Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 52
________________ तृतीयः परिच्छेदः। हे देव, त्वमरुणितकरतलो रक्तोकृसहस्ततलो विभासि । उत्प्रेशले-समराजिरे संग्रामागणे स्फुरन्तो येरिनरेशानी करिनिकरा इसिसम्हास्तेषां शिरसप्तरससिन्दूरपूरस्तस्य परिचयेनेवारणितकरसलः ॥ १४ || हे राजम् ! समराङ्गणा में फड़कते हुए शत्रुराजाओं के हस्तिममूह के मस्तक पर छगे हुए सुन्दर सिन्दूर के संसर्ग से लाल-लाल हथेलियों वाले माप शोभित हो रहे हैं। रिपणी-- गणेश समायमहुल होने को मोज गुण का जन्दाहरण है ॥१॥ अथ माधुर्यसौकुमार्यगुगावाह सरसार्थपदत्वं यत्तन्माधुर्यमुदाहृतम् | अनिष्ठाक्षरत्वं यत्सौकुमार्यमिदं यथा ।। १५ ॥ ___ यत्सरमार्थपदत्वं नदिई माधुर्य कथितम् । अर्थाश्च पदानि चार्थपदानि रससहितान्यर्थपदानि यत्र तद्भावः । अथवा सरसानि पदानि तद्भावः सरसार्थपदत्वम् ।। १५ ।। सरस अर्थ के प्रत्यायक पदों के प्रयोग से 'माधुर्य' गुण उत्पन्न होता है; और जहाँ अनिष्ठर (कोमल) वर्गों का चालुक्य होता है यहाँ 'सौमार्य' गुण समझना चाहिये ॥ १५ ॥ बदाहरणमाइफणमणिकिरणालीस्यूत चश्चनिचोलः कुचकलशनिधानस्येव रक्षाधिकारी। उरसि विशदहारस्फारतामुजिहान क्रिमिति करसरोजे कुण्डली कुण्डलिन्याः।। किमितीनि वितर्के । शिमयं कुण्डलिन्धाः भावत्याः नारसरो फरकमले कुण्डली सर्पः कुचकलशनिधातस्य रक्षाधिकारोवास्ति। अन्यत्रापि निवानस्थ पणे रक्षा करोति । अत्रापि सनकुम्भा पत्र निधानानि तद्रमाकनास्ति । मामणीना किरणान्या स्यूनो निवश्वबन्दीप्यमानो निचोलः क को यस् मर्पस्य मः । उरति विशारतां प्राप्नुवन् । तत्तुल्यता दधान इत्यर्थः ॥ १६ ॥ (कोई रसिक नायिका के हाथों में हार को देखता है तो उसे सर्प की भ्रान्ति होती है और वह शसा करता है कि) फणमणि की किरणालियों से प्रकाशमान केंचुल को धारण करने वाला, कुम्भ की भौति उसत एवं पीन कुचों में स्थित (सौन्दर्य से) कोप की रक्षा करने वाला और वक्षःस्थल पर पड़े हुए हार की भाँति सक्छुसा और उज्जवलता को प्राप्त करने वाला कुपदलादि आभुपणों से मण्डित यह सर्प इस कामिनी के कर कमलों में कहाँ से आ गया। टिपणा--इस श्लोक में जितने पदों का प्रयोग किया गया है वह सभी सरस अर्थ के बोधक हैं अतः यहाँ 'माधुर्य' गुण हुआ ।। १६ ॥

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