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पाँच प्रकार बताये हैं। वे पाँचों प्रकार वक्रता वर्ण्यमान पदार्थ के औचित्य से रमणीय होंगे
क्रियावैचित्रय केकुन्तक ने तभी प्रस्तुत करेंगे जब कि वे प्रस्तुतौचित्यचारवः - २२५
( १ ) क्रिया का पहला वैचित्र्य है उसका 'कर्ता का अत्यधिक अन्तरङ्ग होना' – कर्तुरत्यन्तरङ्गत्वम् - ( २।२४ ) । श्राशय यह कि कवि काव्य में कर्ता के उस क्रियाविशेष को प्रस्तुत करके जिस सौन्दर्य की सृष्टि करता है उसे कोई दूसरी क्रिया नहीं कर सकती। इसीलिए वहाँ क्रियावैचित्र्यवक्रता होती है । जैसे—
क्रीडारसेन रहसि स्मितपूर्वमिन्दो
लेखां विकृष्य विनिबध्य च मूर्ध्नि गौर्या । किं शोभिताऽहमनयेति शशाङ्कमोलेः
पृष्टस्य पातु परिचुम्बनमुत्तरं वः ॥
में भगवान् शङ्कर द्वारा उत्तर रूप में चुम्बन से भिन्न किसी अन्य क्रिया द्वारा पार्वती के उस लोकोत्तर सौन्दर्य का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता था । इसलिए चुम्बनरूप क्रिया उत्तररूप कर्ता की अत्यधिक अन्तरङ्ग है । अतः यह क्रियावैचित्र्यवक्रता हुई ।
( २ ) क्रियावैचित्र्य का दूसरा प्रकार है— कर्ता को अपने सजातीय दूसरे कर्ता की अपेक्षा विचित्रता । कर्ता की विचित्रता यही होती है कि वह अपने अन्य सजातीयकर्ताओं की अपेक्षा विचित्र स्वरूप वाली क्रिया को ही सम्पादित करता है । जैसे - 'त्रायन्तां वो मधुरिपोः प्रपन्नार्तिच्छिदो नखा । " में जो कर्ताभूत नख के द्वारा अपने सजातीयों की अपेक्षा विचित्र 'प्रपन्नातिच्छेदनरूप' क्रिया प्रस्तुत की गई है, वह कर्ता की विचित्रता को प्रतिपादित करते हुए क्रियावैचित्र्यवक्रता को प्रस्तुत करती है ।
( ३ ) क्रियावैचित्र्य का तीसरा प्रकार है - अपने विशेषण के द्वारा आने वाली विचित्रता । आशय यह है जहाँ क्रियाविशेषण के द्वारा ही क्रिया का सौन्दर्य सहृदयहृदयहारी हो जाता है वहाँ क्रियावैचित्र्यवक्रता होती है ।
( ४ ) क्रियावैचित्र्य का चतुर्थ प्रकार है - इसको उपचार अर्थात् सादृश्य आदि सम्बन्ध का श्राश्रय ग्रहण कर किये गए दूसरे धर्म के आरोप के कारण आने वाली रमणीयता । जैसे -- ' तरन्तीवाङ्गानि स्खलदमललावण्यजलधौ' में ' अज्ञों की लावण्यसागर में तैरने रूप क्रिया को उत्प्रेक्षा की गई है, वह उपचार के कारण ही लोकोत्तर रमणीयता को प्राप्त कर गई है ।
( ५ ) क्रियावैचित्र्य का पाँचवाँ प्रकार है- उसके द्वारा कर्म इत्यादि कारकों का संचरण । जहाँ पर वर्ण्यमान पदार्थ के भौचित्य के अनुरूप उसके