Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 87
________________ वाग्भटाजकार: तथा ।। || प्रतीयमानो निषेधोऽस्ति, परं साक्षात्पाश्चात्यवन्न इश्यमानोऽस्त्पर्थोऽत पषा विधिपूर्वकनिषारिमका प्रतीतिरवगन्तन्या ।। ७ । जिस व्यक्ति का मन नरक के समीप निवास करने में रमा हुआ है, वह म्पति निरन्तर हिंसा, असत्य और पोरी में लीन रहता है। टिप्पणी--यहाँ मरक में निवास और हिंसा, असत्य और चोरी भावि प्रसियेशकपन से 'बाप' पलसर है।॥ ७ ॥ मम निषेधपूर्वकविधौ प्रतीतिरवगन्सब्या इच्छन्ति जे ण कित्तिं कुणन्ति करुणं खणं पि जे नेव्व । ते धणजक्ख व्व गरा दिन्ति धणं मरणसमए वि ॥ ७७ ।। [च्छन्ति थे न कीर्ति कुर्वन्ति करुणा षणमपि ये नैन । से धनया च नरा ददति धनं मरणसमयेऽपि ॥ ] ये कौति नेपछन्सि । बगमवि रवि कुतिः ।। कभरणसमधिनयक्षा शव धनं दतीस्यः । एतावता कीर्तिममिलवद्भिः करुणा च कुर्वद्भिर्थनमवसरे देयमित्यर्थः । भा निवेषपूर्वको विधिरबगन्सभ्यः । देयमिति प्रतीयमानोऽयश्वात्रोचापि प्रतीतिपटवे । एषा भवचूरिः स्वमल्पा करिपसास्ति । इत्तौ तु न किमपि वियते तथा ।। ७७ ॥ जो लोग यश की अभिलाषा नहीं करते और जो लेशमान भी करुणा नहीं करते समा जो यह की भाँति धन की रक्षा में लगे रहते हैं वे लोग मरण काल में तो अवश्य ही धन देखेंगे (अर्थात् कराल काट जन तोगों को धन से अलग काही देगा)। एणी- यहाँ पर अनावश्यक धमसंषयरूप प्रतिषेध की प्रतीति स्पष्ट होने से 'भाशेप भडकार हुभा ॥७॥ संशयासकारमाध--- इदमेतदिदं घेति साम्याबुद्धिर्हि संशयः । हेतुभिर्निश्चयः सोऽपि निश्चयान्तः स्मृतो यथा ।। ७८ ।। साम्पासमानभावात् । एतदिदं त्येचे भुद्धिहि निश्चितं संशयालकार उच्यते। यदा तु संशयं मुकस्वा एमिनिश्चयो जातः सोऽपि निश्चयान्तः संशयावर उभ्यते । संशयनिश्चयालङ्कार इत्यर्थः ॥ ८॥ (किसी वस्तु में) धर्म साम्य के कारण 'अमुक (घा) यह कि यह है इस प्रकार जब संजय की उद्भावना होती है तो वहीं 'संशय' बलकार माना जाता है। वही (संशय)जब पर्याप्त कारणों से मिश्रित हो जाता है तो उसको 'नियम' मलंकार कहते हैं ॥ ७० ॥

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