Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 62
________________ पार्षः परितोषः। काचिद्विरहिणी चन्द्रमसं प्रत्याइ-कलकार, करप्रसारख्या मलं पूर्यताम् । ३ चन्द्र, चण्डी निर्मात्यमासि स्पर्श नाईसि निर्मात्यस्पशों न युज्यते सताम् । अत्रालं फालयमारकरप्रसरचन्द्रचण्डीशेल्पायत्तत्पदैछे कानुमास इति ।। १८ ॥ कोई विरहिणी नायिका चन्द्रमा से कहती है-'२ लाच्छनविभूषित चन्द्र ! तू अपनी किरणों के प्रसार को क्रीका का बन्द कर दे क्योंकि तू चण्डीश (शिव) के मस्तक से उत्तरा हुभा होने के कारण अस्पृश्य है-कहीं फिर मुझसे न छू जाये ( शिव का निर्मात्य असाझ समझा जाता है)। टेप्प–प्रथम चरण में 'ल' और 'र' की सथा द्वितीय चरण में 'च' और 'स' की पुनरावृत्ति होने के कारण छेकानुप्राप्त है ॥ १८ ॥ रणे रणविदो हत्वा दातवान्दानद्विषा । नीतिनिष्ठेन भूपाल भूरियं भूस्त्वया कृता ॥ १६ ।। हे भूपाल, दानवद्विषा वासुदेवेन रणे संग्राम रणविदः संग्रामनिपुणान्दानपाहस्था इयं भूर्भूः कृता । श्वया नीतिनिधन न्यायनिपुणैन सता ५ भूकता, १६ पुरं पुरमथ जासम् , तथेयं भूर्भूः कृता । अत्र रणे रणविदः, दानवान्दानवदिषा, भूरिय भूरियादितत्पदग्वेनैवानुमासकरणालाटानुप्रासः ॥ १९ ॥ राजन् ! नीति पर चलने वाले दानों के करी आपने संग्राम में रणकुशल देरयों को मार कर इस पृथ्वी को रगर्भा बना दिया है। शिणी-- इस रलोक में 'रण', 'वानव' और 'भू' पदों की पुनरावृत्ति हुई है। मतः यह 'लारानुप्रास' का उदाहरण है ।। ५५ ॥ त्वं प्रिया चेञ्चकोराक्षि स्वर्गलोकसुखेन किम् । त्वं प्रिया यदि न स्यान्मे स्वर्गलोकसुखेन किम् ॥ २० ॥ हे चकोराक्ष, यदि त्वं मम प्रिया जाना तदा स्वर्गलोकातुखेन नाकलोकनुसन मम किम् । यदि च त्वं प्रिया न स्याः मम तथापि वा विना स्वर्गलोकाखेन किं मम | अत्र द्वितीयचतुर्थपादेन लाटानुमामो भवति ॥ २० ॥ हे चकोराक्षि ! यदि तू मेरी प्यारी है मो मेरे लिये स्वर्ग में पाए जाने वाले सुखो से क्या! येसमा सुख तर सामने तुच्छ है और यदि तू मेरी प्यारी नहीं है तो मो मेरे लिये स्वर्ग के समस्त सुखों से क्या प्रयोजन ! घे भी तो व्यर्थ ही हैं क्योंकि तेरे बिना स्वर्ग-सुखों में भी आनन्ध कहाँ । ___ टिप्पणा- यहाँ 'स्वर्गलोकसुखेन किम्' इस पाद की पुनरावृत्ति हुई है। अतः इसमें 'काटानुप्रास' अखवार है २० ॥

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