Book Title: Vagbhattalankar
Author(s): Vagbhatt Mahakavi, Satyavratsinh
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 60
________________ Mic चतुर्थः परिच्छेदः । मङ्गपदोदाहरणमाह- नाथ मयूरो नृत्यति तुरगाननवक्षसः कुतो नृत्यम् । ननु कथयामि कलापिनमिह सुखलापी प्रिये कोऽस्ति ।। १५ ।। प्रस्तु भयूरः केकी । बकोक्तौ तु तुरब्रवदनो मधुः किश्वररतस्थोरो वक्षस्तनृत्यति मर्वोक्तम् । तुरगाननस्य वसो नृत्यं कुतः । नाथ, अहं कलापिनं कथयामि ति पत्न्योक्तः । पीता हे प्रिये, कोऽपि भङ्गप प्रस्तुत शब्दस्य खण्डना यथा । मयूरस्य कलापिनो बा १५ ॥ 能 नृत्य करते हुए मयूर को देकर आश्चर्य चकित नायिका अपने प्रियतम को पुकार कर कहती हैं- 'हे स्वामिन्! मयूर नाच रहा है। प्रियसम ने 'मयूर' शब्द को भक्त करके 'मयु' नामक राक्षस का उर (हृदय) समझने का स्वांग किया और पूछने लगा कि 'अरे ! मयुरासस के हृदय का नाम कंसा ?' नायिका अपने मन्तब्य को अधिक स्पष्ट करने के लिये मयूर का दूसरा नाम ( कलापी ) लेकर कहा - ' freतम ! मेरा तात्पर्य है कि पिछों को धारण करनेवाला कलापी (मोर) नाच रहा है।' प्रियतम ने नायिका को खिझाने के लिये 'कलापिनः का अर्थ किया सुख से आलाप करने वाले ( 'क' का अर्थ हैं सुख और 'लापिनः ' का आलाप करने वाले ) और फिर एक तीक्ष्ण व्यंग्य से कहा--'"प्रिये ! कहो, यहाँ पर सुख से आलाप करने वाला है हाँ कौन ?" टिप्पणी... यहाँ पर उत्तरदाता (नायक) ने 'मयूर' और 'कलापिनः' शब्दों को भन करके भिन्न अर्थ से उत्तर दिया है। अन एवं यह सभङ्गश्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण हुआ ॥ १५ ॥ भर्तुः पार्वति नाम कीर्तय न चेत्वां ताडयिष्याम्यहं क्रीडान्जेन शिवेति सत्यमनचे किं ते शृगालः पतिः | नो स्थाणुः किमु कीलको न हि पशुस्वामी नु गोप्ता गवां दोलाखेलनकर्मणीति विजयागर्योोगिरः पान्तु वः ॥ १६ ॥ खेलनकर्मणि क्रीडाकर्मभि इत्येवंभूता विजयानी योग व सुमान्पान्तु विजया गौरी. पृच्छति दे पार्वति मर्तुर्नाम कीर्तय कथय नो चेदनेन क्रीडाकमलेन त्वां तावयिष्या म्यहम् । पार्वश्योक्तम्-स्फुट प्रकटमिदमेतन्मे पतिः शिवः। विजयोचे- -तब पतिः शृगालः • नो नो सखि, मे पत्तिः स्थाणुः । किं कीलकस्तव भर्ता । नहि नहि भगिनि मम पति: पशुस्वामी । तव पतिः कि गर्वा गोसा पशुपतिः पशुपाली गोपालकः । हत्याया विजयागौर्योदालन कर्मणि वाचः पान्तु । प्रस्तुतादर्थाच्वादपरं शृगालादिकमर्थमाशय षेण. विजया गौरी मति वदति । इत्येषा शेषपद वक्रोक्तिः ।। १६ ।।

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