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(११५)
५ सुमतिनाथस्तवन. (विरति ए सुमति धरी आदरो-ए राग.) सुमतिजिनेश्वर शुद्धता, बुद्धता परम स्वभावरे; अस्तिता नास्तिता एकता, ज्ञातृता नहि परभावरे.
सुमति.१ भिन्न अभिन्नता नित्यता, तेम अनित्य पर्यायरे; एक समयमांहि संपजे, पर्याय उपजे विलायरे.
सुमति २ अगुरुलघु पर्यायनी, शक्ति अनन्ती सदायरे; परिणमे असंख्यप्रदेशमां, कारक षट् उपजायरे. सुमति०३
आदि अनादि षट्कारको, व्यक्तिपणे एकेक प्रदेशरे; अनादि अनन्त स्थिति शक्तिथी, कारकषट् लहो बेशरे.
सुमति
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