Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 81
________________ वाग्भटालङ्कारः । ६६ अथ ग्रीनविशेषणेरुपमेयोपमामुपमानोपमामाद- सफेनपिण्डः प्रौढोर्मिरब्धिः शार्ङ्गव शङ्खभृत् । श्रोत: करी वर्षत्वानि वारिद: ।। ६२ ।। अब्धिः समुद्रः शाही विष्णुरिव वर्तते। शमृदुमयोविशेषणमेतगति । परं सफेनपिण्डः प्रौढोमिरिति विशेषणद्वयं समुद्रे लगति न तु विष्णो। अत उपमेयविशेषणानि सर्वा म्युपमाने न लगन्ति ततः सदोषमेतत् इत्थं न कार्यम् । श्रोतन्मदः करी गजो वर्षन्वारिद श्व वर्तत इत्यत्र विधुत्वानिति विशेषणमुपमेये करिगिन लगति, किं तु वारिदे उपमानरूपे लगतीत्यतः सदोषम् एवमपि न कार्यम् ।। ६१ ।। फेनिल जल से युक्त और ऊँची-ऊँची बड़ी लहरों वाला सागर भ धारण करने वाले भगवान् विष्णु की भाँति है ( क्योंकि समुद्र में श होते ही हैं और भगवान् विष्णु भी शादि आयुधों को धारण करनेवाले हैं ); मदस्रात्र करने वाला हामी बिजली से युक्त मेघ के समान है ( क्योंकि हाथी भी श्यामवर्ण है और मेधाजलि भी श्याम हाथी मद की वर्षा करता है और मेघों से अलसृष्टि होती है ) । टिप्पणी-रोक के पूर्वार्द्ध में समुद्र उपमेय है और विष्णु भगवान् उपमान किन्तु उपमान की अपेक्षा उपमेय के लिये अधिक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। उत्तरार्द्ध में हाथी उपमेय है और मेघ उपमानः किन्तु यहाँ उपमेय की अपेक्षा उपमान के किये अधिक विशेषणों का प्रयोग हुआ है ।। ६१ ।। कापि निमे मेनिरे कवय इत्याह मुखं चन्दमिवालोक्य देवाह्लादकरं तव । कुमुदन्ति मुदाक्षीणि क्षीणमिध्यात्वसम्पदाम् || ६२ ॥ दे देव जिन, श्रीणमिध्यात्वसम्पदामीण मुदा तव मुखे चन्द्रमिवारूदकर मालीक्य कुमुदन्तीत्येवं निन्दापि ॥ ६२ ॥ हे राजन् ! चन्द्रमा के समान सुन्दर और आनन्ददायक आपके मुख को देखकर उन (खियों) के नेत्र आनन्द से कुमुदिनी की माँति प्रफुलित हो उठते हैं जिन (त्रियों) का मिथ्या सौन्दर्य ( आपके वियोग में ) क्षीण हो चला था । टिप्पणी- यहाँ पर उपमेयरूप नेत्र और उपमानरूप कुमुदिनी में किभेद है ॥ अथ समासमध्यस्थोपमेयोपमालङ्गभेदमा निजजीवितेशकरजा प्रकृतक्षतपङ्कयः शुशुभिरे सुरते । कुपितस्मरहितवाणगणत्रणजर्जरा इव सरोजदृशः ॥ ६३ ॥ सरोजशः वियः सुरवे निजजीवितेशकरजामकृतक्षतपयः कुपितस्मरहितवाणग

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