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अभि. ४
(११४) क्षणक्षण उज्ज्वल ध्यानमां, प्रगटतां सहज आनन्दरे; बाह्य जड विषयना सुखनो, वेगथी नासतो फन्दरे. अन्तरशुद्धपरिणतिथकी, भावथी होय निज मुक्तिरे; शुद्धनयस्थापना सहजथी, प्रगटतो ए तत्त्वनी युक्तिरे. क्षयोपशम ज्ञान-वीर्यथी, दायिक--धर्म ग्रहायरे; निर्विकल्पउपयोगमां, श्रुतज्ञान एक स्थिर थायरे. नावश्रुतज्ञानालंबने, जीव ते जिनरूप थायरे; बुद्धिसागर शिवसंपदा, मंगल श्रेणि पमायरे.
अभि०५
अनि०६
अजि०७
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