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निमित्तथी कर्ता ईश्वरमां, दोषो आवे अनेकरे; विनाप्रयोजन जगनो कर्त्ता, होय न ईश्वर छेकरे.कुं०३ ग्मृष्टि कार्य तो हेतु उपादान, कोण ? कहो सुविचारोरे; उपादान ईश्वरने माने, दोष अनेक छे नारोरे. कुं । वृष्टिरूप ईश्वर ठरतां तो, जडरुप थयो इशरे; बागमयुक्ति विचारे साचं, समजो विश्वावोशरे. कुं०५ परपुदगलकर्ता नहि ईश्वर, सिद्ध-बुद्ध निर्धाररे; स्वाभाविक निजगुणना की,ईश्वर जग जयकाररे. कुत चेतन ईश्वर थावे सहेजे, ध्यान करी एकरूपरे; बुद्धिसागर ईश्वर पूजो, चिदानंद-गुणनूपरे. कुं०७
१८ अरनाथस्तवन. (श्रीरे सिद्धाचळ नेटवा-ए राग.) श्रीअरनाथजी वंदीए, शुद्ध ज्ञान प्रकाशी; जड-चेतनभेदज्ञानथो, टळे सकल उदासी. श्री अ० २
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