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नमि. २
नमि०३
(१४३) अन्तरदृष्टि अमृतवृष्टि, सहजानन्द स्वरूपरे; तन्मयता प्रभु साथे करती, शुद्ध समाधि अनुपरे. असंख्यप्रदेशी चेतन क्षेत्र, गुण अनंत आधाररे; उत्पत्ति व्यय ध्रुवता समये, द्रव्यपणुं जयकाररे. ज्ञान-चरणपर्यायनी शुद्धि, मुक्ति प्रभु मुख भाखरे; अस्ति नास्तिनी सप्त भंगोथी, षड् द्रव्योने दाखेरे. शब्दादिक नय शुद्ध परिणति, उत्तर उत्तर साररे; कारणे कार्यपणुं नीपजावे, द्रव्यभावे निर्धाररे. निमित्त पुष्टालंबन सेवी, उपादान गुण शुद्धिरे;
नमि. ४
नमि० ५
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