Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 100
________________ चतुर्थः परिच्छेदः। उदाहरतिमृदुभुजलतिकाभ्यां शोणिमानं दधत्या धरणकमलभासा चारुणा चाननेन । विसकिसलयपनान्यात्तलक्ष्मीणि मन्ये विरहविपदि वैरासन्यते तापमले ॥ अहमेवं मन्ये---सूभुजलसिफाभ्या शोणिमान दधल्या रसस्व विभत्या चरणकमलभाना चारुणा चाननेन यथाक्रम विसकिसलयपद्यानि आत्तलक्ष्मीणि कृतानि । अत पन नगनि वैरादों तापं विरणविपदि तन्वते । विरहिणीबर्णनमैतत् । पप यथासंख्यालङ्कारः ॥११५|| (नायिका की) कोमल भुजलताओं, लालिमायुक्त धरणों की आभा और सुन्दर मुख ने क्रमशः बिसतन्त, कमलपत्र और पार्टी की सुपरसा को छोन लिया है। इसीलिये वैरभाव उत्पन्न हो जाने के कारण विरह-विपत्ति में ये (शिससन्तु, कमलपत्र और पुष्पादि) अवसर पाकर नायिका के शरीर को सपाने लाते हैं। टिप्पणी-यही भुजलता, लालिमामय घाण और मुख से सम्बन्ध रखने वाले विक्षतन्तु, कमलपत्र और कमलपुष्प का एक ही क्रम से वर्णम होने के कारण 'यथासंग्य प्रकार है ॥ ११५॥ सहोक्ति लक्षयति वस्तुनो यत्र सम्बन्धमनौचित्येन केनचित् । असम्भाव्यं पदेद्वक्ता तमाहुर्विषमं यथा ॥ ११६ ॥ यत्र केनपिइनौचित्येनानवसरतया वस्तुनः पदार्थस्य सम्बन्धमसम्भाष्य वक्ता बदेव , कवयस्तं विषमालङ्कारमानुः । यथोटाहरणार्थः ।। १६६ ॥ जिस अलाहार में वक्ता दो घस्तुओं के असम्भव सम्बन्ध का किसी अनुचित उनसे वर्णन करता है उसे 'विषम' कहते हैं । ११६॥ केदं तब वपुर्वत्से कदलीग कोमलम् । कायं राजीमति क्लेशदायी व्रतपरिप्रहः ।। ११७ ।। हे वत्से, राजीमति, कदलोगर्भकोमल सब वपुः कायं च क्लेशदायी नसपरिचहः । अन सुकोमलस्य तय वपुषो दोक्षानुचिता । दीक्षासंबन्धः । तथासंभाव्यं कथं वदसि ग्रहीच्यामि दोझामिति । विषमालंकारोऽयम् ॥ ११५ ॥ राजीमति पुनि! कहीं तो कदली के अन्तरतम की भाँति कोमल तुम्हारा पारीर और कहाँ यह केशदक उपघालादि चर्ती का भाचरण करना! एणी-बहाँ कोमल शरीर के साथ सम्भाव्य कठोर व्रतपालन का अनुचित सम्बर करने से विषमालधार है।। १७॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123