Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 72
________________ चतुर्थः परिच्छेदः । टिप्पणी- पूर्वार्द्धगत 'नवारणा' और उसार्द्धगत 'विदारकम्' अन्सगत पदों की आवृत्ति से यह 'अयुतावृतिमूष्टक प्रत्यर्थमाग भिनपा सतपद यसक' है ॥ ३९ ॥ श्रावन्तयमकं यथा वरणाः प्रसूननिकरावरणा मलिनां बहन्ति पटलीमलिनाम् । तरवः सदात्र शिखिजातरवः सरसञ्च भाति निकटे सरसः ॥ ४० ॥ अत्र गिरौ सदा वरणास्तरवो वरणा वृक्षविशेषा मलीन अमराणां मलिनो नीला पटली श्रेणि वहन्ति । कीदृशाः । प्रसूननिकरावरणाः प्रसूननिकरा एव पुग्दसमूहा एवावरणमाच्या येषां ते तथा । अत्राही शिखिजातरवो मयूरजातध्वनिश्व सरसो निकटे तटाकस्यान्तिके सरसो मधुरो माति १४० ॥ पुष्पराशिमण्डित धरणों के धूप अमरों की मलिन पंक्ति को धारण किये हुये हैं और सरोवर के निकट मयूरों का कलाप सदैव मधुर ध्वनि उत्पन्न करता रहता है । ५७ टिप्पणी-'वरणाः', 'मलिनी', 'तरवः' और 'सरसः' पद इस श्लोक के क्रमशः प्रत्येक पद के आदि और अन्त में प्रयुक्त हुए हैं। अतः यहाँ पर 'अयुसावृत्तिमूलक प्रतिपादगत आद्यतपद यमक अलंकार है ॥ ४० ॥ द्वितीयपादचतुर्थपादान्तयमकमा - यथा यथा द्विजिह्रस्य विभवः स्यान्महत्तमः । तथा तथास्य जायेत स्पर्धयेव महत्तमः ।। ४१ ।। द्विजिह्नस्य दुर्जनस्य यथा यथा विभवः स्याद्धनं भवेत् । कीदृशो विभवः । प्रकृष्टो गाम् महसमः । बहुतर इत्यर्थः । तथा नधास्य दुर्जनस्य मद्दत धनं तमः पापं रूपयेव जायेत ॥४१॥ जैसे जैसे दुर्जन का ऐश्वर्य वृद्धि को प्राप्त होता जाता है वैसे वैसे ही स्पर्धा के कारण उसमें अत्यन्त मोह का भी प्रादुर्भाव होता जाता है। टिप्पणी- इस श्लोक के दोनों चरणों के अन्त में 'महत्तमः ' पद की आवृति | अतः यह 'अयुतावृत्तिमूलक पद्यार्द्धास्य भागगत पदयमक' का उदाहरण है || संयुता संयुतः कृतौ यमकमाह--- दास्यति दास्यतिको पादास्यति सति कर्कराशापम् । भवति भवति न भव तिमितस्तेन बटुक त्यम् ॥ ४२ ॥ बटुक, भवति त्वयि आसमन्तात्कर्कर। नस्यति क्षिपति सति दासी अतिकोपाच्छाप दास्यति । हि यस्मात्कारणादनर्थो भवति । ततस्त्वं तिमितो भव स्थिरो भव चापलं मा कृथाः ॥ ४२ ॥

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