Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 63
________________ ४८ वाग्मटासलारः। अन्न कठोरता लाटानुप्रासेऽपि शेषाय । तदाह-- एकत्रपात्रे स्वकलत्रषर्क नेत्रामृतं बिम्बिसमीक्षमाणः । पश्चात्पपौसीधुरसंपुरस्तान्ममाद कश्चिधदुभूमिपालः।।२१।। कश्चिद्यभूमिपाल एकत्रपाने एकस्मिन्मदिराकहोलके स्वकलप्रवकं विन्दितमीझमागः पुरस्तात्प्रथमं ममाद 1 पश्चास्सीधुरसं भदिरारसं पणे। अन्यो मयं पारवा पश्चान्मायति । असौ (पाग) ममाद। मत्र बहुतरवर्णावृतौ सौकुभार्यवाधा। एकमा येषामपि गुणानां भाषा मनुप्रासर सिकेम कविना क्षय ॥ २१ ॥ (मदिरापान के समय) किप्ती यदुवंशी रामा मे मथुपात्र में एक ही साथ अमृत के समान नेत्रों को आनन्द देनेवाली अपनी प्रिया के मुख को प्रतिविम्बित देखा। परिणाम यह हुआ कि उस राजा मे मद्यपान बाद में किया किन्तु मत पहले ही हो गया ( मदिरा से अधिक मारकसा तो प्रिया के मुख में है जिसके दर्शन-मात्र से प्रेमी उन्मत्त हो उठा)। टिप्पणी- पूर्वार्ध मे 'त्र' और उत्तराई में 'प' वर्गों की भावुति से इस श्लोक में 'छेकानुप्रास अलवार है।। २१॥ अथ यमकमाइ स्यात्पादपवर्णानामावृत्तिः संयुतायुता । यमकं भिन्नवाच्यानामादिमध्यान्तगोचरम् ।। २२ ।। पादो वृत्तचतुर्थो मागः। पई विभक्त्यन्तम् | वोऽक्षरम् । अमीषा मिन्नवाथ्यानां भिक्षार्थानःमावृत्तिः पुनः पुनर्वर्णनं यमकं स्यात् । सामात्तिद्विधा संयुता अयुता । संयुसा अन्तराले परपदरहिता। अयुवा अन्तरालपदसहिता । तझा संयुतावृत्तौ। तथमच विधा-मादिमध्यान्तगोचरम् आदिनचरमादियमान, मध्यगोचरं मध्ययमकम् , मन्तगोचरमन्तयमकन । अयुनावृत्तौ वन्वथापि बाख्या । आदिमध्यगोचरम् मध्यान्तगोचरम् । काकासिगोलकन्यायेन मध्यशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते । तथा मध्यस्यान्तोऽभापंसान्त एथोच्यते । तेनाद्यन्तगोचरं यमकं स्यादति सिद्धम् । आत्तियथाशक्ति क्रियते । तेन इलोका गामिन्य प्यावृत्तिः सम्भवति । निषेवामावेनैकाकार चतुष्पदं महायमकमुच्यते इत्यपि सिसम् ॥ २२ ॥ भिन्न अर्थवाले पाद, पद और वर्ण की संयुक्त अथवा असंयुक्त रूप से भावसि को यमक कहते हैं। यह (यमक) श्लोक के आदि में हो सकता है, मध्य में हो सकता है और अन्त में भी हो सकता है। टिप्पणी- इस प्रकार 'पम' के मठारह भेद माने गये हैं। उनकी गणना इस प्रकार से है

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