Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 120
________________ पञ्चमः परिच्छेदः । अथोचममध्यमाधमभेदेन हास्यरसस्वरूपमाह - कपोलाक्षिकतोला समोष्ठे तिम्रन्स उत्तमः | मध्यमानां विदीर्णास्यः सोऽवराणां सशब्दकः ॥ २४ ॥ कपोला क्षितौलासमोष्ट तिनो मात्रा भवति स सत्तमः । मध्यमानां विदीप्रसूताननो भवति । स च हास्यरसोऽवराणां नीचानां सशदको महाशब्दसहितो भवति ॥ २४ ॥ हास्य के तीन भेद बतलाये गये हैं-सजमों की इसी ऐसी होती है कि उनके कपोल और नेत्र तो प्रफुलित हो उठते हैं किन्तु उनके ओठ नहीं सुने पाते ( इसे मन्दस्मित कहते है ) । मध्यम श्रेणी के व्यक्तियों की इसी में उनका मुख खुल जाता है (जिससे दाँत दिखाई देने लगते हैं ); किन्तु नीच जनों का हास्य युक्त होता है (जिसे अट्टहास कहते हैं ) ॥ १४ ॥ श्रद्धतमाद विस्मयात्माद्भुतो ज्ञेयः स चासम्भाव्यवस्तुनः । दर्शनाच्छ्रवणाद्वापि प्राणिनामुपजायते ॥ २५ ॥ अद्भुत रसो विस्मयस्पाचिभावात्मकः । स च प्राणिनामसम्भाव्य वस्तुनी दर्शनाच्छ्रचणाद्वा समुपजायते । एतेनास्य द्विधोत्पतिरभिहिता ॥ २५ ॥ १०५ अद्भुत रस का स्थायीभाव आचर्य है। वह ( अद्भुत ) रस प्राणियों (के हृदय ) में सब होता है जब वे किसी असम्भव वस्तु को देखते अथवा सुनते हैं ॥ २५ ॥ अस्व रसस्य निमाबादीन्दर्शयति- तत्र नेत्रविकासः स्यात्पुलकः स्वेद एव च । निःस्पन्दनेत्रता साधुसाधुत्रामाद्वदा च गीः ॥ २६ ॥ तत्राद्भुतरसे जाते त्रयोविकासः स्यात् । रोमादरमेदौ भवतः । निःस्पन्द नेत्रत्ता सवति । नेत्राणि निःस्पन्दानि भवन्ति । साधुसाधुवाग्भवति 1 गीगंइदा च स्यात् ॥ २६ ॥ यहाँ ( अद्भुत रसमें) नेत्र विकसित हो जाते हैं, शरीर पुलकित हो उठता है, पीका भा जाता है, नेत्रों की स्फुरणा बन्द हो जाती है, ( देखने वाले के ) सुख से 'साधु साधु' का शब्द निकल पड़ता है और वाणी गद्गद हो जाती है । भयानकमाइ - भयानको भवेद्भीतिप्रकृति घौरवस्तुनः । स च प्रायेण वनितानीघालेषु शस्यते ॥। २७ ॥ ज

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