Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 70
________________ ४५ चतुर्थः परिच्छेदः। हे सोसाह हे सोपम हे श्रीनेमे, या दिषां सन्ततिः शवणां श्रेणियुंखे साइर्स चकार । धृतोलासा च सत्ती इसं हास्यं चकार । अपरान्प्राप्यत्यध्याार्यम् । सादियां संततिः स्वां सम्प्रासी सती दैन्यं पकारेत्यर्थः । अथवा दैन्यं सम्प्राता सती त्वामाइ । स्वदमतो दीनवाक्यान्यमाविष्टेश्यर्थः ॥ ३५ ॥ हे उत्साही राजन् ! शत्रुओं की जो सेमा उत्साह का प्रदर्शन किया करती यी और (विजयोझास से) हँसा करती थी, वह (शत्रु-सेना) जब तुम्हारे सामने पड़ी तो अत्यन्त दीन हो गयी। टिप्पणी-इस श्लोक के प्रत्येक चरण के मध्य में रहने वाले पृथक पृथक 'साइसं' पद की बार बार आवृत्ति होने से 'अयुतावृत्तिमूलक मध्यमपक्ष्यमक' ससकार है ॥ ३५ ॥ अन्तयमकमाइ-- गिरां श्रूयते कोकिला कोधिदारं यतस्तद्वनं विस्फुरत्कोविदारम् । मुनीनां वसत्यत्र लोको विदारं न च व्याधचक्र कृतौको विदारम ।। ३६।। __ गिरा विषये वचनकोमलताविषये अरमत्यर्थ कोविदा पण्डिता । यती यस्मात्कारणानोकिला झूयते तत्तस्मावतद्नं वर्तते । कीदृशम् । विस्फुरत्कोविदारं विस्फुरन्तो सलझलायमानाः कोविहारः काबनारवृक्षा थेन सद। अत्र बने मुनीनो लोको मुभिजनो विदार विगतकलनं यथा मवत्ति तथा वमसि । दाररहितो मुनिजनस्तपसे वसतीत्यर्थः। मत्र बने व्याध वक्रमाखेटकृत्समूहः तौको विहितगेई न वर्तते । फोपशम् । विदारं वीपक्षिणो णाति दारयत्ति वा विदारम् । यता कोकिला भूयते सत एतदनं किमपि वर्तते इप्ति कोऽपि कस्यापि कथयामासेत्युक्तिलेशः ॥ ३६॥ ___कचनार के वृषों से भरे हुए इस यन में हिंसा का साम्राज्य है। इस वन मैं मधुरभाषी कोकिलायें कलकृषन करती हैं। स्त्री और परिवार से विहीन मुनिजन इसमें निवास करते हैं और पक्षियों की हिंसा करने वाले व्याधादि दुष्टों से यह वन विल्कुल विहीन है। __टिप्पणी-चरण के अन्त में आने वाले 'विदार' पद को बार बार श्रावृत्ति होने से यहाँ पर 'अयुतावृत्तिमूलक अन्तपक्ष्यमक' भलवार है ॥ ३६ ॥ अतः पादयेऽपि आदिमध्यमध्यान्तयमकान्युदाहियन्ते सिन्धुरोचितलताप्रसल्लकीसिन्धुरोचितमुपेत्य किन्नरैः । कन्दराजितमदस्तदं गिरेः कन्दराजितगृहनि गीयते ।। ३७॥ किनगिरेरदा शिखरमुपेत्य गीयते । कीदृशं शिखरम् । सिन्धुरोचितलवानसहकातिन्धुरोचित सिन्धुराणां बजानामुचिता योग्या लसामाः सत्यश्च ताभिर्युताः सिम्पयो नय

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