Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 107
________________ वाग्मटालद्वारः। यत्र प्रत्यक्षाशितः कालत्रितयवतिनो लिङ्गिनी ज्ञानं भवति तदनुमानमुच्यते । पथाधूमो लिलिली चाभिः । लिङ्गस्य धूमस्य दर्शनाशिकी अभिरनुमीयते । अनया रौस्या सर्वत्र ज्ञातव्यम् । एतवनुमानं भवति ॥ १३७ ।। जिस अलवार में प्रत्यक्ष चित अथवा कारण से भूत, वर्तमान और भविष्य, इन सीनों कालों में होने वाली माश्य वस्तु का बोध होता है उसे 'अनुमान कहते हैं ॥ १३ ॥ अनुमानोदाहरणमाह नूनं नधस्तदाभूयन्नभिषेकाम्भसा पिभोः । अन्यथा कथमेजा जनः ताना हाति।। १३८ ।। - नूनं विमोजिनस्याभिषेकाम्मसा नमस्तदाभूवन् अन्यथा एतासु नदी जनः खानेन कथं शुद्धयति । नदीलानेन शुद्धिरेतशि लिङ्गी च विभोरमिषेकाम्भसा तदाभूवमिति । एषोऽतीतानुमानालङ्कारः ॥ १३८ ॥ निश्चय ही ये नरिौँ महाराज (ऋषभदेव )को 'अभिसिवित करने वाले जह से बनी हुयी हैं, अन्यथा इनमें स्नान करने से मनुष्यों की शुद्धि कैसे हो सकती थी। टिप्पणी-प्रत्यक्ष शुद्धिरूप हेतु से अमिलिञ्चन-जल से नदियों के निर्माणरूप भूतकालिक अरश्य बस्तु का बोध होने के कारण यहाँ अनुमाम' सलंकार है। जम्भभित्ककुभि ज्योतिर्यथा शुभ्रं बिजम्भते । उदेष्यति तथा मन्ये खलः सखि निशाकरः ।। १३६ ।। जम्ममिदिन्द्रस्तस्य भकुछ दिक पूर्वा तस्या ज्योतिस्तेजो या शुभ श्वेतं विजम्भते । अहमेवं मन्ये । हे सम्नि, खलः सन्तापकारी निशाकर उद्देष्यतीत्येतविरहिण्या सख्युग्ने उक्तम् । श्ष मविष्यानुमानालकारः॥ १६९ ।। (कोई विरहिनी नायिका अपनी सहेली से कहती है) सखि! बिस समय इन्द्र की दिशा ( पूर्वविशा) में उज्जवल ज्योति प्रकाशित होती है, उस समय मैं ऐसा समझती हूँ कि दुष्ट चन्द्रमा का उदय होगा। टिप्पणी-पूर्वदिशा में ज्योत्स्ना के प्रकाश से भविष्य में चन्द्रोदय का शेष होने के कारण यहाँ पर 'भनुमान भष्ठयार है ॥ १३९॥ मुखप्रभाबाधितकान्तिरस्या दोषाकरः किट्टरतां विभर्ति | तल्लोचनश्रीहतिसापराधान्यजानि नो चेत्किमयं क्षणोति ।। १४०॥ दोषाकरश्चन्द्रोऽस्या नापिकायाः किसरता बिमति कमैकरतो याति । कोशः । मुखप्रभावाधितकान्तिः । जो चेदि नैनन् । अयं चन्द्रस्तलोचनश्रीहतिसापराधानि तासा लोच

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