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(१०५) क्षयोपशमे ते हेतु छे, क्षायिकगुणकाज; क्षायिक-वीर्यता आपोने, राखो मुज लाज. ५ असंग्ख्यप्रदेशे क्षायिक, भाव-वार्य अनंत; यांग-ध्रुवता धारोन, लहे वीर्यने संत. मति-संगी पुद्गल विषे, जे वीर्य कहातुं; योगतणी ध्रुवताथकी, ध्याने लेश न जातुं. भाव-वीर ! प्रभु श्रातमा, अंतर गुणभोगो; लघुता एकता लीनता, साधनथी योगी. भाव-वीर्य निजमां नळ्यु, वाग्युं जितनगारं; फरक्यो विजयनो वावटो, क्षायिकसुख सारं. ९
आनंदमंगल जीवमां, ज्ञान-दिनमणि प्रगटयो; दर्शन-चंद्र प्रकाशियो, तब मोहज विघटयो. १० अनंतगुण-पर्यायनो, जीव भोगी सवायो; बुद्धिसागर मंदिरे, चेतन झट आयो.
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