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( १२० )
दूरवर्ती जे ज्ञेय ज्ञानमांहि नासतो, ज्ञान चिन्त्यस्वजाव हृदयमां आवतो; ज्ञेयविना सहु ज्ञाननी शून्यता जाणीए, पड़ द्रव्यो पर्याय अनन्त मन आणोए. अस्तिविना न निषेध घटे कोइ द्रव्यनो, द्विव नहि अद्वैत निषेध केम सर्वनो; द्वैतनुं ज्ञान थया वण अद्वैत शुं कहो, भासे ज्ञानमां द्वैत सत्यभाव सद्दहो. द्रव्य अने पर्यायथा ज्ञेय अनन्तता, वस्तुधर्म स्याद्वाद त्यां एकानेकता; ध्रुवता ज्ञेयना द्रव्यपणे नित्यता खरं, उत्पत्ति-व्यय ज्ञेयअनित्यता अनुस जीवद्रव्य एकव्यक्ति अनादि अनंत छे, - पर्यवआधार चेतनजी सन्त छे; गुणबुद्धिसागर जिनवरवाणी सदहे, समकित - श्रद्धायोगे अपेक्षा सहु लहे.
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