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( ९५ )
बुद्धिसागर धर्म बे,
स्याद्वादस्वभावा.
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श्री ० ६
१९ मल्लिनाथस्तवन. ( हे सुखकारी ! आ संसारथकी जो मुजने उद्धरे - ए राग. )
उपयोग धरी, मल्लिजिनेश्वर प्रणमी शिवसुख धारीए;
तजी बाह्य-दशा, शुद्धरमणतायोगे कर्म निवारीए. प्रभु ! मुज सत्ता वे तुजसमी, निर्मलव्यक्ति मुज चित्त रमी; तें शुद्ध - परिणति तुर्त दमी. उपयोग. ? निजभावरमणता रंगा ॐ,
अंतर्यामी प्रभुने गाशु; प्रभुव्यक्तिसमा अन्तर थाशुं - चेतनता निजमां रंगाशे,
प्रभु ! तुज मुज अंतर झट जारी;
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उपयोग० २