Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 103
________________ वाग्भटालङ्कारः। टिप्पणी-सिंहासन पर पैर रखने से शत्र राजाकों के भी अकाने और बाणों के फेंकने के साथ यश के पंछने में प्रकट रूप ले तो विरोध प्रतीत होता है, किन्तु भर्थ पर विचार करने से विशेष का परिहार हो जाता है, क्योंकि इससे राज! का पराक्रम और उसकी कीति का ज्ञान होता है ।। १२२ ॥ अभावसरलक्षणमाइ यत्राथोन्तरमुत्कृष्टं सम्भवत्युपलक्षणम् । प्रस्तुतार्थस्य स प्रोक्तो बुधैरवसरो यथा ।। १२३ ।। यत्र प्रस्तुतार्थस्योत्कृष्टमान्तरमुपलक्षणं चिडं संभवति बुधैः सोऽवसरालंकारः प्रोक्तः ॥ जहाँ किसी अर्थ से उस्कृष्टता कोई दूसरा अर्थ हटान्तरूप से प्रस्तुत किया जाता है वहाँ काम्य-शास्त्र-मनीपी 'अवसर' नाम अलङ्कार मानते हैं ।। १२३ ।। अाक्सरोदाहरणमा स एष निश्चयानन्दः स्वच्छन्दनमविक्रमः । येन नक्तञ्चरः सोऽपि युद्धे अर्बरको जितः ।। १२४ ।। स एष निश्चयानन्दो येन सोमि बरको राक्षसो युद्धे जितः ॥ १२४ ॥ यह वही राना है जिसने अखण्ड आनन्द से युक्त और अस्यन्त पराक्रमशील वर जाति के निशाचर पर भी विजय प्राप्त कर ली है। टिप्पणी-वर्बर जाति के निशाचर का अखण्ड भानन्द और स्वच्छन्द पराम... राजा की विजय में मोर मा उत्कर्ष उत्पन्न कर देता है। अतः यह अवसर अलार का उदाहरण हुभा ॥ १२ ॥ अथ सारलक्षणमाह.. यत्र निर्धारितासारासारं सारं ततस्ततः । निर्धार्यते यथाशक्ति तत्सारमिति कथ्यते ॥ १२५ ।। यत्र निधारितालाराप्ततस्ततः सारं सारं निर्धार्यते । यथाशक्ति यथाशक्त्या स सारालंकारः ॥ १२५ ॥ जिस काध्य में प्रतिपादित तथ्य से अन्य सारयुक्त तथ्य का यथाशक्ति निरूपण किया जाता है उसमें 'सार' नामक भलकार बतलाया जाता है ।। १२५ ॥ सारमुदाइरति__ संसारे मानुष्यं सारं मानुष्यके च कोलीन्यम् । कौलीन्ये धर्मित्यं धर्मित्वे चापि सदयत्वम् ।। १२६ ॥ इस संसार में यदि कुछ भी सार वस्तु है तो वह है मनुष्याब, और मनुष्यत्व का सार है कुलीनता (सुकुलोत्पत्ति), धर्म में भास्था ही कुलीमसा का सार है और धार्मिकता का एकमात्र तत्व है यालुसा।

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