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( ११९) ७ सुपार्श्वनाथस्तवन. ( नदी यमुनाके तीर-ए राग.) सुपार्श्वप्रभु ! जिनराज ! कृपाळु तारशो, वीनतमी मुज प्रेम धरीने स्वीकारशो; राग द्वेष अन्याय नृपति जोर टाळशो, शुद्धरमणता सन्मुख दृष्टि वाळशो. विषयवासनापाशथी प्रभुजी ! बोडावजो, परमदयालु ! देव ! दया दील लावजो; अनुनव-अन्तरदृष्टिनी सृष्टि जगावजो, परमानन्दनु पात्र चेतन मुज थावजो. केवलज्ञाननी ज्योतिमां ज्ञेय अभिन्न छ, परद्रव्यादिक ज्ञेयथकी वळो निन्न डे; ज्ञेयापेक्षे ज्ञान परिणमे जाणजो, भिन्नानिन्नस्वरूप अनेकांत आणजो. ज्ञेयापेक्षे ज्ञान अनन्तुं जिन कहे, ज्ञेयनी पासे ज्ञान गयावण सहु लहे; दर्पण क्यां न जाय दर्पणमां समाय छे, ज्ञेयाकारी भावो ए दृष्टांत न्याय छे.
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