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(१२३) ९ सुविधिनाथस्तवन. ( नदी यमुनाके तोर-ए राग.) सुविधिजिनेश्वर ! देव ! दया दीनपर करो, करुणावंत महंत विनति ए दोल धरो; भवसागरनी पार उतारो कर ग्रही, शक्ति अनन्तना स्वामी कहावोछो महो. तमनो शो छे नार कहो रवि आगळे, कीडोनो शो भार के कुंजरने गळे; कर्मतणो शो भार प्रभजी! तुम छते सिंहतणो शो भार अष्टापद त्यां जते. शुं खद्योतनुं तेज रवि ज्यां झळहळे, तेम शुं मोहन जोर के उपयोग नीकळे; ससलानुं शुं जोर सिंहआगळ अहो! अनेकांत ज्यां ज्योति एकांतनुं शुं कहो. परमप्रभु वीतराग राग त्यां शुं करे, देखी इन्द्रनी शक्ति के सुर सह करगरे; प्राणजीवन वीतराग हृदयमां मुज वस्या, ते देखी मोहयोध के सहु दूरे खस्या.
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