Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 89
________________ 3. बामसिकारः। सदाहरणमाह पतिताना संसर्ग त्यजन्ति दूरेण निर्मला गुणिनः। इति कथयञ्जरतीनां हारः परिहरति कुचयुगलम् ।।२।। झारो गुणी निर्मलश्च जरतीनां वृद्धक्षीणो कुच्युगसमिति कथयन्परिबरति। निर्मला गुणिनः पतिताना संसर्ग दुरण त्यजन्ति । यथा ये ये गुणिनो निर्मलाश्च ते ते पतिससंसर्ग ल्यजन्ति तथा हार स्त्येषोऽन्वयव्याप्त्या दृष्टान्तः । मन्वयख्यापनं च सादृश्यामिति च पर कयोः । स्वायतदर्थयोरित्यर्थः ॥ ८३ ॥ मिर्ममन गुणी व्यक्तियों को पमितजनों का संसर्ग दूर ही से छोड़ देना चाहिये इस प्रकार कहता हुआ वृद्धा स्त्री के वक्षस्थल पर पका हुआ द्वार उसके दोनों पतित (शिथिलता के कारण लटकते हुये) स्तनों को छोड़ देता है। टिप्पणी - पतितजनों के साथ सजनों के संसर्ग को अशोभित बतलाने के लिये मुद्धा स्त्री के शिथिक इतनों पर लटकते हुए हार का शान्त दिया गया है। श्रतः यहाँ पर शरत अलधार माना गया है ॥ ८२ ॥ म्यतिरेकमाइ-- केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः । भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ।। ३ ।। अत्र द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः संसिद्ध साम्यं समानता ययोस्ती तयोः संसिद्धसाम्ययोः केनचिदमण केनचिदगुणेनैकतराधिक्यं एकतरस्याधिकता भवति स न्यतिरेकालकारः ॥८॥ जिस अलद्वार में उपमेय और उपमान में से कोई एक भी किमी धर्मविशेष के कारण दूसरे से उत्कृष्टतर प्रस्तुत किया जाता है उसको 'व्यतिरेक' अशा कहते हैं ।।८।। उदाहरणमाइअस्त्वस्तु पौरुषगुणाजयसिंहदेवपृथ्वीपतेर्मुगपतेश्च समानभायः । किंत्वकतःप्रतिभटाः समरं विहाय सद्यो विशन्ति वनमन्यमशकमानामा __ जयसिंहदेवपृथ्वीपतेमगपत्तेश्च पौरुषगुणारसमानमावोऽस्त्वस्तु । एकतो जयसिंहदेवासमर त्यक्त्वा प्रतिभटा वैरिणः समो बनं विशन्ति । अन्यं सिंहमशकमानः। एतावता सिंहभयावपि राको मीरधिका तत एकतराधिक्यम् ॥ ४॥ राजा जयसिंह और सिंह के पराक्रम में समामता हो तो हुमा करे (इससे क्या ! राजा जयसिंह फिर भी सिंह से अधिक पराकमी है)पयोंकि एक (राजा अपसिंह)के भय के कारण वैरी योद्धागण सहसा समराङ्गण को दोबकर कम

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