Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 117
________________ १०२ वाग्मदालङ्कारः। देवतागुरुसाक्ष्येण स्वीकृतास्वीयनायिका । अमावस्यतिगम्भीरप्रकृतिः सचरित्रभृत् ।। १३ ।। देवतागुरुसाक्ष्येण स्वीकृता स्वीयनायिका स्वकीया समवगन्तया । सा क्षमावती अति- । गम्भीर प्रकृतिः सचरित्रभुत्प्रधानचरित्रवती ॥ १३ ॥ जो समाशील, अरमन्त गम्भीर प्रकृतियाली, सचरित्रता से युक्त श्री देवता और गुरुजनों को सामान कर स्वीकार की जाती है, उसे 'स्वकीया नापिकार कहते हैं ।। १३॥ परकीयाप्यनूढेव वाच्यभेदोऽस्ति चानयोः। .. स्वयमप्यतिकामैका सख्येवैका प्रियं घदेत् ।। १४ ।। परकीमापि स्त्री अनूढेब वाच्या । परमनयोः परकीयानूदयोवाच्यभेदोऽस्ति न तापविशेषः कोऽपि । तथापि विशेषमाइ-पका परकीया मतिकामाला सता स्वयमपि कि नोट, एका निलीया न्यनता सदा स्वयं न बहेत् । तर कामाकुला सती सस्यैव सखीहारेणैव प्रियं वदेत् ।। १४ ।। 'परकीया' मी 'अमूहा' के समान ही होती है। उन दोनों में केवल कहने भर का भेव है। किन्तु एक (परकीया) अत्यन्त कामातुर होकर स्वयं ही निक वचों से अपने ( सुरति-अभिलाषारूप) माशय को प्रकट करती है और दूसरी (अनूला ) अपने आशय को सखी के द्वारा हा व्याक करतो है ॥ १५ ॥ सामान्यवनिता वेश्या भवत्कपटपण्तिा । न हि कश्चिप्रियस्तस्या दातारं नायकं विना ।। १५ ।। अथ सामान्यानता कपटपण्डिता बेड्या पण्याङ्गना भवेत् । तस्या दासारं विना नायक न हि कश्चिप्रियो मवति । यो दासा स एव नायकस्तासा नान्यः प्रिय इति ॥ १५॥ छल-कपट में चतुर वेश्या 'परामना' कहलाती है। धन देने वाले नायक के श्वसिरिक उस नायिका को और कोई भी व्यक्ति प्रिय नहीं होता ॥५॥ अध पृङ्गारस्थ काशप्रच्छन्नमैदृदयमाइ सर्वप्रकाशमेवैषा याति नायकमुद्धता। . याच्या प्रच्छन्न एवान्यश्लीणां प्रियसमागमः ।। १६॥ एषा पण्याङ्गनीरता सता सर्वप्रकटमेव नायकं पति पाति । प्रकाशो रसः। अन्यत्रीण प्रियसमागमः प्रश्छन्न एव मवति । एष प्रच्छनः शृङ्गाररसः। समाप्तः संभोगकारः ||१६|| यह (वेश्या) कामातुर होकर सबके सामने ही अपने मायक के पास चर्म जाती है। किन्तु अन्य (बमूढा, स्वकीया और परकीपा) नापिकाओं का अपने प्रिपसम के पास समागम गुप्त ही पणित किया जाता है ।। १६ ॥

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