Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 21
________________ वागमवावार पत्र चोदाहरणमुभ्यते 'देवश्रेणी शासिनिस्फूतिरेणा पर्माधर्मप्राप्त धर्ममामः। . विश्वाधान मन्यमान समान मातृस्नेहा रोहिणीवप्रदीप इति शालिन्मभ्यासोऽसमन्वशून्ययापि शब्दश्रेण्या। एवं सर्वाण्यपि छन्दांसि साकनिर• कैर्वा शनसंपन्धेरभ्यसनीयानोति ।। ७ || - काम्याभ्यासी को शहिये कि वह प्रारम्भ में अभ्यास के किये रसना-सौन्दर्य से युक्त निरर्थक पदावली के द्वारा भी सभी छन्दों पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास करे ॥ ७॥ मथ बन्धचारत्वमेव कथं भवतीत्याह पश्चाद्गुरुत्वं संयोगाविसर्गाणामलोपनम् । विसन्धिवर्जन चेति बन्धचारुत्वहेतवः || संयोगवशात्पाबाल्यवर्णस्य गुरुत्वं कार्यम् । एवं हि बन्धस्य दादा भवति । सथाविसर्गलोपो न कार्यः। यतो विसर्गाणामवस्थानेन काव्य ओजोगुण उपजायते। तथाविज्ञब्धी विरूपत्वेऽभावे च बर्तते। यथा-'विस्वरोऽयं गायना, विमदो मनिरयम्। इति च। ततोऽत्रापि विरूपः संधिविसंधिः। यद्वा-न संविविसंचिरिति ।. विरूपसंघरसंधश्न वर्जन कार्यम् । एवंप्रकारा अन्येऽप्यत्वष्ट्राविष्टिपदवर्जनायो बन्यचारुत्वस्य शेतको भवन्तीति प्रकारार्थ दतिशम्दा सूचयति । अत्रोदाहरण यथा निपीय यस्य शितिरक्षिणः कथा तथाट्रियन्ते न बुधाः सुषामपि। नमः सितच्छप्रितकीर्तिमण्डलः स राशिरासीन्महसा महोज्ज्वलः ।।' इइमुदादरणमन्वये उक्तम् ॥ ८ ॥ छन्योबन्ध में सौश्व कामे के लिये यह आवश्यक है कि संयुक्त वर्ण परे रहने पर ( उसके) पूर्व का लचक भी गुरुवत् मामा जाय, विसर्गों का लोप म किया जाय और कर्णकटु वर्गों की सन्धि भी न की जाय ॥ ४॥ यतिरेके तु ग्रन्धकार भवोदशहरति-. शिते कृपाणे विधृते त्वया घोरे रणे कृते । बधीश क्षितिपा मीत्या वन एवं गता जयात् ।। ६ ।। .. नृणामधीशो प्रधीशः संबोपने बधीश नरेन्द्र, त्वया शिते तीक्ष्ण खड़े पारिते सति । अत एव रणे संग्रामे पोरे रो क्या कृते सति क्षितिपाः प्रस्तावाच्छचो सूपा भयेन बने कामने एवं गताः। न क्षणमपि युद्ध स्थिता इति भावः 1 जवा गाए । बनेन सातिशय मय व्यत्यते। अब त स्वया' इत्यादी संयोगवशात्पूर्वस्व गुरुत्वं नास्ति, किंतु सद

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