Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 66
________________ चतुर्भः परिच्छेदः । टिप्पणी-इसमें पूथक्-पृथक अर्थों को प्रकट करने वाले यादि पाद की भात्ति द्वितीय पाद में और तृतीय पाद की भावृति अन्तिम पाद में की गई है। अतः इसमें 'संयुतावृतिमूलक प्रायन्सपद यमक है ॥ २६ ॥ अपायुतावृत्तावादिमध्यगोचर यमकमाइ--- 21166 सारं गवयसान्निध्यराजि काननममतः। सारङ्गषयसां निष्यदारुणं शिखरे गिरेः ।। २७ ।। ई प्रिय, अग्रतो गिरेः शिखरे सारगनयसा मृगपश्चिगा काननं पश्य । कोशम् । निध्यदारुणं निषिभिरदारुणममीकम् । तथा सारं प्रधानम् । तथा गवयसानिध्येनारण्यशपदनिकटत्वेन राजि शोभमानम् ॥ २७॥ अहा ! पर्वतशिखर के आगे एक रमणीय वन शोभित हो रहा है जिसमें गायों के सहा दीर्घकाय पशुओं (नीलगायों) के समूह इधर-उधर पहियों में 'घूम रहे हैं और जो सारंग (मोर) पक्षियों से भरा हुआ है। टिप्पणी-इसमें श्रादि पाद की आपति मिन्नार्थक तुत्सीय पाद में हुई है जिससे उनके बीच में द्वितीय पाद मा बाने से व्यवच्छेद दमा हो गया है। अतः यहाँ पर भयुत्तात्तिमूलक आदिमध्यपाद यमक' प्रकार का अमरनगरस्मेराक्षीणां प्रपञ्चायति स्फुर सुरतरचये कुर्वाणानां बलक्षमरहसमेत इह सह सुरैरायान्तीनां नरेश नगेऽन्वह .... सुरतरुचये कुर्वाणानां वलक्षमरं हसम् ॥ २८ ॥ ... हे बलझम, नरेश, इए नगेऽन्वहं नित्यं सुरतश्चये सुरदुमगणे याणानां पृक्षाणां कुर्भूमिरमरनगरस्मैराक्षीणां देवानानां रदसं वेगं अपवयति । रम्या वाणाः, अतो देव्यो बेगेन क्रीडायै आयान्तीत्यर्थः । कोशानाम् । स्फुरत्सुरसरुचये सुरतसूखनिमिर्च सुरैः सहायान्तीनाम् । तथाऽरमत्यर्थ वलशं पवल इस हास्यं कुर्वाणानाम् । अत्र एवते कुर्भूमिः शोभते ॥२८॥ है पराक्रमी राजन् । कल्पतरु से भरे-पूरे इस पर्वत की उस मनोरम भूमि को देखिये जो वाण-वृक्षों से भरी पड़ी है। यह एकान्त किन्तु चित्ताकर्षक स्थान नित्यप्रति देवताओं के साथ स्वर्गलोक से भाने वाली सुराजनाओं की संभोगाभिकाषा को उकसा देता है। टिप्पणी-दूसरे पाद की आधुत्ति चतुर्थ पाव में है, और इन दोनों के बीच में सृतीय पाद आ जाने से यहाँ पर 'अयुतावृतिमूलक द्वितीय चतुर्थपाव यमक' अलंकार है॥२५॥

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