Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 57
________________ बाग्मदाजकार। घने वनं पानीयं तस्य दहन व दानस्तत्संबोधनम् । अत्र मणिगुणनिकर न्यः । चित्रत्यादन्ते गुरूणाममायोडपीह न दोषाय । एक वरचित्रम ॥ ९॥ श्रेष्ठगों के समूह को अनिवास रूम मै सभिलषित फली को प्रदान करने वाले ! श्रीचरणों से युक्त! हे निर्वाण पथ पर चलने वाले मनुष्यों के पथ-प्रदर्शक ! । हे कामनाओं से राति निनहंकारहाहाहन की मौसि सि मानों वाले ! हे शान्तिरूप! है भयरूप गहन वन को वहन करने वाले शषभ देव ! आप की जम हो। ___ टिप्पणी-यहाँ सम्पूर्ण श्लोक में प्रकार के अतिरिक्त आय कोई घर न होने के कारण स्वरचिन्न है ।। ९॥ मात्राच्यूतकमपि स्वरचित्रम् । अतस्तदेवाह मूलस्थितिमघः कुर्वन्यात्रैजुष्टो गताक्षरैः । विटः सेव्यः कुलीनस्य तिष्धतः पथिकस्य सः॥१०॥ स दासीसतो विटः पथि न्यायमार्गे तिष्ठतः कस्य कुलीनस्य रोल्यः स्यात् । न फस्या. पीत्यर्थः । कीदृशः । मूलस्थिति मूलकुलाचारमधः कुर्वन् । तश गताक्षरै मूर्ख पार्जुष्टः। अध विशदस्य इरहितस्यार्थभेदः। स इति प्रसिद्धी विटोनटः पथिकास्य पान्थस्य तिष्ठनो निवर्तमानगतेः कुलीनस्य सदधोभूमायुपनिष्ठश्येत्यर्थः । सेल्यः स्यात् । पान्धस्य गच्छतोऽनुपविष्टस्य कथं वरः सैन्यः स्यात् । ततस्तिष्ठतः कुलीनस्येति विशेषगलयस्य साफल्य आतन् । कोद्वशो वटः । मूलानां जरानामधः स्थिति कुर्थन् । नथा--गृताक्षरः पात्रलष्ट एवं गतमासमन्ताक्षर रणं येभ्यस्तै ताक्षरैः पात्रः पार्नुष्टः ।विटपदादिकारमात्राच्युतक वट प्रति ॥ १० ॥ कृल की मर्यादा का उल्लम कर देनेवाला, निरक्षर (विंचूपक आदि) पात्रों से घिरा हुआ लम्पद व्यक्ति सन्मार्ग पर चलनेवाले किस कुलीन (सत्पुरुष) के द्वारा सेवनीय है किसी के द्वारा भी तो नहीं । “विट' शब्द से इकार निकाल देने पर 'वट' शद रह जाने के कारण ही इसमें 'चित्र' है। 'वट' शब्द से इस श्लोक का यह अर्थ होगा क्षपनी जरों को पृथ्वी के नीचेतक फलाय रखवाला, नवीन पत्ती से कहाहुआ वह वट वृक्ष पृथ्वी पर मंठे हुए पथिक के द्वारा सेघनाय है ॥ १० ॥ तथा निन्थ्यु तकमपि स्वरचित्रम् । तदार--- धर्माधर्मविदः साधुपक्षपातसमुद्यताः । गुरूणां वद्धने निष्ठा नरके यान्ति दुःखिताम् ॥ ११ ।। ___ प्रपंविधा नरा नरके दुःखिता यान्ति दुःखमा प्राप्नुवन्ति । धर्ममेवाधर्म या विदन्तीति भोधमविदः । साधुपक्षः सतां पक्षस्तस्य पाते पतने नाशने सगुबताः । गुरूणां पूज्यानो पश्चने निधा आताः । अथ बरन शमाद्विन्दुन्मुवावर्थान्यत्वम्। तया हे नरोत्तम, गुरुगा

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