Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 104
________________ ... 1 चतुर्थः परिच्छेदः। टिप्पणी-इस लोक में एक प्रतिपादित तथ्य से उसरोवर परतु का सार निरूपित किये जाने के कारण 'सार' भलाहार है || RA अथ श्लेषलक्षणमाद-- पदैस्तै रेव भिन्नैर्षा वाक्यं वक्त्येकमेव हि । अनेकमर्थ यग्रासौ श्लेष.. इत्युच्यते. यथा ॥ १२७ ।। यत्रैकमेव कार्य तैरेव पदै मिन्नयों पदैरनेकमर्थ वक्ति असो केपालकार उच्यते ॥१.२७॥ जहाँ उन्हीं पर्व से अथवा भिम पदों से एक ही बाम्प अनेक अर्थों को प्रत करता है वहाँ 'भष' अलद्वार होता है ॥ १२७॥ आनन्दमुलासयतः समन्तात्करैरसन्तापकरैः प्रजानाम् । यस्योदये क्षोभमवाप्य राज्ञो जमाह वेला किल सिन्धुनाथः ॥१२॥ यस्य राक्षो नृपस्योदये क्षोभमवाप्य फिलेति श्रूयते। सिन्धुनाथाः सिन्धुदेशाधिपो बेलामलिच्छेदादिका जमाह । तदाशा गृहीतवानित्यर्थः । कोशस्य | असन्तापकरैः करे: प्रजानां समन्तादानन्दमुलासयतो वर्धयतः । अथ श्रेषः-यस्य रामचन्द्रस्योदय क्षोभमवाप्य सिन्धुनावः समुद्रो वेला मर्यादा जग्राह । शीतकरैः करः किरणलोकानां समन्तात् वर्षनुत्पायतः । यप श्लेषालकारः ॥ १२८ ॥ सुखकारी करों (टैक्लों) के द्वारा प्रमाजमों को सुखों करने वाले उस राजा के अम्युश्य होने पर सिम्धुराज हार मानकर अपनी मर्यादा के भीतर रहने लगा अथवा शीतलता प्रदान करने वाली किरणों के द्वारा समस्त संसार को थानन्दित करने वाले चन्द्रमा के उवित होने पर सागर सुध होकर अपने किनारों तक पहुँच गया। टिप्पणी-यहाँ सिन्धुनाथः इत्यादि पद ही दो अर्थों का बोध कराते हैं, अतः इस श्लोक में तरपदश्शेष मलकार । १२८॥ कुर्वन्कुवलयोझासं रभ्याम्भोजश्रियं हरन् । रेजे राजापि तश्चित्रं निशान्ते कान्तिमत्तया ॥ १५६ ।। चित्र यो राजा चन्द्रो निशान्ते प्रमाते कान्तिमत्तया कान्तिमत्त्वेन रराज । कुवळयोलासं भूवलयोलाम वन् रम्यां शोभना भोजश्रियं भोजराजलक्ष्मी हरन् गृहन् । एषः मित्रपदैः शेषालङ्कारः॥ ५२९ ॥ ___ यह राजा (कु) पृथ्वी के (रसप)मणाल को उलसित करता हुआ रामा भोज की रमणीक कान्ति का अपहरण करके घर के अम्पर भी अपनी प्रभा के कारण शोभित हुमा मह ाक्षर्य है, अथवा चन्द्रमा कुमुदसमूह को मलित करता हुमा कमलों की शोभा को छीन कर सखि के अन्तिम प्रहर में भी अपनी बामा के कारण शोभित हशा यह भावयं है ।

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