Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ i ¦ चतुर्थः परिष। स्वैरं विहरति स्वैरं शेते स्वैरं च जल्पति । भिक्षुरेकः सुखी लोके राजचोरभयोज्झितः ।। १३४ ॥ कोऽपि दुःखो चिन्ताः सन यति संतोष सारं पृचैवमुवाच । मात्र तेन दुःखिना भिक्षुप्रशंसा तत्प्रारब्धा । कोऽपि नास्ति परं दुःखदग्ध एवं विचारयामास इति अप्रस्तुतप्रशंसा या 1 स्वेच्छा से विचरण करने वाला, स्वेच्छा से सोने वाला और स्वेच्छा से ही बोलने वाला एक खारी (खारी ) राजा और चोर आदि भय से मुक्त है । टिप्पणी- यहाँ अप्रस्तुत सांसारिक प्राणी की असत्प्रशंसा ( निन्दा ) की गयी है क्योंकि वह राजखौरादिभय से पीड़ित रहता है; वह न तो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण कर सकता है, न सो सकता है और न बोल हो सकता है । अतः इसमें 'प्रस्तुतप्रशंसा' नामक अकार माना गया है ।। १३४ ॥ अयैकवली लक्षगमाव अप्रस्तुतप्रशंसोदाहरणमा JL पूर्वपूर्वार्थयैशिष्टयनिष्ठानामुत्तरोत्तरम् I अर्थानां या विरचना बुधैरेकावली मता ।। १३५ ।। पकवयुदाहरणमाद पूर्वपूर्वार्थ शिष्टपनिष्ठानां पाश्चात्त्यार्थविशिष्टतायां तत्पराणामर्थाना या रचना उत्तरोत्तरं सा एकावली मता कथिता ॥ १३५ ॥ पूर्व में आयी हुई वस्तुओं से उत्कृष्ट वस्तुओं की उत्तरांतर वर्णना को षिजन 'एकावली' अकार कहते हैं ॥ १३५ ॥ - देशः समृद्ध नगरी नगराणि च सप्त भूमिनिलयानि | निलया: सलीलललना ललनाश्चात्यन्तकमनीयाः || १३६ ॥ १ देश समृहनगर इत्यादावरणम् ।। १३६ ।। देश वही उत्तम है जिसमें समृद्ध नगर ह, नगर से ही समृद्ध हैं जिनमें अनेक सतत प्रासाद हो, प्रासाद वे ही उत्तम हैं जिनमें नाना प्रकार की लीलाकलाप में प्रवीणा सुन्दरियाँ रहती हों और सुन्दरियाँ भी वहीं रमणीया होती हैं को अत्यन्त लावण्यमयी हो । टिप्पणी- यहाँ पूर्व पूर्व में प्रतिपादित देशादि से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ नगरादि का वर्णन होने से 'एकावली' अखङ्कार है | १३६ || अधानुमानलक्षणमाह प्रत्यक्षालितो यत्र कालत्रितयवर्तिनः । लिनिनो भवति ज्ञानमनुमानं तदुच्यते ।। १३७ ।। |

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123