Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 113
________________ पञ्चमः परिच्छेदः 'कटरीतिरसोपेतम्' इति (रीतयो च्याख्याताः । अधुना ) रसानाह-- साधुपाकेऽप्यनास्वाद्यं भोज्यं निलेषणं यथा। तथैव नीरसं काव्यमिसि बूमो रसानिह ।। १॥ यथा साधुपाकेऽपि भोज्यं निलंवणं लवणरहितभनास्वार्थ मवति तथा कान्यमपि नारर्स रसरहितमनास्वाभं भवति । इत्येतस्मात्कारणाव सान्नूमः ॥ १॥ निस प्रकार उसम से उत्तम रीति से पकाया हुआ भोजम भी नमक के बिना स्वादहीन रहता है, उसी प्रकार रसहीन काश्य भो अनास्वाध होता है। इसीलिये यहाँ पर रसों का वर्णन किया जा रहा है । ॥ विभाधैरनुभावैश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभिः । आरोप्यमाण उत्कर्ष स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥२॥ विभाव, भानुभाग, बभिमानभाव और मात्रिक मावों से परिपोष को प्रास करवाये गये स्थायीभाव को रस कहते हैं। टिप्पणी-वियोषरूप से रसों की भावना कराने वाले सी, वसन्त और सघानादि को विभाव कहते हैं। 'साहित्यदर्पण'कार ने निभायों को इस प्रकार बतलाया है 'रस्थाणवोधको लोके बिभावः काग्यनाट्चयोः । मालम्बनोद्दीपनाख्यौ तस्य मेदावुभौ स्मृतौ । मालम्बनं नायकादिस्तमालम्ब्य रसोखमात् । उद्दीपन विभावारते समुदीपयन्ति ये ॥ भालम्बनस्थ चेष्टाधा ऐशकालाव्यस्तथा ॥ निमझे हारा सबमरूप से हृदय में उत्पन्न होने वाले रस का अनुभव किया जाता है उन्हें अनुभाव कहते हैं, जैसा कि साहित्यदर्पण में कहा गया है---- 'उबुद्ध कारणः स्वः स्वैहिर्भावं प्रकाशयन् । लोके या कार्यरूपः सोऽनुभावः काभ्यनाट्ययोः॥" रजोगुण और तमोगुण से रहित सतोगुण से युफ स्तम्भ और स्वेदादि विकार साविक भाव कहलाते हैं। इसीलिये साहित्यवर्पण में कहा गया है "विकाराः समयसम्भूताः साविज्ञाः परिकीर्तिताः । स्तम्मस्थेदोऽयं रोमान स्वरभङ्गोऽय वेपथुः ॥ वैवर्षमचपळय इत्यष्टौ सारिखकाः स्मृताः ॥'

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