंदरना विषयो आत्माना ज्ञानदर्शन चारित्रादि गुणोनी वृद्धि करनारा छे. आ ग्रंथ क्रियाना अभिलाषी जीवोने सत्य शुद्ध क्रियाना मार्गे लइ जवामां दीपक समान अने तेनी साथे अध्यात्मामृतनुं पान करावनारो छे. अत्यारे जैनसमाजमां अध्यात्म ज्ञाननी अत्यंत आवश्यकता छे. अध्यात्म ज्ञान विनानुं जीवन खरा आत्मिक गुणोने प्रगटावी शकतुं नथी. आत्मज्ञान साथे जे शुद्ध क्रिया करवामां आवे छे. तेन खरेखर इच्छित सुखने अर्पनार छे. तेओश्रीए अभिनंदन प्रभुना चैत्यवंदनमां कथं छे के " प्रभु गुण वरवा भक्ति छे, साध्य एज मन धर, घटाटोपशो गुणविना, गुण माप्तिमां मरतुं" हमारुं साध्य बिंदु प्रभुना गुण वरवामां याने प्राप्त करवामांज छे, अने ते माटेज हमारुं जीवन छे. बाकी घटाटोप गुणविनानो नकामो छे. बाह्यक्रियायोगे अंतरना गुणोने प्रदीप्त करवा एज मनुष्य जीवनमां सारभूत छे. आ ग्रंथनी अंद रना स्तवनो, चैत्यवंदनो, स्तुतिओ विचारणीय, मनन करवा
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योग्य छ, दुर्गुणोने टाळी सदगुणोने आएवामां खरेखर आ ग्रंथ घणोज उपयोगी छे. समय पचास वर्ष पछात होय छे. सतपुरुषोनी हयातीमां जे किंमत थाय छे. तेनाथी घणीज अधिक पचास वर्षे किंमत अंकाय छे अने ज्यारे भविष्यमा तेमना रचेला ग्रंथो जोवाशे अने भविष्यनी दुनियाना मनुष्याने तेमणे कया स्थाने बेशी अपूर्व भावो प्रकटावी आत्म गुणो प्रकट करावनारा ग्रंथो २च्या छे. ते ज्यारे मालूम पडशे त्यारे ऊच्चकोटीना सत्पुरुपो ते विचारी तेमना भावोने प्रेमथी झीली आत्मगुणों प्रकटाववा प्रयत्नशील बनशे. आ ग्रंथमां द्रव्यानुयोगना विषयथी अलंकृत चोवीश प्रभुना स्तवनोनी बे चोवीशीओ दाखल करवामां आवी छे. जे अगाउ श्री जैनोदय बुद्धिसागर समाज तरफथी प्रकट करवामां आवी हती ते बे चोवीशीओ ग्रंथमा दाखल करवामां आवी हे जे तत्वरुचि जीवोने घणीज उपयोगी अने विचारणीय छे जे मनन करवाथी समजाशे. एकंदरे आ ग्रंथ, सन्मार्ग प्रयाण करवामां साहायक छे. अनी अंबरना विषयो केवा सरळ अने भावथी भरपूर अने अध्यात्म ज्ञानरसथी अलं. कृत छे जे आ ग्रंथना बांचकोने सहेजे समजी शकाशे. सज्जनो हंस चंचुवत् सार ग्रहण करशे. दुर्जनो पयमांथी पण पूरा शोधी काढी काकत्ति धारण करशे. सज्जनवृत्ति धारण करी गुणग्राही बनवानी हमारी दरेकने भलामण छे.
छेवटे निवेदनना अंतमा वाचको प्रत्ये थयेल भूलनी क्षमा इच्छंछु अने आ ग्रंथना प्रकटार्थे जे बंधुओए पोतानी लक्ष्मीनो सदु
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पयोग करी सद्ज्ञानमां सहाय आपी छे नेमनो अंतःकरणपूर्वक आभार मानवामां आवे छे. थोडाज समयमां गुरुमहाराज श्री रचित पूजासंग्रहनो अति उपयोगी ग्रंथ व्यवहार अने निश्चयनयथी विभूषित अने अध्यात्म ज्ञान रसमय विधिपूजा संग्रहनो ग्रंथ बहार पडशे. ॐ श्री गुरुशांति.
पवित्र पर्युसणपर्व श्रावण कृष्णपक्ष एकादशी अठाइधर संवत १९७८
लि. सद्गुरु चरणोपासक अने
श्री संघनो सेवक आतमाराम खेमचंद
कापडीआ. साणंद
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धन्यवाद,
निवेदनमा जणाव्या मुजब आ उपयोगी ग्रंथना प्रकटार्थे गुरुमहाराजश्री शास्त्रविशारद जैनाचार्य योगनिष्ठ बुद्धिसागरजी मूरीश्वरजी ज्यारे संवत १९७७ नुं चार्तुमास श्री साणंदमां बीराजता हता त्यारे नीचे जणावेल बंधुओ तरफथी द्रव्य सहाय मळी हती जे माटे आपनार अपावनार अने अपावबानी अनुमोदना करनार सर्वेनी धन्यवाद पूर्वक नोंध लेवामां आवे छे सद्ज्ञानना प्रकटाथै खर्चेल द्रव्य सर्वे करतां अति उत्तम अने प्रशंसनीय छे अने तेनुं फळ अनहद छे ते दानवीरो जाणे छे. भविष्यमां आवा अनेक ग्रंथो प्रकट करवामां सहायक बनो एम अंत:करणनी उंडी लागगो साथै विर{ छ.
१००) मेता. रायचंदभाइ खचंदभाइ पोताना सदगत पुत्र त्रिभुवनना स्मरणार्थ.
साणंद. ५०) शा. मगनलाल नथुभाइना स्मरणार्थे हा. रायचंदभाइ वचंदभाइ.
साणंद. ५०) एक सदगृहस्थ तरफथी.
साणंद. २५।। चत्रमाण देवजी.
गाम खीवांणदी. ५०) मेता. गफुलभाइ सांकलचंदना पानी वालीए आप्या.
साणंद,
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५०) शेठ. छगनलाल गीगाभाइ. २५) मेहता. अमरतलाल सांकलचंद.
साणंद. साणंद.
३५०-८-०
उपर प्रमाणे जे जे भाइओए आ मदद अपायवा सहाय आपी छे ते सर्वेनो अंतःकरणथी आभार मानवमां आवे छे.
श्री अध्यात्म ज्ञानप्रसारक मंडल,
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पृष्ट.
२४
२९
४४
५७
७७
७९
८१
८१
१०४
१०६
११५
१४५
लीटी.
६
१०
१०
१५
१५
देववंदन स्तुतिस्तवन संग्रहनुं अशुद्धि शुद्धि पत्रक,
३
१५
६
६
६
mmmmm
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१३
१२
अशुद्धि.
तीर्थकर.
हठावा.
आविर्भाव
तेमना.
जीने
भदधी -
हरखो,
परखो.
बुद्धि.
माहना
प्रदेश
त्रासो
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शुद्धि.
तीर्थकर,
हठावो.
आविर्भावे.
नेमिना
जिने
मेथी.
हरख्यो
परख्यो.
बुद्धि
मोहना.
प्रदेश.
वासो.
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विषय चतुर्मासी देववंदन सिद्धाचल स्तवन
विषयानुक्रमणिका.
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पृष्ट
विषय.
१ महावीर स्तोत्रम् त्रीजुं ३८ | महावीर स्तुति थोयो ४
४०
वीरप्रभुनी स्तुतिओ
अष्टापद स्तवन आबुजिन चैत्य स्तवन
४२
४३
सम्मेतशिखर स्तवन गिरनार नेमिजिन स्तवन ४४
चैत्री पुनमनी स्तुति सिद्धाचलनी स्तुतिओ आंबीलतपनी स्तुति
सर्व साधारण तीर्थ स्तवन ४६ शाश्वता अशाश्वताजिन चैत्यवंदन
श्रीसीमंधर जिन स्तुति श्रीमहावीर प्रभुनी स्तुति
४८
श्रीमहावीर जिन चैत्य
वंदन श्रीमहावीर जिन चैन्य वंदन बीजुं श्रीमहावीर जिन चैत्य
वंदन त्रीजुं
श्री सिद्धाचल चैत्यवंदन महावीर स्तोत्रम् महावीर स्तोत्रम् बीजुं
५१
५१
५२
५३
५३
५४
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बीजनुं स्तवन
पांचमनुं स्तवन
अष्टमीनुं स्तवन
एकादशीनुं स्तवन नवपद ओळी स्तवन
तारंग तीर्थ अजितजिन
स्तवन
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पृष्ट.
५४
५४
५५
५८
५८
५९
५९
५९
६०
६३
६४
६५
६६
६७
पानसर महावीरप्रभु स्तवन ६९
पंचासरा पार्श्वनाथ स्तवन ७०
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विषय.
पृष्ट.
चारूप पार्श्वनाथ स्तवन ७१ झघडिआ आदिनाथ स्तवन ७२
आदिनाथ स्तवन
अजितनाथ स्तवन संभवनाथ स्तवन अभिनंदन स्तवन सुमतिनाथ स्तवन
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पद्मप्रभ स्तवन
सुपार्श्वनाथ स्तवन चंद्रप्रभ स्तवन सुविधिनाथ स्तवन
शीतलनाथ स्तवन
श्रेयांसनाथ स्तवन वासुपूज्य स्वामि स्तवन विमलनाथ स्तवन
१८
जिनेश्वर स्तवन चतुर्विंशतिका.
ऋषभदेव स्तवन
अजितनाथ स्तवन
७६
७७
७८
261
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विषय.
पृष्ट. ७३
नवपद ओलीनुं स्तवन वर्धमान आंवीलतप स्तवन ७४
अनंतनाथ स्तवन
धर्मनाथ स्तवन
शान्तिनाथ स्तवन
कुंथुनाथ स्तवन
७९
८०
८०
८१
८२
८३
८४
८६ महावीरस्वामी स्तवन
८७ कलश
अरनाथ स्तवन
मल्लिनाथ स्तवन
जिनेश्वर स्तवन चतुर्विंशतिका.
१०७ संभवनाथ स्तवन
१०९
अभिनंदन स्तवन
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८८
९०
९१
९२
मुनिसुव्रत स्वामी स्तवन ९६
नमिनाथ स्तवन
९८
नेमिनाथ स्तवन
९९
पार्श्वनाथ स्तवन
१०३
१०४
१०६
९३
९५
१११
११३
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विषय.
पृष्ट. । विषय. सुमतिनाथ स्तवन ११५ कुंथुनाथ सावन १३६ पद्मप्रभ स्तवन ११७ । अरनाथ स्तान १३८ सुपाश्वनाथ स्तवन ११९ मल्लिनाथ स्तान १३९ चंद्रप्रभु स्तवन १२१ मुनिसुव्रत स्वामी स्तवन १४० सुविधिनाथ स्तवन १२३ नमिनाथ स्तवन
१४२ शीतलनाथ स्तन १२४ नेमिनाथ स्तवन १४४ श्रेयांसनाथ स्तवन १२६ पाश्वनाथ स्तवन
१४५ वासुपूज्यस्वामी स्तान १२७महावीरवामी स्तान १४६ विमलनाथ स्तान १२९ कलश
१४७ अनंतनाथ स्तवन १३१ महावीर सावन
१४९ धर्मनाथ स्तवन १३३ श्रीसुखसागर गुरु स्तान १ शान्तिनाथ स्तवन
१३५
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श्री अध्यात्मज्ञानप्रसारक मंडळ तरफथी ____ श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी ग्रन्थमाळामां
प्रगट थयेला ग्रन्थो.
अथांक
१ क. भजन संग्रह भाग १ लो. * १ अध्यात्म व्याख्यानमाळा. * २ भजनसंग्रह भाग २ जो. * ३ भजनसंग्रह भाग ३ जो. * ४ समाधि शतकम् * ५ अनुभव पच्चिशी,
६ आत्मप्रदीप. * ७ भजनसंग्रह भाग ४ थो.
८ परमात्मदर्शन. * ९ परमात्मज्योति. * १० तत्वबिंदु. * ११ गुणानुराग. [ आवृत्ति बीजी]
पृष्ठ २०० २०६ ३३६ २१५ ३४० २४८ ३१५ ३०४ ४३२ ५०० २३० २४
किंमत. ०-८-० .-४-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० ०-८-० १-८-०
०-८-०
०.१२.० ०-१२.० ०-४-० ०-१-०
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१९०
१७२
* १२-१३. भजनसंग्रह भाग ५ मो तथा ज्ञानदीपिका.
१९० ०-६.० * १४ तीर्थयात्रानुं विमान [आ. बीजी] ६४ ०-२-० * १५ अध्यात्म भजनसंग्रह
०-६-० * १६ गुरुबोध.
०-४-० * १७ तत्त्वज्ञानदीपिका
१२४ ०-६-० १८ गहुलीसंग्रह भा. १
११२ . ०-३-० * १९-२० श्रावकधर्मस्वरूप भाग १-२ [आवृत्ति त्रीजी]
४०-४०-१-० * २१ भजन पद संग्रह भाग ६ छो. २०८ ०.१२.० २४ वचनामृत.
३०८ ०-१४.. २३ योगदीपक.
२६८ ०.१४.० २४ जैन अतिहासिक रासमाळा. ४०८ * २५ आनन्दघन पदसंग्रह भावार्थ सहित. ८०८ २-०-० * २६ अध्यात्म शान्ति [ आरत्ति पीजी] १३२
॥ १२२ ०-३-० * २७ काव्यसंग्रह भाग ७ मो. १५६ ०-८-० * २८ जैनधर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीन स्थिति.
९६ ०-२-० * २९ कुमारपाल चरित्र (हिंदी) ७ -६-०
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३०० २४०
.-४-०
०-४-० ०-६-० ०-५-०
१-०-०
१......
३० थी ३४ सुखसागर गुरुगीता.
३५ षड्द्रव्य विचार. * ३६ विजापुर वृत्तांत.
३७ साबरमती काव्य. ३८ प्रतिज्ञा पालन. ३९-४०-४१ जनगच्छमत प्रबंध
संघप्रगति जैनगीता. ४२ जैन धातुप्रतिमा लेख संग्रह ४३ मित्रमैत्री. ४४ शिष्योपनिषद्. ४५ जनोपनिषद्. ४६-४७ धार्मिक गद्यसंग्रह तथा
सदुपदेश भाग १ लो. ४८ भजन संग्रह भा. ८ ४९ श्रीमद् देवचंद्र भा. १ ५० कर्म योग. ५१ आत्मतत्त्व दर्शन ५२ भारत-सहकार शिक्षण काव्यं
०-८-० ०-२-० ०-२-०
४८
___९७६
. ९७६
૨૦૨૮
१०१२
३-०-० ३-०-० २-०-० ३-०-- ०.१०.० ०.१०.०
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२३ ५३ श्रीमद देवचंद्र भा २ १२०० ५४ गहुली संग्रह भा. २
१३० ५५ कर्मप्रकृतिटीकाभाषांतर ५६ गुरुगीत गुहलीसंग्रह
१९० ५७-५८ आगमसार अने अध्यात्म गीता ४७०
५९ देववंदन स्तुति स्तवन संग्रह. १७५ * आ नीशानीवाळा ग्रंथो सीलकमां नथी.
३-८०-४-० ३-०-०
०
०-६-. ०-४-०
उपरनां पुस्तको मळवानु ठेकाणुं.
वकील मोहनलाल हीमचंद.
( गुजरात ) पादरा.
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देववंदन स्तवन स्तुति संग्रह.
चतुर्मासी देववंदन विधि. स्थापनाचार्यादि आगळ इरियावहियादि करी, काउसग्ग करी उपर लोगस्स कहीने प्रथम मंगलनिमित्त चैत्यवंदन कहे. पछी नमुथ्थुणं पछी जय वीअराय आभवमखंडा सुधी कही खमासमण देइ ऋषभदेवर्नु चैत्यवंदन कहेवू पछी नमुथ्थुणं कही चारे थोये देव वांदवा. पछी नमुथ्थुणं कही जयबीअराय अर्धा कही खमासमण देह अजितादि देवनां चैत्यवंदनो तथा थोयो कहेवी. श्री शांतिनाथन चैत्यवंदन करी चारे थोये देव वांदी स्तवन कहे. बाकीना तीर्थकरने अक चैत्यवंदन अने एक स्तुतिथी वांदवा. श्री नेमिनाथ श्री, पार्श्व नाथ अने श्री महावीर प्रभुने चार थोयो स्तवनयी वांदवा. महावीरप्रभुनुं स्तवन कही पछी जयवीजराय आखा कहेवा पछी श्री शवत्ता अदाबता
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(२) प्रभुर्नु चैत्यवंदन कर, अने नमुथ्थुणं अरिहंत घइयाणं आदिकथी चारे थोयो साथे कहेवी. पछी काउसग्गमा एक जणे काउसग्ग पारी मोटी शांति कहवी. पछी काउसग्ग पारी लोगस्त कही तेर नवकार गणवा. सिद्धाचलनां तेर खमासमणां देवां पलीथी सिद्धाचल, गिरनार, आबु, अष्टापद अने सम्मेत शिखरनां स्तवन कही अविधि आशातनानो मिच्छामि दुकडं देवो. विधि समाप्त. अथ चौमासी देववंदन प्रारंभ.
चैत्यवंदन. पानसरा महावीर जिन, वंदुपूजु भावे; चौमासी चोवीश जिन, वंदु गुणगणदावे. ऋषनादिक चावीश देव, वंदीए हितकारी; बातमशुद्धि संपजे, मुक्ति मळे सुखकारी. २ अतीत अनागत कालना ए, वंदो सर्व जिनेश; बुद्धिसागर संप्रति, जिनवर भाव विशेष. ३
एम चैत्यवंदन करी नमुथ्थुणं कही थानवम
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खंमा सुधी जयवीराय कहेवा. पलीथी श्री आदिनाथर्नु चैत्यवंदन करवं. पली श्री पद्मविजयजी वगैरेनी चौमासी देववंदननी विधि प्रमाणे देववंदन विधि जाणवी.
चातुर्मासी देववंदन.
ऋषनदेव चैत्यवंदन. यादिनाथ अरिहंत जिन, ऋषजदेव जयकारी. संघ चतुर्विध तीर्थने, स्थाप्युं जग सुख कारी. १ परमेश्वर परमातमा, तनुयोगे साकार; अष्ट कर्म दूरे कर्या, निराकार निर्धार. २ साकारी अरिहंत जी ए, निराकारथी सिद्ध; बुद्धिसागर ध्यावतां, प्रगटे आतम ऋद्धि. ३
ऋषन जिन स्तवन. (कानुडो न जाणे मोरी प्रीति ए राग.) प्रजुजी ऋषनजिनेश्वरदेव,हृदयमा व्हाला लाग्यारे.प्रजु
आविर्नावे दिल प्रगटो, कर्म आवरणो विघटो. प्रभुजी लाग्युं तुजथी तान,यात्मिकनावे जाग्यारे.प्रभु. १
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( ४ )
मोहनो पदो दूरे, घातां शुद्धतम स्फुरे पी रहे न किंचित् नेद, कर्म सहु जावे जाग्यांरे. प्रभु. २ काची वे घमीमां मळवुं, ज्योतिमां ज्योते जळवुं. एवं अनुभव निश्चयजान, जीत नगारां वाग्यांरे. प्रभु. ३ शुद्धोपयोगे संगी, अंतर वातो रंगी.
बुद्धिसागर प्रभु हजूर, मल्या नहि मागे माग्यारे प्रभु. ४
स्तुति.
ऋषभ जिनेश्वर समनिज खतम, सत्ताए वे ध्याववो तिरोभावने दूर करीने, व्यक्तिनावे लाववो. यातमने परमातम करवा, असंख्य योगो जिन्न बे. सम उपयोगे सर्वे मळतां, सापेक्षायी जिन्न बे. १ जिन्न जिन्न मत दर्शन पंथो, निरपेदो मिथ्या सदा सातनयोनी सापेक्षाए, जाणे सम्यक्त्व ज तदा जैन धर्ममां सर्वे धर्मों, सापेदो समाय बे. जैनधर्म सेवे सहुधर्मो सेव्या देवो गाय दे. जिनवाणी जाणतां जाएयुं सर्वे ए निश्चय खरो. जग जाणुं सह तम जाये एवा निश्चयने धरो.
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(५)
श्रतमशुद्धि माटे सर्वे बाह्यांतर उपाय . जेने जेथी शुद्धि थाती तेने तेज सुहाय बे. ३ बहिरात मने अंतरयातम करवो खतम ज्ञानथी. अंतरयातमने परमातम करवो ध्यानना तानथी. अंतरयातमते परमातम जाणी प्रजुने सेवता. तेवा जैनो जिनता पामे स्ट्राय करंता देवता. || श्री अजितनाथ चैत्यवंदन ॥
अजित अजित पद पता जव्यजीवने जेह. पुरुषार्थ ने जाखता हेतु मुख्य बे तेह. जडपरिणामी यत्नथी जमसाथे वे बन्ध शुद्धात्मिक परिणामना पुरुषार्थे नहि बन्ध. पुरुषार्थ शिरोमणी ए सहजयोग शिरदार. शुद्धतम उपयोग वे अजित थवा निर्धार. अजित जिन स्तुति.
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४
१
३
अजितजिनेन्द्र अजित थवाने सम्यग्ज्ञान प्रकाश्युंजी. सापेक्षाए जव्यलोकना मनमां प्रेमे वास्युंजी. आत्मज्ञान सम ज्ञान नहींको क्षणमां थावे मुक्तिजी. तमज्ञानी निर्लोपी कर्म करे सहु युक्तिथी. १
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संनवनाथ चैत्यवंदन. संजवजिनने सेवतां संजवती निज कि, दायिक नव लब्धि मळे थती आत्मनी शुद्वि. १ घाती कर्मना नाशथी अर्हन् पदवी पाम्या. आधि व्याधि उपाधिने तुज ध्यानारा वाम्या. २ आतमा ते परमातमा ए व्यक्तिनावे करवा. संनवजिन उपयोगथी दण दण दिलमां स्मरवा.३
संजवजिन स्तुति. आत्म स्वजावे संजवq ते संनव जिननी सेवाजी. गुणपर्यायो आविर्नावे थातां पोते देवाजी. अजेदनावे संनव करता ज्ञानानंद स्वनावेजी. निजातम संनवरूपी ने व्यक्त करे नवी नावेजी. १
__ अनिनंदन चैत्यवंदन. वाह्यांतर अतिशय गुणी अभिनंदन जिनराज. प्रभु गुण गणने पामवा अंतरमां बहु दाऊ. १ प्रभु गुण वरवा जक्ति के साध्य एज मन धर.. घटाटोप शो गुणविना गुण प्रातिमां मरवं. २
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प्रभुगुण पोतामा छताए आविर्भावने काजे. अभिनंदनने वंदतां प्रकट गुणो थै छाजे.
__ श्री अनिनंदन स्तुति. आत्मानंद प्रगट करी अनिनंदे जेह, अभिनंदन डे आतमा गुणपर्याय गेह; आतम अनिनंदन थतो अभिनंदन ध्याइ, ध्यान समाधि एकता लीनता पद पाइ.
सुमतिनाथ चैत्यवंदन. सुमतिनाथ पंचम प्रभु सुमतिना दातार, सर्व विश्वनायक विभु अरिहंत अवतार. १ सात्विक गुणनी शक्तिथी बाह्य प्रभुता धारी, चिदानंद प्रजुता लली आंतर नित्य के प्यारी. २ तुजमां मनने धारीने ए निःसंगी थानार, कर्म करे पण नहीं करे तुज नक्तो नरनार. ३
सुमतिनाथ स्तुतिः सन्मति धारे पुर्मति, त्यागी जे नरनारी, सुमति प्रभु भक्तो खरा, नीतिरीतिधारी;
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(८)
सुमति ग्रही शुद्ध जावथी, आत्मभावे रमंता, निश्चयनय सुमति प्रभु, आपोआप नर्मता.
पद्मप्रभु चैत्यवंदन.
नवधाभक्तिथी खरी, पद्मप्रभुनी सेवा, सेवामां मेवा रह्या, आप बने जिनदेवा. नवधाभक्तिमां प्रभु, प्रगटपणे परखाता, आठ कर्म पडदा हवे स्वयं प्रभु समजाता. पद्मप्रजुने ध्यावतां ए पूर्ण समाधि थाय, हृदय पद्ममां प्रकटता आत्म प्रभुजी जणाय. पत्रप्रभु स्तुति.
पद्मप्रभुने देखतां देखवानुं न बाकी, पद्मप्रभुने ध्यावतां वने तम साखी; पद्मप्रभुमय थइ जतां, कोई कर्म न लागे, देह बतां मुक्ति मळे, जीत को वागे.
सुपार्श्वनाथ चैत्यवंदन.
सुपार्श्वनाथ वे सातमा, तीर्थकर जिनराजा, पासे प्रभु सुपार्श्व तो, आतम जगनो राजा.
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आतममा प्रभु पास ले बाहिर मूर्खा शोधे, अंतरमा प्रभु ध्यानथी ज्ञानी भक्तो बोधे. द्रव्यभावथी वंदीए ए ध्याश्जे प्रभु पास, एकवार पाम्या पनी टळे नहीं विश्वास.
सुपार्श्वनाथ स्तुति. शुद्ध प्रेम ने ज्ञानथी, सुपार्श्वने ध्यावो, जडमां सुख क्यारे नहीं, एवो निश्चय लावो; प्रभु पासे नहीं आंतलं, एवं जेने जासे, जैन मटी जिन ते वनी, पूर्णानंदे विलासे.
चंद्रप्रभु चैत्यवंदन. अनंत चंद्रनी ज्योतिथी, अनंत ज्ञाननी ज्योत, चंद्र प्रभु प्रणमुं स्तवं, करता जग उद्योत. असंख्य चंद्रो नानुओ, इन्द्रो जेने ध्याय, परब्रह्म चंद्र प्रजु, जगमां सत्य सुहाय. शुभ प्रेमथी वंदतां ए असंख्य चंद्रनो नाथ, बुद्धिसागर आतमा, टाळे पुद्गल साथ,
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(१०)
चंद्रप्रभुनी स्तुति. चंद्रप्रभु विभु उपदिशे, जैन धर्म ते साचो, नय सापेक्षाए खरो तेमां नव्यो राचो; आत्मज्ञानने ध्यानथी करो आत्मनो शुद्धि, शुझातम चंद्रप्रभु थातां आनंद ऋद्धि.
श्री सुविधिनाथ चैत्यवंदन. सुविधिनाथ सुविधि दिये आत्मशुद्विना देत, श्रावक साधु धर्म बे तेना सहु संकेत. द्रव्यभाव व्यवहार ने निश्चय सुविधि बेश, जैन धर्मनी जाणतां करतां रहे न क्लेश. शुद्धातम परिणाममां ए, सर्व सुविधि समाय, आतम सुविधिनाथ थै, चिदानंदमय थाय.
श्री सुविधि स्तुति. आत्मिक शुछिनी सुविधि, द्रव्यभावथी साची, बाह्यांतर किरिया भली, स्वाधिकारे राची; करतां चिदानंद परिणति, एज सुविधि सोहे, त्रण जगत्ना लोकना, मन सुविधि मोहे.
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( ११ ) शीतलनाथ चैत्यवंदन.
आत्मिक धर्मनी शुद्धता करीने शीतलनाथ, सर्व लोक शीतल करो साचा शिवपुर साथ. धर्म सुविधि आदरी शीतल थया जिनंद, समताथी शीतल प्रभु आतम स्वयं महेन्द्र. समता शीतलताथकी ए शीतल प्रभु थवाय, बुद्धिसागर आतमा पूर्णानंद सुहाय. शीतलप्रभु स्तुति.
शीतल प्रभु शीतल करे जजे शीतलजावे, शम शीतलता धारतां सहु संताप जावे; रागद्वेष निवारीने आप शीतल थावो, आतमने शीतल करो सत्य निश्चय लावो.
श्रेयांसनाथ चैत्यवंदन.
सर्व जाव श्रेयो वर्या, श्री श्रेयांस जिनंद, आत्मशीतलता धारीने, टाळ्या मोहना फंद. उपशम क्षयोपशम अने क्षायिक जावे जेह, सत्य श्रेयने पामतो स्वयं श्रेयांस ज तेह.
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( १२ )
श्री श्रेयांस प्रभुसमो ए, निज आतमने करवा, वंदो ध्यावो जविजना, घरो न जडनी परवा. श्री श्रेयांस स्तुति.
द्रव्य जावथी श्रेयने, निज आत्मनुं जाणो, जाणी आचारे मूकशो, पुरुषार्थने आणो; आत्मज्ञान ने सत्क्रिया, वमे श्रेयने साधो, श्रेयांस प्रभुनी पेठ सहु, पूर्ण श्रेयेज वाधो. श्री वासुपूज्य चैत्यवंदन.
·
क्षायिक लब्धि श्रेयथ। वासुपूज्य जिनदेव, थया हृदयमां जाणीने करो प्रभुनी सेव चिदानंद वसुतावर्या विश्वपूज्य जिनराज, वासुपूज्य निज आतमा करशो साधी काज. प्रभुमय थै प्रभु सेवतां ए स्वयं प्रभु जिन थाय, अनंत केवलज्ञाननी ज्योति ज्योत सुहाय.
श्री वासुपूज्य स्तुति.
तम वासुपूज्य ने करो आविजये, निश्चय नय दृष्टि बळे ब्रह्म जावना दावे;
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(१३) वासु पूज्यना ध्यानथी वासु पूज्यजी थावो, ध्यान समाधि एकता लीनताथी सुहावो. १
विमलनाथ चैत्यवंदन. आत्मिक सिद्धि आठ जे आठ वसुना भोगी, यात्म वसु प्रगटावीने निर्मल थया अयोगी. १ करी विमल निज आतमा थया विमल जिनराज प्रभु पेठे निज विमलता करवी ए जे काज. २
आत्म विमलता जे करे ए स्वयं विमल ते थाय: विमल प्रभु आलंबने विमलपणुं प्रगटाय. ३
विमल स्तुति. आर्तरौद्रने वारीने मन निर्मल करवू, एवी प्रभुनी पूजना एह ध्यान के धर; विमल प्रभु जग उपदिशे सहु निर्मल थावो, विमल थर्बु निज हाथां शाने वार लगावो.
__ अनंतनाथ चैत्यवंदन. विमलात्मा करीने प्रभु थया अनंत जिनेश, अनंत ज्योतिर्मय विभु नहीं रागने वेष. १
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( १४ )
अनंत जीवन ज्ञानमय आनंद सहज स्वभावे; द्रव्य क्षेत्रने कालथी भावथी सत्य सुहावे. अनंत रत्नत्रय वर्षा ए अनंत जिनवर देव; बुद्धिसागर जावथी करवी जक्ति सेव.
अनंतनाथ स्तुति.
अनंत तम द्रव्यथी, क्षेत्र कालने जावे, जाणे अंत न थाय बे आठ कर्म अजावे;
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३
द्रव्य क्षेत्रकाल जावथी अंत कर्मनो आवे, अनंतनाथ जणावता ब्रह्म अंत न थावे.
धर्मनाथ चैत्यवंदन.
पन्नरमा श्री धर्मनाथ बंडु हर्षोल्लासे; अनंत आतम भाखियो केवलज्ञान प्रकाशे. आत्म धर्म से आत्ममां जगमां जमना धर्मो; वस्तु स्वावे धर्म वे समजी टाळो कर्मों. चिदानंद धर्मज खरो ए धर्म न ते जनमांद्ये; आत्मावण जम विषयमां मळे न आनंद क्यांये, ३
१
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(१५)
धर्मनाथ स्तुति. धर्म प्रभु कहे आत्मनो धर्म गुण पर्यायो, समजे वर्ते सहजथी तेह धर्मी सुहायो; धर्मनाथ निज आतमा करे आविर्नावे; अज्ञानी धर्म पन्थ सहु टळे आत्म स्वभावे. १
शांतिनाथ चैत्यवंदन. दर्शन ज्ञान चारित्रथी साची शांति थावे; शांतिनाथ शांतिवर्या रत्नत्रयी स्वभावे. १ तिरोभाव निज शांतिनो आविर्नाव जे थाय; शुद्धातम शांति प्रभु स्वयं मुक्तिपद पाय. ५ बाह्य शांतिनो अंत २ ए आतम शांति अनंत; अनुलवे जे आत्ममा प्रभुपद पामे संत.
॥ शांतिनाथ स्तवन ॥ समक्ति द्वार गनारे पेसतांजी-ए राग. शांति जिनेश्वर परमेश्वर विभुजी, गातां ने ध्यातां हर्ष अपाररे;
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(१६) शांति स्मरंतां प्रगटे शांतताजी, सहज योगे निर्धाररे.
शांति० १ मनमा छे मोह ज तावत् दुःख छ जो, मोह टळ्याथी साची शांतिरे; तमने रजथी नहीं शांति आत्मनीजी, सालिक शांति छेवटे शांतिरे. शांति० २ देहने मनमां शांति नहीं खरीजी, शांति न बाहिर भोगे थायरे; यावत् मनमां संकल्पो जागताजी, तावत् न शांति सत्य सुहायरे. शांति० ३ शांति अनुजव आवे समपणेजी, उपशम आदि क्षायिक भावरे; सहज स्वनावे विकल्पो टळेजी, शांति अनंती आतम दावरे. शांति०४ द्रव्ये ने नावथी शांति पामवाजी, ज्ञाने लगावो आतमतान रे; शांति प्रभुमय आतम थे रहेजी, बुद्धिसागर नागवानो
शांति०५
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(१७)
शांतिनाथ स्तुति चार. शांति मळे नहीं लक्ष्मीथी नहीं राज्यना जोगे, शांति मळे नहीं कामथी बाह्य सत्ता प्रयोगे: शांति न राग द्वेषयी सहु विषयने वामे; शांति जिनेश्वर नाखता शांति आतम गमे. १ शांति न क्रोधने मानथी तेम मायाने लोभे; शांति न शास्त्राभ्यासथी जम्मा मन थोले, शांति न बाह्य पदार्थथी हुँ ने मारूं माने; सर्व जिनेश्वर नाखता शांति आतम स्थाने. २ संकल्शेने विकल्पथी मन शांत न थावे, अज्ञा ने मोह भावथी कोइ शांति न पावे; नामरूप निर्मोहथी जिनवाणी जणाव, शांति आतममा खरी अनुभवथी आवे. मनने मारतां आत्ममां सत्य शांति स्वभावे, मन संसारने मुक्ति छे समजे शिव थावे; आतममा मन गरतां निजपास छे शांति; शासन देवी सहायथी रहे नहि कोइ ब्रान्ति. ४
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( १८ ) कुंथुनाथ चैत्यवंदन.
शुद्ध स्वभावे शांतिने, पाम्या कुंथु जिनंद, कुंथुनाथ निज आतमा, समजे नहि मतिमन्द. १ मननी गति कुंठित यतां, वैकुंठ मुक्ति पासे; क्रोधादिक दूरे करी, वर्ते हर्षोल्लासे. बाहिर दृष्टि त्यागथी, आतम दृष्टि योगे; कुंथुनाथ घ्यावो सदा, निजना निज उपयोगे. ३ कुंथुनाथनी स्तुति.
कुंथुनाथमय थे ने जन्यो, कुंथुनाथ आराधोजी, यातमरुपे थैने यातम, सिद्धि पदने साधोजी; आसक्तिवण कर्मों करतां, आतम नहीं बंधायजी, करे क्रिया पण क्रिय पोते, उपयोगे प्रभु थायजी. अरनाथ चैत्यवंदन.
राग द्वेषारिहणी, थया अरिहंत जेह; अर जिनेश्वर वंदतां, कर्म रहे नहीं रहे. आतमना उपयोगथी, रागद्वेष न होय; सर्व कार्य करतां कां, कर्म बंध नहीं जोय.
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१
श्
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आत्म ज्ञान प्रकाशथी ए, मिथ्या तम पलटाय; बुद्धिसागर आत्ममां, सहु शक्ति प्रगटाय. ३
__अरनाथ स्तुति. कर्म करो पण कर्मथी, रहो निलेप नव्यो, जिन थातां परमार्थना, यातां कर्तव्यो; जैन दशामां कर्मने, करो स्वाधिकारे, अर जिनवर एम भाखता शक्ति प्रगटे छे त्यारे, १
मशिनाथ चैत्यवंदन. मल्ल बनी नवरण विषे, जीत्या रागने द्वेष, मलि प्रभु तेथी थया, टाळ्या सर्वे क्लेश. १ रागद्वेष न जेहने, परमातम ते जाण, देह छतां वैदेही ते, केवली ने भगवान्. २ मदिनाथ प्रनु ध्याइने ए, भाव मल्लता पामी; कर्म करो प्रारब्धयी, बनी अंतर निष्कामी. ३
महिनाथ स्तुति. महिनाथ घट जेहना, सर्व मल्लने जीते, आतम म जे जाणतो, शुद्ध धर्म प्रतीते;
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(२०)
हारे न जगमा कोइथो, कोइ तेने न मारे, मोह शत्रुने मारतो, तेने देव व्हारे. १
मुनिसुव्रत चैत्यवंदन, भाव मुनि सुव्रतपणु, प्रगटावीने जेह; मुनि सुव्रत प्रभु जिन थया, वंदु ते गुणगेह. १ क्षायिकनावे आत्ममां, क्षायिक लब्धि धारो; मुनिसुव्रतने वंदतां, रहे न जडनी यारी. मुनिसुव्रतपणं आत्ममा ए, जाणी पामो नव्यः मुनिसुव्रत जिन उपदिशे, एवं निज कर्तव्य. ३
____ मुनिसुव्रत स्तुति. समकितने चारित्रथी, मुनिसुव्रत थावे, घातीकर्म विनाशता, प्रभुता घट पावे; राजयोग चारित्रमां, शुद्ध उपयोग समता, मन वच कापनी गुप्तिथी, परमात्म रमणता. १
नमिनाथ चैत्यवंदन. आतममां प्रणमी प्रभु, थया नमि जिनराज; नमवू उपश्चम क्षायिके, क्षयोपशमे सुखकाज. १
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(२१) नम्या न जे ते लव भम्या, नमो लह्या गुणवृंद; नमि प्रभुए भाखियुं, सेवा छे सुख कंद. २ आतममां प्रणमी रही ए, स्वयं नमि घट जोवे; ध्यान समाधि योगथी, आत्म शक्ति नहि खोवे. ३
नमिनाथ स्तुति. नमि जिनेश्वर सेवा भक्ति, जगनी सेवा भक्तिजी, निज आतमनी सेवा भक्ति, एक स्वरुपे शक्तिजी; नाम रूपथी भिन्न निजातम, धारी प्रभु जे ध्यावेजी, प्रारब्धे ने कर्मनो भोगी, तोपण भोगी न थावेजी. १
श्री नेमिनाथ चैत्यवंदन. बावीशमा श्री नेमिनाथ, घोर ब्रह्मव्रत धारी, शक्ति अनंती जेहनी, त्रण भुवन सुखकारी. १ इन्द्र चंद्र नागेन्द्र ने, वासुदेवो सर्वे; चक्रवर्तियो नेमिने, सेवे रही अगवे. कृष्णादिक भक्तो घणा ए, जेनी सेवा सारे; एवा परमेश्वर विभु, सेवंतां सुखभारे,
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(२२) श्री नेमिनाथ स्तवन.
प्रथम जिनेश्वर प्रणमीए
जास सुगंधी रे काय - ए राग.
नेमि जिनेश्वर वंदीए, ध्याइजे सुखकार;
द्रव्य कर्मने नाव कर्म जेणे हरायां,
धर्म चक्र निर्धार.
नेमि० १
चोत्रीश अतिशये शोभता,
बार गुणे गुणवंत;
वाणी गुण पांत्रीशना धारक जिनपति,
नेमि० २
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रुपारुपी भदंत.
वीश स्थानकमांही एक तुं,
आराधन करी बेश;
पूर्व जवे तीर्थकर नामने बांधियुं,
टाळ्या सर्वे क्लेश. चउ निक्षेपे ध्यावतां,
सात नये करी ज्ञान;
नेमि० ३
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(२३) निज तम अरिहंतपणुं जल्दी वरे; टाळी मोहर्नु तान.. नेमि० ४ तुज अनुभव जेणे कयों, ते नहीं बांधे कर्म; शाता अशाता भोगवे ते समभावथी; वेदे यातम शर्म.
नेमि० ५ तिरोभाव निज शक्तिनो,
आविर्ताव जे अंश; ते अंशे मुक्तिने मुक्तता आत्ममां, वर्ते डे सापेक्ष.
नेमि०६ ध्याता ध्येयने ध्यानना, परिणामे छे अन्नेद; बुद्धिसागर एकता प्रभुनी साथमा, पाम्यो अनुनव एक. नेमि० ७
थोयो. द्रव्य नावथी नेमि सरखा, बळिया जैनो थावेजी, जैनधर्म प्रसरावे जगमां, शुज परिणामना दावेजी;
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(२४) शुनते धर्म प्रशस्य कषायो, करतां पुण्यने बांधेजी, शुद्ध परिणामे वर्ततां, मुक्ति क्षणमा साधेजी. १ शुन परिणामी सम्यग् दृष्टि, शुद्ध नावने पामेजी, अशुभ कषायो प्रगटया वारे, देहाध्यासने वामेजी; निर्नय निःसंगी बळीयो थै, कार्य करे नहि हारेजी, तीर्थकर सर्वे उपदेशे, प्रभुपणुं घट धारेजी. २ नाम रूपमा निर्मोही थै, प्रभुनक्तो शिव वरताजी, सर्वकार्य करता अधिकारे, भयथी न पाबा पमताजी; मर्दबनीने दर्द सहेसहु, धर्म कर्म व्यवहारेजी, ज्ञान कर्मने नक्ति उपासन-योगने अंतर धारेजी. ३ मुक्ति नवमां समभावी थै, धर्म कर्म नहीं मूकेजी, जीवन्मुक्त बने होये पण, कर्तव्यो नहीं चूकेजी, देवगुरुने करीने स्वार्पण, जैनो जिन थै जाताजी, शासन देवी सेवा सारे, धर्मनी सेवा च्हाताजी. ४
श्री पार्श्वनाथ चैत्यवंदन. पार्श्वनाथ पासे प्रभु, यात्म ज्ञानथी देखे; जमवण आतम नानथी, प्रकट प्रजुनिज पेखे. १
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(२५) जलधिनां तारो यथा, खेले स्वेच्छानावे;
तथा ज्ञानी जम वस्तुमां, खेले ज्ञान स्वभावे. २ पंच वर्णनी माटीने, खाइ बने बे श्वेत; शंखनी पेठे ज्ञानी बहु, निःसंगी संकेत. देखे अज्ञानी बहिर, अंतर देखे ज्ञानी; ज्ञानीना परिणामनी, साक्षी, केवल ज्ञानी. ज्ञानीने सहु श्रास्रवो, संवररुपे थाय; संवरपण अज्ञानीने, आस्रव हेतु सुहाय. पार्श्व प्रभु उपदिश्यो ए, ज्ञान अज्ञाननो नेद; बुद्धिसागर आत्ममां, ज्ञानीने नहीं खेद.
५
६
पार्श्वनाथ स्तवन.
आतम, पार्श्व प्रभुना प्रेमने अंतर धारजो रे लोल० प्रगटे जे जे कषायो चित्तमां, तेहने वारजोरे लोल • प्रभुना जैन धर्ममां शंका, आदि नहीं करोरे लोल०
०
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आतम० १
३
४
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आतम०२
आतम०३
(२६) गुरुने धर्मनी संघनी रक्षा, माटे ऊट मरोरे लोल. जगमां जैनो वधवा हेतके, सहु स्वार्पण करोरे लोल. साधर्मिक देखीने स्वार्पण, प्रीति घट धरोरे लोल जिनने जैननी सेवा नक्तिमां, भेद न एकतारे लोल प्रभुजी संघनी सेवा ते तुज, सेवा विवेकतारे लोल सेवा नक्तिमा छे अनेद के, प्रभुने भक्तमारे लोल. प्रभुजी एवो मुज विश्वास छे, व्याप्यो रक्तमारे लोल. प्रभुनी गुरुनी संघनी सेवा, भक्ति एक छेरे लोल. जैनमा जिनपणुं निरखातुं के, स्वार्पण टेक छेरे लोल.
आतम०४
आतम ४
यातम०६
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आतम० ७
आतम०७
(२७) सेवा भक्ति विना नहीं ज्ञानने, कर्मयोगीपणुंरे लोल सेवा भक्तिथी दिल शुद्धिके, निश्चय ए भए॒रे लोल. जक्तोने प्रभु भावे सेवतां, व्यक्त प्रभुपए॒रे लोल थातो योगी आतम देवके, क्षणमां जिनपणुंरे लोल प्रभुजी तुं वंदे छे संघने, ते मोटको रे लोल प्रभुजी तेनी आगळ हुं बुं, सौथी गेटकोरे लोल प्रभुजी जीवन्मुक्त थतां रहें, एम उपदेशियुरे लोल प्रभुजी संघनी सेवा भक्तिमा, मुजमन उल्लस्युंरे लोल. प्रभुजी सेवा भक्तिना अंशथी, सिद्धपणुं यतुंरे लोल
आतम० ९
आतमा १०
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(२८) प्रभुजी धर्म कर्म व्यवहारथी, संघपणुं छतुंरे लोल
आतम० ११ केवल ज्ञानीने व्यवहारके, करवानो खरो रे लोल० तेथी तीर्थोन्नति ने शीख ए, नक्तो दिल धरोरे लोल० आतम० १२ प्रजुजी तुजपर अणुसम प्रेमके, जैनो उपरेरे लोल प्रभुजी धारे ते लहे मुक्तिके, भवसागर तरेरे लोल०
आतम० १३ संघनी द्रव्यने भावथी उन्नति, हेतु मुज सहुरे लोल. स्वार्पण कीg एमां ताह्यरी, भक्ति सहु लहुरे लोल० यातम०१४ संघनी भक्तिमा नहि दोषनी, दृष्टि लक्तनेरे लोल. प्रभुजी बुद्धिसागर लक्तमां, धन्य ने रक्तने रे लोल
आतम० १५
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(२९) पार्श्व प्रभु स्तुति. पार्श्व प्रभु बोले जग लोको, मोह थतो मनमाथी रोको: पाडो नहि दुःख पडतां पोको, उद्यमथी पग तोको. जैन धर्म जगमा प्रसरावो संघ भक्ति आचारे लावो मानव भवनो लेशो ल्हावो निश्चय एवो लावो जैन धर्म शत्रुओ हठाणे संघनी रक्षालां लय लावो तन मन धनतो लोग धरावो, निश्चय मुक्ति पावो. जैनोमां जिनमां नहीं नेद भक्तिमां नहीं धारो खेद प्रभु थवानी एह उमेद निर्मोही 2 वेद.
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(३०) जैन धर्म जगमांही प्रचारो नामर्दा भीति वारो संघोन्नतिनो करो सुधारो श्रका उद्यम धारो, आत्मरूप जैन धर्मने प्यारो धारी मानव नव नहि हारो जैनो माटे देहने धारो तेथी मुक्ति आरो, जैनोना दोष सामुं न जोशो तेथी पाप मलीनता धाशो वंश परंपर उन्नत रहेशो नहिं तो दुःखथी रोशो माटे जागी क्यथी रहेशो संपी स्हाय परस्पर लेशो परस्पर उपकारने वहेशो सहु जिननो संदेशो. संघनी रक्षा माटे जीवो. श्रुत ज्ञान छे जगमां दीवो.
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__ (३१) धन्य जैन ले जे मरजीवो प्रभु वचनामृत पीवो जैन धर्म सम कोइ न धर्म बीजा सर्वे बंमो नर्म जेथी पामो साचुं शर्म अधिकारे करो कर्म, जैनी थै कर्मोने करवां महाजननां कर्मो अनुसरवां अनासक्तिए होय न परवा, मिथ्या व्हेमो हरवा एबुं जिननी वाणी प्रकाशे मोह रहे नहीं तेनी पासे कार्य करे पण फळ नहीं वांछे स्वयं प्रभु ए विलासे. द्रव्यभाव सहु शक्ति प्रकाशो बनो न आसक्तिना दासो जीवन मंत्रोनो विश्वासो धारी प्रन्नु थै जाशो
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( ३२ )
जैनोनुं जैनोने आपो संघनी सेवार्थी जग व्या शक्ति टळशे सहु पापों दुःखीनां दुःख कापो पद्मावती धरणेंद्रनी नक्कि
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प्रगटे जैनोमां सहु शक्ति टाळतां दुर्मति आसक्ति आतम ईश्वर व्यक्ति
सर्व स्वार्पण भोगी थाशो. जमता शुष्कपणुं नहि पाशो देहाध्यासादिक अध्यासो टात्री सुखिया याशो.
प्रभु महावीर वेत्यवंदन,
वीश तीर्थकर कहा, अनंत शक्तिनाथ प्रभु महावीर सेवतां, जीवो थाय सनाथ. प्रभु महावीर वर्धमान, चोवीशमा जिनराज कलिमां महावीर जे बने, तेहकरंतो राज.
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(३३) द्रव्य नाव बाहिरने, अंतर महावीर थावा महावीर प्रभुने भजो, थशो जगत्मां चावा. ३ वीर बनीने वीरने, सेवंतां जीवाय. कलिमां वीर थया विना, जीवतांज मराय. ४ द्रव्यन्नाव शक्तिवमे ए, जीव ते वीरजक्ति बुद्धिसागर वीरनी, ध्यावं आतमशक्ति. ५
____ महावीर प्रभुस्तवन, ए गुण वीर तणो न वीसारु-ए राग. प्रा महावीर वंदु गाईं, ध्यावं जग उपकारीरे प्रभु महावीर नजतां महावीर थाता नरने
नारीरे. प्रनु० १ तुज वजनामृत मानस सरवर, हंस बनीने झील्योरे; अनुजव मौक्तिक ग्रहण करीने, शुद्ध स्वरूपे खोल्योरे. प्रभु० २ नंदनवन सम हारां वचनो, शांति तुष्टि करनारांरे, उपशम क्षयोयशमने क्षायिक
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( ३४ )
आरोग्यनां देनारां रे. विष्णु ज्योतिथी अनंत ज्योति ताहारी अनुजवे दीठी रे; साकरथी पण अनंत गुण।
ताहारी वाणी मीठी रे.
विश्वोद्धार कर्यो जन्मीने, आत्मस्वरूप जणाव । रे; पशु टाळीने मानव कीधा, अज्ञोने हित लावी रे.
धन्य पिता सिद्धार्थ भूपति, धन्य a त्रिशला माता रे. धन्य बे क्षत्रियकुंम नगरने आर्यभूमि धन्य भ्राता रे.
तुज वचनामृत पान कर्याथी. मारी चक्षु खूलीरे,
तुज गुण ध्यान समाधियोगे
मिथ्या जम गयो भूली रे.
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प्रभु० ३
प्रभु० ४
प्रभु० ५
प्रभु० ६
प्रभु० ७
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प्रभु ८
प्रभु ए
आत्ममहावीर तीर्थकर सहु, नाम अनेकने एकरे, परमब्रह्म स्वरूप प्रकाश्युं, प्रकटयो पूर्ण विवेकरे. बाहिरांतर द्रव्य जावथी, महावीर थावा काजेरे, कलियुगनी पूर्वे तुं प्रगटयो, सर्व प्रभु शिर बाजेरे. सर्व वातमां महावीर थाईं, महावीरजिन उपदेशेरे, कलियुगमां जैनोमां महावीर, प्रभुता चित्त प्रवेशेरे. सर्व वीरमां महावीर बनवं. सर्वाश्रममा जावेरे, बाह्यशक्तिने आत्मशक्तिथी, जीव्युं जगमां जावे रे.
प्रभु०१०
प्रभु० ११
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( ३६ )
जे गुणकर्मो महावीर यात्रा माटे वे उपयोगी रे,
ते गुण कर्मों ग्रहण करीने; था आतम योगी रे.
उत्पत्ति व्यय ध्रुवतामय छे; महावीर जगमां एकरे, तेना गुण कम प्रगटावो; एबे सेवा टेकरे.
द्रव्यभावथी सर्व शक्तिमय; कलियुगमांही यारे; आपत्काले यापद्धर्मे, रहे ए समजाव्यंरे.
आतममांही अनंत धर्मों, जाणी वीरने सेवोरे; बुद्धिसागरात्म महावीर, एकज देवोनो देवोरे.
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प्रभु० १२
प्रभु० १३
प्रभु० १४
प्रभु० १५
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(३७)
स्तुति. वीर प्रभुमय जीवन धारो; सर्व जाति शक्तिथी, दोषो टाळी सद्गुण लेशो; बनशो महावीर व्यक्तिथी. स्वप्ने पण हिम्मत नहि हारो; कार्योनी सिद्धि करो, वीर प्रभु उपदेशे कांड; अशक्य नहि निश्चय धरो. भाविनावने मानी ले; उद्यम नहि मूको जनो, कर्म प्रमाणे थाशे मानी; आळसु नहि क्यारे बनो. मृत्यु पासे आवे तोपण; उद्यम श्रद्धा राखशो, सर्वे तीर्थकर उपदेशे; तेथी शिवफल चाखशो.
॥१॥
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॥३॥
(३८) श्रुतज्ञानीने उद्यमथी, सिद्धि सहु वाते थती, माटे कार्योद्यम नहि चूको; भूलो नहि उद्यम गति. कलियुगमांही संघ चतुर्विध; उद्यमथी चढती लहे, महावीरनी वाणी समजातो; जक्ताने शक्ति वहे. शक्ति अनंती आतममांही; भूली कयां भूला भमो, आत्मश्रद्धा राखो भव्यो; दुष्टवृत्तियो दमो. सत्यशर्म छे आतममांही, जममां सुख आशा तजो; सिद्धायिका स्हाय करंती, उद्यमथी मुक्ति सजो,
॥सिद्धाचल स्तवन. ॥ सिद्धाचल यात्रा करो, भवी साचा नावे;
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सिद्धाचल. १
सिद्धाचल.३
(३९) शत्रुजयने सेवतां, रोग शोक न आवे. द्रव्यथी शत्रुजयगिरि; नावे बातम पोते, ध्यान समाधि योगथी; मळो ज्योति ज्योते. शत्रुजयगिरि नाम सहु, आतमनां प्रमाणो; द्रव्य ते नावनो हेतु डे, एवो निश्चय बाणो. आत्मा असंख्य प्रदेश छे, तेम गिरि प्रदेशो; समकित प्रगटे आदिमां, आदिनाथ महेशो. द्रव्यने नाव सापेक्षथी, जेवा भावे जक्ति; तेवा फलने पामशो, तेवी थाशे व्यक्ति.
सिद्धाचल. ३
सिद्धाचल. ४
सिद्धाचल. ५
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(80)
औदयिक भावी सेवता, केइ उपशम जावे; क्षयोपशम क्षायिकथी,
भाव समफल पावे. द्रव्ज तीर्थ जेथी थयां, जाव तीर्थाधार:
विमलाचल वेगे वसो,
ज्ञानी थै नरनार. आत्मिक शुद्धोपयोगथी,
पोते तीर्थ छे देहे; बुद्धिसागर तीर्थ बे, शुद्ध आतम स्नेहे.
अष्टापद स्तवन.
अष्टापद गिरि सेवना,
भवी जावी पामे; अष्ट कर्मने जीतीने, वरे मुक्ति वामे.
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सिद्धाचल ६
सिद्धाचल. ७
सिद्धाचल. ८
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जष्टापद. १
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अष्टापद.२
अष्टापद.३
(४१) द्रव्यथी अष्टापद गिरि, भावे आतम पोत; आठ पगथियां योगनां, आरोहवां ज्योते. यम नियम आसन अने, प्राणायाम ए चार; हठना पगथियां चार डे, चार सहजनां धार. प्रत्याहारने धारणा, ध्यान सत्य समाधि; शुद्धात्म दर्शन प्राप्ति के, नासे आधि उपाधि. चौवीश तीर्थकरतणी, मूर्तियो देखे, दर्शन वंदन ध्यानथी, मोहभाव उवेखे. आठ पगथियांपर चढी, परमातम जोवे;
अष्टापद. ४
अष्टापद. ५
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(४२) बुद्धिसागर श्रातमा, सिद्ध महावीर होवे. अष्टापद.६
आबुजिन चैत्य स्तवन. बाबु पर्वत रणियामणोरे लोल, जिनमंदिर जयकाररे, विमळशाहे करावीयां रे लोल, जिन प्रतिमा सुखकाररे. आबु. १ वस्तुपालने तेजपालनारे लोल, मंदिर देव विमानरे; जिन प्रतिमाने वंदतारे लोल, प्रगटे हर्ष अमानरे.
आबु. २ अवचलगढ जिन मंदिरोरे लोल, वंदो पूजो नव्यरे; आतम गुण प्रगटाववारे लोल, मानवभव कर्तव्यरे.
बाबु. ३ जिनमंदिर बीजां भलारे लोल, दर्शनथी दुःख जायरे;
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(४३) ध्यान समाधि स्थिरता वधेरे लोल, आरोग्य आनंद थायरे. आबु. ४ द्रव्यने नाव बे भेदथीरे लोल, यात्रा करतां बेशरे; बुद्धिसागर आत्ममारे लोल, सहजानंद हमेशरे.
आबु. ५ सम्मेत शिखर स्तवन. सम्मेतगिरि अति शोभतोरे लोल, सिद्धया तीर्थकर वीशरे. द्रव्य नाव यात्रा कररे लोल; विघटे रागने रीसरे. सम्मेत, १ जिन मंदिर प्रभु वंदतारे लोल,
आनंद प्रगटे अपाररे; यात्रा करे अनुभव थतोरे लोल, नासे कर्म विकाररे. सम्मेत. ५ भाव सम्मेत शुद्धातमारे लोल, दर्शन स्पर्शन थायरे.
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(४४) अनुभव ज्ञाने ध्यावतारे लोल, पोते प्रभुपद पायरे. सम्मेत. ३ साधने योगे साध्यनी सिद्धि डेरे लोल, मनशुद्धिना उपायरे जेजे द्रव्यथी करवा घटेरे लोल, करवा ते हित लायरे. सम्मेत. ४ द्रव्यने भावथी जिन प्रतिमा जलीरे लोल, द्रव्यने भावथी सेवरे; बुद्धिसागर आतमारे लोल, आविर्भावे देवरे.
सम्मेत. ५ गिरनारनेमिजिन स्तवन, (सम कितद्वारगनारे पेसतांजी ए राह.) गिरिनार पर्वत नेमि वंदतारे, ध्यावतां शिवसुख थायरे; दीक्षा केवलने मुक्ति नेमिनीजी, कल्याण भूमि सुहायरे. गिरनार १
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(४५) नेमिनाथ गुण गावतांजी, गुण प्रकटे निर्धाररे. कारण पामी कारज संपजेजी; यात्रा करो सुखकाररे. गिरनार. २ नेमि जिनेश्वर मंदिर शोजतुंजी, स्वर्ग विमान समानरे; नेमि प्रतिमा दर्शन करेजी, नासे दोषनी खाणरे. गिरनार ३ नेमि जिनेश्वर सरखो आतमाजी, नेमिना ध्यानथी थायरे; टळे उपाधि आधि यात्रथीजी, निवृत्ति सत्य प्रगटायरे. गिरनार ४ निवृत्ति माटे तीर्थनी सेवनाजी, आतम निःसंग थायरे; बुद्धिसागर आत्मनीजी, शुद्धदशा प्रगटायरे.
गिरनार. ५
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(४६) सर्व साधारण तीर्थ स्तवनम्. सर्व तीर्थ जयकारनमुं हुं सर्व तीर्थ जयकारतारे ते तीर्थ ज सार उर्ध्व लोकने अधोलोके सहु, तीर्थ जे चार निक्षेप. मृत्युलोकमां स्थावर जंगम, तीर्थ भजे नहीं लेप.
नमुं. १ व्यवहारने निश्चय तीथों, उपादान निमित्त. दर्शन ज्ञानने चारित्र तीर्थज, सेव्यां यात्म पवित्र.
नमुं. २ आत्मोन्नतिने आत्म शुद्धि कर, संघोन्नतिकर जेह; गुरु देवादि तीर्थो सर्वे, नमीए ध्याइए एह.
नभुं. ३ संघ चतुर्विध संख्यावृद्धि, सेवा भक्ति सार;
नम.
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नमुं.४
नमुं. ५
(४७) जंगम तीर्थथी स्वावरतीर्थज, प्रगटे जे हितकार. आतम तीर्थ डे सर्व तीर्थनो, नायक मुख्याधार; आत्मशुद्धिकर सर्वे तीर्थो, सेवो नरने नार. सानंद शहेरे आनंद ल्हेरे, वांद्या सहु देवेश;
ओगणीश सत्तोतर आश्विननी, बीज तिथि सुविशेष. तपागच्छ सागर शाखामां, सुखसागर गुरुराज; चोमासी देववंदन रचत, सिद्धयां सघलां काज. सानंद संघना नक्तिभावथी, भणवा गणवा हेत;
नमुं.६
नमुं. ७
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(४८) बुद्धिसागरसूरि सिकि, पूर्णानंदने देत.
नमुं. ७ शाश्वताअशाश्वता जिन चैत्यवंदन. शाश्वत प्रतिमाओ घणी प्रथमादि स्वर्गे जे रही. जिनभावस्मृतिथी वंदतां उपयोगनी शुद्धि वही. ज्योतिषीनां सर्वे विमानो त्यां प्रतिमा निर्मली; व्यंतर जुवनमा जे रही वंदु हुं प्रेमे लळी लळी १ जे जेज मानव लोकमां ते तेज वंदु भावथी; सिझांत आगममां कही जावे स्मरूं गुण दावथी. ऋषनादि चारे नामथी शाश्वत प्रतिमा ध्याइए. शत्रुजयादि तीर्थस्थित अशाश्वती मन लाइए, २ पाताळ मृत्यु लोकमांने स्वर्गमांही वंदीए; नामादि तीर्थों सर्वने वंदीने कर्म निकंदीए. परमात्मप्रतिनिधि तीर्थजे आत्मार्थ उपशम आदिये; बुद्धथ ब्धि नक्तिनावथी उपयोगथी मन लावीए. ३
शाश्वताशाश्वत जिननी चार थोयो. शाश्वत प्रतिमाओ सह वंदो; स्वर्ग मृत्यु पातालेजी;
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(४९) यातमना उपयोगे रहेवा, निजगुण जे अजवाळेजी; नामादिनिक्षेपा चारे, अवलंबन हितकारीजी; निश्चयने व्यवहारे बंदी, पामो सुख नरनारीजी. शाश्वतीने अशाश्वती प्रतिमा, नयनिक्षेपे जाणोजी; अर्हत् प्रतिनिधि क्षयोपशमना, नावे मनमां आणोजी; एकमां सर्वे सर्वमा एकज, एकानेक विचारोजी; चढतानावे सापेक्षाए, वंदीने घट धारोजी. प्रभु महावीर जिनवरवाणी,
आगम शास्त्र प्रमाणीजी; कलियुगमा आधार खरो ए,
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(५०) जाणी मनमा आणीजी; सूत्रोमां जिनप्रतिमा जाखी, आराधो भवी प्राणीजी; प्रभुनी वाणी मुक्तिनिशानी, अनंत गुणनी खाणीजी. सम्यग्दृष्टि देवो सघळा, देवीयो प्रभु गावेजी; प्रभुप्रतिमाओने वंदे, पूजे घटमां ध्यावेजी; द्रव्यने भावथी व्यवहार निश्चय, उपादान निमित्तेजी. बुद्धिसागर तीर्थ प्रतिमा, पूजो निर्मल चित्तेजी.
शाश्वताशाश्वत चैत्यवंदन करी-नमुथ्थुणंकही -अरिहंत-चेइयाणं-अन्नथ्थ कही-एक लोगस्सचंदेसुनिम्मलयरा सुधीनो काउसग्ग करी एक जणे काउसग्ग पारी मोटी शांति कहवी. बीजा काउसग्ग
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मां सांगळे, पढ़ी लोगस्स कही तेर नवकार गणवा. सिद्धाचलनो दुहो कही तेर खमासणां देवां. संपूर्ण।
महावीर चैत्यवंदन. ॐ अर्हश्री महावीर-वर्धमान जिनेश्वर, शांतिं तुष्टिं महापुष्टि-कुरु स्वेष्टं द्रुतं प्रनो. ॥१॥ सर्वदेवाधिदेवाय, नमो वीराय तायिने, ग्रहभूतमहामारी, द्रुतं नाशय नाशय. ॥२॥ सर्वत्र कुरु मे रक्षा-सर्वोपद्रव नाशतः, जयं च विजयं सिद्धिं, कुरु शीघ्रं कृपानिधे. ॥३॥ त्वन्नाम स्मरणादेव, फलतु मे वांवितं सदा, दूरीनवन्तु पापानि, मोहं नाशय वेगतः ॥४॥ ॐ हूँ।अर्ह महावोर-मंत्र जापेन सर्वदा, बुद्धिसागरशक्तीना, प्रादुर्भावो नवेद्धवम्. ॥५॥
महावीर चैत्यवंदन. प्रभु महावीर जगधणी, परमेश्वर जिनराज श्रद्धा जक्ति ज्ञानथी, सार्या सेवक काज. ॥१॥
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( ५२) काल स्वभावने नियति, कर्मने उद्यम जाण; पंच कारणे कार्यनी, सिद्धि कथी प्रमाण. ॥२॥ पुरुषार्थ तेमां कह्यो, कार्य सिद्धि करनार; शुद्धात्मा महावीर जिन, वंदु वार हजार. ॥३॥ महावीर महावीर ध्यावतांए, महावीर आपो आप; बुद्धिसागर वीरनी, साची अंतर छाप. ॥४॥
महावीर चैत्यवंदन. प्रभु महावीर वंदतां, प्रगटयो हर्ष अपार; उत्पत्ति व्यय ध्रुवमय, भाख्यां द्रव्यो सार. ॥१॥ बाहिर अंतर आतमा, परमातम त्रण नेद; जाख्या केवल ज्ञानथी, करी घातीनो बेद. ॥शा हृदय विषे तुजने धरी, करी शुद्ध उपयोग, ज्योति ज्योति मिलावशं, टाळी कर्मना रोग.॥३॥ तुज ध्याने रसिया बनीने, साधीशुं निज काज; बुद्धिसागर वीरनु, पामीशुं साम्राज्य. ॥४॥
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(५३)
सिद्धाचल चैत्यवंदन. सिद्धाचल गिरि वंदीए, द्रव्य भावथी बेश; द्रव्य भाव गिरिजाणतां, रहे न मनमां क्लेश. ॥१॥ सात नयोथी जाणीने, विमलाचल ध्यानार; अवश्य मुक्तिपद लहे, शुद्धातम पद सार. ॥२॥ निर्विकल्प स्वभावथी ए, तीर्थज आपो आप; बुद्धिसागर संपजे, रहे न दुविधा ताप. ॥३॥
महावीर स्तोत्रम् ॐ अहे है। महावीर, सर्पविषं हर द्रुतम् । पुष्टरोगविनाशेन, रक्ष रक्ष महा विभो. १ वन्नामजांगुलीमंत्र, जापेन सर्व देहिनाम् ; तक्षकादिमहासर्प-विषं नश्यतु तत्क्षणम् २ ग्रन्थिकज्वर नाशोऽस्तु, भूतबाधां विनाशय; वातपित्तकफोदतान् , सर्व रोगान् क्षयं कुरु ३ जलेस्थले वने युके, सभायां विजयं कुरु; ॐ अंहस्रौ महावीर, वर्धमान नमोऽस्तु ते. ४
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(५४)
महावीर स्तोत्रम् . ॐ ह्री अर्ह महावीर, विशद् यंत्रप्रकाशक; वृश्चिकसर्पजातीनां, विषं नाशय वेगतः १ ॐ हंस क्लीमहाहंस-वर्धमान जिनेश्वर, सर्वजातिविषाद् रक्ष-त्वन्नामजापकस्य मे. २
. महावीर स्तोत्रम् . ॐ ह्रीअहे महावीर, केवलज्ञान भास्कर; वीतराग महादेव, नमोऽस्तुते जिनेश्वर. १ त्वमेव सर्व जीवानां, जोवकोऽलि जगत्प्रभो; ब्रह्मा विष्णुहरोऽसि त्वं, सर्वदा मे शिवं कुरु. २ पूर्णशुद्धात्मदेवस्त्वं, सोऽहं तलमासिस्वयम् . ३ शांतिं तुष्टिं महापुष्टिं-श्रियं च कुरु सत्वरम् . ३
स्तुति. प्रभुमहावीर जिनवर ध्याइए, प्रभु गुणने प्रेमे गाइए; गुणगाइ गुण प्रगटावीए, निश्चय महावीर पद पावीए, चोवीश तीर्थकर केवली, प्रणमुं वंदु ते लळीलळी;
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(५५)
जिनवर प्याइ जिनवर था, आतम परमातम पद नावुं. २ जिनवाणी वेदागम जाणो, समजीने उपयोगे आणो; जिन वाणीथी आतम शुद्धि, करवी एवी धारो बुद्धि. ३ यक्षोने यक्षीणीओ स्हाये, यावे वे भक्तोनी प्राये; उपासना भक्ति जे धारे, न्याये देवो आवे व्हारे. वीरप्रभुनी चार स्तुतिनी एक स्तुति. वीरप्रभु परमातमा, परमेश्वर देवा, चोवीश तीर्थकर जिनो, जेओ आपे मेवा; तेनी वाणी जली, शुद्ध श्रातमकारी, देव देवी सेवती, शासन हितकारी
चार थोयनी एक थोय.
प्रभुं श्री महावीर, सर्व विश्वहितकारी, चोवीशे जिनवर, तीर्थंकर अवतारी; जैनागम सूत्रो, ग्रन्थो ज्ञान प्रकाशी, देवो देवीओ, शासन सेव विलासी.
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४
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(५६) चार थोयनी एक स्तुति. प्रभुमहावीरदेवजिनेश्वरम्, सकलतीर्थपति अचलेश्वरम्, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनागमम कुरु हि यक्षिणी संघ सहायताम्.
चार थोयनी एक स्तुति. वीर जिनेश्वर केवली, जेनुं शासन बाजे, तीर्थकर सर्वे नमुं, जेयो जगमां गाजे; जैनधर्म प्रगटावीयो, जेनो आदि न अंत, शासन देवनी सहायथी, दुःख पामे न संत. १
चार थोयनी एकबीजनी स्तुति. महावीर समकित बीजने, कहे केवलज्ञाने, तीर्थकर सर्वे कहे, चंद्र सरखी प्रमाणे; सर्व धर्मनुं बीज बे, जैनधर्म अनादि, सिद्धायिका टाळती, सर्व संघ उपाधि.
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(५७) चार थोयनी एक पंचमीनी स्तुति. समवसरणमां बेसीने, प्रभु वीरे प्रकाशी, पंचमी सहु तीर्थकरे, कथी ज्ञानविलासी; जिनवाणी सहु वेदना-सत्य वेद समानी, शासन देवीओ संघनी, करे जक्ति वखाणी. १
उमनी थोयो-एक स्तुति.
चार थोयनी एक थोय. अष्टमी अष्टमी गतिदिये, महावीर प्रकाशे, सर्वे तीर्थकर कथे, आठ कर्म विनाशे; केवलज्ञान प्रकाशती, श्रुतज्ञाने आराधे, शासन देवनी स्हायथी, संत मुक्तिने साधे. १
अगियारसनी स्तुति.
चार स्तुतिनी एक स्तुति. एकादशी अति उजळी, वीरदेवे प्रकाशी, कृष्णे पाळी लेमना, उपदेशथी खासी; ज्ञानावरणने टाळीने, शुद्धज्ञान प्रकाशे,
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(५८)
देव देवी संघनी, करी जक्ति उजाशे.
चैत्री पुनमनी स्तुति. चार स्तुतिनी एक स्तुति.
चैत्री पुनम विमलाचले, तप वीरे जाख्युं, तीर्थकर सर्वे लुं, मुक्तिफल दाख्यं; सिद्धाचलना ध्यानथी, शुद्ध ज्ञानने मुक्ति, शासनदेवो सारता, यात्रीओनी नक्कि
१
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१
सिद्धाचलनी स्तुति.
द्रव्यभावथी सिद्धा बलगिरि-बाहिर अंतर जाणोजी. सात नयोनी सापेक्षा, सनजी मनमां आयोजी निमित्त कारण उपादानथी, सिद्धाचलने सेवोजी, बुद्धिसागर वीजमुजी, भाले त्रिभुवन देवोजी. १
सिद्धाचल स्तुति.
निमित्त विमलाचल तीरथ छे, आत्म शुद्धिकारीजी, उपादान तम शत्रुंजय, चिदानंद गुण धारीजी;
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(५९) असंख्य प्रदेशी कांकरे कांकरे, ध्याने स्थिर धनाराजी, अनंत सिद्धया सीजशे साधु-बुद्धिसागर प्याराजी. १
आंबील तपनी चार स्तुतिनी स्तुति वीरप्रभुए आंबिल तपने, नाख्यु नवि हितकारीजी, अर्हन् सिद्धने सूरि वाचक, मुनि सेवा सुखकारीजी; दर्शन ज्ञान अने चारित्रज, तप सेवो अतधारीजी, शासन देवो स्हाय करे सर, द्रव्य नाव सुखकारीजी.१
सीमंधर जिन स्तुति. महाविदेहे सीमंधरजिन, वैदेही देहे उता, केवलज्ञानी शालमरामी, उपकारी जग उत्ता; द्रव्यभावथी अंतर वाहिर, उपशम आदि जावथी, सीमंधरजिन बंदु ध्या, आत्मिक सीनादावो. १
श्री महावीर प्रभुनी स्तुति. उदयिक भावे प्रशस्थ वी, वंदेध्याचे भावथी, उपशम क्षयोपशम भावे सहु, वीरो ध्यावे दावथी.
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(६०) सर्व वीरनो प्रभु महावीर, शुद्धातम ध्याई प्रभु ब्रह्मादिक ध्यावे जे जेने, एवा वीर नमुं विभु. १ क्षायिक नावे प्रभु महावीर, आतम थावे ज्ञानथी; आतम ते परमातम पोते, सत्ताने व्यक्तिथकी. देखो दिलमा अातम महावीर, जाखे सर्वे जिनपति शुखात्मा थावाथी सहुमां, जेद रहे नहि कंइ रति. २ आगमवेदो शास्त्रो सर्वे, सात नये जाग्याथकी; सम्यग् आतम ज्ञान प्रकाशे, ज्ञानी जातो नहि की, सापेक्षाए सर्वे तत्वो, जाणी आतममा रमे; आत्मशुद्धि हेते सहु शास्त्रो, जाणे ते नहि भवभमे.३ आत्मानी ज्ञानादि शक्ति, उपादानथी देवता; दर्शन ज्ञानमयी बातम, जैनो तेने सेवता; निष्कामी आतमने सेवे, देवो देवीयो मुदा; द्रव्यजावथी महावीर भक्तो, शक्तिमंतो सर्वदा. ४
बीजनुं स्तन बीज तिथिए जैनधर्मनुरे लाल, बीज ग्रहो समकितरे. हुवारी लाल;
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( ६१ )
देव गुरुने जैन धर्मनीरे लाल,
श्रद्धा समकित तरे, हुंवारीलाल, बीज. ॥ १ ॥
अनंतचार कषायनोरे लाल,
त्रण मोहनी तेगरे हुंवारी बाल;
सात प्रकृति उपशमे यदारे लाल, त्यारे समकित नेमरे; हुंवारीलाल बीज. ॥२॥
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सातनो क्षयोपशम क्षयेरे, क्षयोपशम क्षायिकरे. हुंवारीलाल. व्यवहार समकित साधतांरे लाल, निश्चय समकित एकरे. हुंवारीलाल; बीज. ॥३॥ निश्चय समकित मुनिपणेरे,
डुंवारी लाल.
चारित्र भेj सुहायरे. चार निक्षेपे सात नये करीरे लाल, समकित गुण प्रगटायरे; हुंवारीलाल. बीज. ॥४॥
चारित्र मोह निवारतोरे लाल,
चूके न उद्यम तेहरे; समकित ते दर्शन जलुरे,
हुंवारीलाल,
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(६२) चरणे लहे शिवगेहरे, हुंवारीलाल. बीज. ॥५॥ समकित उत्कृष्ट भावथीरे, लाल, क्षणमांही मुक्ति थायरे, हुंवारीलाल, समकित समसठ बोलछे रे लाल, ज्ञाने निश्चय पायरे, हुंवारीलाल. बीज. ॥६॥ निश्चयना षट्नेद छेरेलाल, पामे रहे नहीं खेदरे; हुंवारीलाल बीज. समकित रुचि दश जातनीरे लाल, जाणी टाळो भेदरे, हुंवारीलाल. बीज. ॥७॥ जलपंकजवत् समकितीरे लाल, निर्लेपी कर्तव्यरे, हुंवारीलाल, गुरुश्रद्धा नक्ति वमेरे रेलाल, श्रवणादिकथी भव्यरे; हुंवारीलाल. बीज.॥८॥ शुमातम निश्चय थतारेलाल, अनुजव आनंद थायरे, हुंवारीलाल; बुद्धिसागर समाकितीरेलाल, सम्यग्ज्ञाने सुहायरे, हुंवारीलाल. बीज. ॥९॥
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(६३) पांचमनुं स्तवन. पंचमी तप तमे करोरे प्राणी-ए राग. पांचमे ज्ञान आराधना करतां, ज्ञानावरण पलायरे, मतिश्रुत अवधिने मन पर्यव, केवल प्रगट सुहायरे. पांचमे. १ चक्षु अचक्षु अवधिने केवल, दर्शन प्रगटी सुहायरे; मतिश्रुतनुं अज्ञान टळेने, विभंग झट विणसायरे. पांचमे. मति अठ्ठावीश त्रणसे चालीस, भेदे घट प्रगटायरे; चन्द वीश भेदे श्रुतज्ञानी, केवली सरखो थायरे.
पांचमे.३ अवधि ज्ञान असंख्य प्रकारे, मनपर्यव बे नेदरे; केवल झानमा नेद न बीजो, प्रगटे फळती उमेदरे. पांचमे, ४
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(६४) गुरुगमथी मतिश्रुत वे प्रगटे, यात्मानुनव थायरे; बुद्धिसागर गुरूनी लेवा, करता ज्ञान सुहावरे.
पांचमे. ५
अष्टमोनुं स्तवन. वीर जिनवर एम उपतिशे-ए राग. महावीर प्रभु तप उपदिशे, अष्टमीनु सुखकाररे; आठ प्रकारे मद त्यागतां, अष्टमी गति मळे साररे. वीर प्रजु. १ पांच समिति त्रण गुप्तिने, साधतां थाय समाधिरे; योगनी दृष्टियो आउछे, पामतां होय न बाधिरे. वीर. २ अष्टांग योगनी साधना, अनुक्रमाथी करनाररे; साध्य सिद्धिपद झट आहे,
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वीर. ३
(६५) आनंद पूर्ण अपाररे. अष्टनीदिन कल्याणको, तीर्थेशनां थयां बेशरे; बुद्धिसागर शुद्ध आतमा, साध्याप्ति द्वे टळे कलेशरे.
वीर. ४
एकादशीनुं स्तवन. वोर जिनवर एम उपदिशे ए राग महावीर जिनवरे उपदिश्यु, एकादशी तप बेशरे; कृपणे आराधन आदर्यु, टाळवा रागने देषरे महावीर० १ बहु जिनवर कल्याणको, एकादशी दिन जाणरे; निष्कामनावथी सेवतां, प्रगट यतुं शुऊ ज्ञानरे.
महावीर०२ ज्ञान प्रथम दया डे पछी, झान पछी क्रिया जोयरे;
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महावीर.३
ज्ञान पछी तप प्रगटतुं, ज्ञानथी चारित्र होयरे. शुशोपयोगथी ज्ञानीने, कर्मनो होय न बंधरे; सर्व करे बतां संवरी, कर्म क्रियामा अबंधरे. एकादशी तप सेवतां, अष्ट सिद्धि नवनिधिरे, बुद्धिसागर गुरु सेवतां, क्षायिक लब्धि समृद्धिरे.
महावीर०४
महावीर० ५
नव पद ओळी स्तवन. नव पद ओळी तप आराधन, करतां शिव सुख थावरे; रोग शोक दुर्बुद्धि विघटे, अष्ट सिधि घर आवेरे. द्रव्यने भावथी नवनिध प्रगटे, नव पद ध्यानने धरतारे;
नव०१
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(६७) ब्रह्मचर्य नव वाडो धारी, नरनारी सुख वरतारे.
नव०३ नवपदरूपी आतम पोते, उपादानथी जाणीरे निमित्तथी पर जाणी भावे, आराधंतो ज्ञानीरे.
नव०३ षट्चक्रोमां नवपदध्याने, आत्मसमाधि प्रगटेरे; एकता स्थिरता लीनता योगे, घाती को विघटेरे.
नव०४ प्रभु महावीर देवे भाखो, नव पद गुण गुणी नावेरे; बुद्धिसागर आत्मस्वरूपो, नज पद सत्य सुहावरे. नव पद०५
तारंग तीर्थ अजित जिनेश्वर स्तवन. तारंगा गढ अजित (जनेश्वर, पूजतां सुख थायरे;
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(६८) अजित बने निज बातम ध्याने, मोह ते भाग्यो जायरे. सारंगा०१ ब्रमरी संगे इयल उमरी, रूपने ध्याने पायरे; तेम प्रभुना ध्याने रहेतां, आतम तद्रूप थायरे. तारंगा०२ द्रव्य नावथी यात्रा करवी, प्रभुनी सद्गुण वरवारे; सेवा पूजा गायन त्नक्ति, प्रभु गुणने अनुसरवारे. तारंगा० ३ प्रभु सम गुण निज आतममांही, तेहनो आविर्नावरे; करवा साधन यात्रादिक सहु, चूके न सम किती दावरे. तारंगा०४ यातमनी शुद्धि करवाने, तुज अवलंबन ली, बुद्धिसागर साध्योपयोगे, निज सुख निजने दीधुंरे. तारंगा० ५
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(६९) पानसर महावीर प्रभु स्तवन. पानसरा महावीर जिनेश्वर, वांद्या नेटया नावेरे; पुण्योदयथी दर्शन पूजा, कीधी आतम दावेरे. पानसरा० १ प्रभु दर्शन करतां निजदर्शन, आत्मप्रभुता जागरे, श्रद्धाप्रेमथी आत्मार्पणने, करतां मोहनी भागेरे. पानसरा० २ मतिश्रुत ज्ञान प्रगटतां दर्शन, नावथो प्रभुनुं थायरे; आत्मानुभव झांखी थातां, प्रभुता निज प्रगटायरे. पानसराग ३ तुज रूप ध्यातां तुजरूप था, निश्चय ने निर्धाररे; पतिव्रता सम नवधा भक्ति, तारी शिव दाताररे. पानसरा०४
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(७०) कलिकाले तुज शरणुं कीधुं, स्वार्पण करीने सर्वरे; नाम रूपनो मोह रह्यो नहीं, तुज नक्तिमा अगवरे अर्पाइ तुजमां हुं नावे, करूं ते त्हारी नक्तिरे; बुद्धिसागर आत्ममहावीर, प्रगटे अनंती शक्तिरे.
पानसरा० ५
पानसरा०६
पंचासर पार्श्वनाथ स्तवन. पार्श्व पंचायतरा जगतमा जयकरा, पूर्ण आनंद दरियो सुहागो; शुद्ध आत्म प्रनु बोतरागी विभु, पूर्ण ज्योति स्वरूप में ध्याो. पार्श्व० १ रोग नहि शोक नहि सर्व चिंता रहित, सानोति रहित आत्म वरवा; शुद्ध क्षायिक तुजरूप संभारतां, तत्क्षण मोह नहीं शोक परवा. पार्श्व० २
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(७१) जेवू दे ताह्मरं रूप याविनलं, माह्यलं तेहQ रूप नको; माह्यरी ताह्यरी एकता अनुनवी, जीवतां मुक्तिनी झांखो वकी. पार्श्व ३ नार शो ? दुःखनो ज्ञान आगळ टके, जानु त्यां तम रहे केम क्यारे, तुज देखे थतो आत्म उपयोग मुज, पूर्ण आनंद वहेतो ज त्यारे पार्श्व०४ माह्यरो ताह्यरो लेद ज्यां ने नहीं, एक आनंदरूपे प्रकाश्यो; बुद्धिसागर परिपूर्ण शक्तिमयी, यातमा आत्मरूपेज भास्यो पार्श्व० ५
चारूप पार्श्वनाथ स्तवन. चारुप पार्श्वजिनेश्वर वंदु, गावं ध्यावं प्रेमेरे, द्रव्यक्षेत्र कालनावे अनंतु, सत्यरूप डे क्षेमेरे.चा० १ शुद्ध स्वरूपे परिणमवामां, भक्तियोगने सेवारे, तुज उपयोग ते ज्ञानयोगछे, प्रगट रूप निजदेवारे चा०५
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( ७२) धात्मोपयोगे कर्म न लागे, तन्मय तुऊयो थातारे, अनंत पूनिवोनां कमों, क्षगमां दूर पलातारे चा० ३ एक एक योगे जगलोको, अनंत मुक्ति पान्यारे, असंख्य योगोजाणी ज्ञाने, ज्ञानीयो विश्राम्बारे,चा०४ सर्वनयोनो सापेक्ष द्रष्टि, योगे योगो अनेदरे, बुद्धिसागर शुद्धातममां, रहे न योगनो खेदरे चा०५
झघमिया आदिनाथ स्तवन. धादि जिनेश्वर गातां ध्यातां, रहे न झघडा कोयरे, शुद्धप्रेमथी प्रगट प्रभुता, आनंद हेली जोयरे. आ०१ मन वाणी काया तुज हुकमे, वर्तता निज गज्यरे,
आत्माना ताने सहु योगो, पज प्रभु साम्राज्यरे. आ०३ रत्नत्रयो स्थिरता लीनतामां, प्रगटे निश्चय तानरे, युद्धिसागर आत्मोपयोगे, सर्वे भळ्या मन मानरे.या०४
समाप्त.
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(193) नवपद ओळीनुं स्तवन. प्रीतलड बंधाणी ए अजित जिणंदशुं - ए राग.
नवपद ओळीरे कीजे अतिशय जावथी, श्रीपालमयणा पेठे नरने नारजो; अरिहंत सिद्ध ने सूरि वाचक मुनिवरा, दर्शन ज्ञान चरण तप नव सुखकारजो. नवपद० ॥ १ ॥ पद पद आंबील नवकार - वाळी वीराने, गणोए करी षट् यावश्यक बेशजो; कर्म निकाचित रोगो या भवमां टळे, उपसर्गो संकट नासे सहु कलेशजो नवपद० ॥ २ ॥ नवधा क्षायिक ऋद्धि श्रतम संपजे, जन्म जराने मृत्यु जयनो नाशजो; आतम ते परमातमभावे उल्लसे, अनंत आनंद अनुभव प्रगटे खासजो. नवपद० ॥ ३ ॥ गुरुगम लहीने नवपद ध्याने रोझीए, समता जावे, सुखदुःख सहीए सर्वजो : दुःखनी वखते दोनपहुँ नहि धारीए, सत्ता लक्ष्मीनो नहीं करीए गर्व जो. नवपद० ॥ ४ ॥ द्रव्यभाव व्यवहारने निश्चय नयथकी, भेदाभेदे नवपद सत्य स्वरूपजो; बुद्धिसा
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( ७४ )
गर याराधतां आतमा, निजमां नवपद ऋद्धि प्रगटे अनुपजो. नवपद० ॥ ५ ॥
वर्धमान बिलतप स्तवन.
दान सुपात्रे दीजेहो भविका दान सुपात्रे दीजे.
ए राग.
·
वर्धमान जिन वंदु हो भावे वर्धमान जिन वंदु यातम भावे आणंदु हो जावे, वर्धमान जिन वंदु वर्धमान बिल तप भाख्युं परमातम पद वरवा; एकादिक आंबिल एम चढतां शत आंविल एम करवां हो. भावे० ॥ १ ॥ एक आंबिल करी उपवास पश्चात्, बे आविल उपवासे; चढते बिल उपवास अंतर, वीसे विश्राम वासे हो. भावे० ॥२॥ नवपदमांथी गमे ते पदनो, जाप ते वीश हजार; बार खमासण लोगस बारनो, कायोत्सर्ग विचारहो. जावे० ॥ ३ ॥ गुरुमुखथी विधि पूर्वक उच्चरी, पूर्ण यतां उझवीए; तद्भव त्रीजा भवमां मुक्ति, जू टुं
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(७५) कांइ न लवीए हो. नावे ॥४॥ चौद वर्ष त्रण मासने उपरे, वीशे दिवसे पूरो; विश्रामवण तप थाराधतां, तप रहे न अधूरो हो. भावे ॥५॥ पांच हजार पच्चास छे विल, उपवास शत निर्धार; पूर्ण करे वडभागी तपिया, लब्धि शक्ति भंडार हो. जावे०॥६॥ आहारादि विषयोमा रसवण, आतम आनंद रसिया; क्षणमा मुक्ति पामे निश्चय, भाव तपे उल्लसिया हो. भावे० ॥ ७ ॥ अंतगड सूत्रने आचार दिनकरे, श्रीचंद केवली साध्यु: बुद्धिसागर आत्मोल्लासे, महासेनजीए आराध्युं हो. भावे ॥८॥
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( ७६ )
जिनेश्वरस्तवन चतुर्विंशतिका
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( १ )
( राग देशाख. ) परमप्रभुता तुं वय, स्वामी ऋषन जिणदं; ध्याने गुणठाणे चढी, टाळ्या कर्मना फंद. पर. १ अंतरंगपरिणामथी, निज ऋद्धि प्रकाशी; क्षायिकभावे मुक्ति मां सत्यानंद विलासी. कर्ता कर्म करण वळी, संप्रदान स्वभावे; पादानधिकरणता, शुद्धक्षायिकजावे. पर. ३ नित्यानित्य स्वजावनं, सदसत् तेम धारो; वक्तव्यावक्तव्यने, एकानेक विचारो. आठ पक्ष प्रभुव्यक्तिमां, षड् गुण सामान्य; सात नयोथी विचारतां, प्रभुव्यक्ति सुमान्य. पर. ५ स्मरण - मनन एक तानमां, शुद्धव्यक्तिमां हेतु; तुज सरखं मुज रूप छे, भवसागर सेतु. सालंबनमां तुं वमो, निरालंबन पोते; बुद्धिसागर ध्यानथी, निजने निज गोते.
पर. ६
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पर. २
पर. ४.
पर. ७
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(७७) २ अजितनाथस्तवन.
( श्रीरे सिकाचळ भेटवा-ए राग.) छ जितजीनेश्वरदेवनी, सेवा सुखकारी; निश्चय ने व्यवहारथी, सेवा जयकारी. अजीत. १ निमित्त ने उपादानथी, सेवन उपकारी; द्वेष खेद ने भय तजी, सेवो हितकारी. अजीत. ५ दुर्लभ सेवन इशर्नु, धातोधातें मळवू; परपरिणामने त्यागीने,शुद्धनावमांनळवु.अजीत. ३ षटकारक जीवद्रव्यमां, परिमणमतां ज्यारे, त्यारे सेवन सत्य छे, नवपार उतारे. अजीत. ४ निर्विकल्प उपयोगथी, नित्य सेवो देवा; निज निज जातिनीसेवना, मीठा शिवमेवा.अ. ५ परमप्रनु निजआगळे, सेवनथी होवे; बुद्धिसागर सेवतां, निजरूपने जोवे. अजीत. ६
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(७८) ३ संनवनाथस्त वन.
(राग उपरनो.) संभव जिनवर जागतो, देव जगमां दीगे; अनुजव-ज्ञाने जाणतां, मन लागे मीठो. सं. १ प्रगटे क्षायिक लब्धियो, संभजिनध्याने; संनवचरणनी सेवना, करतां सुख माणे. सं. २ संजवध्याने चेतना, शुद्ध ऋद्धि प्रगटे; वोयोंहासनी वृद्धिथी, मोह-माया विघटे. सं. ३ संचव-दृष्टि जागतां, संजवजिनसरिखो; आलंबन संभवप्रह, एक ताए परखो. संनवसंयमसाधना, साचो एक नक्ति; बुद्धिसागर ध्यानमां, ज्ञान-दर्शनव्यक्ति. सं. ५
w
सं.४
४ अनिनंदनस्तवन.
(राग उपरनो.) अभिनंदनअरिहंतनु, शरणुं एक साचुं; लोकोत्तर चिन्तामणि, पामी दिल राचुं. अ. १
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(७९) लोकोत्तर आनंदना, परमेश्वर जोगी; शाता-अशातावेदनी, टळतां सुख योगी. अ. २ उज्वल ध्याननी एकता, खेंची प्रभु आणे; पुद्गळने दूरे करी, शुद्धरूप प्रमाणे. अ. ३ पिंडस्थादिक ध्यानथी, प्रभु दर्शन आपे; बुद्धिसागर नक्तिथी, सत्य-आनंद व्यापे. अ. ४
५ सुमतिनाथस्तवन.
(राग उपरनो.) सुमतिचरणमा लीनता, सातनयथी खरी छे; समकित पामी ध्यानथी, योगियोए वरी छे. सुमति. १ नैगम संग्रह जाणजो, व्यवहार विचारो; ऋजुसूत्र वर्तमानना, परिणामने धारो. सुमति. २ अनुक्रम चरण विचारने, नयो सप्त जणावे; शहद अर्थ नय चरणने, अनेकांत ग्रहावे. सुमति. ३ द्रव्य अने भाव भेदथी, चउ निक्षेप दे; तुज चारित्रने धारतां, आठ कर्मने छेदे. सुमति. ४
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( ८० )
अजर-अमर अरिहंत ! तुं, भेदनावने टाले; बुद्धिसागर चरणथी, शिवमंदिर म्हाले. सुमति. ५
६ पद्मप्रजस्तवन. ( राग उपरनो. ) पद्मप्रभु ! जिनराज ! तुं, शुद्धचैतन्ययोगी; क्षायिक चेतनऋद्धिनो, प्रभु ! तुं वड भोगी. पद्म. १ हरि हर ब्रह्मा तुं खरो, जडभावथी न्यारी; अष्टऋद्धिोक्ता सदा, भवपार उतारो. नाम - रूपथी जिन्न तुं, गुण- पर्यायपात्र; शुद्धरूप ओळखाववा, गुरु तुं हुं छात्र. सत्ताथी सरखो प्रभु, शुद्ध करशो व्यक्ति; बुद्धिसागर भावथी, प्रभु रूपनी भक्ति.
७ सुपार्श्वनाथस्तवन. ( राग केदारो . ) श्री सुपार्श्वजिनेश्वर प्यारो, जवजलधिथी तारोरे;
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पद्म. २
पद्म.
पद्म.
३
કે
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श्री. १
(८१) स्थिरउपयोगे दिलमा धार्यो, मोह-महामल्ल हार्योरे. मनमंदिरमा दीपकसरखो, रुप जोइ जोइ हरखोरे; षट्कारकनो दिव्य तुं चरखो, परम प्रभुरूप परखोरे. क्षायिकगुणधारी-जयकारी, शाश्वत शिवसुखकारीरे; बुद्धिसागर चिद्घनसंगी, जय जय जिन उपकारीरे.
श्री. २
८ चंद्रप्रभस्तवन.
( राग केदारो.) चंद्रप्रभुजिनवर जयकारी, हुँ जाउं बलिहार रे; केवलज्ञान ने केवल दर्शन, क्षायिकसम कितधाररे.
चं.
१
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चं.
२
(८२) अष्टगुणो, आपकर्मने टाळी, ध्याने प्रश्नु शिव वरिया रे; भावकर्म राग-द्वेषने टाळी, नवसागर झट तरिया रे. शुभाशुभपरिणाम हठावी, शुद्धपरिणामने धार्यों रे; ध्यानवडे गुणठाणे चढतां, मोह-मल्ल खूब हार्यो रे. चंद्रनी ज्योतिपेठे निर्मळ, चेतनज्योति दीपे रे; बुद्धिसागर चेतनज्योति, सर्वज्योतिने जोपे रे.
चं.
३
चं.
४
९ सुविधिनाथस्तवन,
(राग केदारो.) सुविधिजिनेश्वर सुविधिधारी, वरिया मुक्ति-नारी रे
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(८३) परपरिणामे बंध निवारी, शुद्धदशा घट धारी रे, यम-नियम-आसन जयकारी, प्राणायाम अभ्यासे रे, प्रत्याहार ने धारणा धारे, चेतनशक्ति प्रकाशे रे. ध्यान-समाधि ए योगनां अंगो, पार लह्या जिनदेवा रे; बुद्धिसागर सुविधिजिनेश्वर,सेवा मीठा मेवा रे.
सु०
२
सु०
३
१० शीतलनाथस्तवन.
(राग केदारो.) शीतलजिनपति ! यतिततिवंदित, शीतलता करनारा रे; अज-अविनाशी-शुद्ध-शिवशंकर ! प्राणथकी तुं प्यारा रे. शी० १
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( ८४ )
उपादान शीतलता समरे,
निमित्त सेवे साधुं रे; समताथी क्षणमां छे मुक्ति, शीतल रूपमा राखुं रे. उपशम - क्षयोपशम ने क्षायिक, -
जावे समता सार रे;
ज्ञानानंदी समता साधी,
उतरशे जवपार रे. सहजानंदी शीतलचेतन, अंतर्यामिदेव रे; बुद्धिसागर शुद्धरमणता, शीतल जिन पतिसेव रे .
११ श्रेयांसनाथस्तवन.
( राग केदारो . ) श्रीश्रेयासजिनसाहिबसेवा, शाश्वसशिवसुखमेवा रे;
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शो०
शी०
शी०
३
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श्री. १
श्री.
(८५) द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय, शुद्ध निरंजन देवा रे. योगी, भोगी, गतभय शोकी, कर्माष्टकथी जिन्न रे; शुद्धोपयोगी, स्वपरप्रकाशक, हायिकनिजगुणलीन रे. अनंतगुण-पर्यायनी अस्ति, समये समये अनंतो रे; परद्रव्यादिकनी नास्तिता, समये अनंती वहंती रे. अस्ति-नास्तिमय शुद्धस्वरूपी, संग्रहनयथो अनादि रे; व्यक्तपणुं शब्दादिकनयथी, सर्व जीवोमां आदि रे. अग्निथी जेम अग्नि प्रगटे, शुद्ध चेतनथो शुद्ध रे; बुद्धिसागर पुष्टालंबन, उपादान-गुण बुद्ध रे.
श्री०३
श्री
४
श्री
५
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वा
१
(८६) १२ वासुपूज्यस्वामिस्तवन.
(राग केदारो.) वासुपूज्यनी पूजा करतां, पोते पूज्य ते थाय रे; जिनवर-पूजा ते निजपूजा, शुद्धविचारे सदाय रे. निर्विकल्प-उपयोगे पूजा, नाव-निक्षेपे सारी रे; योग-असंख्ये पूजा भाखी, तरतमयोग विचारी रे. सालंबन पूजाथी मोटो, निरालंबन भाखी रे रूपातीत पूजाथी मुक्ति, छे बहुसूत्र त्यां साखी रे. अष्टप्रकारी आदि पूजा, द्रव्यपूजा सुखकार। रे एकांतवादी-पूजन मिथ्या, समजो सूत्र विचारो रे.
वा०२
वा० ३
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(८७) नय-निक्षेपे पूजा भेदो, करशे ते सुख पामे रे; बुद्धिसागर पूज्यपणुं लही, ठरशे ध्रुवपदठामे रे.
वा० ५
१३ विमलनाथस्तवन. (श्री श्रेयांसजिन अंतर्यामी-ए राग.) विमल जिनेश्वर चेतन जावो, गावो बहु मन ध्यावो रे; संग्रहनयथो निर्मळ चेतन, शब्दादिकथी बनावो रे. वि. १ प्रतिप्रदेशे ज्ञान अनंतु, छति सामर्थ्य-पर्याय रे क्षयोपशमथा-दायिकभावे, लोकालोक जणाय रे; वि. २ असंख्यप्रदेशा-चिदघनराया, अनंतशक्ति विलासोरे;
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( ८८ )
आविर्भावे चेतनमुक्ति, नासे सकल उदासी रे. अनंतगुणनी शुद्ध क्रियानो, समये समये जोगी रे; बुद्धिसागर शुद्ध क्रियाथी, सिद्ध- सनातन - योगो रे.
१४ अनंतनाथस्तवन.
( राग उपरनो . ) अनंतगुण - पर्यायनुं भाजन, अनंतप्रभु मन ध्यावुंरे; परपरिणमता दूर हावी,
शुद्धरमणता पावुंरे. ज्ञानस्वरुपी - ज्ञेयस्वरुपी, परज्ञेयादिक भिन्नरे; ज्ञेय अनंता, ज्ञान अनंतु, ज्ञाता ज्ञानान्निरे.
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वि. ३
वि. ४
० १.
० २
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( ८९ ) गुण अनंता समये समये, व्ययोत्पत्तिता पावेरे;
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द्रव्यरूप त्रणकालमां ध्रुव छे, केवलज्ञानी गावेरे. अनंतगुणमां अस्ति- नास्तिता, समये समये जाणोरे; अस्ति नास्तिथी सप्तभंगोनी,
उत्पत्ति चित्त आणोरे. एक समयमां सर्वजावने, केवलज्ञानी जाणेरे; सप्तभंगी थी धर्म प्रबोधे, उपदेशक गुण ठाणेरे.
विशेष स्वभावे गुण अनंता, भेद परस्पर पावेरे; बुद्धिसागर जाणे तेना,
मनमां अनंत
वेरे.
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अ० ३
अ० ४
अ० ५
० ६
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(९०) १५ धर्मनाथस्तवन.
(राग उपरनो.) धर्मजिनेश्वर परमकृपाळु, वंदी भवनय टाळुरे धर्मजिनेश्वरध्यान कर्याथी, अन्तरमा अजवाळंरे. ध. १ वस्तु-स्वभाव ते धर्म प्रकाशे, केवलज्ञाने साचोरे; नय-निदेपे धर्मने समजी, शुद्धस्वरूपमा राचोरे. ध० २ धर्मादिक षड्द्रव्यने जाणे, अनन्तगुण-पर्यायरे; ज्ञेयोपादेयहेयना ज्ञाने, वस्तु-धर्म परखायरे. ध०३ चेतनता घुद्गलपरिणामी, पुद्गल-कर्म करेछेरे; चेतनता निजरूपपरिणामी, कर्म-कलंक हरेरे. ध०४
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(९१) जड-पुद्गलथी न्यारो चेतन, ज्ञानादिकगुण धारीरे, बुद्धिसागर चेतन-धर्मे, पामे सुख नरनारीरे. ध० ५
१६ शान्तिनाथस्तवन.
( राग केदारो.) शान्तिजिनेश्वर अलख अरूपी, अनन्तशान्तिस्वामीरे; निराकार-साकार दो चेतना, धारक छो निर्नामोरे. शान्ति.१ परमब्रह्मस्वरूपी, व्यापक, ज्ञानयको जिनरायारे; व्यक्तिथो व्यापक नहि जिनजी, प्रेमे प्रणमुं पायारे. शान्ति० २ आनंदघन-निर्मल प्रभुव्यक्ति, चेतनशक्ति अनंतिरे;
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शान्ति०४
(९२) स्थिरोपयोगे शुद्धरमणता, शान्तिजिनवर-भक्तिरे. कर्म खर्याथी साची शान्ति, चेतनद्रव्यनी प्रगटेरे; शान्ति सेवे पुद्गलथी झट, चेतन-ऋद्धि वलूटेरे. चउनिक्षेपे शान्ति समजी, नाव-शान्ति घट धारोरे; बुद्धिसागर शान्ति लहीने, जल्दी चेतन तारोरे.
शान्ति. ४
शान्ति ५
कुंथुनाथस्तवन.
(राग केदारो.) कुंथुजिनेश्वर करुणानागर, भावदयानंडाररे; चिदानंदमय-चेतनमूर्ति, रुपातीत जयकाररे. कुं०१ त्रण भुवननो कर्त्ता ईश्वर, करता वादी पक्षरे; सृष्टिकर्ता नहि छे ईश्वर, समजावे जिन दक्षरे. कुं० २
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निमित्तथी कर्ता ईश्वरमां, दोषो आवे अनेकरे; विनाप्रयोजन जगनो कर्त्ता, होय न ईश्वर छेकरे.कुं०३ ग्मृष्टि कार्य तो हेतु उपादान, कोण ? कहो सुविचारोरे; उपादान ईश्वरने माने, दोष अनेक छे नारोरे. कुं । वृष्टिरूप ईश्वर ठरतां तो, जडरुप थयो इशरे; बागमयुक्ति विचारे साचं, समजो विश्वावोशरे. कुं०५ परपुदगलकर्ता नहि ईश्वर, सिद्ध-बुद्ध निर्धाररे; स्वाभाविक निजगुणना की,ईश्वर जग जयकाररे. कुत चेतन ईश्वर थावे सहेजे, ध्यान करी एकरूपरे; बुद्धिसागर ईश्वर पूजो, चिदानंद-गुणनूपरे. कुं०७
१८ अरनाथस्तवन. (श्रीरे सिद्धाचळ नेटवा-ए राग.) श्रीअरनाथजी वंदीए, शुद्ध ज्ञान प्रकाशी; जड-चेतनभेदज्ञानथो, टळे सकल उदासी. श्री अ० २
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( ९४ )
संग्रहनय एकान्तथी, एक सत्ता माने; सर्व जीवनोतमा, एक दील पठाणे. व्यवहारनय विशेषथी,
व्यक्ति बहु देखे ; व्यक्ति विना सत्ता कदी,
कोइ नजरे न पेखे. सामान्य ने विशेषनी, एक द्रव्ये स्थिति;
व्यक्ति अनंता यातमा, अनेकान्तनो रोति. माया पुद्गल - भावथी,
छती शास्त्रे भाखी; चैतन्य - भावे जाणजो,
माया छतो दाखो. एकान्ते मिथ्या सदा, नित्यादिकभावा,
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श्री ० २
श्री श्र० ३
श्री अ० ४
श्री ०
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( ९५ )
बुद्धिसागर धर्म बे,
स्याद्वादस्वभावा.
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श्री ० ६
१९ मल्लिनाथस्तवन. ( हे सुखकारी ! आ संसारथकी जो मुजने उद्धरे - ए राग. )
उपयोग धरी, मल्लिजिनेश्वर प्रणमी शिवसुख धारीए;
तजी बाह्य-दशा, शुद्धरमणतायोगे कर्म निवारीए. प्रभु ! मुज सत्ता वे तुजसमी, निर्मलव्यक्ति मुज चित्त रमी; तें शुद्ध - परिणति तुर्त दमी. उपयोग. ? निजभावरमणता रंगा ॐ,
अंतर्यामी प्रभुने गाशु; प्रभुव्यक्तिसमा अन्तर थाशुं - चेतनता निजमां रंगाशे,
प्रभु ! तुज मुज अंतर झट जारी;
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उपयोग० २
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उपयोग.३
सहजानंदो चेतन थाशे. प्रभु ! वस्तु-धर्म तन्मय थावं, मुज सत्ताधर्म प्रगट पाईं; गुणगणे गुण सहु निपजावू. प्रभुध्याने शुद्धदशा जागे, वेगे जयडको जग बागे; बुद्धिसागर जिनवररागे.
उपयोग. ४
उपयोग.५
६० मुनिसुव्रतस्वामीस्तवन. (श्रीसंनवजिनराजजोरे, ताहरु अकळ स्वरूप,
जिनवर पूजो-ए राग.) मुनिसुव्रतजिन ! ताहरुरे, अलख-अगोचररूप, मनमांध्या; असंख्यप्रदेशो यातमारे, परमेश्वर जगभूप.
मन. ध्या ध्यावूरे अनुभवयोगे, शुद्धध्याने ध्येयस्वरूप.
मन. १
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( ९७ )
द्रव्य - क्षेत्र - काल - नावथोरे, चेतन व्यक्ति शुद्ध, परद्रव्यादिकनास्तितारे, क्षायिक - केवलबुद्ध. सादि - अनंति ंगथोरे,
पाम्या परमानंद, प्रदेश प्रदेशप्रति ज्ञानमारे,
भासे ज्ञेय अनंत. परद्रव्य- पर्यायानं तनुंरे, एक प्रदेश करे तोल, एक समयमां ज्ञानथीरे, चेतन द्रव्य अमोल.
परपुद्गल दूरे करीरे, थया प्रभु ! कृतकृत्य, चेतनव्यक्ति समारवारे,
तुज आलंबन सत्य. त्रियोगे प्रभु ! खादयोरे, अनंतशक्ति नाथ !
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मन.
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मन. ६
(९८) एकमेक तुज ध्यानथोरे, थइ झालं तुज हाथ. अरुपी अरुपाने मळेरे, साची जीवसगाइ, बुद्धिसागर जागियोरे, आवी मुक्तिवधाइ,
मन.
मन. ४
२१ नमिनाथस्तवन. (थांपर वारी मारा साहिबा
काबोल मत जाजो-ए राग.) नमिजिनवर नमुं भावथी, मारे मोंघा मोले; धर्मादिद्रव्य-शक्तियो, एक गुणना न तोले. १ शुद्धध्यानमां आवोने, रगोरगमां वसियोः । धातोधात मळी खरी, लेश मात्र न खसियो. २ स्व स्व जाति मळी खरी, जड-नाव विदूरेः ध्याता ध्येयना तानमां, सत्य-सुखडां स्फुरे. ३ अनुलव-ताळी लागतां, आनंद-खुमारी; परमप्रभु-श्रादर्शमां, जोइ जाति में मारी.
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(९९) शुद्धद्रव्य जेवू ताहरूं, तेवं मारुं दीवं; सत्ताए सरखा प्रभु, मन लाग्युं मी. तारुं ध्यान ते माहरु, दोष मुजथी नासे; शुद्धदशाना ध्यानमां, एकमेकता नासे. एकमेकता योगमा, मनमंदिर आण्या; ताण्या जाओ नहि व्यक्तिथी, पण शाने ताएया.४ शुद्धज्ञेयाकारी ज्ञानथी, एकरूपे भळिया; तुज सेवाकारव्याक्तिथी, वेगे दोषो टळिया. ८ निर्विकल्प-उपयोगथी, शुद्धरूपमा मळशें; बुद्धिसागर शिवमां, ज्योति ज्योतमां भळगुं. ९
२२ नेमिनाथस्तवन.
(राग उपरनो.) राजुल कहे छे शामळा : केम पाछा वळिया; मुजने मूकी नाथजी, कोनाथो हळिया. पशुदया मनमां वसी, केम म्हारी न आणो; स्त्रीने दुःखी करी प्रभु ! हठ फोगट ताणो.
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(१००) लग्न न करवां जो हता, केम आंही आव्या; पोतानी मरजीविना, केम बीजा लाव्या. ३ ऋषनादिकतीर्थकरा, गृहवासे वसिया; तेनाथी शुं तमे ज्ञानी के, आवी दूरे खसिया. ४ शुकन जोतां न आवड्या, कहेवाता त्रिज्ञानी; वनवा, एम जो हतुं, वात पहेलां न जाणी. ५ जादवकुळनी रोतमी, बोल बोली न पाळे; आरंभी पडतूं मूके, ते शुं ? अजुवाळे. काळा कामणगारमा, भीरू थ शुं ? वळिया; हुकमथपशुआं दया, आण मानत बलिया. ७ विरागी जो मन हतुं, केम तोरण आव्या; आगनवोनो प्रीतमी, लेश मनमां न लाव्या. ८ मारी दया करी नहि जरा, केम अन्यनो करो। निर्दय थइने वाल्हमा, केम ठामे ठरशो. विरहव्यथानी अग्निमां, बळती मने मूकी; काळाथी करी प्रीतमो, अरे जग मां कोइ न कोश्नु, एम राजुल धारे; रागिणी थ वैरागिणी, मन एम विचारे.
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( १०१ )
संकेत करवा प्यारीने, प्राणपति ! अहिं आव्या; हरिणदयाथी बहु दया, प्रभु ! मुज पर लाव्या. १२ भवनां लग्न निवारवा, जान मुक्तिथी याणी;
खे आंख मिलावीने, मने मुक्तिमां ताणी. भोळी समजी नहीं, साची जगमां अबळा; नाथे नेह निजावियो, धन्य स्वामी सबळा. जोगावलीना जोरथी, गृहवासमा फसिया; ऋषजादिकतीर्थंकरा, ललनासंग रसिया, भोगावलीना अजावी, मारो संग न कीधो; ब्रह्मचारी मारा स्वामिजी, जश जगमां लोधो. स्त्रीने चेतावा आविया, स्वामी उपकारी; आठ जवानी प्रीतडी, पूरी पाळी सारी. हाथोहाथ न मेळव्यो, स्वामी गुणरागी; स्वामीना ए कृत्यथी, हुं थइ वैरागी. त्रिज्ञानीना कार्यमां, कांइ यावे न खामी; राजुल वैरागण बनी, शुद्ध-चेतना पामी,
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(१०२) झूठा सगपण-मोहथी, मोहनी ए माया; ब्रांतिथी जगजीवमा, नाहक ललचाया. २० नर के नारी हुं नही, पुद्गलथी हुँ न्यारी; पुद्गल-कायाखेलमां, शुद्ध-बुद्धता हारी. नामरूपथी निन्न हूं, एक चेतन जाति; क्षत्रियाणी व्यवहारथी, कोइ मारी न ज्ञाति. २२ अनंतकाळथी आथडी, संसारमा दुःखो; विषयविकारो सेवतां, कोइ थाय न सुखी. जडसंगे परतंत्रता, मोह-वैरीए ताणी; उपकारी साचा प्रभु ! सत्यपंथमां आणी. बनी वैरागण नेमिनी,-पासे झट श्राव); उपकार। स्वामी को, संयमलय लावी. शोभा सतीनो मोटको, जग राजुल पामो; रहनेमिने बोधथो, थइ गुण विश्रामी. एक टेकी थइ राजुले, नाव-स्वामी कीधा; अद्भुतचारित्र धारीने, जगमां जश लीधा. साची भक्ति स्वामोनी, अंतरमा उतारी; नवरस-रंगे झोलती, लहे सुख खुमारी.
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(१०३) चेतन-चेतनाभावथो, एक संगे मळियां; क्षपकश्रेणी-निस्सरणीथी, शिवमंदिर भळियां. २९ कर्म-कटक संहारीने, नेम-राजुलनारी; शिवपुरमा सुखिया थयां, वंदु वार हजारो. ३० शुद्धचेतनसंगमां, शुद्धचेतना रहेशे, बुद्धिसागर भक्तिथी, शाश्वतसुख लहेशे.
२३ पार्श्वनाथस्तवन.
( राग उपरनो.) पार्श्वप्रभु प्रभुतामयी, मारे भोटुं शरणं; मेरु अवलंबी कहो, कोण झाले तरj. भावचिंतामणि तुं प्रभु ! शाश्वतसुख आपे; चउ निक्षेपे ध्यावतां, भवना दुःख कापे. तारं माझं आंतरु, एकलीनता टाळे; सादि-अनंतिसंगथी, दुःख कोइ न काळे. शुद्धदशापरिणामथी, निशदिन तुज भेटुं; शुद्धदृष्टिथी देखतां, लेश लागे न छेटुं.
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( १०४ )
तुज मुज अंतर भागशे, संयम गुणयुक्ति; क्षेत्रभेदने टाळीने, सुख लहिशुं मुक्ति. मुक्तिमां मळशुं प्रभु, एम निश्चय धार्यो; ध्याने रंगवधामणां, मोह - भाव विसायों. तुज संगी थइ चेतना, शुद्धवीर्य उल्लासो; बुद्धिसागर जागियो, चेतन विश्वासी.
२४ महावीरस्वामी स्तवन.
( राग उपरनो. ) त्रिशलानंदन ! वीरजी ! मनमंदिर वो; नाव - वीरता माहरी, प्रभु ! प्रेमे जगावो. नाव - वीर संचारथी, प्रभु ! मोह न आवे; द्रव्य - वीर संचारमा, मोहनुं जोर फावे. चार निक्षेपे ध्याइए, जाव - वीर्यना धारी; समकित गुणवाणाथको, प्रजो ! तुं संचारी. नाव - वीर्य प्रगटाववा, आलंबन साचुं; क्षयोपशम- क्षायिकमां, मन मारुं राच्युं.
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(१०५) क्षयोपशमे ते हेतु छे, क्षायिकगुणकाज; क्षायिक-वीर्यता आपोने, राखो मुज लाज. ५ असंग्ख्यप्रदेशे क्षायिक, भाव-वार्य अनंत; यांग-ध्रुवता धारोन, लहे वीर्यने संत. मति-संगी पुद्गल विषे, जे वीर्य कहातुं; योगतणी ध्रुवताथकी, ध्याने लेश न जातुं. भाव-वीर ! प्रभु श्रातमा, अंतर गुणभोगो; लघुता एकता लीनता, साधनथी योगी. भाव-वीर्य निजमां नळ्यु, वाग्युं जितनगारं; फरक्यो विजयनो वावटो, क्षायिकसुख सारं. ९
आनंदमंगल जीवमां, ज्ञान-दिनमणि प्रगटयो; दर्शन-चंद्र प्रकाशियो, तब मोहज विघटयो. १० अनंतगुण-पर्यायनो, जीव भोगी सवायो; बुद्धिसागर मंदिरे, चेतन झट आयो.
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(१०६)
कलश. (ओछ्व रंग वधामणां, प्रभुपासने नामे-ए राग.) चोवीश जिनवर भक्तिथी, गाया गुण रागे: गाशे ध्याशे जे प्रनु, ते अन्तर जागे. अन्तरना उद्योतथी, होय मंगळमाळा; मनमंदिर प्रभु आवतां, टळे मोहना चाळा. २ जिनजक्ति निजरूप छे, चेतन उपयोगो; अनंतगुण--पर्यायनो, समये होय भोगी. झळहळ ज्ञाननी ज्योतिमां, जड-चेतन भासे; चेतन परमेष्ठी सदा, एम ज्ञानी प्रकाशे. चेतननी शुद्धनक्तिथी, शुद्धचेतन पर; अनेकान्तनय-दृष्टिथी, प्रभु गाइने हरखं. ५ संवत ओगणोस चोसले, पुनम दिन सारो; अषाड शुकल पक्षमां, गाम माणसा धारो. सोमवार चढता दिने, चोवीस जिन गायाः अन्तरना उपयोगथी, सत्य-आनंद पाया. ७ सुखसागरगुरु प्रेमथी, बुद्धिसागर गावे; गाशे ध्यावशे जे भवी, ते शिवसुख पावे.
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( १०७ )
जिनेश्वरस्तवन चतुर्विंशतिका.
(२)
१ ऋषनदेवस्तवन. (प्रथम जिनेश्वर प्रणमोए--ए राग.) ऋषभजिनेश्वर ! वंदना, होशो वारंवार; पुरुषोत्तम नगवान निराकार संत छो, गुणपर्यायआधार. ए टेक. उत्पत्ति-व्यय ध्रुवता, एक समयमां हि जोय; पर्यायाथिकनयथी व्यय-उत्पत्ति छ, द्रव्यथकी ध्रुव होय.
ऋ.? सत् करतां सामर्थ्यना, होय पर्याय अनन्त; अगुरुलघुनो शक्ति ते तेहमां जाणीए, अनन्त शक्ति स्वतंत्र.
ऋ०२
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(१०८) परमभाव ग्राहक प्रभु, तेम सामान्य विशेष; ज्ञेय अनन्तनुं तोल करे प्रभु ! ताहरो. क्षायिक एक प्रदेश.
०३ स्थिरता क्षायिकभावथी, मुखथी कही नहि जाय; अनन्तगुण निज कार्य करे लह। शक्तिने, उत्पत्ति-व्यय पाय.
ऋ०४ गुण अनन्तनी ध्रुवता, द्रव्यपणे जे अनादि; गुणनी शुद्धि अपेक्षी पर्याये कर, भंगनी स्थिति छ सादि. क०५ सादि अनंति मुक्तिमां, सुख विलसोबो अनंत; सुख ज्ञेयादिक ज्ञानमा ज्ञाता जगगुरु, ज्ञान अनंत वहंत.
०६ रागद्वेष-युगल हणो, थइया जग महादेव,
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(१०९) बुद्धिसागर अवसर पामी नक्तिथी, पामे अमृतमेव.
ऋ० ७ २ अजितनाथस्तवन. ( श्री संभव जिन ! ताहरेरे, अलख
अगोचर रूप-ए राग.) अजित जिनेश्वर सेवनारे, करतां पाप पलाय; जिनवर सेवो. सेवो सेवोरे, भविकजन : सेवो, प्रभु शिवसुखदायक मेवो, प्रभु सेव सिद्धि सुहाय. जिनवर. मिथ्या-मोह निवारीनेरे, क्षायिक-रत्न ग्रहाय; जिनवर. चरित्र-मोह हठावतारे, स्थिरता क्षायिक थाय. जिनवर. १ क्षपक-श्रेणि आरोहोनेरे, शुक्ल-ध्यानप्रयोग.
जिनवर.
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(११० ) ज्ञानवरणीयादिक हणीरे, क्षायिक नवगुण-जोग. जिनवर. २ अष्टकर्मना नाशथोरे, गुण-अष्टक प्रगटाय; जिनवर. एक समय समश्रेणिएरे, मुक्तिस्थान सुहाय. जिनवर. ३ नात्यंताजाव मुक्तिनोरे. जडिममयी नहि खास; जिनवर. व्योमपरे नहि व्यापिनोरे, नहि व्यावृत्ति-विलास. जिनवर. ४ सादि अनंत स्थितिथीरे, सिद्ध बुद्ध भगवंत;
जिनवर. झळहळ ज्योति ज्यां जगमगेरे, शेयतणो नहि अंत. जिनवर. ५ परज्ञेय ध्रुवता त्रिकालमारे, उत्पत्ति-व्ययसाथ; जिनवर. निजज्ञेय भ्राता अनन्तनोरे, पर्यायसह शिवनाथ. जिनवर. ६
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(१११) परजाणे परमां न परिणमेरे, अशुद्धभाव व्यतीत; बुद्धिसागर ध्यानथोरे, थावे ध्यानो अजित.
जिनवर.
जिनवर. ४
३ संभवनाथस्तवन. ( देखो गति दैवनीरे-ए राग.) संभवजिन! तारशोरे, तारशो त्रिभुवननाथ ! संभवजिन ! तारशोरे. निमित्तना पुष्टालंबनेरे, साध्यनी सिद्धि करायः उपादाननी शुद्धतारे, निमित्तविना नहि थाय. संभव. १ द्रव्य क्षेत्र काल भावथीरे, निमित्त बहु भेद; ज्ञान दर्शन चारित्रनारे, निमित्त टाळे खेद.
संभव. २
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संभव. ३
संभव. ४
( ११२) शुद्धदेवगुरु हेतु छेरे, उपादान करे शुद्धि उपादान अभिन्न छेरे, कार्यथी जाणो बुद्ध. कार्य द्रव्यथा भिन्न छरे, निमित्त हेतु व्यवहार; शुद्धादिक षट् भेद बेरे, व्यवहार नयना धार. भिन्न निमित्त पण कार्यमारे, उपादान करे पुष्टि; निमित्तवण उपादानथीरे, थाय न साध्यनी स्मृष्टि. पुष्टालंबन जिनविभुरे, आदर्यों मन धरी भाव; उपादाननी शुद्धिमारे, बनशे शुक बनाव. त्रिकरणयोगयी आदर्योरे, मन धरो सायनी दृष्टि;
संभव. ५
संनव. ६
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(११३) बुद्धिसागर सुख लहेरे, पामी अनुभव-सृष्टि.
संजव. ७
४ अभिनंदनस्तवन. ( पद्मप्रभु ! तुज मुज आंतरं-ए राग.) अभिनन्दनजिनरूपने, ध्यानमां स्मरणथी लावुरे; ध्यानमां लीनतायोगथी, सुख अनन्त घट पावुरे.
अनि . १ मन-वच-कायाना योगनो, स्थिरता जेह प्रमाणरे; तदनुगत वीर्यता उल्लसे, भाव दयोपदम सुखखाणरे. अनि. २ असंख्यप्रदेशमयी व्यक्तिमां, ध्यानथी एकता थायरे; पंडित-वीर्य त्यां संपजे, उज्ज्वल अध्यवसायरे.
अभि. ३
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अभि. ४
(११४) क्षणक्षण उज्ज्वल ध्यानमां, प्रगटतां सहज आनन्दरे; बाह्य जड विषयना सुखनो, वेगथी नासतो फन्दरे. अन्तरशुद्धपरिणतिथकी, भावथी होय निज मुक्तिरे; शुद्धनयस्थापना सहजथी, प्रगटतो ए तत्त्वनी युक्तिरे. क्षयोपशम ज्ञान-वीर्यथी, दायिक--धर्म ग्रहायरे; निर्विकल्पउपयोगमां, श्रुतज्ञान एक स्थिर थायरे. नावश्रुतज्ञानालंबने, जीव ते जिनरूप थायरे; बुद्धिसागर शिवसंपदा, मंगल श्रेणि पमायरे.
अभि०५
अनि०६
अजि०७
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(११५)
५ सुमतिनाथस्तवन. (विरति ए सुमति धरी आदरो-ए राग.) सुमतिजिनेश्वर शुद्धता, बुद्धता परम स्वभावरे; अस्तिता नास्तिता एकता, ज्ञातृता नहि परभावरे.
सुमति.१ भिन्न अभिन्नता नित्यता, तेम अनित्य पर्यायरे; एक समयमांहि संपजे, पर्याय उपजे विलायरे.
सुमति २ अगुरुलघु पर्यायनी, शक्ति अनन्ती सदायरे; परिणमे असंख्यप्रदेशमां, कारक षट् उपजायरे. सुमति०३
आदि अनादि षट्कारको, व्यक्तिपणे एकेक प्रदेशरे; अनादि अनन्त स्थिति शक्तिथी, कारकषट् लहो बेशरे.
सुमति
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( ११६ )
एक अनेकता वस्तुमां, नित्य अनित्यता धाररे; समय सापेक्ष विचारतां, होय अनेकान्त विस्ताररे. सदसत् कथ्य अकथ्य छे, जिनवर धर्म अनन्तरे;
ज्ञानमां ज्ञेयनो भासना, जाणे एक समय भदन्तरे.
सम्यग्ज्ञानप्रभावथी, प्रभु ! तुज रूप जणायरे;
चार प्रमाण ने भंगथी, धर्म अनेक परखायरे.
मन-वच - कायअतीत तुं, यादयों योगथ साररे; तुज भुज एकता संपजे, बुद्धिसागर निर्धाररे.
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सुमति • ५
सुमति० ६
सुमति • ७
सुमति० ८
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(११७)
६ पद्मप्रभस्तवन. (विरति ए सुमति धरी आदरो-ए राग.) पद्मप्रभु अलख निरंजन, सिद्धना याठ गुणधारीरे; साकार उपयोगे चेतना, निराकार जयकारीरे.
पद्म १ अजर अमर अगोचर विभु, नाम न रूप न जातिरे; जगगुरु जय श्रीचिंतामणि, त्रणभुवनमांहि ख्यातिरे. पद्म०२ उपमातीत परमातमा, अनुभवविण न जणायरे, दिशि देखाडी आगम रहे, अनुभवे प्रभु परखायरे. सद्गुरु-तीर्थउपासना, स्याद्वाद सूत्रनो बोधरे; परंपर गुरुगम जोडतां, करे जवो जिनवरशोधरे.
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( ११८ )
ज्ञानना मानमां ध्यान छे, ध्यानथी होय समाधिरे;
परम प्रभु एक तानमां, नेटतां जाय उपाधिरे. अनुभव - अमृत स्वादतां, चित्त अन्यत्र न जायरे; चकोर जेम चंद्र तेम राचतुं, परम प्रभुरूपमारे. सुख अनंतनी राशिमां, जीवनमुक्तपद पायरे; बाह्यनां सुख रुचे नहि, निश्चयसुख निजमांरे.
परपरिणतिरंग परिहर, शुद्ध परिणतिमांहि रंगरे; बुद्धिसागर जिनदर्शन, देखवा प्रेम भंगरे.
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प० ५
प० ६
प० ७
प० ८
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( ११९) ७ सुपार्श्वनाथस्तवन. ( नदी यमुनाके तीर-ए राग.) सुपार्श्वप्रभु ! जिनराज ! कृपाळु तारशो, वीनतमी मुज प्रेम धरीने स्वीकारशो; राग द्वेष अन्याय नृपति जोर टाळशो, शुद्धरमणता सन्मुख दृष्टि वाळशो. विषयवासनापाशथी प्रभुजी ! बोडावजो, परमदयालु ! देव ! दया दील लावजो; अनुनव-अन्तरदृष्टिनी सृष्टि जगावजो, परमानन्दनु पात्र चेतन मुज थावजो. केवलज्ञाननी ज्योतिमां ज्ञेय अभिन्न छ, परद्रव्यादिक ज्ञेयथकी वळो निन्न डे; ज्ञेयापेक्षे ज्ञान परिणमे जाणजो, भिन्नानिन्नस्वरूप अनेकांत आणजो. ज्ञेयापेक्षे ज्ञान अनन्तुं जिन कहे, ज्ञेयनी पासे ज्ञान गयावण सहु लहे; दर्पण क्यां न जाय दर्पणमां समाय छे, ज्ञेयाकारी भावो ए दृष्टांत न्याय छे.
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( १२० )
दूरवर्ती जे ज्ञेय ज्ञानमांहि नासतो, ज्ञान चिन्त्यस्वजाव हृदयमां आवतो; ज्ञेयविना सहु ज्ञाननी शून्यता जाणीए, पड़ द्रव्यो पर्याय अनन्त मन आणोए. अस्तिविना न निषेध घटे कोइ द्रव्यनो, द्विव नहि अद्वैत निषेध केम सर्वनो; द्वैतनुं ज्ञान थया वण अद्वैत शुं कहो, भासे ज्ञानमां द्वैत सत्यभाव सद्दहो. द्रव्य अने पर्यायथा ज्ञेय अनन्तता, वस्तुधर्म स्याद्वाद त्यां एकानेकता; ध्रुवता ज्ञेयना द्रव्यपणे नित्यता खरं, उत्पत्ति-व्यय ज्ञेयअनित्यता अनुस जीवद्रव्य एकव्यक्ति अनादि अनंत छे, - पर्यवआधार चेतनजी सन्त छे; गुणबुद्धिसागर जिनवरवाणी सदहे, समकित - श्रद्धायोगे अपेक्षा सहु लहे.
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( १२१ ) ८ चंद्रप्रभुस्तवन.
(ए अब शोभा सारी हो मल्लिजिन - ए राग . )
चंद्रप्रभु ! पद राचं हो चिन !
चंद्रप्रभु ! पद राखुं;
मन मान्युं ए साधुं हो चिन ! चंद्रप्रभु ! पद साचं. शुद्ध अखंड अनन्त गुण - लक्ष्मी, तेना प्रभु ! तमे दरिया; सत्ताए ज्ञानादिक लक्ष्मी, व्यक्तिपणे तमे वरिया हो' चि. अनाद्यनन्तने, ने आदि - अनन्त,
सत्ता-व्यक्ति सुहाया; अस्ति नास्तिमय धर्म अनन्ता, समय समयमां पाया हो' चि. क्षपकक्षेणिये उज्जवलध्याने, घातक कर्म खपाव्यां; दग्धरज्जुवत् कर्म अघाती,
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३
(१२२) तेरमे चउदमे नसाव्यां हो' चि. केवलज्ञाने ज्ञेय अनन्ता, समय समय प्रभु ! जाणो; अव्याबाध अनन्तु वीर्य, समय समय प्रभु ! माणो हो' चि. ऋद्धि तमारी तेवीज मारी, कदिय न मुजयो न्यारी; चंद्रप्रभु आदर्श-निहाळी,
आत्मिकऋद्धि संचारी हो' चि. निज स्वजातीय सिंह निहाळी, अजवृन्दगतहरि चेत्यो; निज स्वजातीय सिद्ध संभारी, जीव स्वपदमां वहतो हो' चि. अन्तर-दृष्टि अनुजव-योगे, जागो निजपद रहियो बुद्धिसागर परम महोदय, शाश्वतलक्ष्मी लहियो हो' चि.
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(१२३) ९ सुविधिनाथस्तवन. ( नदी यमुनाके तोर-ए राग.) सुविधिजिनेश्वर ! देव ! दया दीनपर करो, करुणावंत महंत विनति ए दोल धरो; भवसागरनी पार उतारो कर ग्रही, शक्ति अनन्तना स्वामी कहावोछो महो. तमनो शो छे नार कहो रवि आगळे, कीडोनो शो भार के कुंजरने गळे; कर्मतणो शो भार प्रभजी! तुम छते सिंहतणो शो भार अष्टापद त्यां जते. शुं खद्योतनुं तेज रवि ज्यां झळहळे, तेम शुं मोहन जोर के उपयोग नीकळे; ससलानुं शुं जोर सिंहआगळ अहो! अनेकांत ज्यां ज्योति एकांतनुं शुं कहो. परमप्रभु वीतराग राग त्यां शुं करे, देखी इन्द्रनी शक्ति के सुर सह करगरे; प्राणजीवन वीतराग हृदयमां मुज वस्या, ते देखी मोहयोध के सहु दूरे खस्या.
३
४
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(१२४) गुण-पर्यायाधार ! स्मरण रहारं खरं, ध्यान-समाधियोगे अलख निजपद वसं: परमब्रह्म ! जगदीश्वर ! जय जिनराजजी! शरणे आव्यो सेवक राखो लाजजी. वार वार शो ? विनति जाणो सहु का, वार लगाडो न लेश पुःख में बहु सर्वा; बुद्धिसागर सत्य भक्तिथी उद्धारजो, वन्दन वार हजार विनति ए स्वोकारजो.
५
१० शीतलनाथस्तवन. प्रीतलडी बंधाणीरे शीतल जिणंदशं, प्रभुविना क्षणमात्र नहि सोहायजो; प्रेमीविना नहि बोजो ते जाणो शके, रूप प्रभुनुं देखी मन हरखायजो. प्रीतलडी. १ अन्तरना उपयोगे प्रभुजी दिल वस्या, भक्ति आधीन प्रनुजी प्राण सनाथजो; अनुलवयोगे रंग मजीउनो लागियो, त्रणभुवनना स्वामी आव्या हाथजो. प्रीतलडो. २
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( १२५ )
जेम प्रभुना दर्शनमां स्थिरता थती, तेम प्रभुजी यानन्द व्यापे बेशजो; आनन्ददाता- भोक्कानी थइ एकता, चढी खुमारी यादी आपे हमेशजो. प्रीतलडो. ३ आत्माऽसंख्य प्रदेशे शीतलता खरी,
अवधूत योगी प्रगटावे सुखकंदजो; औदकिभाव निवारी उपशमआदिथी; टाळे सघळा मोहतणा महाफंदजो. प्रीतलदी. १ गुणस्थानक - निःसरणि चढतो आतमा, उज्ज्वल योगे पामे शिवपुर म्हेलजो;
क्षायिकनावे सुख अनंतुं भोगवे, निजपदमुक्ता धारी करतो स्हेलजो. प्रीतलड). ५ बाह्य - भावनी सर्व उपाधि नासतां,
प्रभु विरहनो नाश थशे निर्धारजो; अनुजवयोगे रंगायो जिनरुपमां, याशुं प्रभुसमा अन्ते जयकारजो. प्रीतलडी. ६ निजगुण स्थिरतामां रंगावुं सहजथी, वस्तुधर्म- ज्ञानादिक तुं आधारजो;
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( १२६ )
बुद्धिसागर अनुभव - वाजां वागीयां, भेटा शीतल जिनवर जग जयकारजो. प्रीतलडो प्र
११ श्रेयांसनाथस्तवन.
( श्री वीरप्रभु ! चरम - ए राग ) श्रेयांसप्रभु ! अन्तर्यामी क्षायिक- नवलब्धिधणी; त्राता जाता, परोपकारी निर्भय योगी दिनमणि. प्रभु शुद्धस्वरूप त्हारुं जेवुं, प्रभु ! शुद्ध स्वरूप म्हारुं तेवुं, उज्ज्वलध्याने खेंची लेवुं, प्रभु ! नाम-रूपथी भिन्न खरो, प्रभु अनन्तसुखनो जव्य झरो, में स्थिरउपयोगे दोल धये. उत्पत्ति-व्यय-ध्रुवताभोगी. योगातीत पण निर्मलयोगी,
कर्मातीतथी तुं नीरोगी, ध्याने प्रभुनी पासे जावुं, साधनथी साध्यपं पावुं,
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श्रेयांस
श्रेयांस. २
श्रेयांस. १
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(१२७) ज्ञानादर्श प्रभु घट लावू,
श्रेयांस.४ प्रभु ! दर्शन देजो शिवरसिया, प्रभु प्रेमे म्हारा दिल वसिया, स्थिरउपयोगे जिन उल्लसिया, श्रेयांस. ५ प्रभु ! परममहोदय पद आपो, प्रभु ! जिनपदमां मुजने थापो. कर्या कर्म अनादि सह कापो. श्रेयांस.६ प्रभु ! उपादान योगे आवो, नक्तिथी निज गुण विरचावो, बुद्धिसागर मळियो ल्हावो. श्रेयांस. ७
१२ वासुपूज्यस्तवन. (गिमारे गुण तुमतणा-ए राग.) वासुपूज्य ! त्रिभुवनधणी, परमान्दविलासीरे; अकळकळा निर्भय प्रभु, ध्याने नासे उदासीरे. जगजीवन जगनाथ छो, परमब्रह्म महादेवारे,
पान नास उदासार.
वासप्रज्य. १
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( १२८ )
व्यापक ज्ञानथी विष्णु छो, सुरपति करे पदसेवारे. च्यादि - अनन्त तुं व्यक्तिथी, एवंभूतथी योगीरे; अनाद्यनन्त सत्तापणे, गुणपर्यवनो भोगी रे.
वासुपूज्य. २
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वासुपूज्य ३
@
व्याप्य व्यापकता अभेदता,
ज्ञाताज्ञेय अभेदीरे; भिन्नाभिन्न स्वभाव छे,
वेदरहित पण वेदीरे. परम महोदय चिन्मणि, अजरामर अविनाशीरे: नित्य निरंजन सुरमयी, व्यक्तिशुद्ध प्रकाशोरे.
निरक्षर अक्षर विभु, जगबंधव जगत्रातारे, कायिक नवलब्धिधणी,
वासुपूज्य. 2
वासुपूज्य. ५
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( १२९) ज्ञेय अनन्तना ज्ञातारे. वासुपूज्य. ६ पुरुषोत्तम पुराण तुं, तुज ध्याने सुख लहोशुरे; बुद्धिसागर शुद्धता, पामी जिनपद रहीशुरे. वासुपूज्य. ७
१३ विमलनाथस्तवन. (ज्यां लगे बातम तत्त्वY-ए राग.) विमलजिनचरणनी सेवना, शुद्धभावे करशं; अन्तर ज्योति झळहळे, शिवस्थानक ठरशुं. विजल. १ पुद्गल भावना खेलथी. चित्तवृत्ति हठावू परमानन्दनी मोजमां, निर्मल पद पावं.
विमल. २ अन्तर रमणता आदरी, ध्रुवता निज वरशुं;
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विमल.३
विमल. ४
(१३०) मनमोहन जगनाथना, उपयोगथी तरशुं. असंख्यप्रदेशी आतमा, नित्यानित्य विलासी; स्याद्वादसत्तामयी सदा, जोतां टळती उदासी. पुद्गल-ममता त्यागीने, अन्तरमा रहीशुं; अनुनवअमृत स्वादथी, अक्षयसुख लहीशुं. काया-वाणी-मनथकी, विमलेश्वर न्यारो; शुद्ध परिणतिभक्तिथी, भेटीशुं प्रभु प्यारो. स्थिर उपयोग प्रभावथी, एकधातथी मळशें; बुद्धिसागर भक्तिथी, ज्योति ज्योतमां मळशं.
विमल. ५
विमल.६
विमल, ७
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(१३१) १४ अनंतनाथस्तवन. (शांतिजिन ! एक मुज-ए राग.) अनन्त जिनेश्वर नाथने, वन्दतां पाप पलायरे; रवि आगळ तम शुं ? रहे, प्रनु नजे माह विलायरे. अनन्त ? अनन्त गुणपर्यायपात्र तुं, व्यक्ति एवंचूत साररे; संग्रहनय परिपूर्णता, ध्याता ते व्यक्तिथी धाररे. अनन्त. २ उपशम नाव क्षयोपशमथी, साध्यनी सिद्धि करायरे; धर्म निज वस्तुस्वभावमां, स्थिर उपयोग सुहायरे. अनन्त. ३ ज्ञानदर्शनचरण-गुण विना, व्यवहार कुलआचाररे; साध्यलक्ष्ये शुद्ध चेतना, जाणवो शुद्धव्यवहाररे. अनन्त. ४
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(१३२) द्रव्य क्षेत्र काल नावथी, पर्याय द्रव्य अनन्तरे; शुद्ध आलंबन आदरी, व्यक्तिथी थाय भदंतरे. अनन्त. ५ स्वकीय द्रव्यादिकभावथी, अनंतता अस्तिपणे साररे; पर द्रव्यादिक अस्तिनो, नास्तिता अनन्त विचाररे. अनन्त ६ वीर्य अनन्त सामर्थ्यथी, उत्पाद-व्यय प्रतिद्रव्यरे; छति पर्यायथी ध्रुवता, समय समयमांहि नव्यरे. अनन्त. ७ धर्म अनन्तनो स्वामी तुं, ध्यानमां ध्येयस्वरूपरे; बुद्धिसागर निज द्रव्यनी, शुद्धि ते जय ! जिननूपरे. अनन्त. ८
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( १३३ ) १५ धर्मनाथस्तवन.
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( धर्मजिनेश्वर गाउं रंगशुं - ए राग ) धर्मजिनेश्वर बंदु भावथी, वस्तुधर्मदार; जगत्मां. वस्तुस्वभाव ते धर्म जणावता, षड्द्रव्योमांहि सार.
जगत्मां. १
ज्ञेय देय देय जणावता, सकल द्रव्य छेरे ज्ञेय; जगत्मां. उपादेय चेतननो धर्म छे,
पुद्गलच्या दिरे हेय. भावकर्म ते राग द्वेष छे, काल अनादिथी जाण; जगत्मां. द्रव्यकर्मनुं कारण तेह छे, नोकर्म निमित्त याण. अशुद्धपरिणतियोगे बंध छे, शुद्धपरिणतिथी मुक्ति; जगत्मां. अन्तरचेतनसन्मुख योगथी, शुद्ध उपयोगनी युक्ति.
जगत्मां. २
जगत्मां. ३
जगत्मां. ४
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( १३४ ) कर्ता-हर्ता चेतन कर्मनो, बाहिर-अन्तर योग; जगत्मां. आत्मस्वनावे रमणता आदरे, प्रगटे शिवसुखभोग. जगत्मां. ५ सुख अनन्तनी लोला ध्यानमां, चेतन अनुभव पाय; जगत्मां. ध्रुवयोगतणी स्थिरता होवे, वोर्य अनन्त प्रगटाय. जगत्मां. ६ सविकल्पसमाधि शुभनपयोगमां, ध्याता ध्येयनो भेद; जगत्मां. शुधउपयोगे शुद्धसमाधिमां, टळतो विकल्पनो खेद. जगत्मां. ७ अन्तरमा उतरीने पारखो, निर्मल सुखनोरे नाथ; जगत्मां. बुद्धिसागर समता एकता, लीनता योगे सनाथ. जगत्मां . ८
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( १३५ ) १६ शान्तिनाथस्तवन. ( साहिब सांभळोरे संजव - ए राग . ) शान्तिनाथजीरे ! शान्ति साची आपो; उपाधि हरीरे, निज पदमां निज थापो. शान्ति. १ शान्ति केम बहुरे, तेनो मार्ग बतावो;
विनति माहरीरे, स्वामी दीलमां लावो. शान्ति. २ शान्ति प्रभु कहेरे, धन्य ! तुं जगमां प्राणी; शान्ति पामवारे, मनमां उलट आणी शान्ति. ३ जम ने जडपणेरे, चेतन ज्ञानस्वभावे; भेदज्ञानना योगथीरे, समकित - श्रद्धा थावे. शान्ति. ४ सद्गुरु परंपरारे, श्रागमना आधारे; उपशमभावधीरे, शान्ति घटमां धारे. साधु संगतेरे, पामी ज्ञाननी शक्ति; समतायोगथीरे, प्रगटे शान्ति-व्यक्ति शान्ति. ६ चेतन द्रव्यनुंरे, करवुं ध्यान ज जावे; चंचलता हरेरे, साची शान्ति प्रावे. सत्य-समाधिमारे, शान्ति सिद्धि बतावे; रसिया योगियोरे, शान्ति साची पावे. शान्ति ८
शान्ति ५
शान्ति. ७
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(१३६) सिद्धसमा थइरे, शान्तिरूप सुहावे; स्थिरउपयोगथीरे, बुद्धिसागर पावे.
शान्ति. २.
१७ कुंथुनाथस्तवन. (सांनळजो मुनि-ए राग.) कुंथुजिनेश्वर जगजयकारी, चोत्रीस अतिशय धारीरे; पांत्रीस वाणी गुणथी शोभे, समवसरण सुखकारीरे. कुंथु० १ वस्तुधर्म स्याद्वाद प्ररुपे, केवलज्ञानथी जाणारे, धर्म ग्रही पाळी शिव लेवे, जगमांहि बहु प्राणीरे. कुंथु०२ सप्तनंगी ने सातनयोथी, षद्रव्योने जणावेरे; उपादेय चेतनना धर्मों, बोधी शिव परवावेरे. कुंथु० ३
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१०
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( १३७ )
शुद्धं आत्मस्वरूप बतावी, मिथ्या प्रमणा हावेरे; अस्ति नास्तिमयधर्म अनन्ता,
द्रव्य द्रव्यमां भावेरे.
चार निक्षेपे चार प्रमाणे, वस्तु स्वरूपने दाखेरे; द्रव्य क्षेत्र ने काल जावथी, वस्तु स्वरूपने भाखेरे. नन्दकारी जग हितकारी, गुण पर्यायाधारोरे; उत्पत्ति-व्यय- ध्रुवतामयी प्रभु, शाश्वतपद सुखकारीरे. जिनस्वरूप यह जिनवर सेवी,
लहीए अनुभव मेवारे; बुद्धिसागर ज्ञान दिवाकर, सहज योग पदसंवारे.
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कुंथु० ४
कुंथु० ५
कुंथु० ६
कुंथु० ७
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(१३८)
१८ अरनाथस्तवन. (तुम बहु मंत्रीरे साहिबा-ए राग.) अराजिनवर ! प्रभु ! वन्दना, होजो वारंवार; क्षायिक-रत्नत्रयी वर्यो, शुद्ध बुद्धावतार. अर. १ अष्टकर्मना नाशथी, अष्ट गुणोने धरंत; गुण एकत्रोशने तें धर्या, साध्य सिद्धि वरंत. अर. २ क्षपकश्रेणि-रणक्षेत्रमां, हण्यो मोह प्रचंड; त्रिभुवनमा साम्राज्यनी, चलव। आण अखंड. अर. ३ घातिकर्म-प्रकृति हरी, पाम्या केवलज्ञान: पुरुषोत्तम अरिहाप्रभु, दोधुं देशना दान. अर. ४ योगविकार शमावीने, शेष कर्म जे चार; हणीने शिवपुर पा मिया, धन्य!धन्य!अवतार.अर.५ तुज पाले अमे चालशुं, पामीने परमार्थ; अनुभव रंगे भेटोने, प्रभु थइशुं सनाथ. अर. ६ प्रेम भक्ति उत्साहमां, श्रुतज्ञाने दिल लाय; बुद्धिसागर ध्यानमां, प्रभुता घटमांहि पाय. अर. ७
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(१३९) १९ मल्लिनाथस्तवन. (स्वामी सीमंधर विनति-ए राग.) मल्लिजिन सहज स्वरूपर्नु, वर्णन कहो केम थायरे; वैखरी वर्णन शुं करे, कंइ परामांही परखायरे. मल्लिग १ परमब्रह्म पुरुषोत्तम, अनंगी अनाशो सदायरे; विमल परम वीतरागता, अखय अचल महारायरे. मल्लि०२ निर्भय देशना वासी जे, अजर अमर गुणखाणरे; सहज स्वतंत्र आनन्दमां, जोगवो शिव निर्वाणरे. मलि. ३ चेतन असंख्यप्रदेशमा, वोर्य अनंत प्रदेशरे; छति शुद्ध सामर्थ्य भावथी, वापरो समये निक्लेशरे. मल्लिग ४
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(१४०) त्रिभुवन मुकुट शिरोमणि, परम महोदय धर्मरे; जगगुरु परमबंधु विभु, सादि-अनन्त सुशर्मरे. मति ५ अलख अगोचर दिनमणि, अविचल पुरुष पुराणरे; सत्य एक देव ! तुं जगधणी, धार हुँ शिर तुज आणरे. मद्वि ६ मबिजिन शुद्ध आलंबने, सेवक जिनपणुं पायरे; बुद्धिसागर रस रंगमां, जेटिया चिद्घनरायरे. मल्लिा ७
____ २० मुनिसुव्रतस्तवन. (तार हो तार प्रभु ! मुज सेवक भणी-ए राग.) तार हो तार प्रभु ! शुद्ध दिनकर विभु, शरण तुं एक छे मुज स्वामी; ज्ञान-दर्शनधणी, सुख ऋद्धि घणी, नामी पण वस्तुतः तुं अनामी. तार०१
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तार २
तार०३
(१४१) भोगी पण जोगना फंदथी वेगळो, योगी पण योगथी तुं निराळो; जाणतो अपरने अपरथी जिन्न तुं, विगतमाही प्रभु ! शिव म्हालो. द्रव्य क्षेत्र छने काल ने नावथो, आत्मद्रव्ये प्रभु ! तुं सुहायो; स्वगुणनो अस्तिता, नास्तिता परतणी, शुद्धकारकमयो व्यक्ति पायो. शुद्ध परब्रह्मनी पूर्णता पामोने, विष्णु जगमां प्रनु ! तुं गवायो; कर्मदोषो हरी हर प्रभु ! तुं थयो, सत्य महादेव तुंछे सवायो. शुद्धरुपे रमी राम तुं जग थयो, शुद्ध आनन्दतानो विलाली; रहेम करतां थयो शुद्ध रहेमान तुं, शुद्ध चैतन्यता धर्भकाशी. नाम ने रुपया भिन्न तुं छे प्रभु ! जाणतो तत्व स्याहादज्ञानी;
तार. ४
तार० ५
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तार०६
(१४२) शरण तारुं ग्रा, चरण तारं लां, रही नहि वात हे नाथ ! छानी. भक्तिना तोरना जोरमां प्रभु मळ्या, सहज आनंदना योघ प्रगटया; जाणुं पण कही शकुं केम निर्वाच्यने, सकळ विषयोतणा फंद विघट्या. एकता लीनता नक्तिना तानमां, घेन आनंदनी दिल बवा; वुद्धिसागर प्रभु नेटिया भावथी, मुक्तिनी घेर आवो वधाइ.
तार०७
तार ८
-
-
२१ नमिनाथस्तवन. (ए गुण वीरतणो न विसार-ए राग. ) नमि जिनवर ! प्रभु ! चरणमा लागुं, शुद्ध रमणता मागुरे; बाह्य परिणति टेव निवारी, शुद्धोपयोगे जागुरे;
नमि० १
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नमि. २
नमि०३
(१४३) अन्तरदृष्टि अमृतवृष्टि, सहजानन्द स्वरूपरे; तन्मयता प्रभु साथे करती, शुद्ध समाधि अनुपरे. असंख्यप्रदेशी चेतन क्षेत्र, गुण अनंत आधाररे; उत्पत्ति व्यय ध्रुवता समये, द्रव्यपणुं जयकाररे. ज्ञान-चरणपर्यायनी शुद्धि, मुक्ति प्रभु मुख भाखरे; अस्ति नास्तिनी सप्त भंगोथी, षड् द्रव्योने दाखेरे. शब्दादिक नय शुद्ध परिणति, उत्तर उत्तर साररे; कारणे कार्यपणुं नीपजावे, द्रव्यभावे निर्धाररे. निमित्त पुष्टालंबन सेवी, उपादान गुण शुद्धिरे;
नमि. ४
नमि० ५
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(१४४) शुद्ध रमणता योगे करतो, पामे क्षायिक ऋद्धिरे.
नमि६ सुखसागर कल्लोले चढियो, लही सामर्थ्य पर्यायरे; शुद्ध परिणति-चंद्र प्रकाशे, आनन्द क्यांय न मायरे.
नमिः ७ शुद्ध परिणति-चरण शरणमा, शुद्धोपयोगे रहीशंरे; बुद्धिसागर ज्ञानदिवाकर, स्वपर प्रकाशी थशेरे.
नमि०८ २२ नेमिजिनम्तवन. (तुम बहु मंत्री रे साहिबा-ए राग.) नेमिजिनेश्वर ! वन्दना, होशो वार हजार; त्रिकरणयोगेरे सेवना, प्रीति नक्ति उदार. ने० १ सालंबन ध्याने प्रभु ! दीलमां श्रावो सनाथ; उपयोगे तुज धारणा, आवागमन ते नाथ ! ने० ५ नामादिक निक्षेपथी, बालंबन जयकार; निरालंबन कारणे, तुज व्यक्ति सुखकार. ने० ३
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(१४५) सविकल्प समाधिमां, नासो हृदय मझार; अन्तरअनुनव-ज्योतमा, निर्विकल्प विचार. ने०४ भेदानेद स्वभावमां, अनन्त गुण-पर्याय%; छति सामर्थ्य पर्यायनी, शक्ति-व्यक्ति सुहाय. ने० ५ झळहळज्योति ज्यां जागती, नाले सर्वपदार्थ; बुद्धिसागर ज्ञानमां, सिद्ध बुद्ध परमार्थ. नेण्६
२३ पार्श्वनाथस्तवन. (साहिव सांभळोरे संभव-ए राग.) पूर्णानन्दमारे, पार्श्वप्रभु ! जयकारी; ध्रुवता शुद्धतारे, शाश्वत सुख नंडारी. पूर्णाण ? केवलज्ञानथीरे, लोकालोक प्रकाशो; ध्याता ध्यानमारे, साहिब! निज घर वासो.पूर्णा० २ सहजानन्दनारे, समये समये भोगी; रत्नत्रयो प्रभुरे ! क्षायिक गुणगणयोगी. पूर्णा० ३ व्यक्ति तुजलमोरे, भक्ति तुज भुज करशे; तुज आलंबनेरे, चेतन शिवपुर ठरशे. पूर्णा ४ साचा नावथीरे, जिनवरसेवा करशुं; शुद्धस्वभावमारे, क्षायिकसद्गुण वरझुं. पूर्णा० ५
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(१४६) झटपट त्यागीनेरे, खटपट मननी काची; मळशुं भावथीरे, अनुभव युक्ति ए साची.पूर्णा० ६ हळियो देवशुंरे, ते जन शिवसुख पावे; साची नक्तिथीरे, आवि व सुहावे. पूर्णा० ७ पास जिनेश्वरारे, आपोआप स्वनावे; आतमभावथीरे, बुद्धिसागर गावे०
___ २४ महावीरस्तवन. (साहिव सांभळोरे संनव अरज हमारी
ए राग.) श्रीमहावीर प्रभुरे ! लळी लळी पाये लागुं; श्रीमहावीरपणुंरे, प्रभु ! तुज पासे मागु. श्री. १ द्रव्यभाव बे नेदथीरे, निक्षेपे तेम जाणो; सात नयोवडेरे, महावीर मनमां बाणो. श्री. २ नवधा भक्तिथीरे, महावीरप्रजुथी हळशु: स्वजाति ध्यानथीरे, आविर्भावे मळशुं. श्री. ३ श्रुतउपयोगथीरे, प्रगटे वीर्य स्वनावे; ध्रुवता योगनीरे, महावोर घटमां आवे. श्री. ४
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(१४७) धातोधातथीरे, हळतां मळतां शान्ति; शुद्धस्वभावमारे, रमता, लेश न ब्रान्ति. श्री. ५ सत्ताए रहीरे, वीरता ध्याने प्रगटे; शब्दादिकनयेरे, कर्म मलीनता विघटे. श्री.६ अनुभवयोगमारे, महावीर नयणे देखे; मिथ्यामोहनेरे, आपस्वभावे उवेखे. श्री. ७ शुद्धस्वनावमारे, महावीरप्रभु घर आवे; वीर्य अनन्ततारे, बुद्धिसागर पावे. श्री. ८
कलश. गाइ गारे ए जिनवर चोविशी गाइ. अन्तर-अनुनवयोगे रचना, जिनआणाथी बनाइरे. जिनभक्तिथी शक्ति प्रगटे, प्रगटे शुद्ध समाधि; मिथ्या-मोहक्षये समकितगुण, नासे चित्तनी आधिरे. जिनगुणना उपयोगे निजगुण, प्रगटे अनुजव साचो;
ए जि.
ए जि.१
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ए जि.२
ए जि. ३
(१४८) तिरोभावनो आविर्भाव छ, प्रेम धरी त्यां राचोरे. अनेकान्तनय-ज्ञानप्रतापे, पंचाचारनी शुद्धि; उपशम दयोपशम ने क्षायिक, भावे प्रगटे ऋद्धिरे. प्रभुगुण गावे नावना भावे, नागकेतुपरे मुक्ति, शुद्ध रमणता भावपूजा छे, सालंबननी युक्तिरे. सालंबन योगी जिनध्याने, निरालंबन थावे; कारण-कार्यपणुं त्यां जाणो, ज्ञानो हृदयमा नावेरे. जिनभक्ति निजशक्ति वधारे, शुभउपयोगना दावे; शुद्धोपयागे सहेजे आवे, स्याद्वादी मन भावेरे.
ए जि. ४
ए जि. ५
ए जि.६
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(१४९) गाम डनोइ यशोविजय गुरु, चरणनी यात्रा कीधी; उपाध्यायनी देरीमा रचना, पूर्ण चोवीशीनो सिद्धिरे.
ए जि. ७ उपाध्याय गुरु-चरण पसाये, जक्ति-रंग उर धारी; नावपूजा जिनवरनी करतां, जयजय मंगलकारोरे. ए जि. ८ संवत ओगणिशपांसठसाले, फाल्गुनपूर्णिमा सारी; रविवार दिन चढते पहोरे, पूर्ण रची जयकारीरे. ए जि. ९ लोढणपार्श्वजिनेश्वर प्रेमे, जे नणशे नरनारी; बुद्धिसागर पग पग मंगल, पामे संघ निर्धारीरे.
ए जि. १० महावीर प्रभुस्तवन.. प्रभु महावीर जिनवर देब हो राम ! ताहरे शरणे आव्यो,
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( १५० )
तारो तारो प्रभु मुज तारो हो राज; तुज श्रद्धा दिल लाव्यो. सात्विक परानक्ति प्रगटो, मन मंदिरमां पधारो :
तुज वण बीजुं जगमां न इच्तुं,
भावे मुजने सुधारो हो राज. जेवो तेवो पण हुं हुं तारो, मुजने पार उतारो;
प्राणांते पण पकड्या न छोडं, धर्या वण नही आरो हो राज.
मागण पेठे हूं नहीं मागं, तुं छे प्राणथी प्यारो; तुज स्वरूप यै रहे ए निश्चय, विनती अवधारो हो राज. माह्यरुं त्हारुं रूप न जू दुं, हवे न जाउ हुं हार्यो; आतम ते परमातम नक्की, निश्चय एवो धार्यो हो राज.
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तारे प्रभु, १
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ता. प्रभु. २
ता. प्रभु. ३
ता. प्रभुः ४
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( १५१ )
आतममां आनंद प्रगटावो, जन्म मरण दुःख वारो; बुद्धिसागर आत्म महावीर, प्यारामां तुं प्यारो हो राज.
ता. प्रभु. ५
श्री सुखसागरगुरुस्तवन. नाथ कैसे गजको बंध छुडायो. ए राग.
नमुं मुनि सुखसागर गुरु राया, सुरनर मुनि गुण गाया. वैयावच्ची शांत दांत संत,
नमुं.
जीवदया गुण दरिया;
पंचमहात्रत पालन पूरा, सागर उपमा वरिया.
विद्यमान मुनि संघ सवाया, सरल स्वभावे सुहाया;
पंच समिति धारक शूरा, गुतिए योगी गवाया. गुरु वैयावच्ची प्रेमी पूरा, उत्तम पदवी पाया;
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नमुं. १
नमुं. २
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(१५२) समता गंगा नोर वहाया, सेवक एमां न्हाया.
नमुं. ३ प्रभमां लीन करी मन जोव्या, रागने रोष समाया. वाल्यथकी ब्रह्मचारी साचा, धर्म कमागी कमाया,
नमुं. ४ ओगणिश अगन्योत्तर चोमासुं, अमदावादमां आव्या; अषाम वदि त्रीज सूर जगमे, भ्याने स्वर्ग सिधाव्या.
नमुं, ५ गुरु गुण गाएं गुरु दिल ध्यावं, गुरु गुण जगमा छवाया; गुरु कृपाए आतम अनुभव, पाया प्रनु प्रगटाया,
नमुं.६ स्हाय करो गुरु शिष्यने प्रेमे, गुरु नाम जाप जपाया; बुद्धिसागर सद्गुरु श्याया, मेसाणा गुणगाया.
नमुं. ७ सं. १९७८ आषाढ शुक्ल तृतीया. गुरुजयंतीगान.
ॐ अर्ह महावीर शांतिः ३
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