Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 78
________________ ६३ चतुर्मः परिवः। चन्द्रपझे-भृगमरितमानसस्यापि । मानसमत्र मध्यं शेयम् । शशिन श्वेति गुम्योपमा । कुमुद संकुचितमिति क्रियोफ्मा ॥ ५ ॥ हे सौभाग्यशालिन् ! गर्व से भरे हुए और दोषों से युक्त होने पर भी तेरे विरह में वियोगिनी नायिका का मुख उसी भाँति संकुचित हो जाता है जिस प्रकार शक्षक-निशानाथ चन्द्रमा के विरह में कुमुदिनी मुरमा जाती है। टिप्पा-यहाँ नायिका का मुख उपमेय, कुमुदिनी दपमान, इन उपमावाचक शम्य और संकुचित होना समानधर्म है। अतः यहाँ पूर्णोपमा हुई ॥ ५३ ।। भन्योन्योप मालकारमाह-- तंणमह वीथराअंजिणिन्दमुदलिअदिवअरकसाअम् । जस्स मणं व सरीरं मणं सरीरं य सुपसन्नम् || ५४ ॥ [तं नमत वीतराग जिनेन्द्र मुदलितवृढतरकषायम् । यस्य मन व शरीरं मनः शरीरमिव सुप्रसन्नम् 1 ] तं वीतराग जिनेन्द्र नमत । खाियम् : . म. इ... श्राप शरीरमिव मनः सुप्रसन्नम् ॥ ५४ ॥ वीतराग एवं षाम्बियों के निग्रह के द्वारा मनोगत दोषों को दूर करने वाले सन भगवान् जिनदेष को प्रणाम करो, जिनका मन शरीर की भीति और शरीर मन की माति प्रफुहित रहता है। ___ टिप्पणी- यहाँ मन और शरीर में भम्योम्प उपमेयोपमान सम्बन्ध होने के कारण 'अन्योन्योपमा' मलंकार है ।। ५४ ॥ क्रियाभेदानामन्योपमालङ्कारो यथा ये देव भवतः पादौ भवत्पादाविधाश्रिताः। तेलभन्तेऽद्भुतां भव्याः श्रियं त एवं शाश्वतीम् ।। ५५ ।। है देव, ये भन्या मवत्पादविव भवत्पादाविदाश्रिताः। यथा भवत्पादावालीयेले सथा मवत्पाश्चिताः। यथा हे राजन् , यया स्वं सेव्यसे नया सा मेविष्येऽदन् । तथात्रापि ये मवत्पादाविव भवतः पादावाश्रितास्ते भव्यास्त एवाङ्गमां श्रियं लभन्ते ॥ ५५॥ हे देव ! जो मापके चरणों के समान ही आपके चरणों के माश्रित है वे अपने ही समान अद्भुत ऐषर्थ घाली मिश्चल लेंचमी को प्राप्त करते हैं। टिप्पणी-साहित्यदर्पण में अनन्वय का यह लक्षण बतलाया गया है'उपमानोपमेयत्वमेकस्यैव स्वनन्वय' अर्थात् जहाँ पर एक ही शब्द क्रम से उपमेय और उपमान का काम करता है वहाँ 'अनम्वर' अलंकार समझना चाहिये। इस श्लोक में चरणों की उपमा से चरणों और माश्रितों की उपमा आश्रितों से दीगयी है भता यहाँ पर 'श्रनम्बय' अलंकार है॥ ५५

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