Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 92
________________ चतुर्थः परिच्छेदः । किसी उक्ति को सिम करने के लिए जहाँ युधिपूर्वक किसी अन्य मई को प्रस्तुत किया जाता है यहाँ अर्थान्तरन्यास' नामक अलकार होता है। यह 'अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार दो प्रकार का होता है-श्लिष्ट अर्थान्तरन्यास और अश्लिष्ट अर्थान्तरन्यास ॥११॥ शोणत्यमक्ष्णामसिताजभासां गिरां प्रचारसत्वपरप्रकारः । बभूय पानान्मधुनो बधूनामचिन्तनीयो हि सुरानुभावः ।। १२ ॥ वधूना भानो भवस्य पानाइसित जमासां नीलोत्पलभासा नक्ष्गां नेत्राणां शोगत्वं रकता बभूव । तु पुनगिरी प्रचारोऽपरप्रकारो बभूव । विपरीतो जात प्रत्यर्थः । अत्र मय. पानाक्षेत्राणा रचत्वमुकं तस्योक्तस्य सिद्धार्थ रामार्थं पुनर-नामः: मराठी हि निश्चितमचिन्तनीयः। सुरा देबी मदिरा वा । तथा केनापि पृष्टं मद्यपानाक्षेत्ररक्तत्वं कि जायेत । तथा अचिन्तनीयो दि सुरानुभाव इत्यर्थान्तरन्यासन रक्तत्वसिनिः । एष विष्ठार्थान्तरन्यासालकारः ॥ ५२ ॥ | मधुर रस अथवा मदिरापान के उपरान्त सुन्दरियों के नीलकमल के समान कान्तियुक्त मेन रकवर्ण हो गये और वाणी का उच्चारण भी और ही प्रकार का हो गया। ठीक ही है, क्योंकि मद्यपान का प्रभाव तो दुर्भावनीय होता ही है अथवा देवताओं का प्रभाव अचिन्तनीय होता ही है। टिप्पणी-नेत्रों की बालिमा और वाणी के स्खलन की उक्ति को पुष्ट करने के लिये मध अथवा देवताओं की दुर्भावना को प्रस्तुत किया गया है। साथ ही 'सुरानुभाव पक्ष लिष्ट होने के कारण यह 'शिलष्ट अर्थान्तरन्यास' अलङ्कार का उदाहरण है ॥ ९२॥ अशिष्टमाह शुण्डादण्डैः कम्पिताः कुञ्जराणां पुष्पोत्सर्ग पादपाश्चास चक्रुः । स्तब्धाकाराः किं प्रयच्छन्ति किश्चित्क्रान्ता यावन्ने.द्धतीतशङ्कर।। पादपा १क्षा बराहादा है। कम्पिताः सन्तश्चारु पु.पोस: । स्तब्धाकारा उद्धतैनर पति शर निःशवं यथा भवति यावत्र कान्तास्तावकिचित्प्रयच्छन्ति किम् । भन्न प्राक्तनपदयोक्तस्याप्रेतनषद्वयेनान्यान्यासरूपेग मिद्धिः कधिमा ॥ ९ ॥ हाथियों की सढ से लिये हुए वृक्षों ने सुन्दर पुप्पो को छिटका दिया। लीफ ही है, क्योकि कृपण जन जब तक निभाव से बड़ों के द्वारा दबाये नहीं जाते सब तक भला क्या वे कुछ भी दे सकते हैं? (कुछ भी सो नहीं देते। टिपणी-इस श्लोक के पूर्व में जो उक्ति की गई है उसी की पुष्टि के लिये उसराई में दूसरी उक्ति प्रस्तुत की गई है। इसके साथ ही यहाँ पर कोई भी पर हिष्ट नहीं है। बता यहाँ पर 'अश्लिष्ट मर्यान्तरम्यास' बलकार है ॥ १३ ॥

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